Friday, October 25, 2019

अप्पो दीपो भव


अप्पो दीपो भव
गौतम बुद्ध जब अपना शारीर त्याग रहे थे, तब बेहद व्यथित हुए शिष्य आनंद ने भगवान् बुद्ध से पूछा कि बुद्ध के चले जाने के बाद उनका मार्गदर्शक कौन होगा, उनका गुरु कौन होगा l बुद्ध ने मरते वक्त एक ही वाक्य में इस प्रश्न का जबाब दिया अप्पो दीपो भव’, यानी खुद एक दीपक बनों, खुद अपने आप में रोशन हो जाओं, अपने आप में सरण लो, सत्य के साथ रहों और उसे जानने की चेष्ठा करों l इस वाक्य के उपर सैकड़ों बार बोद्ध धर्म के अनुयायियों ने विश्लेषण किया और हर का एक ही मत था कि मनुष्य को खुद का एक संसार बनाना चाहिये, खुद का एक द्वीप बनाना चाहिये, जहाँ वे किसी के सहारे नहीं रहे, खुद के उपर ही अपना साम्राज्य स्थापित करे l मनुष्य की प्रवृति समाज या परिवार की रही है, वह अकेला नहीं रह सकता l वह जहाँ भी गया, उसने नए घरोंदे बनाये और अपना कुनबा स्थापित कर लिया l सुदूर देशों से एक स्थान से दुसरे स्थान को प्रवर्जन करके आने वाले लोगों ने अपने आप को ना सिर्फ स्थापित किया है बल्कि स्थानीय लोगों के साथ मिलकर गिंदगी की कठिन से कठिन स्थितियों को भी संभाला है l अपने और उनके के भेद को समाप्त करके एक परिवार की तरह रहें है l लगभग हर देश में इस तरह के उदारहण मिल जायेंगे l उनलोगों ने भी अपनी अस्मिता और पहचान को बरक़रार रखा है l असम तथा समूचे पूर्वोत्तर में बिहार, उत्तर प्रदेश राजस्थान और हरियाणा के लोगों ने पिछले 300 वर्षों प्रवर्जन किया है, और शांतिपूर्वक यहाँ वास किया है, इस भूमि को अपना घर बनाया है l समय समय पर क्षेत्रीयतावाद की तीव्र आंधी भी इनको डिगा नहीं सकी l एक बड़ा कारण यह रहा है कि बड़ी संख्या में रहने वाले हिंदी भाषियों ने यहाँ अपनी जड़े बना ली है l अब उनको यहाँ से उखाड़ना मुश्किल ही नहीं नामुनकिन है l समय समय पर चंदे को लेकर जब भी हिंसा होती है, यह समझा जाता है कि जातिवाद और भाषीय पृथकता का दंश समूचे पूर्वोत्तर में बुरी तरह से फैला हुवा है l अभी हाल ही में डिब्रूगढ़ के करीब चारखोलिया रामसिंह चापोरी में चंदे की रकम को लेकर हुई हिंसा भाषीय पृथकता के दंश का तजा उदाहरण है l समय समय पर हमारे राजनेता इस बीमारी को नासूर बना कर इसका फायदा उठाते हैं l पूर्वोत्तर के कई राज्यों में भी प्रवर्जन करके आये लोगों के लिए भी आज से सत्तर वर्षों पहले भी स्थितियां जोखिम भरी ही थी l उस समय दो तरह के प्रवाजनकारी थे, एक तो देश के मध्य और उत्तरी छोर से आये थे और दुसरे थे, पूर्व बंग से आने वाले और बाद में अनुप्रवेश्कारी l यहाँ, भाषा अपने आप को स्थापित करने में सबसे बड़ी दिक्कत बनी l फिर भी मेघालय, मणिपुर और नागालेंड जैसे कठिन राज्यों में प्रवर्जन करके आये लोगों ने अपने आप को यहाँ बसा ही लिया l अगर गौर से देखे तो पाएंगे की इस समय तेजी से फ़ैल रही धरती पुत्र की अवधारणा क्षेत्रीयता का अभिव्यक्ति का एक नया रूप है । इसका तात्पर्य क्या यह है कि किसी क्षेत्र विशेष या राज्य में दूसरे क्षेत्रों के निवासियों को रोजगार प्राप्त करने या निवास करने का अधिकार नहीं है ? भारत के कई राज्यों में दूसरे राज्यों के निवासियों के प्रति विरोध व्यक्त किया