Friday, December 27, 2019

आखिर देश में कोई समझ क्यों नहीं सका कि एनआरसी क्या है ?


आखिर देश में कोई समझ क्यों नहीं सका कि एनआरसी क्या है ?
पूर्वोत्तर के साथ साथ इस वक्त पुरे देश में नागरिकता संसोधन कानून का विरोध चल रहा है l असम की परिस्थिति थोड़ी भिन्न है l पुरे देश में एनआरसी को नागरिकता संसोधन कानून के साथ मिलाया जा रहा है l यह कहा जा रहा है कि एनआरसी को देश की संसद ने पास कर दिया है l पर सच्चाई बिलकुल विपरीत है l अगर गौर से देखे ता पाएंगे कि असम में एनआरसी पर मुसलमानों का कही भी इसका विरोध नहीं है l जबकि देश भर में आरोप यह है कि यह कानून मुसलमानों के साथ भेदभाव कर रहा है l देश की नामी-गिरामी कॉलेजों के स्टूडेंट्स इस कानून के विर्दोह में निकल आये है l हद तो तब हो गयी, जब, सैकड़ों की तादाद में बुद्धिजीवियों ने भी विरोध में अपने वक्तब्य दिए है l बड़ी असमंजस की स्थिति बन गयी है l कौन किसकी माने, यह समझ में नहीं आ रहा है l पर इस बात को समझना होगा की असम में एनआरसी समाप्त हो गयी है, और एक आवाज तक नहीं आई l एनआरसी में किसी के साथ भेदभाव के लिए कोई स्थान यहाँ पर असम में किसी ने महसूस नहीं किया है l सभी ने इसका समर्थन किया और पूरी तन्मयता से इसमें भाग लिया l नतीजे चाहे कुछ भी निकले होंगे, पर इस सच्चाई से नाकारा नहीं जा सकता कि लोगों ने बड़ी तकलीफें सह कर एनआरसी के सत्यापन को झेला है l कईयों ने अपने कार्यालय से छुट्टी ली, कईयों ने अपने मूल स्थानों पर जा कर दस्तावेज जुटाने की चेष्टा की, कुछ लोगों ने अपने पुराने स्कूल जा कर रोल शीट तक लाने की चेष्टा की, ताकि सत्यापन के समय उसको दिखाया जा सके l इस पूरी कायावाद में दो वर्ष लग गए, और फिर एनआरसी प्रकाशित हो गयी l कुछ लोगों के नाम छुट गए, और उनको दुबारा से फोरेनेर्स ट्रिब्यूनल के समक्ष दुबारा से अपना पक्ष रखना होगा l पर कहने का मतलब यह है कि लोगों ने बहुत बड़ा सहयोग किया एनआरसी के अधिकारियों के साथ, और असम में एनआरसी का काम शांतिपूर्वक समाप्त हो गया l किसी भी दंगे और आगजनी की घटना नहीं हुई l इसके विपरीत देश में एनआरसी अभी लागु भी नहीं हुई है कि लोगों ने समझा की एनआरसी संसद में पारित हो गयी है, और निकल पड़े है विरोध में l दंगे में सैकड़ों लोगों की जान गयी, पर इस बात को कोई समझ नहीं पाया कि एनआरसी क्या है l असम में बहिरागत, अनासमिया जैसे शब्द यहाँ की फिजा में बराबर उछलेतें है l जातिसूचक शब्दों का उपयोग यहाँ अक्सर होता है, जिससे यहाँ पर रहने वाले अनासमिया लोग यह सोचने पर मजबूर हो जातें है कि कही वे भारत में तो नहीं रहतें l पर यह एक वैश्विक फेनेमेना है, नस्लीय भेदभाव की सूची में विकसित देश अमेरिका सबसे उपर है l भारत में तो हर बीस कोस पर एक अलग बोली है, और 500 किलोमीटर पर एक अलग भाषा l पौशाक, रहन-सहन और खान-पान भी अलग है l फिर भी यह देश एक है l देश का कानून सबके लिए बराबर है l यह हमरे लिए सौभाग्य की बात है कि हम एक ऐसे देश में जन्मे है, जहाँ अभी भी कानून का सहारा है l मानवता अभी भी लोगों में जिन्दा है l जिनके नाम एन आर सी में शामिल हो गए है, कम से कम अब वे असम के नागरिक है l वे अब बहिरागत नहीं है l ऐसे लाखों की संख्या में हिंदी भाषियों के नाम एनआरसी में शामिल हो गए है, जिन्होंने वर्षों पहले अपनी मूल निवास भूमि को पीछे छोड़ दिया था l ऐसे हजारों लोगों को अभी भी अदालतों के चक्कर लगाने पड़ेगें, जो अपने मूल निवास भूमि से दस्तावेज लाने में असफल रहें l ऐसे हजारों की संख्या में असम के मूल निवासी भी एनआरसी में कतिपय कारणों से शामिल नहीं हो सके है l पर इतना होने के बावजूद, यहाँ किसी प्रकार की हिंसा और विरोध नहीं हुवा था l इस भ्रम तो तोड़ने के लिए अब सरकार को लोगों के बीच जा कर उन्हें एनआरसी का मतलब समझाना होगा l
