Friday, December 15, 2017

शादी पर उपभोक्तावादी संस्कृति का बढ़ता प्रभाव

किसी के लिए भी मेहनत से कमाई हुई अपनी गाढ़ी कमाई को खर्च करने में भारी दिक्कत होती है, पर जब उपभोक्तावाद संस्कृति उस मनुष्य पर हावी हो जाती है, तब वह खर्च करने ने पिछड़ता नहीं, बल्कि उस होड़ में शामिल हो जाता है, जिसको कहते है-आधुनिकता l अपने आप को आधुनिक दिखाने के लिए वह शिक्षा, संस्कार और संस्कृति के नए मायने बनाने लगता है, जिससे वह अधिक संस्कारित और सफल दिखाई दे l इक्कीसवीं सदी का अगर कोई सबसे नकरात्मक और नायाब तोहफा अगर है तो वह है-उपभोक्तावादी संस्कृति, जिसके विस्तार के लिए पश्चिम के देश ने एक ऐसा जाल बिछाया है कि विकासशील देश के लोग उसमे फंसते चलें गए l नतीजा है, आपसी प्रतिस्पर्धा, जिसको पूरा करने के लिए आचार-विचार सभी को ताक पर रख कर बस अंधाधुंध और बेहिसाब खर्च कर के एक महंगा आयोजन करे, जिसकी चर्चा सर्वत्र हो l एक सुनियोजित ढंग से आधुनिकता के नाम पर लोगों को उत्सव और आयोजनों के मौकों पर आधुनिकता के नाम पर बेहिसाब खर्च करने के लिए उकसाना, कुछ लोगों की एक सोची-समझी चाल है, जिसमे माध्यम श्रेणी के लोग फंसते चलें जातें है l सामर्थ नहीं होते हुए भी खर्च करने की इच्छा करना और बाहरी सुन्दरता और दिखावा मानो जीवन का एक ध्येय बन गया है l फ़िज़ूलखर्ची, आडम्बर और दिखावा, तीन ऐसी चीजे है, जिनसे अगर कोई समाज सबसे ज्यादा प्रभावित है तो वह है हिंदी भाषी समाज l इस समाज ने शादी-विवाह, तीज-त्यौहार, धर्म और उन सभी मौकों पर जरुरत से ज्यादा दिखावा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है l सम्पदा का इस तरह से दुरूपयोग माध्यम वर्ग के लिए, इतना भारी पड़ रहा है कि वह ना चाहते हुए भी इस आधुनिकता की दौड़ में शामिल हो गया है l आजकल शादियों में हो रही फिजूलखर्ची और बेवजह के दिखावे से, आम आदमी को शादी जैसे पवित्र रस्म को निभाने में भारी दिक्कतें आ रही है l दरअसल में बाजारवाद ने यह गड़बड़झाला किया है l नहीं तो शादी जैसी रस्म को प्यार और उत्साह से निष्पादित कौन नहीं करना चाहेगा l ऐसा प्रतीत हो रहा है, शादी जैसी पवित्र रस्म अब एक इवेंट मैनेजमेंट का हिस्सा हो गयी है, जिसमे वे सभी रस्म तो है, पर इवेंट की तर्ज पर l आयोजकों के मर्जी पर अब कुछ नहीं चलेगा l उत्सव, प्यार, दुलार सभी रहेंगे, पर प्रत्येक क्षण इवेंट के नाम पर होंगे, जिसमे सामने घट रहे वाकये महत्वपूर्ण नहीं रहेंगे, बल्कि दिखाए हुए मीठे सपनों और गुलाबी दृश्यों की चाशनी में डूबी हुई बाजारवाद की तीखी और अवांछित महत्वाकांक्षाएं जो ना तो सुरुचिसम्पन्न है और ना ही बड़े रूप में स्वीकार्य है, उस पर टिकी हुई रहेगी l इतने सारे नए उत्पादों को शादी में डाला जा रहा है कि शादी एक महँगी रस्म अदायगी बन गयी है l परंपरागत तौर तरीकों को सुनियोजित ढंग से संपत किया जा रहा है l मसलन वरमाला की रस्म को रोमांचित बनाने के लिए आधुनिकता का तड़का डाला जा रहा है, जिसमे अलग से खर्चा आ रहा है l इस तरह से हर रस्म को आधुनिक बनाया जा रहा है l इवेंट मनेजमेंट ने लोगों के खर्च को सातवें आसमान पर पंहुचा दिया है l आयोजन करने वाले का यह कथन है कि हर तरह की शादियाँ आयोजित होती है l  
चीनी जितनी डाली जाएगी, चाय उतनी ही मीठी होगी l यानी, जो जितना खर्च करेगा, शादियाँ उसी प्रकार से आयोजित की जायेगी l इस तरह के तर्कों से एक महँगी और आडम्बर युक्त शादी को आधुनिक और मजेदार आयोजन का रंग दे दिया जाता है l असम और पूर्वोत्तर में कलान्त्तर में कई ऐसे मौके आये, जब शादी-विवाह को कैसे संपन्न किया जाए, इस पर विचार गोष्ठियां और विवेचनाएँ भी हुई है, पर ज्यो ज्यों दावा दी, मर्ज बढ़ता गया वाली तर्ज पर हर बार ऐसी बैठकों का कोई नतीजा नहीं निकला l कई दफा यह भी निर्णय हुवा कि एक शादी पर कितने आइटम खाने में रखे जाय l इसको भी पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका l अब तो आलम है कि आइटमों पर कोई रोक ही नहीं है, बल्कि उसमे कई गुना बढ़ोतरी भी हो गयी है l इतना ही नहीं महंगे रिसोर्ट और होटलों में भी महँगी शादियाँ आयोजित होने लगी है, जिससे प्रतिस्पर्धा बढ़ी ही है, कम नहीं हो रही है l संयुक्त परिवारों के टूटने और वर्जनाएं समाप्त होने से अब आयोजनों को कैसे आयोजित किया जाए, इसका निर्णय एकल परिवार के सदस्य बड़े आराम से लेने लगे है l इसमें पुराने संयुक्त परिवार के सदस्य और समाज कही भी आड़े नहीं आता l चलती है तो बस इवेंट वालों   की, जो आयोजकों को गुलाबी ख्वाब दिखा कर बड़े मजे आयोजकों को अपने जाल में फंसा लेतें है l मजे की बात यह है कि ऐसे आयोजन का प्रचार भी जोरो से किया जाता है, जिससे औरों का भी ऐसे महंगे आयोजन करने का मन ललचा जाए l युवा मंच ने एक बार अपने समाज सुधार के कार्यक्रम के तहत विवाह के दौरान बांटें जाने वाले लड्डुओं को बांटने पर रोक लगा दी थी l यह एक समाजिक निर्णय था, जिसका एक पक्ष ने भारी विरोध किया था l बाद में मंच को इस निर्णय को भारी विरोध के चलते स्थगित करना पड़ा था l उस समय की स्थितियां कुछ ऐसी थी कि असम में भारी राजनैतिक उथल पुथल हो रही थी, जिसमे हिंदी भाषी लगातार निशाना बन रहें थे l शादी के अवसर पर सडकों पर नाच-गाना, संगीत समारोह और मिठाइयों का बांटना शादी के आयोजन का बड़ा हिस्सा थी l आडम्बर और फिजूल खर्च के लिए युवा मंच ने आवाज उठाई थी, जिसे सभी ने सराहा भी था और अमल भी किया l तब से अब तक, बारात निकलने के समय सड़कों पर नांच गाना नहीं होता l लेकिन आज असम में कानून व्यवस्था की स्थिति समान्य है, जिसके चलते लोगों में अति उत्साह देखने को मिल रहा है l  
अब सवाल उठता है कि क्या किया जाए ? क्या महँगी और शानदार शादी आयोजित करने का निर्णय की व्यक्ति का निजी निर्णय है, और इसमें औरों की दखलंदाजी उसके अधिकारों का अतिक्रमण होगा ? इस प्रश्न पर अगर विवेचनाएँ की जाए, तब यह समस्या अपने आप सुधर सकती है l फिर भी, क्या यह सच नहीं है कि समय समय पर पूर्वोत्तर और असम समेत राज्यों में जहाँ जातिगत भावनाएं प्रबल रूप से मुखर हो कर सामने आती है, वहां अक्सर हिंदी भाषी निशाना बनतें है ?  

ऐसे में कितना दिखावा, कितना पर्दा जरुरी है, यह तो उस व्यक्ति को ही तय करना होगा जिसके यहाँ आयोजन है l एक ऐसा आयोजन, जिसका प्रभाव माध्यम श्रेणी के लोगों पर ना पड़े l प्रश्न बहुत सारे है, जिसके जबाब हमें ढूंढने होंगे l   