जाता रहा है । धरती-पुत्र की धारणा इस मान्यता पर आधारित है कि किसी क्षेत्र विशेष के संसाधनों पर उसी क्षेत्र के निवासियों का अधिकार है । असम समेत पुरे पूर्वोत्तर में धरती पुत्र को लेकर, असम समझोते की धरा 6 के आलोक में, अभी लगातार चर्चाएँ और सभाए हुई है, जिसमे खिलंजिया जैसे शब्द चर्चा में आ रहे है l जो लोग बाहर से आ कर असम में बसे है, चाहे कितने भी वर्षों पहले, उनकी भाषा स्थानीय नहीं है, उनको असम में धरती पुत्र नहीं कहा जाता है l यह जातिय हिंसा जो बीच-बीच में होती है, उसका मुख्य कारण ही है, बाहर से आये हुए लोगों के प्रति नकारात्मक रवैया है, जो उग्र हो जाता है l पर बड़ी संख्या में रहने वाले हिंदी भाषी लोगों ने यहाँ सिद्ध कर दिया कि सकारात्मक नजरिया सफलता की प्रथम सीधी है l यह एक कटु सत्य है कि पूर्वोत्तर में व्यापार करना एक दोहम दर्जे का कार्य माना जाता रहा है, आज भी व्यापारियों को हेय दृष्टि से देखा जाता है l उन्हें एक दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल किया जाता है l व्यापार करने की दक्षता सभी कौम में नहीं होती l हिंदी पट्टी से प्रवजन करके आये लोगों के पास लेन-देन की कूबत होती है, जिससे वे कठिन से कठिन समय में भी व्यापार करके अपनी जीविका चला सकतें हैं l सड़क पर खोमचा लगा कर व्यापार करने वालों को ही देख लीजिये, रोजाना एक परीक्षा में बैठते है, ना जाने कब फ़ैल हो जाए, पर फिर भी डटें रहतें है मैदान में l पुलिस, निगम और रंगबाज, ना जाने कितनों को रोजाना सेट करतें है l फिर भी टिके रहतें है, और अपनी आजीविका चलातें है l यह भी तो एक अलग संसार बनाना जैसा ही तो है l किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना l अपनी कारीगरी और हुनर के साथ अपने व्यापार को स्थापित करने की कला की डिग्री को ही आजकल अंग्रेजी में एमबीएकहतें है, जो की इन लोगों में कूट कूट कर भरी पड़ी है l राजस्थान से प्रवर्जन करके आये हुए मारवाड़ियों ने पिछले तीन सौ वर्ष के करीब से ही पूर्वोत्तर का रुख किया है, कठिन परिस्थितियों में भी अपने वजूद को बनाये रखा है l कोई लाख गालियाँ दे, पर सच्चाई यही है कि इस कौम में व्यापार करने के वे बड़े गुण है जिससे यें कही भी जा कर सेटल हो सकतें है l इन्हें रिजेक्शन से कोई फर्क नहीं पड़ता l ये दुबारा कौशिश करतें है, और सफल हो कर आगे बढ़ जातें है l नई संभावनाओं की तलाश में l सह्ष्णुता, जिजीविषा और आत्मबल के धनी इस कौम लोग हो सकता है कि अन्याय के विरुद्ध प्रतिवाद करने के लिए सड़कों पर नहीं आतें, पर सांकेतिक प्रतिवाद करने में अब नहीं हिचकिचाते l जिससे कई दफा कुछ अप्रिय परिस्थितियां पैदा हो जाती है l खुद का साम्राज्य बानाने के चक्कर में अपनी ताकत और उर्जा का इस्तेमाल सही तौर पर नहीं हुवा है l सामाजिक संस्थाएं अपने उद्देश्य से भटक चुकी है, सुविधावाद पूरी तरह से समाज पर हावी हो चूका है l समस्याओं पर विवेचन तो दूर, चर्चा तक नहीं होती l छोटी से छोटी समस्या के लिए दूसरों के आगे हाथ फैलाना पड़ रहा है, गिडगिडाना पड़ता है l ऐसे में भगवान् बुद्ध की अमर वाणी अप्पो दीपो भवोको आत्मसात करने के अलावा कोई चारा नजर नहीं आ रहा है l सामाजिक एकता के लिए सभी संस्थाओं को कार्य करना होगा, तभी आत्मसंतुष्टि की प्राप्ति हो सकेगी l एक छोटा दीपक घोर अँधेरे में एक नई रौशनी ला सकता है l अपने में दीपक बनाने के लिए कुछ तो जलना होगा ही, जिससे दीपक की ठंडी आभा, सभी जाति, धर्म और समुदाय के लोगों में शांति और भाईचारा फैले l सभी को दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ l             