लोकतंत्र में दबाब की राजनीति का बड़ा महत्व है, चाहे वह सामने आ कर हो या फिर नेप्पथ्य में हो कर की जाए l ऐसे दबाब समूह होते है, जो सत्ता को निर्णय बदलने में बाध्य कर देतें है l जब भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई तब, कुछ ऐसा नहीं हुवा कि अंग्रेज रातो-रात दिल्ली छोड़ कर चले गए l सामने से दबाब के लिए स्वतंत्रता आन्दोलन और पीछे से राजनैतिक तरीके से दबाब डाला गया, जिसके फलस्वरूप अंग्रेजों ने भारत छोड़ने का निर्णय लिया l जब असम आन्दोलन हुवा, तब वह छह वर्ष चला, खूब प्रदर्शन और हड़तालें हुई, पर दबाब की राजनीति भी खूब चली l तब जा कर एक समझोता हुवा, जिसे हम असम समझोता के नाम से जानते है l दबाव समूह ऐसे हित समूह होतें है, जो सार्वजनिक नीतियों को प्रभावित करके कुछ विशेष हितों को सुरक्षित करने के लिये काम करते हैं। वे किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन नहीं करते तथा अप्रत्यक्ष रूप से काम करते हैं, परंतु ये बड़े शक्तिशाली समूह होते हैं, जो निर्णय को प्रभावित करने की क्षमता रखतें है । लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिये और सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्य को प्राप्त करने में दबाव समूह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दबाव समूहों के माध्यम से नीति-निर्माताओं को यह पता चलता है कि कैसे कुछ विशेष मुद्दों पर जनता क्या अनुभव करती है। तमाम आलोचनाओं के बावजूद भी दबाव समूहों का अस्तित्व लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये अनिवार्य है। दबाव समूह राष्ट्रीय और विशेष हितों को बढ़ावा देते हैं तथा नागरिकों एवं सरकार के बीच संवाद का एक ज़रिया बनते हैं। असम समझोते की धरा 6 को लेकर असम में रहने वाले इत्तर भाषा-भाषियों में काफी संशय है l उन्हें लग रहा है कि कही धारा 6 उनके संविधान द्वारा प्रदत लोकतान्त्रिक अधिकारों को नहीं छीन ले l इस समय राज्य में हिंदी भाषियों की संस्थाओं को एक मजबूत दबाब समूह बनना होगा, जो बाहर से और अंदर से, दोनों, और से केंद्र पर दबाब बना सके l   

Friday, November 29, 2019

हम इस वैश्विक मंदी को कैसे झेलेंगे ?


हम इस वैश्विक मंदी को कैसे झेलेंगे ?
हम भारतीय मूलतः एक डरी हुई कौम है l हम शक्ति, सम्पदा सभी कुछ चाहतें है, स्टीवे जॉब्स और मार्क जुकेर्बेर्ग बनाना चाहतें है l पर किसी अनजाने डर से हम किसी के सामने भी अपने शक्ति दिखाने में डरतें है l इसलिए हम असमंजस में है l कभी प्राचीनता को अपनातें है तो कभी आधुनिक बनतें है l हम एक पथ चुनने से कतरातें हैं l इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था लगातार नीचे की और अग्रसर है l छोटे और मंझले व्यापारियों ने लगभग हार मान ली है l यह कहावत सिद्ध हो रही है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है l मॉडर्न ट्रेड कहलाने वाले व्यवसाय ने खुदरा व्यवसाय को लगभग चोपट करके रख दिया है l उल्लेखनीय है कि 2010-12 की वैश्विक मंदी के दौर में भी भारत अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूती से बनाये रखने में सक्षम रहा l इसका मुख्य कारण था,भारत के छोटें और मंझले व्यापारी, जिन्होंने असंगठित मार्किट में स्थिरता बनाये रखी l यह स्थिति आज नहीं है l बाज़ार से ग्राहक लगभग गायब है,कारण अगर खोजने जाए, तब