Wednesday, October 11, 2017

आखिर किस मुकाम पर पंहुचा है, भारत

इस समय देश एक कठिन परीक्षा से गुजर रहा है l देश बदलता हुवा, इठलाता हुवा और अपने रंग दिखलाता हुवा, कुछ नया करने को तत्पर है l अगर गौर से देखा जाये, तब पाएंगे कि भारत में हर चीज की आपार संभावनाएं है l एक श्रेष्ठ राष्ट्र के रूप में यह देश रूपांतरित हो सकता है, जिसके लिए एक राजनैतिक इच्छाशक्ति की बस आवश्यकता है l बाकी कार्य यहाँ अपने आप हो जायेंगे l एक गरिमामय देश को बनाने के लिए जिस तैयारी की आवश्यकता है, वह अभी दिखाई नहीं पड़ रही है l इसके लिए कड़ी मेहनत और दृढ इच्छा शक्ति की आवश्यकता होगी l जिन आपार संभावनाओं की बात हम कर रहें है, उनको यथार्थ में बदलने का अब समय आ गया है l जिन वस्तु स्थितियों से देश के लोग अनिविज्ञ है, उससे परिचय करवाने की जिम्मेवारी उन लोगों की है, जो देश के शीर्ष स्थान पर बैठे है l मसलन देश का हर जिला, क़स्बा और गावं के सफल संचालन के लिए एक मजबूत तंत्र बना हुवा है, जिसमे कलेक्टर, एसडियो, बीडीओ और गावं के मुखिया जैसे लोग सबसे पहले आतें है l इन लोगों को अपने इलाके की समस्याओं के समाधान और विकास की जिम्मेवारी है l पर खेद है कि ज्यादातर अधिकारी या तो मीटिंग में व्यत रहतें है, या फिर नेताओं के अगवानी करतें हुए अपना समय नष्ट करतें है l ऐसे में आम जनता के लिए समय अगर है भी, तब वह मात्र एक दिखावा साबित होता है l लोगों की समस्याओं को सुनने का समय तक नहीं है, ऐसे लोगों के पास l समस्या की जड़ में जाना तो दूर, उस पर विवेचना तक नहीं की जाती l फिर भी कुछ लोग कहतें है कि इतिहास गवाह है कि जब जब भी देश पर संकट आया, देश में व्याप्त सभ्यता और संस्कृति से बनी एक जीवन शैली ने देश वासियों के मन में एक नई अलख जगा दी, जिससे, देशवासियों को एक नई राह दिखाई दी है l धार्मिक विभेद और विभिन्न अंधविश्वासों से मुक्ति, जैसे प्रश्न हमेशा से देश के लोगों को चुभते रहें है l कुछ मिथकीय गाथाओं ने आग में घी का सा काम किया l कुछ हमारे नेताओं ने अपने राजनैतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए मानसिक जड़ता की कठिन बेड़ियाँ लोगों को पहना दी, जिससे देश की आत्मा देश से अलग हो गयी, और एक निर्जीव सा पश्चिम का अनुशरण करने वाला देश हो चला था, भारत l वर्षों से जो प्राचीन सभ्यता, यहाँ पर जन्मी और पली-बड़ी हुई, उसके गुणों को अगर हम आत्मसात करने की कौशिश करें, तब पाएंगे कि देश की गर्भ में वह तत्व छिपा है, जिसको पाने के लिए किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं है l पर हम जिस चीज का अनुशरण करने लगे, और जो फल हमें मिला है, वह किसी निर्जीव वस्तु की तरह है, जिसमे चाभी डाल कर चलाया जा सकता है l भारतीय राजनीति अर्थ की और अग्रसित होती चली गयी और सामाजिकता मात्र एक ढकोसला बन कर रह गया है l इस समय देश में हजारों ऐसी योजनायें चल रही है, जिसके बारे में सटीक जानकारी उन लगों को भी नहीं है, जो इन योजनाओं से सही मायने में लाभार्थी हो सकते है l बस रोजाना के योजना की घोषणा l जिन लोगों को योजनाओं के बारे में सविस्तार से बताने की जिम्मेवारी है, वें अभी भी सामंतों का सा व्यवहार करतें है, मानो अपनी पाकेट से कुछ निकाल कर दे रहें है l  
गरीब और भोले-भले लोग कुछ पाने की चाह में उन लोगों को सलाम मारते हुए चलते रहते है l देश इसलिए भी एक कठिन परीक्षा से गुजर रहा है कि वामपंथी और दक्षिण पंथियों के बीच जबरदस्त विवाद है, हर उस चीज का, जो इस समय दक्षिण पंथी करना चाहतें है l दरअसल में, सिर्फ वामपंथी ही नहीं, कुछ सेक्युलर किस्म के लोगों को भी इस समय देश में अड़चने डालने की चेष्टा की है l अब तो कुछ लोगों की मनोवृत्तिया ऐसी बन गयी है कि बस विरोध करों और एक कारागार हो सकने वाले वाकये को हथियार बना कर आलोचना कर डालो l मुझे याद है, जब देश में हज़ार और पांच सो के नोटों को संसद में उछाला जाने लगा, तब लोग कहतें थे, कि बड़े नोटों को बंद देना चाहिये, जिससे काला धन अपने आप समाप्त हो जायेगा, और देश इस काल सर्प से मुक्त हो जायेगा l नरेंद्र मोदी सरकार ने यही किया, पर जिन लोगों को पहले से पतली गलियों के रास्ते मालूम थे, उन्होंने जरुरत से ज्यादा नोट वापस सिस्टम में डाल दिए, जिसे ऐसा लगने लगा कि नोट बंदी की योजना फ़ैल हो गयी है l पर हम सभी को पता है कि यह योजना कितनी कारगार होने वाली है l जैसे पुराने कपड़े के बदलने पर कोई भी एकदम फ्रेश अनुभव करता है, बिलकुल उसी तरह से l उपर से जीएसटी के आने से देश में मानों लोगों ने खुले दिल से स्वागत किया है, खास करके उद्योग सेक्टर ने l पर जीएसटी के पेचीदगियों ने लोगों का जीना दुश्वार किया हुवा है, जिससे यह लगने लगा है कि जीएसटी एक बेकार कानून है l विरोधियों को एक बार दुबारा से मौका मिल गया है l इकोनोमी स्लो हो गयी है, छोटें व्यापारी भूखे मर रहें है, इत्यादी, इत्यादि, इल्जाम सरकार पर है l जिस जीएसटी को लेकर इतना बवाल इस समय देश में मचा हुवा है, वह निसंदेह एक कारगार कानून है, जिसमे भाग लेकर राज्य सरकारों और केंद्र, दोनों को भारी फायदा होने वाला है, खास करके उपभोक्ता राज्यों को, उस जीएसटी के क्र्यान्वयन के लिए सरकार लगातार प्रयासरत है l आम लोगों की मांग पर उसमे व्यापक बदलाव भी किये जा रहें है l
इन सभी के बीच, नई चुनौतियाँ हमारे सामने उभर कर आई है l आंतरिक सुरक्षा, नक्सलवाद जैसे पुराने मुद्दे तो ठन्डे बसते में पड़े ही है, साथ ही, भारत चीन रिश्तों में आ रही खटास, अवेध रोहिंग्याओं को शरण और वर्षों से रह रहें बांग्लादेशियों ने देश भर के लोगों का ध्यान आकर्षित किया है l वामपंथियों और दक्षिणपंथियो के बीच इन मुद्दों पर भी जबरदस्त विवाद है l जैसे कोई देश सतत युद्ध कर रहा हो, चीन और पाकिस्तान लगातार हमें परशान कर रहें है l अब समय सबह सुबह व्हात्सप पर सुविचार प्रेषित करने का नहीं, बल्कि टूटी हुई डोर को दुबारा जोड़ने का प्रयास करने का समय आ गया है l जो लोग झूठी ख़बरें प्रसारित करतें है, उनको प्रोत्साहन तो बिलकुल नहीं दिया जाना चाहिये l प्रेरित करने वाला गीत,‘मन में विश्वास, पूरा है विश्वास, हम होंगे कामयाब एक दिन’ को बुद्बुताते हुए आज का प्रसंग समाप्त करता हूँ l    

   

Wednesday, September 27, 2017

हमें भी सपने आतें है

भारत देश में एक आम नागरिक चाहे वह गरीबी रेखा के नीचे हो या फिर कोई धनाढ्य वर्ग हो, हर कोई रोज सपने देखता है, उम्मीदों के, अरमानों के और पता नहीं, किसके किसके, वह सपने देखता हैं, रोजी के, रोटी के, घर के l आम आदमी द्वारा सपना देखना इस देश में जुर्म की श्रेणी में तो नहीं आता, पर उसको हकीकत में बदलने की कौशिश करने के लिए उसे कई पापड़ बेलने पडतें है l क्या सपने देखने का हक़ सिर्फ राजनेताओं को ही है, जो आये दिन यह बयान दे डालते है कि मेरा भारत विकसित हो, यह मेरा सपना है l रोजाना करोड़ों लोगों को सपने दिखातें ये राजनेता अपनी दूकान इस तरह से चलाते है , जैसे कोई एफेमजीसी सामानों की दूकान हो, जहाँ उपभोक्ता मूलक सामान जल्द बिक जा जातें है l सपने भी जल्दी से बिक जाते है, इनके खरीददार जैसे तैयार ही खड़े रहतें है l मसलन धर्मगुरुओं और विज्ञापन कंपनियों द्वारा दिखाए हुए सपने सबसे जल्दी बिकते है l वे धर्म और बेहतर जीवन जीने की चाश्नियों में डूबे हुए रहते है l गरीबी हटायेंगे, मंदिर बनायेंगे, जनता का राज आयेगा...सबको रोजगार मिलेगा l इस तरह के नारों का भारत में बहुत मोल है l गंभीर विषयों के बीच टेलीविज़न पर जवानी लौटने वली दवाइयों के प्रचार, किसी सपने दिखाने से कम थोड़े ही है l धड़-धड़ नए-नए एप्प बना कर लोगों के हाथ में पवार देने की बात अब आम हो गयी है l पर सच्चाई तो यह है कि राष्ट्र सत्ता कभी भी मनुष्य की स्वतंत्रता स्वीकार नहीं करती l उसे राष्ट्र और समाज के अधीन ही रहना होता है l मानो मनुष्य का जन्म ही पराधीन रहने के लिए हुवा हो l सत्ता और समाज विद्रोह दीवानगी कहलाई जाती है l फिर भी इतिहास गवाह है कि मनुष्य कड़े निर्णय ले कर दिखाए गए सपनों के विरुद्ध जा कर एक अलग सत्ता बनाने का प्रयास किया है l नए विचारों के बीच जा कर एक नयी सत्ता बनाने के प्रयास जिन लोगों ने भी किया है, वे शासन के विरोधी भी कहलाये गए है l शायद उन्होंने कुछ नए सपने देख लिए होंगे l कुछ नया और अर्थपूर्ण l दो अक्टूबर को गाँधी जयंती है l गाँधी के सपने का भारत कैसा हो, इस बात पर सैकड़ो-हजारों पोथियाँ भर दी गयी है, पर यह पता नहीं चला कि आज के भारत में गाँधी कहाँ फिट बैठते है l एक विकसित और प्राणवान देश के लिए क्या जरुरी है, इसका निर्णय हमारे राजनेता लेतें है, ना कि इस देश की जनता, जो इस देश की नायक है l प्रभुसत्ता जनता के पास है, जिसका मतलब यह होता है कि जनता सर्वोपरी है l पर होता है, यहाँ यहाँ एकदम उल्टा l नल में पानी नहीं आ रहा, सड़क टूटी हुई है, सड़क पर कचरा जमा है, जैसी आम शिकायतों के लिए तो जनता को मारे-मारे फिरना होता है, ऐसे में वे देश के विकास का सपना कैसे देख सकती है l उन्हें कहा से अधिकार मिला, ऐसे सपने देखने का l आपातकाल के दौरान जिन्होंने भी सपना देखा, सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, और वह भी बिना कोई सुचना के और बिना किसी सुनवाई के, क्योंकि उस समय सारे अधिकार निरस्त हो गए थे l तब लोगों को मोह भंग हो गया था कि देश में कोई जनता का शासन है l एक अध्यादेश से सब कुछ उल्टा हो गया l जिन लोगों की राख देश की मिट्टी में मिली हुई है, ऊनके प्रति असंवेदनशीलता दिखलाते हुए, हम एक विचित्र देश बनाने में जुट गए है l  
जनता के अधिकारों को नियंत्रित करने के लिए कानून जो पहले से ही बने हुए है l सपने तक देखने का अधिकार इस देश के नागरिकों को नहीं है l जो सपने देखतें है, वे अपने लिए मुसीबत मोल ले रहें है l मानो सिस्टम चरमरा गया है l बुधवार को फैंसी बाज़ार की मुख्य सड़क के बीचो-बीच दो चार गाड़ी कचड़ा इस तरह से जमा किया गया, जैसे कभी उठाया ही नहीं जायेगा l जब दिन के बारह बजे तक कचरा नहीं उठा, तब लोगों ने हंगामा शुरू किया l इलाके के पार्षद, एरिया मेम्बर तो एप्रोच किया गया, इलाके के लोगों द्वारा नेट और फेसबुक फोटोज अपलोड की गयी, तब जा कर वार्ड नंबर नौ के पार्षद राज कुमार तिवाड़ी के प्रयासों से तुरंत कचरा उठाया गया l पर बड़ी बात यह थी कि निगम प्रशासन को इस तरह से सड़क पर कचरा जमा करने की जरुरत क्यों पड़ी थी l क्यों एक व्यस्त सड़क पर गैर-जिम्मेराना तरीके से कचरा फैलाया गया l प्रश्न बहुत सारे है, जिनके जबाब लोग ढूंढते है l इस तरह से मामूली से मामूली कामों के लिए दबाब और आन्दोलन का सहारा लेना पड़ता है l लोकतांत्रिक तरीकों से चुनी जाने वाली सरकरों के नुमायंदे चुप्पी साध कर बस चुप रहना पसंद करतें है l क्या हर चीज की शिकायत होनी जरुरी है l क्या चुने हुए जन प्रतिनिधियों को अपने सामने होने वाली या रहने वाली चीजें दिखाई नहीं देती l क्या असंवेदनशीलता इस तरह से हावी हो गयी है कि जन प्रतिनिधियों को यहाँ हमेशा सब कुछ अच्छा ही दिखाई देता है l फिर फेसबुक, ट्विटर के जरिये यह मेसेज देना कि उन्होंने आज यह कार्य किया है l हजारों लाइक्स l एक ऐसा प्रचार तंत्र, जिससे ऐसा लगने लगे कि सब कुछ ठीक है l सपनों की अजीब दुनिया है l कई बार सपने उम्मीद जैसे लगने लागतें है l लोग सपनों के मकान बना कर पूरी जिंदगी उसमे बिता देतें है l एक रोबोट की माफिक, जिसमे कंप्यूटर के जरिये सपने फीड कर दिए जातें है l उसे अपने सपने देखने का कोई अधिकार नहीं है l महान दार्शनिक और विचारक रूसो ने जब सहज मानवीय गुणों को उनका नैसर्गिक तत्व बता कर मानवीय स्वतंत्रता की वकालत की, तब अट्ठारवी शातब्दी में यह एक नयी बात थी, जब शिक्षा का उतना प्रचार प्रसार नहीं था, सामाजिक बेड़ियाँ इतनी अधिक थी कि वे राज्ये के कानून जैसी थी l आज की स्थिति एकदम से भिन्न है, हर व्यक्ति सगज है, और विचार के सम्मान करता है l भारत की स्वंत्रता दिवस के समय 14 अगस्त 1947 की आधी रात को पंडित नेहरु ने कहा था, जब आधी रात को भारत स्वतंत्रता हासिल कर लेगा, तब भारत जागेगा और स्वतंत्रता से साथ जियेगा l ये शब्द कोई आम भाषण के शब्द नहीं थे, बल्कि भारत के भविष्य के सपने थे, जो भारत का हर नागरिक देख रहा था l इन्ही शब्दों के सहारे, अब तक भारत का आम नागरिक जीता है, जबकि हकीकत यह है कि अभी भी देश की 20 प्रतिशत आबादी रोजाना साठ रुपये कमाती है, और किसी तरह से अपना पेट पलती है l ऐसे में अच्छे सपने देखना, उनका हक़ है l चाहे कितनी भी मनरेगा योजना गरिबोब के उठान के लिए बनी है, देश में लगातार गरीब बने हुए है l आशा और आकांशा पर दुनिया टिकी हुई है, इसलिए हम सपने देखना नहीं छोड़ेंगे l