Friday, October 11, 2019

यह पूरी तरह से पश्चिम की कोपी है


यह पूरी तरह से पश्चिम की कोपी है

बदलाव एक अवश्यंभावी भाव है, जो मनुष्य के अंदर हर पल उमड़-उमड़ कर आतें है l हर पल कुछ नया करने की चाह ने मनुष्य को हमेशा से ही नए प्रयोग और आविष्कार करने के लिए प्रेरित किया है l वैचारिक रूप से ही चाहे, नयी सोच और नई आईडिया इस समय बहुत अधिक दामों में बिकती है l किसे पता था कि एक समय में हम अपने घरों में बैठ कर मन चाहा समान मंगवा सकेंगे l खाना आर्डर कर पायेंगे l यह सब नए विचार और तकनिकी शिक्षा के बेहतर उपयोग की वजह से हुवा है l करोड़ो वर्षों से बदलाव के चलते विश्व की बड़ी बड़ी सभ्यताओं का भी अंत हुवा है, जिसके पश्चात एक नई सभ्यता ने जन्म लिया है, और इसी तरह से दुनिया चल रही है l विकसित देश के लोग अब उपभोक्तावादी संस्कृति से उब कर कुछ नया करना चाहतें है l विकास अपने चरमबिन्दु पर जब पहुच जाता है, तब मनुष्य के मानव मूल्यों का र्हास होने लगता है, जो एक मात्र कारण बनती है, सभ्यताओं के समाप्त होने का l किसी भी समाज के अपने दर्शन होते है, अपने विचार होतें है, उनके अंत होने के कई कारणों में एक यह भी है कि उसी समाज के वासिंदे अपने मूल स्वाभाव के विपरीत आचरण करने लागतें है l पाखंड और भौतिक विचारों का जब खुलें रूप से प्रदर्शन होने लगता है, तब यह तय है कि उस संस्कृति का अंत होने वाला है l जब जनता वास्तविक सामाजिक स्थितियों को नजरअंदाज करके, अपने मूल स्वरुप को खोने लगती है, तब नए विचारों को ही वह अपने मूल विचार मानने लगता है l अब भारत में शादियों को ही देख लीजिये, अपने बूते से बाहर लोग खर्च करने में हिचकिचाते नहीं, मानों एक मौका मिला है, खर्च करने का l इस बेहिसाब खर्च की वजह से माध्यम वर्गीय भारतीय को शादी के लिए रिश्तों को खोजने में असुविधा आ रही है l इसकी एक मुख्य वजह मानी जा रही है, शादी से अत्यधिक अपेक्षा, जबकि शादी हिन्दू समाज की एक रश्म है, जिसको पूरा करना अनिवार्य है l इसी रस्म के नाम पर लाखों-करोड़ो रुपये खर्च किये जा रहें है l फ़िज़ूलखर्ची, आडम्बर और दिखावा, तीन ऐसी चीजे है, जिनसे अगर कोई समाज सबसे ज्यादा प्रभावित है तो वह है भारतीय समाज l भारत के लोगों ने शादी-विवाह, तीज-त्यौहार, धर्म और उन सभी मौकों पर जरुरत से ज्यादा दिखावा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है l सम्पदा का इस तरह से दुरूपयोग माध्यम वर्ग के लिए, इतना भारी पड़ रहा है कि वह ना चाहते हुए भी इस आधुनिकता की दौड़ में शामिल हो गया है l आजकल शादियों में हो रही फिजूलखर्ची और बेवजह के दिखावे से, आम आदमी को शादी जैसे पवित्र रस्म को निभाने में भारी दिक्कतें आ रही है l यह सब गड़बड़ हुई है, उपभोक्तावाद संस्कृति