पायेंगे कि लोग नई खरीददारी नहीं कर रहें है l जानकार कह रहें है कि बाजार एक परिपूर्णता की स्थिति में पहुच चूका है l इससे अधिक और ऊँचाई पर नहीं जा सकता l जिस तरह से अमेरिका के बाजारों के बारे में कहा जाता है कि वहां के लोगों के पास एक अच्छी जिंदगी हो गयी है, लोग उसका लुफ्त उठा तरहें है l खरीददारी में अब वें विश्वास नहीं रखतें l भारत में बाजारवाद के असर पिछले दस वर्षों में इतना अधिक दिखाई पड़ रहा था कि यहाँ की आर्थ-सामाजिक व्यवस्था एक नए मोड़ पर पहुच गयी थी l हर क्षेत्र में बाजारवाद के अंश दिखाई पड़ रहें है l बाजारवाद के असर से उत्सव, त्यौहार, शादी-विवाह और सामाजिक रीतियों को निभाने में लोगों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है l इस बड़ी रुकावट आ रही है बेहिसाब खर्चे बढ़ने से l शायद भारतियों ने हर तरह से अपने आप को पश्चिम की तर्ज पर ढालने का मन बना लिया है l फिर भी आम आदमी असमंजस में होने के कई कारण सामने देखने को मिल रहें है, एक तो देश देश में एक नई कर प्रणाली, जीएसटी, के आने से और उसमे लगातार हो रहे बदलाव से लोगों को कुछ समझ नहीं आ रहा है, उनका सारा ध्यान कोम्प्लाइन्स में ही जा रहा है l दूसरा, कच्चे तेल की अंतराष्ट्रीय कीमतें बढ़ जाने से एकाएक देश में लोहा और अन्य कई मेटालों और उनसे जुडी हुई कई वस्तुओं के भाव बढ़ गए, तीसरा, रूपया के साथ विश्व की कई देशों के मुद्रा का अवमूल्यन हुवा है,जिससे कारोबारियों में खलबली मच गयी है l इधर सामाजिक फ्रंट पर अगर देखें तब पाएंगे कि लोगों के जीवन से चैन ख़त्म रहा है l एक अनंत यात्रा के सहभागी बन गए है, लोग, जिसका कोई थोर नहीं दिखाई दे रहा है l रोजाना, मानो एक परीक्षा में बैठना पड़ता हो, l देश में हो रही लगातार बलात्कार और योन शोषण की घटनाएँ इस बात की और इशारा कर रही है कि हम एक अनियंत्रित यात्रा की और अग्रसर है, जिसमे हमारा व्यवहार पसान युग के मानव सा लग रहा है l ऐसा भी नहीं है कि कुछ सकारात्मक नहीं घट रहा है l 2014 में देश में नई भाजपा सरकार आने के पश्चात लोगों में इस बात का संतोष था कि देश में जीने के कुछ अच्छे हालात पैदा होंगे, और हुए भी l पर इस समय देश का कारोबार मंदी की और अग्रसर हो गया है l कुछ जानकार बतातें है कि देश में निजी निवेशकों की एक बड़ी फ़ौज बनी हुई थी, जो देश में के पेरेलेल इकोनोमी चलाती थी l नोटबंदी के पश्चात, यह तंत्र लगभग ध्वंश हो गया है, जिससे छोटे और मंझले व्यापारियों को उधारी मिलनी बिलकुल बंद सी हो गयी है l उपर से निजी निवेशकों के हाथ खींचने से हालत बाद से बदतर हो गएँ है l मंदी के एक बड़ा कारण यह भी बताया जा रहा है l वित्त मंत्री ने कल ही कहा है कि अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध तथा मुद्रा अवमूल्यन के चलते वैश्विक व्यापार में काफी उतार-चढ़ाव वाली स्थिति पैदा हुई है l भारत की आर्थिक वृद्धि दर कई देशों की तुलना में ऊंची है l भारत में हो रहे आर्थिक व्यवस्था में सुधारों के सकरात्मक परिणाम तो इस समय दिखाई नहीं पड़ रहे, बल्कि आम आदमी त्राहि-त्राहि करने को मजबूर है l शायद सरकार कोई संजीवनी बूटी लेकर आने वाले दिनों में सामने निकल कर आये, जिससे देश की मंद पड़ी इकॉनमी दुबारा से पटरी पर आये l    

Friday, November 15, 2019

सबका मालिक एक है


सबका मालिक एक है