ये हमारे जीने का आधार है l    और कवि दुष्यंत कुमार द्वारा रचित पंक्तियाँ यहाँ सटीक बैठती है ‘कौन कहता है कि आसमान में सुराख़ नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों’ l 

Sunday, September 10, 2017

यहाँ हर पात्र महत्वपूर्ण है
रवि अजितसरिया

किसी भी देश या प्रदेश की भाषा सस्कृति पर उसके नागरिक हमेशा गौरव करतें है l यह भाषा ही है जो एक पूरी जाति को जिन्दा रखती है l इसमें कोई दो राय नहीं है कि एक आम असमिया अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति को लेकर बेहद सगज है l इसका उदहारण हमें बिहू के दिनों में मिले जाएगा, जब सात दिनों तक पूरी रात यहाँ के लोग असम के जातिय उत्सव बिहू का आनंद लेतें है l  देश में कही भी यह नजारा शायद देखने को नहीं मिलेगा l यह असम ही है, जहाँ उत्सवों और त्योहारों को बड़ी संवेदनशीलता और निष्ठा पूर्वक मनाया जाता है l असम में भाषा और संस्कृति को सम्मान देने या दिलाने वालों की असम में पूजा होती है, चाहे वह कोई भी जाति का हो l इतिहास गवाह है, जब अनासमिया लोगों ने असमिया भाषा संस्कृति के उतरोत्तर प्रगति के लिए कार्य किया था l यह सिलसिला आज भी रुका नहीं है l इसके बावजूद भी असम में रहने वाली जाति-जन्गोष्ठियों के बीच आपसी सघर्ष हमेशा से रहा है l यह भी देखने में आया है कि असम में रहने वाले विभिन्न समुदायों को भी इस संघर्ष का खामियाजा भुगतना पड़ा है l जब भी आपसी संघर्ष होता है, जाति-भाषा और संस्कृति की बातें ही उभर कर आती है l किसी भी जाति के प्रति असम्मान जताने वाले को कोई कभी माफ़ नहीं करता l असमिया पुनर्जागरण कहलाने वाला आन्दोलन- असम आन्दोलन के समय जब प्रतिवाद जुलुस वगैरह निकलते थे, तब ढोल नगाड़ों के साथ असमिया गीतों को आन्दोलनकारी गाते थें l उस समय ऐसा लगता तथा कि यह आन्दोलन असमिया चेतना तो जगायेगा ही, साथ ही असम असमिया और उसके तमाम पदार्थों को देश के साथ परिचय जरुर करवाएगा l उस आन्दोलन को चलाने वालें नेताओं ने जैसे जेल जाने की कसम खा रखी थी l नमक आन्दोलन और अहिंसक सत्याग्रह से पहले जब, जब महात्मा गाँधी ने अंग्रेजो के खिलाफ आन्दोलन किया, तब उनके साथ कुछ मुट्ठी भर लोग थे, पर जब नतीजे आने लगें, तब पूरा देश उनके साथ हो गया l हजारों-लाखों लोग जेल गए और हजारों ने हसते-हसते कुबनियाँ दी l असम आन्दोलन के समय भी कुछ ऐसा ही नजारा था l बड़ी सुबह आन्दोलनकारी किसी एसडियो या उपायुक्त के कार्यालय के सामने जमा हो जाते थें, और वहां का काम पूरी तरह से बाधित कर देतें थें l पुलिस उन्हें सुबह शांति भंग करने के इल्जाम में पकड़ कर ले जाती थी और शाम को फिर छोड़ देती थी l यह सिलसिला लगातार चलता रहा, जिसका नतीजा यह निकला कि सन 1985 में असम समझोता हुवा और आन्दोलन समाप्ति की घोषणा हुई l यह एक सत्ता की लड़ाई नहीं थी, बल्कि उस सम्मान के लिए थी, जिसकी चाह हर एक स्वतंत्र व्यक्ति या समाज को होती है l सर्व-भारतीय स्तर पर असमिया लोगों को पहचाना जाने लगा और वे भी उच्च पढाई के लिए देश के बड़े संस्थानों में नाम-भर्ती लेने लगें l जब आन्दोलन समाप्त हुवा और आन्दोलन कारियों के नेतृत्व ने एक सरकार बनी, तब वह समय असम के लिए एक सुनहरा सवेरा था, जो एक नई किरण ले कर आने वाला था l बड़ी संख्या में लोगों को यह लगने लगा था कि असम एक नई बुलंदी पर पहुचने वाला है l अथिक रूप से पिछड़े हुए लोगों को, जिन्होंने अपनी प्राणों की आहुति दी थी, असम आन्दोलन में, उन्हें लगने लगा था कि असमिया भाषा संस्कृति अब एक नई उचाईयों  तक जाएगी,  
इस अनुभव के साथ कि असम के लोगों ने पहले भी असमिया अस्मिता के लिए कई आन्दोलन लड़ चुके थे l इस बार बारी थी, राजनैतिक भागीदारी के साथ विकास करने की l एक पुनर्निर्माण का मौका आया था, असमिया लोगों के लिए l जब विकास के अवसर आतें है, तब उस अवसर के साथ तमाम तरह की जटिलतायें भी आती है l कुछ प्रश्न उनुतरित रह जातें है l शायद उन्ही प्रश्नों के उत्तर देने के लिए आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर शुक्रवार को गुवाहाटी आये थे l उल्फा के वार्ता समर्थक गुट के सदस्य और संस्थापक महासचिव अनूप चेतिया द्वारा आहूत सम्मलेन में श्री श्री का भाषण उन प्रश्नों का उत्तर दे रहा था, जिनको कभी असम आन्दोलन के समय उठाया गया था तो कभी उल्फा के सशस्त्र आन्दोलन के समय l सवाल एक ही था कि असम के भूमिपुत्रों के अधिकारों की रक्षा कैसे की जाये l आज भी जब अनूप चेतिया जब यह सम्मलेन कर रहे थे, तब भी उस का शीर्षक था, ‘विविधता में शक्ति: उत्तर पूर्व के मूल नागरिकों का सम्मलेन’ l असमिया अस्मिता का प्रश्न बार बार इसलिए भी आता है क्योंकि एक आम असमिया शायद किसी हीन ग्रंथि से बाधित भी है l वह सिलापथार और नोगांव जैसे कांडों से उद्वेलित भी हो जाता है l बार बार होने वले हादसे इस शोर को और तेज करते है कि असमिया भूमि पर किन्ही बाहर के लोगों को हक़ नहीं ज़माने देंगे l काल्पनिक दावों और बडबोलेपन से सामाज में व्याप्त आपसी सोहार्द को कितनी चोट लग रही है, इस बात को वे लोगो नहीं समझते, जो इस तर्क को हवा देतें है l लगभग 50 वर्षों से विदेशी लोगों ने यहाँ की आबो-हवा ले कर अपनी एक सत्ता कायम कर ली है l यहाँ के लोग लगातार उनके शिकार बनते जा रहें है, चाहे वह राजनैतिक दृष्टिकोण से हो या फिर धराशाई होती सांस्कृतिक चेतना हो l दलीय दृष्टिकोण और आपसी मतभेद ने इस राज्य का सबसे बड़ा नुकसान किया है l नहीं तो गावं में रहन वाले भोले-भले गरीब लोगों के लिए रोजगार के उचित संसाधन अब तक बन चुके होते l पर बार बार प्रतिक्रिया देते देते, असमिया अस्मिता के मूल प्रश्न के जबाब ढूंढने में पुरे 37 वर्ष लग गए, और राज्य पर संकट के बादल यूँ ही मंडराते रहे, चाहे वे कसी भी रूप में क्यों ना हो l कभी चीन द्वार ब्रह्मपुत्र पर बाँध बनाने को लेकर तो कभी निचली सुबंसरी विद्युत प्रकल्प को लेकर तो कभी कोकराझार दंगे को लेकर l बार बार हिंसा और प्रतिरोध हमें पीछे की और ढकेल रहे है l सामाजिक मोनोवृतियाँ कुछ ऐसी है कि सब कुछ स्वत: स्फूर्त घटित हो जाता है l सिलापथार और नोगांव काण्ड पर कई लोगों ने राजनीति भी की है l और असम की मुलभुत समस्याएं यूँ ही मुहं बाएं खड़ी रही l