के पनपने से l अभी भारत के लोग उपभोक्तावाद संस्कृति का अनुसरण कर रहे है l देश में छोटें से छोटें शहरों में मॉल खुलने लगें है, जिनमे एक ही स्थान पर सभी वस्तु उपलब्ध रहती है l इसके विपरीत गावों में भी एक अपनी दुनिया है l पर जब वें शहरों की चकाचौंध को देखतें है, तब एकाएक उनका मन भी इसी तरह के शहर की कल्पना करने लगता है l भौतिक युग जो ठहरा l वे भी अपने पास के शहरों में जा कर खरीददारी करतें है l समय के साथ उपभोक्ताओं का खरीदादारी के स्वाद बदलने से अब दुकानदारों को भी मार्किट मे नई आने वाली चीजों को विक्रय के लिए उपलब्ध करवाना पड़ता है l तभी जा कर एक उपभोक्ता खरीदारी करके खुश होतें है l भारतीय लोग अपने आप को परखने की कौशिश ज्यादा करतें है कि वे भी पश्चिम के देशों की तरह पेकेट फ़ूड खाए, ठंडा पिए और विंडो शौपिंग करें l देखा-देखी करने की आदत हम भारतियों में कूट कूट कर भरी पड़ी है l दरअसल में यूरोपीय देशों में ठण्ड अधिक रहने के कारण वहां पेक फ़ूड का चलन है l एक ऐसी सभ्यता का अनुसरण, जिसे भारतीयों ने कभी देखा नहीं l यह पूरी तरह से पश्चिम की कोपी है l अर्थ मानो जीवन का सबसे महतवपूर्ण हिस्सा बन गया है l जीवन मूल्य, संस्कृति और प्रेरणा देने वाला हमारा इतिहास l अब इन सब चीजों से भारतियों को कोई मतलब नहीं l उपभोक्तावादी संस्कृति, जिसकी बेल पर चढ़ कर हम अपने आप को ज्यादा मोर्डेन दिखलाने की चेष्टा कर रहें है, वह भारत के कौने-कौने में उग आई है l अब इससे बचा नहीं जा सकता l अनंत संभावनाओं वाला देश भारत एक उपभोक्ता देश है l भारत देश को विश्व की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था का खिताब बताया गया है l यह ख़िताब देने वाली वे ही एजेंसियां है, जो उन्ही देशों में ऑपरेट करती है, जहाँ से ये तेजी से बिकने वाले उपभोक्ता सामान बिकते है l बड़ा भारी गड़बड़झाला है l मजे की बात यह है कि सिर्फ सामानों तक यह संस्कृति सीमित रहती, तब कोई बात नहीं थी, इसने हमारे विचारों और तहजीब तक को रौंद डाला है l शिक्षा, स्वास्थ मिडिया, समाज, सभी l मानो वाइरस घुस गया है l हमारी शादी विवाह अब इस संस्कृति की आंच से मानों झुलस गए है l शादियाँ अब महँगी होने लगी है, क्योंकि उसमे आधुनिकता का तड़का जो लग गया है l
नए विचारों और आईडिया को रोका नहीं जा सकता l तकनीक के उपयोग से जिंदगी को अधिक आरामदायक और उपयोगी बनाया जा सकता है l प्रगतिवादी कहतें है कि शिक्षा और स्वास्थ ने भारी प्रगति की है l लोगों को रोजगार और इलाज़ मिला, जिससे एक आम आदमी के लिए रहन-सहन सहज हो गया l मानवसंसाधन के निर्माण की दिशा में यह एक महवपूर्ण कदम है l रोजगार के सृजन से देश की गरीबी कुछ कम हुई है l प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ी है l ऐसे में इस तरह की अर्थव्यवस्था फिलहाल भारत के लिए लाभदायक है l हमें इसी को पकड़ कर आगे बढ़ना है l महत्वपूर्ण बात यह है कि एक पुरातन सभ्यता के झंडाबरदार होने के नाते, अब यह हमारी जिम्मेवारी है कि हम अपने विचार, संस्कृति और तहजीब को संजोने के लिए उन मूल्यों को जीवित रखे, जिससे हम जिन चीजों से जाने जातें है l बाजारवाद तो मात्र एक छलावा है l