राम जन्मभूमि पर उच्चतम न्यायलय के फैसले के साथ ही देश के इतिहास में एक बड़े विवाद का एक सुखद पटाक्षेप हो गया l राममंदिर पर आये सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने एकबार फिर यह साबित कर दिया कि भारत विश्व बंधुत्व और सर्वधर्म समभाव की मजबूत डोर में गूंथा एक दृढ़ राष्ट्र है। देश में शांति और सद्भाव बना रहा l सभी धर्मों के लोगों ने यह कामना भाईचारे का प्रदर्शन किया है l इस बात को कोई नकार नहीं सकता कि धर्म की प्रासंगिकता एवं प्रयोजनशीलता शान्ति, व्यवस्था, स्वतंत्रता, समता, प्रगति एवं विकास से सम्बन्धित समाज सापेक्ष परिस्थितियों के निर्माण में भी निहित है। एक बेहतर समाज के निर्माण में धर्म एक बड़ी भूमिका निभा सकता है l ऋषि, मनीषियों की समृद्ध परंपरा वाला हमारा देश आदिकाल से ही पूरे विश्व में ज्ञान, सत्य और अहिंसा का प्रकाश फ़ैलाने के लिए प्रसिद्ध रहा है। 9 नवंबर को राम जन्मभूमि पर ऐतिहासिक फैसले के बाद भारत ने सर्वधर्म समभावकी छवि को एक बार फिर से विश्व फलक पर रखा है। कोर्ट ने यह साफ़ कहा कि फैसला मान्यता के आधार पर नहीं, सबूत और तथ्यों के आधार पर दिया गया है। इधर नवम्बर माह के मध्य में आने और खासकरके कार्तिक पूर्णिमा और गुरु नानक देवजी का जन्मोत्सव के पश्चात तीज त्योहारों के आयोजन में कुछ दिनों का ब्रेक लग जाता है l दिसम्बर माह के अंत में क्रिसमस के आने का सभी को इंतजार रहता है l 2020 के आगमन के लिए नववर्ष से एक महीने पहले पुरे पूर्वोत्तर में शीतकालीन त्यौहार मनाये जातें हैं l अच्छी फसल होने के पश्चात् त्यौहार मानाने की एक परंपरा है, जिसे सामुचे भारतवर्ष तो मनाया ही जाता है, साथ ही पूर्वोत्तर में एक रंगारंग परिदृश्य हमें दिखाई देता है l
इस बात को कोई नकार नहीं सकता कि पूर्वोत्तर भारत हमेशा से ही पिछड़ा हुवा और अलग-थलग सा रहा हैं, कारण कि यहाँ की भौगोलिक स्थिति देश के अन्य भागों के वनिस्पत बहुत ही विपरीत और दुर्गम है l सड़क के रास्ते पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहलाने वाला शहर गुवाहाटी तक तो आसानी से जाया जा सकता, पर पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में जाने के लिए पहाड़ी रास्तों और संकरें दुर्गम क्षेत्रों से गुजरना पड़ता है l इसके साथ ही किसी भी पर्यटक के लिए भोजन और खान-पान को लेकर समस्या भी आ सकती है l कारण कि पूर्वोत्तर के ज्यादतर राज्य के लोग मांसाहारी भोजन करतें है l फिर भी पूर्वोत्तर में लाखों की तादाद में ऐसे लोग भी रहते है जो शाकाहारी है l इसके बावजूद भी समूचे भारतवर्ष में यह एक धारणा है कि पूर्वोत्तर भारत में कुछ ऐसे लोग रहते है जो सिर्फ मांस खातें है और अजीब से कपड़े पहनते है l इस मिथ को ले कर हिंदी पट्टी के लोग पूर्वोत्तर के लिए आश्चर्य प्रकट करते हुवे अक्सर उत्तर भारत के किसी भी शहर में लोग नजर आ जायेंगे l सत्य यह है कि पूर्वोत्तर के इलाके के लोगों के रहन-सहन ठीक उसी तरह का है, जिस तरह से मौसम और भौगोलिक परिस्थिति यहाँ पर बनी हुवी है l समय के साथ विकास की बयार जब पूर्वोत्तर की तरफ बहने लगी है, और शिक्षा और स्वास्थ की बेहतर सुविधा मिलने लगी है l शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन होने से इलाके के लोग अपने आप को देश के अन्य भाग के लोगों से जुड़ाव महसूस करने लगे, जिससे उनका जीवन का स्तर बेहतर बन गया है l भारत सरकार की लुक ईस्ट योजना सन 1995 में शुरू हुई, जिसमे यह तय किया गया कि भारत की विदेश नीति के तहत पडोसी देशों के साथ मैत्री बढ़ाई जाएँ, जिससे व्यापार और अन्य तरह के आदान प्रदान हो सके I इसके लिए यह जरुरी हो जाता है कि भारत पूर्वोत्तर क्षेत्र को एक महत्पूर्ण स्थान प्रदान कर, उसका समग्र विकास करे और इसके लिए यह भी जरूरी हो जाता है कि पूर्वोत्तर को उन पडोसी देशों से जोड़ा जाएँ, जिनकी सरहदें यहाँ के  राज्यों से जुड़ती है I पूर्वोत्तर राज्यों की सरहदें बंग्लादेश, म्यांमार, भूटान और चीन से जुडी हुई है, जिससे पूर्वोत्तर के इलाका सामरिक और अर्थनेतिक दृष्टी से महत्पूर्ण बन जाता है I