इन सबके बीच, यह कहा जायेगा कि भारतीय समाज की श्रेष्ठम उपलब्धियां अगर गिनी गए, तब उसमे से पाएंगे कि सदियों से यहाँ एक जीवंत सस्कृति है, जिसका आधार एक सामाजिक तानाबाना है l यह तानाबाना हमें एक दुसरे से जोड़े हुए रखता है l असम में रहने वाली जातियां, जन्गोष्ठियाँ और विभिन्न समुदायों के बीच सोहार्द कैसे हो, जिससे सभी को एक सामान विकास के अवसर मिले, यह एक मूल प्रश्न होना चाहिये l       

Sunday, September 3, 2017

जब शासन हमें निराश करता है
रवि अजितसरिया

भारत एक लोकतांत्रिक देश है l यहाँ जनता हर पांच वर्षों में एक नई सरकार को चुनती है l चुनी हुई सरकार संविधान में वर्णित और जनता को प्रदत अधिकारों के क्रियान्वयन के लिए, जिसमे जानमाल की सुरक्षा, रोजगार और आम लोगों के हितों की रक्षा करने का वचन मुख्य रूप से रहता है, सत्ता सँभालने के समय शपथ लेती है l यह क्रिया पिछले सत्तर वर्षों से आजाद भारत में चल रही है l भारत की जीवनधारा को सँभालने के लिए, नौकरशाहों की एक बड़ी फौज देश के कौने-कौने में कार्यरत है l देश में कानून और न्याय का राज हो, इसके लिए देश में एक पूरी व्यवस्था बनी हुई है, जो देश के हर नागरिक को शासन के प्रति आस्था का अनुभव करवाता है l पिछले कुछ वर्षों में देश में विद्वेष, विरोध और टांग खिंचाई की राजनीति और सत्ताधारियों में आपस में संघर्ष ने आम आदमी का ना सिर्फ विश्वास तोडा है, बल्कि उसका उन तमाम चीजों से विश्वास उठाने लगा है, जिन्हें वह लोकतंत्र का स्तम्भ मानता था l जब देश आजाद हुवा था, तब अंग्रेजों ने कठाक्ष किया था कि देश लुटेरों के हाथों में चला जायेगा और चारो और अरज़कता फ़ैल जाएगी l देश आज आज़ादी के सत्तर वर्षों बाद भी एक अराजक स्थिति में है l चारों और अविश्वास, अशांति, आरोप, प्रत्यारोप l कौन किस पर विश्वास करे l शासन में रहने वाले लोगों को हम सरकार कहतें है l उनके प्रति कृत्यों को हम सूक्षमता से आंकलन करतें है l शासन के लोगों का आम लोगों के प्रति नजरिया, उनका तरीका और उनकी मांग, आम आदमी को प्रभावित करती है l मसलन एक सड़क टूटी हुई है, आम आदमी उसको ठीक करवाने के लिए मांग करता रहता है, फिर भी वर्षों तक सड़क ठीक नहीं होती है l एक दिन सड़क पर ठेकदार काम करने के लिए आतें है और घटिया सड़क बना कर चले जातें है, जो कुछ ही दिनों में दुबारा टूट जाती है l असम में जब तटबंध बने थे, तब यह आशा की जा रही थी कि इस बार कार्य अच्छा हुवा है, पर हाल ही में आई बाढ़ ने सभी तटबंधों को अपने में समा लिया है l जब शासन में बैठे लोग ही अपनी ड्यूटी ठीक से नहीं निभाते, तब आम आदमी तो बहकेगा ही l एक चुनी हुई सरकार के लिए क्या जिम्मेवारियां है, यह उसे बताने की आवश्यकता नहीं है, .. उसे पहले से ही पता है कि उसे क्या करना चाहिये l अभी दो दिनों पहले ही व्हात्सप पर एक विडियो वायरल हुवा था, जिसमे एक राज्य के मुख्यमंत्री ऐसे कई शिकायतकर्ताओं को फ़ोन कर रहें थे, जिन्होंने मुख्यमंत्री हेल्पलाइन पर शिकायत की थी l यह एक बड़ा जनसंपर्क अभियान था l अपने आप संपन्न होने वाली तमाम प्रशासनिक गतिविधियाँ, जिसमे शिकायतों का निबटारा, विकासमूलक कार्य, इत्यादि, मानों रुक सी गयी है, नहीं तो एक शिकायतकर्ता को मुख्यमंत्री तक शिकायत पहुचाने की जरुरत क्यों पड़ी l उनके नीचे बने हुए तंत्र, जब शिकायतकर्ताओं की शिकायतों का निबटारा करने में असक्षम रहतें है, तब आम आदमी के पाद मुख्यमंत्री के समक्ष गुहार लगाने के अलावा कोई और रास्ता नजर नहीं आता l कल्पना कीजिये कि त्रिपुरा में एक सड़क बनाने के लिए देश के प्रधानमंत्री को आधी रात को एक इंजीनियर को फ़ोन करना पड़ा था l  
रोजाना हजारों शिकायतें पीएमओ तक पहुचती है, क्योंकि लोगों को न्याय नहीं मिलता l राम रहीम के मामले में भी प्रशासन से भारी चुक हुई थी  जिसका खामियाजा आम आदमी को अपनी जान दे कर चुकाना पड़ा l हम भारतवासी एक ऐसे समाज का हिस्सा है, जहाँ अभी भी सामंतवादी ताकतें, हमें प्रभावित करती है l गली के एक छोटे से नेता भी अपने आप को आम आदमी से उपर समझतें है l समस्या तब और बढ़ जाती है, जब उन नेताओं के सरकारी काम आम आदमी से जल्दी निबट जातें है और वे अपने आप को सिस्टम का हिस्सा बताने लागतें है l यहाँ आ कर आम आदमी का सिस्टम से विश्वास उठने लगता है l सफल्र और धनवान, ताकतवर और प्रभावशाली, पार्टी इन पावर, मानों सिस्टम का हिस्सा बनकर आम आदमी को बोना बना देता है l ये सभी चीजें आम आदमी को प्रभावित करती है l परिवर्तन के नाम पर आने वाली सरकारें, जब अपनी समस्त उर्जा अपने आंतरिक मसलों को सुलझाने में लगा देगी, तब वह विकास के कार्यों में कहाँ ध्यान दे पाएगी l देश एक संक्रमण काल से गुजर रहा है l इस बीच के काल में बहुत कुछ उल्टा-पुल्टा होने की संभावनाएं है l जातिवाद और साम्प्रदायिकता की दुकानें चलाने वालों की दुकाने बंद करवाने की जरुरत है l अंधविश्वास की जड़े भारत में इतनी गहरी है कि उखाड़े नहीं उखड़ती है l हम भले ही आधुनिक पौशाक पहन कर नए ज़माने के बन जाये, पर हमारी सोच को कौन बदलेगा l हमारे शासकों में आम लोगों के प्रति जो सामंती नजरिया है, उसे कौन बदलेगा l वोट बैंक की राजनीति का संपोषण करने वाले नेता हमें बार-बार अठारवी सदी की और ले जाती है l आखिर आम जनता बार बार बलिदान क्यों दे l क्यों वह सिस्टम को बदलने के लिए आन्दोलन करता है l क्या आम आदमी का एक मात्र रोल हर पांच वर्षों में वोट देना ही है ?
देश में एक निर्णायक व्यवस्था अभी भी कायम है l न्यायलय, जिसके पास जाने के अलावा अब आम आदमी के पास कोई चारा नहीं है l राम रहीम के मामले में भी जब शासन व्यवस्था चरमरा गई थी, तब उच्च न्यायालय ने कानून व्यवस्था को लेकर हरियाणा सरकार को फटकार लगाईं थी l जब समस्त शक्तियां जनता में निहित है, तब फिर यह कैसा असंतोष , फिर यह कैसा रोना-पीटना l वर्तमान लोकतंत्र में सरकारी सिस्टम किस तरह कार्य करता है, देश के आम नागरिक पूरी तरह से समझ चुके है, पर दमघोंटू परिस्थितियों और बदले की तुच्छ राजनीति होने के कारण, आम जनता चुप रहने पर विवश है l अब यह देखना है कि  देश के अंतिम व्यक्ति को इज्जत से दो जून की रोटी कब नसीब होगी l  

   

Sunday, August 27, 2017

खुशियाँ चल कर नहीं आती, लेनी पड़ती है

इस दुनिया में तनाव में कोई रहना नहीं चाहता l इन्सान अपनी जिंदगी को भरपूर जीने के लिए तरह तरह के उपाय करता है l तनाव को कम करने के लिए योग करता है, घुमने जाता है और इश्वर की भक्ति भी करता है l सामाजिक तानेबाने में सम्पूर्ण रूप से जड़ित एक व्यक्ति ख़ुशी ढूंढने की भरपूर चेष्टा करता है l नांच-गाने और तमाम तरह के मनोरंजन के साधन खोजता है l असम में बिहू और पूजा तनाव कम करने और खुशियाँ मानाने के तो त्यौहार है l सभी जाति और समुदाय के लिए त्यौहार खुशियाँ लाने वालें आयोजन ही तो है, जो मनोवैज्ञानिक तरीकों से मनुष्य को प्रकृति और अन्य मनुष्य से जोड़ता है l दुनिया के अमीर से अमीर व्यक्ति भी खुशियाँ मानाने के लिए त्यौहार और उत्सवों का सहारा लेतें है l असम में इस समय बाढ़ की विभीषिका ने लाखों लोगों को दुखी कर रखा है l ब्रह्मपुत्र और इसकी सहायक नदियाँ पुरे उफान पर है l हजारों लोग बेघर हो गएँ है l इस समय लोगों के दुःख के साथ शामिल होने का समय है l जिन खर्चों को बचाया जा सकता है, उनको बाढ़ पीड़ितों के सहायतार्थ खर्च किया जाना चाहिये l ख़ुशी की बात यह है कि कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं ने बाढ़ रहत का कार्य शुरू भी कर दिया है l उन्हें इसी कार्य में ख़ुशी जो मिलती है l खुशियों को कैसे हासिल करतें है, इसके अलग अलग उपाय हो सकते है l गुवाहाटी निवासी पवन की ख़ुशी हासिल करने की एक छोटी सी कहानी आपके साथ साँझा कर रहा हूँ l केथोलिक स्कूल में शिक्षा और संस्कारी परिवार में परिवरिश पाने वाले पवन एक आम व्यवसाई है, और मेहनत करके अपना परिवार पाल रहे है l व्यवसाय करने की धुन में उन्होंने कभी भी दूसरी तरफ मुहं उठा कर नहीं देखा l अचानक एक दिन जब वे अपने दफ्तर जा रहे थे, तब उन्होंने एक मानसिक रूप से पीड़ित महिला को देखा, जो फुटपाथ के किनारे बैठ कर अपने बाल नौच रही थी l वह बीमार और भूखी लग रही थी l इस दृश्य ने पवन को अंदर से झिंझोर दिया और उसने यह निर्णय लिया कि वह इस तरह के मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों की सहायता करेगा l इच्छा शक्ति के आगे सब कुछ संभव है l पवन ने चार दोस्तों के साथ बातचीत की और यह तय हुवा कि गुवाहाटी की सड़कों पर रहने वालें मानसिक रूप से बीमार व्यक्तियों के लिए वे जितना हो सके करेंगे l चूँकि ऐसे लोगों को चिकित्सा की जरुरत होती है, इस अभियान में कुछ डाक्टरों को और आश्रमों को भी जोड़ना जरुरी था, जहाँ ऐसे लोगों को रखा जा सके l चीजें इतनी आसान नहीं थी, पर पवन अपने अभियान के लिए अन्य लोगों से विचार करता रहा l प्रसिद्द मनोचिक्त्सक डा. जयंत दास बताते है कि मानसिक रूप से पीड़ित व्यक्तियों को गहन चिकित्सा की जरुरत होती है, उन्हें कड़ी देखभाल की जरुरत होती है l ऐसे लोगों को हॉस्पिटल में भर्ती करने की भी जरुरत होती है l पवन और उसके साथियों ने जालुकबाड़ी स्थित आश्रय नामक एक आश्रम की खोज की, जो मानसिक रूप से बीमार व्यक्तियों को रखतें है, जिनकी एक शर्त थी कि बीमार व्यक्ति की चिकित्सा वैगरह पहले करवाई जाय और फिर वे किसी व्यक्ति को आश्रय दे सकते है l अभियान के लिए यह एक बड़ा झटका था l  