Friday, November 8, 2019

मारवाड़ी, असमिया और जातिय संघर्ष


मारवाड़ी, असमिया और जातिय संघर्ष
असम में हमेशा से ही जातिय संघर्ष होते रहें हैं l भूमि पुत्र होने का दावा करने वाली ऐसी अनेकों जातियां है, जो समय समय पर अपने अधिकारों और प्रभुत्व की बात करके अन्य जातियों पर खास करके हिंदी भाषियों पर एक मानसिक दबाब डालती आई है l इसमें कोई नई बात नहीं है l उपर असम इस संघर्ष की भूमि रही है l भाषा आन्दोलन से लेकर असम आन्दोलन तक, सभी असमिया जाति और अस्मिता से जुड़े हुए आन्दोलन रहें है l स्थानीय, बहिरागत, थोलूवा और अब खिलोंजिया जैसे शब्द हमेशा से ही फिजा में उछालते रहें हैं l जब असम आन्दोलन शुरू हुवा था, यह आन्दोलन स्थानीय बनाम बहिरागोत(असम में बाहर के लोगों को इसी तरह से संबोधित किया जाता है) था, फिर मारवाड़ी युवा मंच ने इसकी आपत्ति जताई थी, तब आसू ने इसे भारतीय बनाम विदेशी आन्दोलन बता कर सभी भारतीय की विश्वास में लिया था l उस समय भी बड़ी संख्या में मारवाड़ी युवकों ने आन्दोलन में शामिल हो कर अपने असमिया होने का परिचय दिया था l असम में आन्चालिक्तावादी राजनीति करके सत्ता में आया जा सकता है l असम आन्दोलन इसका जीता जगता उदाहरण है l आसू और असम गण संग्राम परिषद् के नेताओं ने असम गण परिषद्(अगप) का गठन किया और सन 1985 में सत्ता में काबिज हो गयी थी, जिसको असमिया पुनर्जागरण की संज्ञा दी गयी थी l यह बात अलग है कि अगप अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई और 28 नवम्बर, 1990 को असम में राष्ट्रपति शासन लागु किया गया था l दिसपुर में 28 तारीख को सुबह ही मुख्यमंत्री और गृह मंत्री के कार्यालयों पर ताले जड़ दिए गए थे l यह इसलिए हुवा था, क्योंकि दिसपुर उन उर्ग्रवादियों पर अंकुश लगाने में नाकामयाब रही थी, जिन्होंने असम में आतंक मचा रखा था l बड़ी संख्या में हिंदी भाषियों की हत्या हो गयी थी l चंदा एक संस्कृति बन गयी थी l छोटे छोटे लड़कों का दिन दहाड़े व्यापारियों का धमकाना तो एक फैशन बन गया था l उस समय केचुवा की तरह काटे जाने की धमकी के बारे में पता चला कि ऐसी भी कोई धमकी हो सकती है l पर निरंकुश लड़कों को शासन की सह थी, तब उनका कोई क्या बिगड़ सकता था l एक कहावत है ना, जब सय्या भये कोतवाल तो डर कहे का l यह कहावत इस समय हरिप्रसाद हजारिका पर भी लागु होती है, जिसने फेसबुक के जरिये मारवाड़ी समुदाय के लोगो को खुली धमकी दे डाली है l हालाँकि हजारिका को उनके सभी पदों से हटा दिया गया है, पर इस पुरे प्रकरण से कुछ प्रश्न जरुर खड़े हो गए है l दुबारा अन्चालिक्तावाद पर आते है l एक बार एक पूर्व मुख्यमंत्री में मारवाड़ी को कालाबाजारी कहा था, वह भी सरेआम, चुनाव के समय l चुनाव के समय आन्चालिक्तावाद भावनाओं को भड़का कर उनसे वोट पा लेने का एक पुराना और सफल तरीका है, जिसको इस बार भाजपा ने भी अपनाया है l ऐसा लग रहा है कि क्षेत्रीयतावाद की आंधी को दुबारा से शुरू करने के लिए इस बार एक सर्व भारतीय पार्टी ने कौशिश शुरू की है l नहीं तो पहले के विधायक, फिर एक युवा मोर्चा के अध्यक्ष और फिर एक सांसद l सभी का सुर तो एक सा ही लग रहा है l मुझे लगता है कि असम में इस समय तीन बड़े मुद्दे हवा में तैर रहें है l नागरिकता संसोधन बिल(सीएबी), राष्ट्रीय नागरिक पंजी(एनआरसी) और असम समझोते की दफा 6(सेक्शन 6) l इन तीनों