उचित संसाधन जुटाने के लिए आज भी पवन बराबर मानसिक रूप से पीड़ित लोगों के लिए लगे हुए है l शायद उसने अपने जीवन का यही एक उद्देश्य बना लिया है l पवन बतातें है कि मानसिक रूप से पीड़ित व्यक्ति जल्दी से किसी पर विश्वास नहीं करतें l उन्हें डर रहता है कि कोई उन्हें पुलिस में कोई ना देदे l इसलिए वे अपरिचित लोगों से खाना लेने में भी डरतें है l अगर ले भी लेतें है तब, खाने में क्या है, यह भी पूछ्तें है l शायद अपने परिजनों से दुत्कार और जीवन के किसी बड़े हादसे की याद उन्हें बार-बार उसी राह पर ले जाती है, जहाँ से वे भागना चाहतें है l घोर मानसिक उत्पीड़न और विद्रोह की वजह से वे घर से भागने पर मजबूर हुए, ऐसे लोगों के लिए सड़क और फ्लाईओवर ही अपना घर है l ऐसे लोगों के लिए आनंद, अनुभूति, ख़ुशी, हंसी के कुछ दुसरे ही मायने है l घृणा और पृथकवादी सोच ने इए व्यक्तियों को सड़क पर पहुचाया है l दुःख की बात है कि ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है l पवन बताते है कि पिछले छह महीने में उन्होंने दस नए चहरे देंखे है, जिन्होंने घर छोड़ दिया है l ऐसे लोगों का जीवन खाली है या भरा हुवा है, यह कहना मुश्किल है l ऐसे लोगों के कुछ कर सकने के लिए पवन ‘सिएसाआर’ करने वाली कंपनियों को खोज रहें है l जब कचरा बीनने वाले बच्चें ऐसे लोगों को चिड़ाते है, और पत्थर मारते है, तब पवन को बहुत दुःख होता है l आज भी पवन ऐसे लोगों के लिए चिंतित है l उन्होंने हाल ही में ऐसे लोगों के आश्रम में स्वतंत्रता दिवस भी मनाया l पवन की उद्देश्य यात्रा की कहानी साँझा करने के पीछे यह भी मकसद है कि जो सम्प्पन समाज है उस पर समाज सेवा की जिम्मेवारी अधिक है, क्योंकि वह इसी समाज से सभी संसाधन लेता है l अमेरिका के कुछ राज्यों में समाज सेवा के जरुरी उपक्रम है, जहाँ छात्रों को सप्ताह के कुछ घंटे समाज सेवा में देने पडतें है l गैर सरकारी एजेंसिया उन्हें इस कार्य में मदद करती है l भारत में कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मवारी के तहत हर वर्ष लाखों कंपनिया समाज सेवा करने का दावा तो करती है, पर वास्तविक रूप से यह सेवा असल व्यक्तियों तक कितनी पहुचती है, यह सर्वविदित है l चूँकि कम्पनी नियामक सभी कंपनियों को नियमानुसार सिएसाआर के लिए प्रेरित करता है, पर अभी भी ऐसा लगता है कि यह खर्च उस लेवल का नहीं होता, जितना लाभ बड़ी कम्पनियाँ अर्जित करती है l बहरहाल, खुशियाँ ढूंढने का यह उपाय सबसे अनोखा और न्यारा है l  तनाव कम करने ले लिए भी एनजीओ के जरिये समाजसेवा की जा सकती है l         

Sunday, August 20, 2017

एक अजब शक्ति है यहाँ के लोगों में
रवि अजितसरिया

बदलाव एक अवश्यंभावी भाव है, जो मनुष्य के अंदर हर पल उमड़-उमड़ कर आतें है l करोडो वर्षों से बदलाव के चलते विश्व की बड़ी बड़ी सभ्यताओं का अंत हुवा है और एक सभ्यता के अंत के पश्चात नई सभ्यता ने जन्म लिया है, और इसी तरह से दुनिया चल रही है l विकसित देश के लोग अब उपभोक्तावादी संस्कृति से उब कर कुछ नया करना चाहतें है l विकास अपने चरमबिन्दु पर जब पहुच जाता है, तब मनुष्य के मानव मूल्यों का र्हास होने लगता है, जो एक मात्र कारण बनती है, सभ्यताओं के समाप्त होने का l इतिहास गवाह है कि जब-जब सभ्यताएं समाप्त हुई है, नए आचार-विचार और संस्कृति के साथ, उसी स्थान पर एक नयी सभ्यता ने जन्म ले लिया है l सभ्यताओं के समाप्त होने का एक अन्य कारण यह भी है कि वहां के वासिंदे अपने मूल स्वाभाव के विपरीत आचरण करने लागतें है l पाखंड और भौतिक विचारों का जब खुलें रूप से प्रदर्शन होने लगता है, तब यह तय है कि उस संस्कृति का अंत होने वाला है l जब जनता वास्तविक सामाजिक स्थितियों को नजरअंदाज करके, अपने मूल स्वरुप को खोने लगती है, तब खोखले पाखंड और भ्रम मनुष्य के चिंतन में हावी होने लगता है और वह उसी को अपने मूल विचार मानाने लगता है l अभी भारत के लोग उपभोग्तावादी संस्कृति का अनुसरण कर रहे है l देश में बड़े-बड़े शहरों में मॉल खुलने लगें है, जिनमे एक ही स्थान पर सभी वस्तु उपलब्ध रहती है l इसके विपरीत छोटे शहरों में भी एक अपनी दुनिया है l पर जब वें बड़े शहरों की चकाचौंध को देखतें है, तब एकाएक उनका मन भी इसी तरह के शहर की कल्पना करने लगता है l भौतिक युग जो ठहरा l वे भी अपने निकटतम कस्बों और शहरों में जा कर खरीददारी करतें है l जैसे पूर्वोत्तर की फैंसी बाज़ार मंडी l फैंसी बाज़ार, पूर्वोत्तर की सबसे बड़ी मंडी l हमेशा भीड़-भाड़, भरपूर व्यावसायिक गतिविधियाँ, लोगों का हमेशा आवागमन l किसी भी बड़े शहर के चरित्र अनुरूप यहाँ भी पूर्वोत्तर के अलग-अलग जगहों से क्षुद्र व्यवसाइयों का जमावड़ा लग जाता है, जो पुरे दिन चलता है l ऐसे व्यवसाई हाथों में बड़े-बड़े झोले लेकर चलतें है और फिर दिन भर खरीददारी करके वापस अपने गंतब्य स्थान को लौट जातें है l उपभोक्तावादी संस्कृति के पनपने से अब गुवाहाटी के आस पास के गावों के लोगों की भी नई-नई चीजों की मांग बढ़ गई है, जिसकी वजह से गावों की छोटी दुकानों में भी अब कई तरह की चीजें उपलब्ध रहने लगी है l समय के साथ उपभोक्ताओं का खरीदादारी के स्वाद बदलने से अब दुकानदारों को भी मार्किट मे नई आने वाली चीजों को विक्रय के लिए उपलब्ध करवाना पड़ता है l तभी जा कर एक उपभोक्ता खरीदारी करके खुश होतें है l दरअसल में भारतीय उपभोक्ताओं के पास खरीदने के लिए बहुत ज्यादा चीजे नहीं होती, जिन्हें वें रोजाना सेल्फ में ढूंढ़ते है, पर वे अपने आप को परखने की कौशिश ज्यादा करतें है कि वे भी पश्चिम की तरह पेकेट फ़ूड खाए, ठंडा पिए और विंडो शौपिंग करें l देखा-देखी करने की आदत हम भारतियों में कूट कूट कर भरी पड़ी है l एक ऐसी सभ्यता का अनुसरण, जिसे भारतीयों ने कभी देखा नहीं l हां, अंग्रेजी फिल्मों ने लोग जरुर देख लेतें है  
कि कोई अपने दिनोंदिन जरुरत वाली चीजे किसी मॉल से खरीद रहा होता है l बस एक आम भारतीय भी उस चरित्र जैसा बनाने का प्रयास करने लग जाता है l टोपी पहन कर मॉल में जाना और सेल्फ से खुद से सामान बास्केट में डालना और फिर कतार में खड़े हो कर बिल बनवाना l यह पूरी तरह से पश्चिम की कोपी है l यह अलग बात है कि इसमें कुछ अच्छी चीजें भी है, जिनको हमने बुरी के साथ आत्मसात कर लिया है l अर्थ मानो जीवन का सबसे महतवपूर्ण हिस्सा बन गया है l जीवन मूल्य, संस्कृति और प्रेरणा देने वाला हमारा इतिहास l अब इन सब चीजों से भारतियों को कोई मतलब नहीं l उपभोक्तावादी संस्कृति, जिसकी बेल पर चढ़ कर हम अपने आप को ज्यादा मोर्डेन दिखलाने की चेष्टा कर रहें है, वह भारत के कौने-कौने में उग आई है l अब इससे बचा नहीं जा सकता l अनंत संभावनाओं वाला देश भारत एक उपभोक्ता देश है l विश्व के अति विकसित राष्ट्रों की उपभोक्ता सामान बनाने वाली कंपनियों ने यहाँ भारत में निवेश करके यहाँ भी उन उत्पादों का निर्माण शुरू कर दिया है, जिससे विदेशी लोग उब चुकें है l मसलन कोका-कोला से पश्चिमी देशों के लोग उब चुकें है l अब यह उत्पाद सिर्फ विकासशील देशों में बिकता है l विदेश भ्रमण करने वालें लोगों को भली भांति पता है कि अमेरिका में एक कोक की कितनी कीमत है, करीब दो डॉलर l फिर भी यह उत्पाद भारत में धरल्ले से बिकता है l उस उत्पाद के विज्ञापन देख कर बच्चे बड़े खुश होतें है l भारत देश को विश्व की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था का खिताब बताया गया है l यह ख़िताब देने वाली वे ही एजेंसियां है, जो उन्ही देशों में ऑपरेट करती है, जहाँ से ये तेजी से बिकने वाले उपभोक्ता सामान बिकते है l बड़ा भारी गड़बड़झाला है l मजे की बात यह है कि सिर्फ सामानों तक यह संस्कृति सिमित रहती, तब कोई बात नहीं थी, इसने हमारे विचारों और तहजीब तक को रौंद डाला है l शिक्षा, स्वास्थ मिडिया, समाज, सभी l मानो वाइरस घुस गया है l हमारी शादी विवाह भी अब इस संस्कृति की आंच से अछूते नहीं रहें है l शादियाँ अब महँगी होने लगी है, क्योंकि उसमे आधुनिकता का तड़का जो लग गया है l