मुद्दों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से राजनीति हो रही है l सतही तौर पर होने वाली घटनाओं की जानकारी हमें रहती है, पर परदे के पीछे की राजनीति का प्रभाव दूरगामी और सटीक रहता है l दफा 6 उस बेतरनी का नाम है, जिसको पार लगाना आसान नहीं होगा l मुझे यह भी लग रहा है कि जो यह आन्चालिक्तावाद की कायावाद हो रही है, वह 2021 में असम में विधान सभा के चुनाव के मद्देनजर हो रही है l क्षेत्रियात्वाद की भावना को प्रबल करके चुनाव में संख्याबल हासिल करने का बीड़ा इस समय कुछ लोगों ने उठाया है l पूर्वोत्तर को अगर गौर से देखें, तो पायेगे कि पूर्वोत्तर देश का वह हिस्सा है, जहाँ भिन्न भिन्न जातियां, जनजातियां और आदिवासी रहते है, जिनके लिए विकास के मायने अलग है, जिनके लिए वैश्वीकरण का कोई मतलब नहीं l जिनमे, कई पहाड़ी इलाके के लोग हवा, पानी और वायु को अपना आराध्य मानते हैI जनजाति और विभिन्न प्रजाति के लोग एक सामान्य  जीवन यापन करतें आये हैI एक समृद्ध लोक संस्कृति के वाहक, यहाँ के लोग साधारणतः एक साधारण जीवन जीने के आदी है I अभी भी पूर्वोत्तर के कुछ भागों में विकास की बयार नहीं बहने लगी है I पिछडापन, भिन्नता, असंतोष, गुलाम और उपनिवेश बनाने की भावना का पनपना, कुछ ऐसे कारण है, जिसकी वजह से पूर्वोत्तर में असंतोष पनपा I  यह भावना पिछले 30 वर्षों से लोगों के दिल में विद्यमान है, अधिक स्वायत्तता के लिए आन्दोलन शुरू होने लगे I जब असम में छात्र आन्दोलन शुरू हुआ था, एक ऐसा छात्र आन्दोलन जिसने शासन को भी हिला कर रख दिया था I तब यह मांग उठने लगी थी कि पूर्वोत्तर के राज्यों को भी अन्य राज्यों जैसे सामान अधिकार मिले, संसाधन के उपयोग के बदले उचित पारितोषिक प्राप्त हो I मालूम हो कि पूर्वोत्तर के असम में देश भर के 95% चाय उत्पादित होती है, जिनके स्वत्वाधिकारी देश विदेश के बड़े व्यापारिक घराने से है I तेल और प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर पूर्वोत्तर अपने समग्र विकास की मांग करने लगा, जिनमे तेल और गैस के खनन पर उचित पारिश्रमिक मुख्य मांगों में शामिल थीl इतना ही नहीं, पडोसी देश बंग्लादेश से आये हुए लाखों अवैध नागरिकों के निष्कासन छात्र आन्दोलन की एक मुख्य मांग थी I पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों से भी अधिक स्वायत्त की मांगे उठने लगी I भारत द्वारा पूवोत्तर,खास करके असम को एक उपनिवेश की तरह उपयोग करने का आरोप लगाते हुए, बुद्धिजीवियों ने इस 6 वर्षों तक चलने वालें आन्दोलन को भरपूर सहयोग दिया था, जिसके चलते स् न 1985 में असम में क्षेत्रीय  राजनेतिक पार्टी असम गण परिषद भारी मतों से जीत कर सत्ता में आईl क्षेत्रीयता का शुरुआती दौर यही से शुरू हुवा,जो अब तक चल रहा है l
आज पूर्वोत्तर को खासकरके असम की और देंखे, तब पायेंगे कि विकास की बयार यहाँ तेजी बहने लगी है l व्यापार और वाणिज्यिक गतिविधियों में वृद्द्धि और केन्द्रीय सरकार की लुक ईस्ट पालिसी ने पूर्वोत्तर का एक समग्र विकास होने लगा है l इस तरह की बयानबाजी न सिर्फ व्यापारियों को हतौत्साहित करेगी, बल्कि उन क्षेत्रीयतावादी ताकतों को भी बल प्रदान करेगी, जिन्होंने वर्षों तक असम के विकास को संकुचित बनाये रखा था l व्यापार वाणिज्य में कार्यरत मारवाड़ी लोगों ने पूर्वोत्तर के विकास में एक बड़ी भूमिका निभाई है, जिसको नाकारा नहीं जा सकता है l उनको भी असम के सामजिक तानबाने का एक अभिन्न अंग माना जाना चाहिये l पुरे प्रकरण में उन लोगों पर भी ऊँगली उठ रही है जो असमिया माता की संतान तो नहीं है, पर दशकों से असम में असमिया हो कर रह रहें है l ऐसे लोगों की संख्या लाखों में है l ऐसे लोगों सभी भाषा-भाषी है, जिन्होंने अपने वास स्थान असम को ही बनाया है और असम के आर्थिक, सामजिक और सांस्कृतिक विकास के लिए भरपूर सहयोग दिया है, जिसका वर्णन समय समय पर किया जाता रहा है l आन्चलिक्तावाद जरुर करें पर  एक बृहत्तर असमिया समाज की कल्पना क्यों नहीं की जा सकती l           