कहते है कि अब इसे रोका नहीं जा सकता है l नया जमाना पहले के ज़माने से अच्छा और आराम दायक है l प्रगतिवादी कहतें है कि शिक्षा और स्वास्थ ने भारी प्रगति की है l लोगों को रोजगार और इलाज़ मिला, जिससे एक आम आदमी के लिए रहन-सहन सहज हो गया l मानवसंसाधन के निर्माण  की दिशा में यह एक महवपूर्ण कदम है l रोजगार के सृजन से देश की गरीबी कुछ कम हुई है l प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ी है l ऐसे में इस तरह की अर्थव्यवस्था फिलहाल भारत के लिए लाभदायक है l हमें इसी को पकड़ कर आगे बढ़ना है l महत्वपूर्ण बात यह है कि एक पुरातन सभ्यता के झंडाबरदार होने के नाते, अब यह हमारी जिम्मेवारी है कि हम अपने विचार, संस्कृति और तहजीब को संजोने के लिए उन मूल्यों को जीवित रखे, जिससे हम जिन चीजों से जाने जातें है, वें हमारे यहाँ जीवित रह सके l          

Friday, August 11, 2017

स्वंतत्रता दिवस के बदलते मंजर
रवि अजितसरिया

इस पंद्रह अगस्त को देश सत्तरवा स्वतंत्रता दिवस मनायेगा l स्‍वतंत्रता दिवस समीप आते ही चारों ओर खुशियां फैल जाती है। लोग तरह के आयोजन करने लागतें है l आजादी के इस पर्व पर पुरे देश में जहाँ हर्ष और ख़ुशी का वातावरण रहता है, वही पिछले 30 वर्षों से असम के लिए स्वतंत्रता दिवस महज एक शासकीय जलसा जैसा होता है, जहाँ पूरा सरकारी व्यवस्था पुरे जोश के साथ इस पर्व को मनाती है l राज्‍य स्‍तर पर विशेष स्‍वतंत्रता दिवस कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जिसमें झंडातोलन, मार्च पास्‍ट और सांस्‍कृतिक आयोजन शामिल हैं। चूँकि राज्य के मुख्‍यमंत्री इस कार्यक्रम  की अध्‍यक्षता करते हैं, सुरक्षा का जबरदस्त इन्तेजाम होता है जिसकी वजह से इस सरकारी जश्न में आम आदमी की भागीदारी बेहद कम होती है l आम आदमी की भागीदारी नहीं होने की मुख्य वजह है, सरकारी उदासीनता l राज्य सरकार द्वारा लोगों में विश्वास पैदा करने में विफल रहने के कारण एक बंद जैसा माहोल असम में हर वर्ष विराज करता है l सड़क पर पब्लिक ट्रांसपोर्ट अधिक नहीं होने के कारण लोग एक स्थान से दुसरे स्थान पर नहीं जा सकते l कर्मचारी वर्ग पिछले तीस वर्षों से इस दिन घर पर छुट्टी मनाता आया है l उनके लिए स्वतंत्रता दिवस महज एक छुट्टी का दिवस है l हर वर्ष पूर्वोत्तर के उग्रवादी संगठन, स्वंत्रता दिवस के बहिष्कार की अपील करतें है, और लोगों पर एक मानसिक दबाब डाल कर उन्हें घरों में रहने को मजबूर भी करतें है l इस धमकी भरी अपील की वजह से राज्य भर में स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रम सरकारी रूप में ही मनाये जातें रहें है l इन वर्षों में गुवाहाटी के कई इलाकों में स्वतंत्रता दिवस का जश्न पुरे जोश के साथ मनाया जा रहा है l फैंसी बाज़ार जैसे इलाके में जहाँ कभी स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सन्नाटा विराजता था, वहां पिछले कई वर्षों से स्वंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस, दोनों के मौकों पर, समूचा इलाका देश भक्ति के गीतों से गूंज उठता है l अब फैंसी बाज़ार में हर वर्ष मारवाड़ी युवा मंच के बेनर के तले यह कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है l मारवाड़ी युवा मंच के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप जैन, जिनकी अध्यक्षता में पहली बार सन 2002 के दौरान पहली बार खुले में स्वतंत्रता दिवस का कार्यक्रम आयोजित किया गया था, उनको इस बात की ख़ुशी है कि जिस पहल को उन्होंने सन 2002 में शुरू की थी, आज वह सार्थक होती दिखाई दे रही है l उल्लेखीनीय है कि फैंसी बाज़ार में खुले में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर झंडोतोलन और सांस्कृतिक कार्यक्रम करने की शुरुवात करने के श्रेय मारवाड़ी युवा मंच को ही जाता है l अब तक फैंसी बाज़ार, आठगांव, कुमारपाड़ा, इत्यादि इलाकों में वाकायदा स्टेज बना कर सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते है और बड़ी संख्या में आम लोग शामिल होतें है lछोटे पैमानों पर शैक्षिक संस्‍थानों, आवास संघों, सांस्‍कृतिक केन्‍द्रों और राजनीतिक संगठनों द्वारा भी स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। सन अस्सी और नब्बे के दशक में जब उग्रवादियों की स्वतंत्रता दिवस के बहिष्कार की धमकी आती थी, तब भय और अविश्वास की वजह से लोग इस दिन घरों से बाहर भी नहीं निकलतें थें l  
बच्चें अपने अभिभावकों से पूछ्तें थें कि कब उन्हें स्वतंत्रता दिवस मानाने का मौका मिलेगा l वे भी तिरंगे को लेकर झूमना चाहतें थे l प्रत्यक्षदर्शी बतातें है कि उन दिनों एक हफ्ते पहले से ही सुरक्षा के बड़े इन्तेजाम होने लगतें थे l बम फटने की घटना आम थी l स्वतंत्रता दिवस के दिन लोगो घरों में दुबके रहतें थे l इन 15 वर्षों के के दौरान धीरे धीरे लोगों में सुरक्षा का विश्वास जमने लगा और आज लोगो मुक्त रूप से बड़े पैमाने पर स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रम आयोजित करने लगे है l अब लोगों के घरों के उपर तिरंगा लहराता हुवा दिखाई देने लगा है l बच्चे प्लास्टिक और कागज के झंडे लिए झूमते हुए दिखाई देतें है l इतना नहीं ही, लोग अपने चहरे पर तीन रंगों की आकृतियाँ भी गुदवा कर ख़ुशी जाहिर करतें है l तीन रंगों के बेलून, पोशाकें, जुलुस की शक्ल में भारत माता का जयघोष और मोटर साइकिल रेलिया, आज स्वतंत्रता दिवस के पर्व का हिस्सा है l बुलेट मोटर साइकिल रेली हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी गुवाहाटी के स्वतंत्रता दिवस का हिस्सा बनेगी l इस बदलती फिजा का आनंद अब लोग लेने लगें है l वे मुक्त रूपसे उस दिन विचरने लगें है l यह बात अलग है कि शासन की तरफ से स्वतंत्रता दिवस के एक हफ्ते पहले से ही प्रमुख मार्गों पर सुरक्षा के कड़े बदोबस्त किये जाते है, जिससे यह पता लग जाता है कि स्वतंत्रता दिवस आ रहा है, घर पर ही दुबके रहो l इस तरह का मोनोभाव लेकर एक आम आदमी फिर भी स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रम को अपने लेवल पर आयोजित करने को आतुर रहता है l यह उसकी देश भक्ति ही तो है, जो उसे धमाकों के सायें में भी ऐसे कार्यक्रम आयोजित करने के लिए प्रेरित करती है l चूँकि स्वतंत्रता महज भौगोलिक आजादी के नाम नहीं है, बल्कि एक व्यक्ति, एक देश की अस्मिता से जुडी हुई भावना है, जो उसे निरंतर प्रेरित करती है, आजादी के दिन को मानाने के लिए l सभी यह मानते है कि ये आयोजन और भी पड़े पैमाने पर होने चाहिये, जिससे ऐसा लगने लगे कि यह एक जनता का पर्व है ना कि शासन का l सभी प्रमुख शासकीय भवनों को रोशनी से सजाया जाता है। आम आदमी को भी इस दिन विशेष तौर पर अपने घरों, रास्तों को सजाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिये l तिरंगा झण्‍डा घरों तथा अन्‍य भवनों पर जब फहराया जाता है, तब किसी का भी सीना चौड़ा हो जाता है और वह अदब से उस झंडे को सलाम करने लग जाता है l स्‍वतंत्रता दिवस, 15 अगस्‍त एक राष्‍ट्रीय अवकाश है, इस दिन का अवकाश प्रत्‍येक नागरिक को बहादुर स्‍वतंत्रता सेनानियों द्वारा किए गए बलिदान को याद करके मनाना चाहिए। स्‍वतंत्रता दिवस के एक सप्‍ताह पहले से ही विशेष प्रतियोगिताओं और कार्यक्रमों के आयोजन द्वारा देश भक्ति की भावना को प्रोत्साहित करने क लिए किया जाना चाहिये l यूँ तो सरकार द्वारा रेडियो स्‍टेशनों और टेलीविज़न चैनलों पर इस विषय से संबंधित कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। शहीदों की कहानियों के बारे में फिल्‍में दिखाई जाती है और राष्‍ट्रीय भावना से संबंधित कहानियां और रिपोर्ट प्रकाशित की जाती हैं, मगर ये कार्यक्रम महज एक औपचारिकता भर बन कर रह गएँ है l जब तक आम लोग इस आजादी के पर्व को  

पुरे दम ख़म और उल्लास से नहीं मनाएंगे, ऐसा नहीं लगेगा कि हम आजादी के सही मायने को समझ पायें है l पिकेटिंग, जुलुस, प्रतिवाद यात्रा में भाग लेने वाले प्रतिभागियों और जेलों में बंद रहने वालें कैदियों द्वारा दिए गए बलिदानों को याद करने का समय है, आज़ादी का यह दिन l हो सकता है कि राजनीति के गलियारे से विचलित करने वाली घोषणाएं, कुछ क्षणों के लिए मन में कड़वाहट ले कर आये, पर हमारी जड़े इतनी मजबूत है कि हमें कोई हिला नहीं सकता, हमें कोई तोड़ नहीं सकता l और बच्चन जी के शब्दों में ‘है अँधेरी रात पर दिवा जलाना कब मना है’ l      

Friday, August 4, 2017

जीएसटी के लागु होने के एक महीने बाद का परिदृश्य
रवि अजितसरिया
                               वीरान पड़ी थोक मंडिया