Friday, October 25, 2019

अप्पो दीपो भव


अप्पो दीपो भव
गौतम बुद्ध जब अपना शारीर त्याग रहे थे, तब बेहद व्यथित हुए शिष्य आनंद ने भगवान् बुद्ध से पूछा कि बुद्ध के चले जाने के बाद उनका मार्गदर्शक कौन होगा, उनका गुरु कौन होगा l बुद्ध ने मरते वक्त एक ही वाक्य में इस प्रश्न का जबाब दिया अप्पो दीपो भव’, यानी खुद एक दीपक बनों, खुद अपने आप में रोशन हो जाओं, अपने आप में सरण लो, सत्य के साथ रहों और उसे जानने की चेष्ठा करों l इस वाक्य के उपर सैकड़ों बार बोद्ध धर्म के अनुयायियों ने विश्लेषण किया और हर का एक ही मत था कि मनुष्य को खुद का एक संसार बनाना चाहिये, खुद का एक द्वीप बनाना चाहिये, जहाँ वे किसी के सहारे नहीं रहे, खुद के उपर ही अपना साम्राज्य स्थापित करे l मनुष्य की प्रवृति समाज या परिवार की रही है, वह अकेला नहीं रह सकता l वह जहाँ भी गया, उसने नए घरोंदे बनाये और अपना कुनबा स्थापित कर लिया l सुदूर देशों से एक स्थान से दुसरे स्थान को प्रवर्जन करके आने वाले लोगों ने अपने आप को ना सिर्फ स्थापित किया है बल्कि स्थानीय लोगों के साथ मिलकर गिंदगी की कठिन से कठिन स्थितियों को भी संभाला है l अपने और उनके के भेद को समाप्त करके एक परिवार की तरह रहें है l लगभग हर देश में इस तरह के उदारहण मिल जायेंगे l उनलोगों ने भी अपनी अस्मिता और पहचान को बरक़रार रखा है l असम तथा समूचे पूर्वोत्तर में बिहार, उत्तर प्रदेश राजस्थान और हरियाणा के लोगों ने पिछले 300 वर्षों प्रवर्जन किया है, और शांतिपूर्वक यहाँ वास किया है, इस भूमि को अपना घर बनाया है l समय समय पर क्षेत्रीयतावाद की तीव्र आंधी भी इनको डिगा नहीं सकी l एक बड़ा कारण यह रहा है कि बड़ी संख्या में रहने वाले हिंदी भाषियों ने यहाँ अपनी जड़े बना ली है l अब उनको यहाँ से उखाड़ना मुश्किल ही नहीं नामुनकिन है l समय समय पर चंदे को लेकर जब भी हिंसा होती है, यह समझा जाता है कि जातिवाद और भाषीय पृथकता का दंश समूचे पूर्वोत्तर में बुरी तरह से फैला हुवा है l अभी हाल ही में डिब्रूगढ़ के करीब चारखोलिया रामसिंह चापोरी में चंदे की रकम को लेकर हुई हिंसा भाषीय पृथकता के दंश का तजा उदाहरण है l समय समय पर हमारे राजनेता इस बीमारी को नासूर बना कर इसका फायदा उठाते हैं l पूर्वोत्तर के कई राज्यों में भी प्रवर्जन करके आये लोगों के लिए भी आज से सत्तर वर्षों पहले भी स्थितियां जोखिम भरी ही थी l उस समय दो तरह के प्रवाजनकारी थे, एक तो देश के मध्य और उत्तरी छोर से आये थे और दुसरे थे, पूर्व बंग से आने वाले और बाद में अनुप्रवेश्कारी l यहाँ, भाषा अपने आप को स्थापित करने में सबसे बड़ी दिक्कत बनी l फिर भी मेघालय, मणिपुर और नागालेंड जैसे कठिन राज्यों में प्रवर्जन करके आये लोगों ने अपने आप को यहाँ बसा ही लिया l अगर गौर से देखे तो पाएंगे की इस समय तेजी से फ़ैल रही धरती पुत्र की अवधारणा क्षेत्रीयता का अभिव्यक्ति का एक नया रूप है । इसका तात्पर्य क्या यह है कि किसी क्षेत्र विशेष या राज्य में दूसरे क्षेत्रों के निवासियों को रोजगार प्राप्त करने या निवास करने का अधिकार नहीं है ? भारत के कई राज्यों में दूसरे राज्यों के निवासियों के प्रति विरोध व्यक्त किया जाता