भारत में इस समय आम आदमी, खास करके देश के मंझले और खुदरा व्यापरियों के मुश्किल भरें दिन चल रहें है l यह बात हम इसलिए कह रहे है क्योंकि व्यापरियों के माथे पर चिंता की लकीरे साफ़ दिखाई दे रही है l उन्हें चिंता है अपने भविष्य की, जो इस समय उन्हें चुनौती दे रहा है l हम बात कर रहे है जीएसटी के एक महीने के बाद के परिदृश्य की, जो भयावह हो कर व्यापारियों की रातों की नींद हराम कर रहा है l लागू होने के एक महीने बाद से अब तक जीएसटी पर सब कुछ साफ़ नहीं है l बाज़ार जाने वाले लोगों को अबतक यह समझ नहीं आ पा रहा है कि इसके लागू होने से क्या सस्ता हुआ है और क्या महंगा l थोक मंडियां वीरान पड़ी हुई हैं l खुदरा विक्रेता अभी जीएसटी का सॉफ्टवेयर लगाने में व्यस्त हैं l खरीदारी करने वाले लोग भी अभी तक समझ नहीं पा रहे हैं कि जीएसटी के आने से उनके बज़ट पर क्या फर्क़ पड़ा है l जीएसटी लागू होने के एक महीने बाद बाजारों में पहले जैसी अफरातफरी तो नहीं, लेकिन व्यापार अब भी पटरी पर नहीं लौटा है। खासकर फेस्टिव सीजन की सप्लाइ के मद्देनजर हालात खराब बताए जा रहे हैं। रक्षा बंधन, दुर्गा पूजा, दशहरा और दिवाली जैसे त्योहारों के नजदीक आने पर हर वर्ष इस समय बाजारों में गहमा-गहमी बढ़ आती है, जो इस वर्ष दिखाई नहीं दे रही है l इस ख़राब हालात के लिए जीएसटी को जिम्मेवार बताया जा रहा है l सेल्स पिछली सीजन के मुकाबले 50% से भी कम हो गई है और त्योहारी सीजन की सप्लाइ को लेकर चिंता बढ़ रही है। हालांकि अधिकांश रजिस्टर्ड डीलर जीएसटी में माइग्रेट कर चुके हैं, लेकिन रेट, एचएसएन कोड, रिवर्स चार्ज और बिलिंग को लेकर कन्फ्यूजन कायम है। ट्रांसपोर्टेशन में सुधार हुआ है, लेकिन बुकिंग अब भी मई-जून के मुकाबले 30-40 प्रतिशत कम बताई जा रही है। इस पूरी कवायद में एक बात साफ़ है कि आम आदमी भी इस असमंजस में है कि जीएसटी की बात करे, या फिर व्यापारियों के असहजता को समझ कर उनका साथ दे l ग्राहक भी सरकार द्वारा जीएसटी के लागु होने के अत्याधिक विज्ञापन किये जाने से, इस आशा में है कि प्रत्येक वस्तुओं के दाम कम होंगे l व्यापारियों ने जीएसटी में सरकार का साथ दे कर पहले से ही इस नयी प्रणाली को समझने का प्रयास किया है, पर बड़ी बात है कि एक महीने के बाद भी व्यापरियों के पास जीएसटी की पूरी समझ नहीं है l छोटे और माध्यम दर्जे के व्यापारियों का कहना है कि वे मॉल बेचे या जीएसटी को तमिल करने में अपना पूरा वक्त खातों को मेन्टेन करने में लगायें l कुछ व्यापारियों ने पार्ट टाइम अकाउंटेंट भी रख लिए है l पर छोटे व्यापरियों की स्थिति एक तरफ नदी और दूसरी तरफ खाई वाली है l अगर अकाउंटेंट रखते है, तब व्यापार पर भारी दबाब पड़ेगा, और नहीं रखते है, तब पुरे दिन जीएसटी को लेकर माथापच्ची करतें रहो l 

कुछ व्यापरियों का कहना है कि जीएसटी के नए पंजीकरण करने के लिए और बैंक अकाउंट की जरुरत रहती है, और उसे खुलवाने के लिए ट्रेड लाइसेंस लेने की आवश्यकता रहती है l जिन व्यापारियों के पास ट्रेड लाइसेंस नहीं थे, उन्होंने जब अपना आवेदन किया, तब उनको एक महीने का समय दिया है l इस टालमटोल रवैये ने व्यापरियों को परेशान कर रखा है, और उनकों घूस दे कर जल्दी लाइसेंस बनवाने को मजबूर भी किया जा रहा है l एक भुगत भोगी व्यापारी जब अपना लाइसेंस नवीनीकरण करवाने निगम दफ्तर पंहुचा, और सात दिनों तक चक्कर लगाने के बावजूद भी उनका लाइसेंस नवीनीकरण नहीं किया गया l यह तो सिर्फ एक बानगी भर है, ऐसे मामले अभी सामने आ रहें है, कि पूरी जीएसटी प्रणाली को ही अपने होने पर शर्म आ जाये l पुरे भारत वर्ष में एक कर प्रणाली लागु करने के वादे के साथ आने वाली सरकार ने जीएसटी को तो लागू कर दिया पर उसके साथ, वर्षों से लकड़ी के घुन की तरह लगे हुए भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए विभिन्न विभागों से इन्स्पक्टोर्राज को ख़त्म करने में असफल रही है, जिसका खामियाजा आज व्यापारी भुगत रहें है l मोदी सरकार आने के पश्चात केंद्र सरकारों के दफ्तरों में वर्क-कल्चर शुरू हो कर तेजी से दिखाई देने लगा है l यह स्थिति असम में क्यों नहीं दिखाई देती l भाजपा सरकार आने के अभी एक वर्ष से ज्यादा हो चुके है, पर अभी भी असम सरकार के कार्यालयों में कर्मचारी पुराने तरीकों से ही कार्यालय चला रहें है l मजे की बात है कि राजस्व उत्पत्ति करने वाले कार्यालयों में भी कार्यों में तेजी दिखाई नहीं दे रही है l ऐसे में एक कर एक प्रणाली की बारीकियों को व्यापारियों को कौन समझाएं l राहत की बात यह रही कि सरकार ने व्यापारियों को दो महीने की रियायत दे दी, वर्ना तो देश भर में उथल-पुतल मच जाती l

इधर खबर यह है कि देश भर में 20 अगस्त तक करीब 71 लाख व्यापारी जीएसटी में माइग्रेट कर चुके होंगे l यह संख्या इस माह के अंत तक 1 करोड़ तक पहुचने की उम्मीद है l कहने को तो जीएसटी में माइग्रेट करना आसान है, पर जब व्यापारी एक बेंक अकाउंट खोलने जाता है, तब उसको ट्रेड लाइसेंस नहीं होने के लिए लौटा दिया जाता है l इसी तरह से, जब व्यापारी ट्रेड लाइसेंस के लिए निगम के दफ्तर जाता है, तब उसका वहां स्वागत नहीं किया जाता है, बल्कि एक गैर-जरुरी आगंतुक की तरह व्यवहार किया जाता है l उसके लिए उस कार्यालय में कोई बैठने तक की भी व्यवस्था नहीं है l वहां से हताश हो कर व्यापारी किसी दलाल की शरण में चला जाता है और अपना काम करवाता है l भारतवर्ष में अभी भी हर सरकारी कार्यालय में एक दलाल चक्र मौजूद रहता है, जो कार्य की सुगमता के आड़े आता है l जीएसटी और शासन द्वारा घोषित की गई अन्य महावाकंक्षी योजनाओं की सफलता के लिए भ्रष्टाचार के इस नेटवर्क को ताड़ना नितांत आवश्यक है l    

Friday, July 21, 2017

ये जिंदगी ना मिलेगी दुबारा
रवि अजितसरिया

अपने अंतर्मन से प्रेरित हो कर इस दुनिया में लोगों ने अपनी कठिन जिंदगी को हमेशा से ही सरल और मीनिंगफुल बनाने की कौशिश की हैं, चाहे वह ध्यान, अध्यात्म और भगवत पूजा के द्वारा हो या फिर दुनिया की तमाम उपलब्ध वस्तुओं को उपभोग करके हो l पर इंसान ने हमेशा से ही बदलाव के द्वारा एक खुबसूरत जिंदगी जीने की और रुख किया है l इस समय सबसे बड़ी और कठिन तपस्या इंसान की, स्वस्थ रहना है l स्वास्थ के लिए जब पूरी दुनिया में अरबों-खरबों रुपये खर्च हो रहें है, ऐसे में उसका लाभ धीरे-धीरे मानव जाति को मिलने की और अग्रसर है l तमाम द्वन्द्वों के बीच मुट्ठी भर सुख की प्राप्ति की चाह कर कोई कर रहा है l पर कहाँ रहता है, यह सुख, कैसा है इसका चहरा, कौन बताता है, सुख की दिशा l कई सारे प्रश्न हमारे दिमाग में कौध जातें है, जिनके जबाब हमें नहीं मिलतें l अत्यधिक धन होना, किसी बड़े सुख की अनुभूति नहीं भी दे सकता है, जबकि एक छोटा क्षण हमें इतना सुख दे सकता है कि जीवन की गति ही बदल जाये l जीवन जीने की कला सिखाने वाले गुरु रविशंकर, जिन्हें लोग श्री श्री के नाम से जानते है, श्री श्री रविशंकर को मानवातावदी और आध्यात्मिक गुरु के तौर पर वैश्विक स्तर पर पहचाना जाता है। मानव मूल्यों को बढ़ाकर, हिंसा और तनाव मुक्त समाज स्थापित करने से संबंधित इनके दृष्टिकोण ने सैकड़ों लोगों को अपने उत्तरदायित्वों को बढ़ाने के लिए प्रेरित किया है। निश्चित रूप से यह विश्व की बेहतरी के लिए एक बड़ा कदम साबित हुआ। इस संसार में समृद्धि और सुख में हमेशा से एक द्वंद्व रहा है l समृद्धि के लिए सुख या फिर सुख के लिए समृद्धि, यह प्रश्न लाख टेक का है l वैभव का प्रदर्शन करके बड़ी-बड़ी शादियाँ आयोजित होती है, उसमे भी जो रीति-कर्म होतें है, वे बिलकुल वैसे ही होतें है, जैसे कि एक साधारण शादी में होतें है l अब रोटी-कपड़ा-मकान से जीवन नहीं चलता, बल्कि उन तमाम जरूरतों को जुटाते हुए जीवन को जीने की एक कला है, जिसको हर मनुष्य आज ढूँढ़ रहा है l कुछ लोग जो जीवन भर सेक संघर्ष भरा जीवन जी रहें होतें है, उनके लिए मात्र समृद्धि ही सुखी होने की निशानी है l आसुओं से कुश्ती लड़ कर कुछ लोग, एक नई जिंदगी जीने के लिए जीवन से ही प्रेरणा प्राप्त कर लेतें है l खिड़की के झरोखे से दिखाई देने वाला एक छोटा सा दृश्य भी, उन्हें एक नए जीवन की और ले जाने में सक्षम है l ‘लाइफ ऑफ़ पाई’ नामक पुस्तक के लेखक यान मार्टल है, जिन्हें मेन-बुकर पुरूस्कार भी मिला था l सन 2012 में उनकी पुस्तक पर बनी फिल्म जीवन, साहस और उत्तरजीविता(सर्वाइवल) पर आधारित है l ढेर सारी परेशानियों के बीच कहानी का मुख्य पात्र पाई जीने की चाह लिए, बच जाता है l इस रोचक कहानी के विपरीत हर किसी के जीवन में ऐसे कई ऐसे मौके आते है, जब मुसीबतों के पहाड़ टूट पड़ते है, जिसको झेलना हर किसी के बूते की बात नहीं है l पर जैसा कि महात्मा बुद्ध कहते है कि आनंद का पहले सूत्र है, दुःख की स्वीकृति, उसके मनोभाव को समझना, उसके अस्तित्व के अनुभव से संसार के यथार्थ को समझना l मनुष्य जब सपन देखता है कि एक दिन जब वह सभी बिमारियों पर विजय प्राप्त कर लेगा,  
तब दुनिया में सुख के नए स्त्रोत पैदा होंगे, जिससे सारा का सारा मानव समाज सुखी हो जायेगा l जब दार्शनिक और भविष्यवक्ता नास्त्रेदमस, पृथ्वी और समस्त मानवजाति के ख़त्म होने की भविष्यवाणी कर रहे थे, तब उनको थोड़ी ही पता था कि यही मानव अपनी कठोर प्रतिबद्धता से हर भविष्यवाणी को उल्टा साबित कर देगा l जब धरती पर इतने संसाधन नहीं थे, तब आबादी भी इतनी नहीं थी, संघर्ष से भारी जिंदगी में इंसान की वास्तविक खूबियों की अपेक्षा होती रही, ऐसे में 21वी सदी मानव जाती के लिए वरदान बन कर आई है l तकनीक और सुचना प्रसारण अपने विकास के चरम पर है l मानव चाँद और अन्य ग्रहों पर घर बनाने की और अग्रसर है l न्याय संगत और विचार आधारित धरातल की सृजनशीलता ने मानवजाति के कद तो अब बहुत बड़ा बना दिया है l बोद्ध ग्रंथ ‘मिलिंद प्रश्न’ एक ऐसा ग्रंथ है, जो उपदेशात्मक है, और सत्य से साथ साक्षात्कार करवाता है l इसमें मूल बात यही है कि जिस चीज का प्रवाह पहले से चला आता है, वही चीज पैदा होती है l मानवीय वृतियों का सूक्षमता से समझने से पहले यह समझना जरुरी है कि वे निहित श्रंखलायें क्या है जो एक जीव को मानव बनता है? उसके सोचने और समझने की शक्ति और जिजीविषा जिसके प्रदर्शन से वह एक मानव कहलाता है l

इन सबके बावजूद, परिश्रम और सृजनता कुछ ऐसे गुण है, जिन्हें मनुष्य नकार नहीं सकता l फिल्म आनंद में बीमार राजेश खन्ना के संवाद थे कि जिंदगी लम्बी नहीं, बड़ी होनी चाहिये, इस बात  को बल देता है कि जीवन में मनुष्य कुछ ऐसा कर जाये कि जीवन में सार्थकता बनी रहें l पेड़ लगाना, उनकी देखभाल, लाइब्रेरी में किताबेंदान, गरीब बच्चों की शिक्षा का दायित्व और अजनबियों की सहायता, कुछ ऐसे छोटें कार्य है, जो एक जन कर के मुस्करा सकता है l पश्चिमीकारण की लहर अब समाज के निचले स्तर पर पहुच रही है, जिससे सामाजिक ढांचा स्वतः ही चकनाचूर होने की कगार पर है l सामाजिक और मानवीय मूल्यों का जबर्दस्त ह्रास होने से अब यह समझना होगा कि व्यक्ति के अविभाज्य गुणों को जीवन के साथ दुबारा कैसे जोड़ा जाए l         

Friday, July 14, 2017

समाजिक कुरीतियाँ रातों रात नहीं मिटती
रवि अजितसरिया

सामाजिक कुरितयों पर अभी एक जबरदस्त चर्चा चल रही है कि मृत्यु भोज का स्वरुप क्या हो ? लेखक और सामाजिक कुरीतियों, फिजूल खर्ची और आडम्बर के विरुद्ध आवाज उठाने वाले कार्यकर्त्ता मदन सिंघल ने इस प्रश्न के साथ कई ऐसे विषयों पर चर्चा की है जिस पर विवेचना आवश्यक ही नहीं बल्कि अत्यंत जरुरी है l हम बात एक कहानी के द्वारा दुसरे विषय से शुरू करतें है l द्वापर युग में एक पूतना नाम की पिशाचिनी हुई थी। भागवत पुराण में वर्णन है कि वह बड़ी भयंकर और विकराल थी, पर बाहर से बड़ा सुन्दर मायावी रूप बनाये फिरती थी। उसका काम था बालकों की हत्या करना, इसी में उसे आनन्द आता था, आखिर पिशाचिनी ही जो ठहरी। अन्त में उसका दमन कृष्ण भगवान ने किया और लोगों के सामने उसके विकराल भयंकर रूप का भंडाफोड़ किया। आज सामाजिक कुरीतियों की अनेक पिशाचिनी चौंसठ मसानियों की तरह खूनी खप्पर भर−भर कर नाच रही हैं। शादी-विवाहों के दिनों बड़ी रौनक और धूम-धाम होती है। बड़े-बड़े पंडाल, पचासों तरह की आइटम, आकर्षक सजावट और तमाम तरह के नाच-गान l पर इस पुरे आयोजन में आये हुए अथितियों का स्वागत कैसे करें, इसका अंदाजा, आयोजक को इस उन्माद में नहीं रहता l इस बात में भी सच्चाई है कि आयोजकों को विवाह कैसे करना है, इसका निर्णय लेने का उसे पूरा हक़ है l पर इसका दुष्प्रभाव समाज पर कैसे पड़ता है, इसका अंदाजा विवाह से पूर्व ही आयोजकों को होना चाहिये l आडम्बरपूर्ण विवाह की नक़ल समाज में होती है, जिसका दुष्परिणाम भविष्य में समाज भोगता है l समाज शास्त्री इसे उन्माद की संज्ञा देतें है l हम ऐसे उन्माद को अर्थव्यवस्था के लिए इसलिए घातक कहते है क्योंकि सामर्थ नहीं होने के वावजूद भी व्यक्ति अपनी हसियत से अधिक खर्च करता है और फिर महाजनों को चुकाने में अपनी पूरी जिंदगी कटा देता है l लोक-लाज का डर, रिश्ते-नातेदारों में नीचा दिखने का डर, जग हंसाई, कई तरह के डर मनुष्य को कमजोर और भीरु बना देता है, जिससे कुरीतिया लौकी की बेल की तरह फैलती चली जाती है l धर्म और लोक-परम्पराओं को मानने वाला समाज हर ख़ुशी और गम के मौके पर यथा शक्ति आयोजन करता है, जो शास्त्र सम्मत भी होता है l पर जब, ऐसे आयोजन बोझ लगने लगे, तब वह मानव जाति के लिए अभिशाप बन जाते है l विवाह में होने वाले अपव्यय, मृत्यु पर होने वाले खर्चे इतने अधिक हो गए है कि अगर ना किये गए, तब उन पर गरीब या कंजूस होने का लांछन लगने का डर हो जाता है l ये आयोजन इतने खर्चीले बन गएँ है कि आम आदमी के बल-बूते के बाहर हो चले है l अब यह बात आयोजनकर्ता को खुद को तय करनी होगी कि वह किस तरह का आयोजन उसे करना है l इसमें लोक-लाज की बात कही भी नहीं आनी चाहिये l समाज में अघोषित सामाजिक तंत्र के ध्वंश होने से, वे आयोजन, जो माध्यम वर्ग पर प्रभाव डालते है, उन पर किसी किस्म की कोई निगरानी प्राय समाप्त हो गयी है l ज्यू-ज्यू दावा दी, मर्ज बढ़ता ही गया वाली तर्ज पर, अब फिजूलखर्ची और आडम्बर ने सभी घेराबंदी को तोड़ दिया है और उन्मुक्त हो कर विकराल रूप धारण कर चुकी है l आडम्बर और दिखावे में किसी के भी कुछ भी हाथ नहीं आता, बस क्षणिक आनंद, जो चंद घंटे बाद समाप्त हो जाता है l जो व्यक्ति ऐसे आयोजन करके अपने-आप को राजा से कम नहीं समझता, अन्य के सामने बड़ा बनाने की कौशिश करता है, वही व्यक्ति एक या दो दिनों बाद सामान्य व्यक्ति की तरह ही समाज में वास करता है l हिन्दू समाज में कुरितयों अब सर दर्द बन गयी है l इसमें व्यापक सुधार की आवश्यकता है l समय समय पर प्रगतिशील लगों ने इस बात को सार्वजनिक स्तर पर उठाया भी है, पर कोई ठोस नतीजा निकल कर नहीं आता l दुःख की बात है कि फिजूल खर्ची और आडम्बर में धार्मिक आडम्बर भी शामिल हो गया है l धार्मिक आयोजनों में राजनैतिक व्यक्तियों को बुलाया जाना, इस बात का सूचक है कि किसी निहित स्वार्थ से ऐसे आयोजन किये जा रहे है l
एक सुझाव


समूचा असम इस वक्त बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहा है l राज्य के लाखों लोग इससे प्रभावित हुए है l सरकार द्वारा, आने वाले दिनों में बाढ़ राहत के लिए अपील होनी स्वाभाविक है l ऐसे में समाज के सभी घटक के लोग यह निर्णय ले कि वे आने वाले दिनों में किसी भी तरह के आयोजन में फिजूलखर्ची नहीं करेंगे और बाढ़ राहत के लिए एक सम्मिलित राशि का समायोजन करेंगे l क्योंकि बाढ़ राहत भी एक पुण्य और समाजिक जिम्मेवारी है, अगर संभव हो तब उन आयोजनों के खर्च भी बाढ़ राहत में दे, जो धार्मिक उद्देश्य से किया जाने वाला हो l कोई भी अगर बड़ा आयोजन करता है तब वह उतनी ही राशि बाढ़ सहायतार्थ सम्मलित फंड में जमा करेगा l इस सम्मिलित समायोजन से यह फायदा होगा कि एक विशाल फंड जमा हो जाएगा, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि असम का व्यापारी समाज ने विपत्ति के समय एक विशाल राशि अपने फंड से निकाल कर दी है l अन्यथा, हर वर्ष आने वाली बाढ़ के दौरान अलग अलग संस्थाएं, अपने हिसाब से बाढ़ रहत करती है, जिसकी ना तो सुचना लगती है और ना ही कोई नजर पड़ती है l फिर सरकार का कोई मंत्री या नेता, टिपण्णी कर देता है कि व्यापारी समाज ने कोई भी राहत कार्य नहीं किया है l सामाजिक और प्रतिनिधि संस्थाएं मारवाड़ी युवा मंच और मारवाड़ी सम्मेलन, जिनकी शाखा समूचे पूर्वोत्तर में है, केद्रीय रूप से यह कार्य कर सकती है l असम की व्यापारिक संस्थाएं अपने सदस्यों सी अपील कर सकती है कि वे केन्द्रीय रूप से इस कार्य को सम्पादित करे l