रहा है । धरती-पुत्र की धारणा इस मान्यता पर आधारित है कि किसी क्षेत्र विशेष के संसाधनों पर उसी क्षेत्र के निवासियों का अधिकार है । असम समेत पुरे पूर्वोत्तर में धरती पुत्र को लेकर, असम समझोते की धरा 6 के आलोक में, अभी लगातार चर्चाएँ और सभाए हुई है, जिसमे खिलंजिया जैसे शब्द चर्चा में आ रहे है l जो लोग बाहर से आ कर असम में बसे है, चाहे कितने भी वर्षों पहले, उनकी भाषा स्थानीय नहीं है, उनको असम में धरती पुत्र नहीं कहा जाता है l यह जातिय हिंसा जो बीच-बीच में होती है, उसका मुख्य कारण ही है, बाहर से आये हुए लोगों के प्रति नकारात्मक रवैया है, जो उग्र हो जाता है l पर बड़ी संख्या में रहने वाले हिंदी भाषी लोगों ने यहाँ सिद्ध कर दिया कि सकारात्मक नजरिया सफलता की प्रथम सीधी है l यह एक कटु सत्य है कि पूर्वोत्तर में व्यापार करना एक दोहम दर्जे का कार्य माना जाता रहा है, आज भी व्यापारियों को हेय दृष्टि से देखा जाता है l उन्हें एक दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल किया जाता है l व्यापार करने की दक्षता सभी कौम में नहीं होती l हिंदी पट्टी से प्रवजन करके आये लोगों के पास लेन-देन की कूबत होती है, जिससे वे कठिन से कठिन समय में भी व्यापार करके अपनी जीविका चला सकतें हैं l सड़क पर खोमचा लगा कर व्यापार करने वालों को ही देख लीजिये, रोजाना एक परीक्षा में बैठते है, ना जाने कब फ़ैल हो जाए, पर फिर भी डटें रहतें है मैदान में l पुलिस, निगम और रंगबाज, ना जाने कितनों को रोजाना सेट करतें है l फिर भी टिके रहतें है, और अपनी आजीविका चलातें है l यह भी तो एक अलग संसार बनाना जैसा ही तो है l किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना l अपनी कारीगरी और हुनर के साथ अपने व्यापार को स्थापित करने की कला की डिग्री को ही आजकल अंग्रेजी में एमबीएकहतें है, जो की इन लोगों में कूट कूट कर भरी पड़ी है l राजस्थान से प्रवर्जन करके आये हुए मारवाड़ियों ने पिछले तीन सौ वर्ष के करीब से ही पूर्वोत्तर का रुख किया है, कठिन परिस्थितियों में भी अपने वजूद को बनाये रखा है l कोई लाख गालियाँ दे, पर सच्चाई यही है कि इस कौम में व्यापार करने के वे बड़े गुण है जिससे यें कही भी जा कर सेटल हो सकतें है l इन्हें रिजेक्शन से कोई फर्क नहीं पड़ता l ये दुबारा कौशिश करतें है, और सफल हो कर आगे बढ़ जातें है l नई संभावनाओं की तलाश में l सह्ष्णुता, जिजीविषा और आत्मबल के धनी इस कौम लोग हो सकता है कि अन्याय के विरुद्ध प्रतिवाद करने के लिए सड़कों पर नहीं आतें, पर सांकेतिक प्रतिवाद करने में अब नहीं हिचकिचाते l जिससे कई दफा कुछ अप्रिय परिस्थितियां पैदा हो जाती है l खुद का साम्राज्य बानाने के चक्कर में अपनी ताकत और उर्जा का इस्तेमाल सही तौर पर नहीं हुवा है l सामाजिक संस्थाएं अपने उद्देश्य से भटक चुकी है, सुविधावाद पूरी तरह से समाज पर हावी हो चूका है l समस्याओं पर विवेचन तो दूर, चर्चा तक नहीं होती l छोटी से छोटी समस्या के लिए दूसरों के आगे हाथ फैलाना पड़ रहा है, गिडगिडाना पड़ता है l ऐसे में भगवान् बुद्ध की अमर वाणी अप्पो दीपो भवोको आत्मसात करने के अलावा कोई चारा नजर नहीं आ रहा है l सामाजिक एकता के लिए सभी संस्थाओं को कार्य करना होगा, तभी आत्मसंतुष्टि की प्राप्ति हो सकेगी l एक छोटा दीपक घोर अँधेरे में एक नई रौशनी ला सकता है l अपने में दीपक बनाने के लिए कुछ तो जलना होगा ही, जिससे दीपक की ठंडी आभा, सभी जाति, धर्म और समुदाय के लोगों में शांति और भाईचारा फैले l सभी को दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ l