Wednesday, December 8, 2021

ये जीवन है, इस जीवन का यही है रंग-रूप....

 ये जीवन है, इस जीवन का यही है रंग-रूप....

‘पिया का घर’ फिल्म के इस भावपूर्ण गीत को गीतकार आनंद बक्षी ने लिखा और किशोर कुमार ने गाया है l 1972 में प्रदर्शित इस फिल्म को इसलिए सराहा गया क्योंकि यह फिल्म एक आम आदमी के परिवार की कहानी है, जो जीवन से जद्दोजेहेद करता है और अपना घर संसार चलाता है l कही ना कही हर एक आम आदमी अपने आप को इस फिल्म में पाता है l गाने के बोल इतने मर्मस्पर्शी और दिल की गहराइयों तक छूने वाले है कि समझ में नहीं आता है कि गाना दुःख का है या ख़ुशी का l जीवन के विभिन्न पहलु को दर्शाता यह गाना संवेदनाओं के गहरे समुद्र में गोता लगाता रहता है, शायद सुनने वाले के सभी दुःख-दर्द समेट लेता है और वह तारो-ताजा हो कर अपने जीवन पथ पर आगे की यात्रा पर निकल पड़ता है l जीवन के फलसफे को गाने में समेटने वाले आनंद बक्शी ने बखूबी जीवन के उतार-चढाव को तो इस गाने में उजागर किया है, साथ ही अक आम आदमी को संबल प्रदान करने का भी कार्य किया है l  

कोई भी कल्पना कर सकता है कि नागालैंड के मोन जिले में मारे गए 14 बेकसूर नागरिकों के परिजनों का क्या हाल हो रहा होगा, जिनमे एक व्यक्ति का विवाह नौ दिनों पहले ही हुवा था l जीवन के क्रूर पंजों ने उनसे उनके परिजनों को छीन लिया, हमेशा के लिए l पूर्वोत्तर के लिए इस तरह की घटना कोई नहीं नहीं है, इससे पहले भी मणिपुर में हेइरान्गोइथोन्ग हत्याकांड के नाम से प्रख्यात घटना में केंद्रीय रिजर्व बल के जवानों ने 14 नागरिकों को गोली मार दी थी, जो फुटबोल मैच देख रहे थें l यह नहीं, आजादी के बाद से ही मणिपुर में इस तरह की दसों घटना घटी है, जिनमे बेकसूर नागरिक मरे हैं l इस तरह की जिंदगी की कल्पना उस नौ दिनों की विवाहिता ने कभी भी नहीं की होगी l इस बड़ी घटना के पश्चात समूचे पूर्वोत्तर में सशस्त्र बल(विशेषाधिकार) कानून को हटाने एक लिए एक जबरदस्त मुहीम शुरू हो चुकी है l असम आंदोलन के समय जब, सेना को यहाँ उतरा गया, तब जबर्दस्त विरोध हुवा और असम आंदोलन के प्रथम शहीद खर्गेश्वर तालुकदार पुलिस के बर्बरता का शिकार हो गया, तब संवेदनाओं का एक जबरदस्त उबार देखने को मिला, आंदोलन और अधिक उग्र हो गया, फिर तो सैकड़ों लोग पुरे आंदोलन के काल में मारे गए l कुल 855 लोग इस कहने को शांतिप्रिय आंदोलन में पुलिस के हाथों मारे गए थे l इसी तरह से मणिपुर और नागालैंड में जहाँ अभी शांति वार्ता चल रही है, ऐसे समय इस तरह की घटना का जाना, शांति वार्ता की पूरी कोशिशों पर पानी फेर सकती है l पूर्वोत्तर हमेशा से ही एक संवेदनशील इलाका रहा है l यहाँ आजादी के बाद विकास की बयार कभी भी नहीं पहुची थी l पिछले दस वर्षों से यहाँ एक योजनबद्ध तरीके से विकास हो रहा है l सडकों का जाल बिछाया जा रहा है l पिछडापन, भिन्नता, असंतोष, गुलाम और उपनिवेश बनाने की भावना का पनपना, कुछ ऐसे कारण है, जिसकी वजह से पूर्वोत्तर में असंतोष शुरू हुवा I यह भावना पिछले 30 वर्षों से लोगों के दिल में विद्यमान है, अधिक स्वायत्तता के लिए आन्दोलन शुरू होने लगे I जब असम में छात्र आन्दोलन शुरू हुआ था, एक ऐसा छात्र आन्दोलन जिसने शासन को भी हिला कर रख दिया था I तब यह मांग उठने लगी थी कि पूर्वोत्तर के राज्यों को भी अन्य राज्यों जैसे सामान अधिकार मिले, संसाधन के उपयोग के बदले उचित पारितोषिक प्राप्त हो I मालूम हो कि पूर्वोत्तर के असम में देश भर के 95% चाय उत्पादित होती है, जिनके स्वत्वाधिकारी देश विदेश के बड़े व्यापारिक घराने से है I तेल और प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर पूर्वोत्तर अपने समग्र विकाश की मांग करने लगा, जिनमे तेल और गैस के खनन पर उचित पारिश्रमिक मुख्य मांगों में शामिल थी l इतना ही नहीं, पडोसी देश बंग्लादेश से आये हुए लाखो  अवैध नागरिकों के निष्कासन छात्र आन्दोलन की एक मुख्य मांग थी I पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों से भी अधिक स्वायत्त की मांगे उठने लगी हैं I भारत द्वारा पूवोत्तर,खास करके असम को एक उपनिवेश की तरह उपयोग करने का आरोप लगते हुए, बुद्धिजीवियों ने इस 6 वर्षों तक चलने वालें आन्दोलन को भरपूर सहयोग दिया था, जिसके चलते स् न 1985 में असम में क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी असम गण परिषद भारी मतों से जीत कर सत्ता में आई थी l क्षेत्रीयता का शुरुआती दौर यही से शुरू हुवा, जो अब तक चल रहा है l

भारत सरकार की लुक ईस्ट योजना स् न 1992 में शुरू हुई, जिसमे यह तय किया गया कि भारत की विदेश नीति के तहत पडोसी देशों के साथ मैत्री बढ़ाई जाएँ, जिससे व्यापार और अन्य तरह के आदान प्रदान हो सके I इसके लिए यह जरुरी हो जाता है कि भारत पूर्वोत्तर क्षेत्र को एक महत्पूर्ण स्थान प्रदान कर, उसका समग्र विकास किया जाय l

इन तमाम उलझनों और कोलाहलों के बीच भी पूर्वोतर के लोग बेहद उर्जावान बने रहने के लिए हमेशा जद्दोजहेद करते हैं l मिजोरम के लोग खुशियों के ग्राफ में देश में सबसे उपर है l वनस्पतिओं और प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर पूर्वोत्तर अब विकास के मार्ग पर चल पड़ा है, जिसके लिए अब नयी दिल्ली को पूर्वोत्तर की और चाहत भारी नज़रों से देखना होगा l चाहे बात उग्रवादियों से शांति बातचीत की हो, या फिर विषेश आर्थिक योजना हो, यहाँ के लोगो को यह लगना होगा कि उनके साथ कोई सौतेला व्यव्हार नहीं हो रहा है l खुशी की बात यह भी है की पूर्वोत्तर के मुख्य उग्रवादी गुटों जिनमे उल्फा और एनेएससीन के उग्रवादियों ने भारत सरकार से शांति वार्ता के लिए जंगलों से बाहर निकल आयें है, जिसका यहाँ के लोगों ने स्वागत किया है l अंत में गाने के कुछ बोल लिख कर अपनी बात समाप्त कर रहा हूँ l यह ना सोचो इसमें अपनी हार है...उसे अपना लो..जिसमे जीवन की रीत है....हर पल एक दर्पण है l ये जीवन है, इस जीवन का यही है एक रूप-रंग..थोड़े गम है..थोड़ी खुशियाँ है....

  

Saturday, December 4, 2021

जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ

 

जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ

ऐसे हजारों हिंदी भाषी, ,पंजाबी, मराठी और दक्षिण भारतीय मूल के लोग को वर्षों से यहाँ रह रहे है, जिनके बाप दादा यहाँ मर-खप गए, उनके लिए यही उनकी जन्मभूमि है और यही उनकी कर्मभूमि l देश के दुसरे छोर पर उनके ना तो कोई र्नातेदार है, ना ही कोई घर-मकान l ऐसे लोगों में अपने घर-मकान यही बना लिए है, व्यापार का विस्तार भी यही किया है l जब भी उनके बच्चे बाहर पढने के लिए जाते है, उनका परिचय ‘आसाम का’ ही रहता है l ‘असम के होने’ का परिचय वें गौरव से देते है l और क्यों कोई नहीं देगा l यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि असम एक अथिति परायण राज्य है, जहाँ आने वाले सभी के लिए आदर-सत्कार है l जब कोरोना प्रथम ने दस्तक दी थी, तब सभी ने ऐसे लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था की थी, जिनका रोजगार लॉकडाउन की वजह से बंद हो गया था l लगभग सभी समुदाय के लोगों ने आगे आ कर अपने लोगों की तो मदद की ही थी, बल्कि दुसरे समाज के लिए भोजन और राशन प्रदान किया था l सिखों की एक समाजसेवी संस्था खालसा ग्रुप तो आज तक भोजन का लंगर लागा कर यह सेवा अनवरत रखे हुए है l अमृत भंडारा नाम से रसोई चलाने वाले भागचंद जैन तो आज भी समाज के सहयोग से हरियाणा भवन में निशुल्क रसोई चल रहे है l मारवाड़ी युवा मंच ने पुरे लॉकडाउन के दौरान सुखा राशन जरुरतमंदों को बांटा l चाहे शाहनी कावड़ संघ हो, या फिर रोटरी, लाइंस क्लब हो, सभी ने आगे आ कर जरुरतमंदों की मदद की थी l यहाँ गौर करने लायक बात यह थी कि समुदाय या भाषा-भाषी विशेष, जैसी भावना कभी भी बीच में नहीं आई, बस समाज सेवा का जज्बा बना हुवा है l मारवाड़ी युवा मंच ने अपने स्थापना काल से ही सेवा को अपना आधार बनाया है l उसकी एम्बुलेंस सेवा एक समय में ना जाने कितनो की जान बचा चुकी हैं(रेड क्रॉस के बाद मारवाड़ी युवा मंच ही एक ऐसी संस्था थी, जिसके पास सबसे अधिक एम्बुलेंस कार्यरत थी) l कृत्रिम पैर और कैलीपर प्रदान करने वाली यह एक अकेली समाज सेवी संस्था रही है l उल्लेख करने के मतलब यह है कि जिस जगह पर रह कर अर्थ उपार्जन जो लोग कर रहे है, उस जगह पर सामुदायिक सेवा भी बराबर कर रहे हैं l

वर्षों पहले अपनी जड़ों से अलग हो कर नए घरोंदे बनाने का स्वप्न शायद किसी ने नहीं देखा होगा, पर व्यापार करते करते राजस्थान से आने वाले प्रवासियों के लिए यह भूमि अपनी भूमि बन गयी और यहाँ की आबो-हवा अच्छी लगने लगी l अब असम में उनकी जड़े बन चुकी हैं l ज्यादातर लोगों के रिश्तेदार यही रहते हैं l जिनके रिश्तेदार अभी भी राजस्थान में रह रहे है, वें कभी कभार नोस्टालजिक हो कर अतीतजीवी तो नहीं बनते, पर जब प्रताड़ना और उपद्व होते है, तब एकबारगी तो आँखों में आसूं जरुर आ जाते है l जो शख्स होली दिवाली अपने गावं जाता है, वापस आने पर मीठी मीठी जुद्जुदी करने वाले वाकये अपने यार-मित्रों को सुनाता है, और मानो प्रतिध्वनियाँ एक बार तो दीवारों से टकरा कर मन को हरा कर देती है l असीम शक्ति और ताकत से अपनी अश्मिता को तलाश भी करता है है, वह l कोई कल्पना कर सकता है कि मुसाफ़री करने आने वाले हजारों नवजवान, अपने पीछे परिवार को छोड़ कर आसाम आ जाते है l वहा मूल स्थान पर उनका परिवार उनके वापस आने का इन्तेजार करता हैं l यह सिलसिला सैकड़ों वर्षों से चल रहा हैं  l प्रवास का द्वंद्व और प्रवासे होने की यातना किसे कहते है, इस बात को असम में रहने वाले अनासमिया लोग भली भांति समझ सकते हैं l पर समय के साथ उन्होंने भी जीना सीख किया है l स्थानीय समाज के साथ संबंध बनाये, उनकों भी राजस्थान दिखाया,..वह सब कुछ किया जो एक दोस्त एक दुस्र्रे के लिए करता है l फिर भी प्रवासी को दोहरा संघर्ष करना पड़ता है l एक तो अपने को नयी जमीन पर रचने-बसाने का, दूसरा, अपनी जमीन को अंदर बसाने का l नयी जमीन पर रच-बसने वालों के लिए सबसे बड़ी समस्या हैं असमिया भाषा और लोक जीवन l असमिया लोगो में सरल सहज जीवन शैली जीने का एक ढंग है, जिसको समझने के लिए वर्षों बीत जाते हैं l सुख-दुःख, आशा-निराशा हर समुदाय के साथ एक साथ चलती हैं, इसमें जाति की बात नहीं आती है l हर समुदाय के अपने द्वंद्व है, अपने संघर्ष है l जैसे असमिया भाषा को बचाने के लिए असमिया जाति को आज भी संघर्ष करना पड़ रहा है l कछार की बंगला के साथ प्रतिस्पर्धा अभी भी है l पर संवेदनाओं के साथ घिरा हुवा आम असमिया उन्माद और आक्रोश में वर्षों से रह रहे अनासमिया लोगों की तरफ ऊँगली उठाने में गुरेज नहीं करता l ऐसा भी नहीं है कि एक आम असमिया भाषी दुसरे छोर पर रहने वाले लोगों के दुःख-दर्द नहीं समझता, पर अधिक संवेदनशील होने और वर्षों से अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते लड़ते, वह एकाएक भयातुर और अधिक शंकावान हो गया है l अस्सी और नब्बे के दशक में असम में आंदोलन के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था l पहले भाषा आन्दोलन, फिर असम आन्दोलन, ‘का’ आंदोलन, इत्यादि ने सभी के मन में एक डर बैठा दिया है, जिससे दिल्ली की तरफ जाने वाली सड़के उसे अच्छी नहीं भी लगती हैं l इसी सड़क से देश के दुसरे भागों से कोग यहाँ आते है l उल्लेखनीय है कि पड़ोसी राज्य अरुणाचल और मणिपुर में प्रवासियों की भीड़ को रोकने के लिए इनर लाइन परमिट व्यस्था बनी हुई हैं l जनशंख्यिकी के बदलाव का डर अभी भी बना हुवा है l

असम में एक सामाजिक तानाबाना बना हुवा है l सभी समुदाय के लोगों का अपना एक कृत्य है, योगदान है l हमेशा इसे भाषा और संकृति के दायरे में नहीं बांध कर, एक साफ चश्मे से देखने की जरुरत है l इज ऑफ़ बिज़नस के स्थापित होने से असम में व्यापर और राजस्व बाधा ही है, जिसको भी समझना होगा l हर बार अंगुली उठाना, प्रताड़ित करना, धमकी देना किसी भी सभ्य समाज का दृष्टिकोण नहीं हो सकता l राजनीति के तीक्ष्ण बाण मन के अंदर के घायल कर जाते है l इससे कुछ लोगों को ही फायदा होने वाला हैं l सामाजिकता को बचाना जरुरी है l        

Friday, November 26, 2021

यहाँ रोटी-बेटी के संबंध बन चुके हैं

 

यहाँ रोटी-बेटी के संबंध बन चुके हैं

जब से हिंदी भाषियों का आगमन असम तथा पूर्वोत्तर के विभिन्न क्षेत्रों में होने लगा था, एक नई वृहत्तर असमिया जाति के गठन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी l यह सिलसिला आज से 300 वर्षों पहले से शुरू हो चूका था l इस बात के तथ्य है कि राम सिंह के साथ जो मुग़ल सैनिक आये थे,उनमे राजपुताना से हिन्दू लड़ाके भी असम आये थे, खासकरके असम में राजपुताना से आये हुए बहुत से राजपूत लड़ाके वापस अपने मूल स्थान नहीं लौटे और असम में ही बस गए थे l इसके पुख्ता सबूत है l उनके वंशज धीरे धीरे असमिया समाज जीवन में घुल मिल कर असमिया मुख्यधारा में शामिल हो गए l ना जाने कितने हिंदी भाषियों खास करके मारवाड़ियों ने यहाँ रह कर स्थानीय समाज के साथ रोटी बेटी के संबंध स्थापित किये और यही वास करने लगे l असम तथा पूर्वोत्तर के अनेकों भाग में 1671 के सराईघाट के युद्ध के पश्चात हिंदी भाषियों की बसावट शुरू हो गई थी l लगातार आवागमन होता रहा l कोई कल्पना कर सकता है कि राजपुताना(आज का राजस्थान) से असम आने में कितने दिन लग जाते होंगे l पर आवागमन लगातार होता रहा l जो लोग असम आयेवें असम में ही बस गए l असम में अंगेजों के आने के पश्चात, जब रेल और सड़क संपर्क कुछ हद तक सुलभ हो गयातब राजस्थान से लोग रोजगार और व्यापार के सिलसिले में यहाँ आने लगे थे l ज्योतिप्रसाद अगरवाला के परदादा नौरंगलाल अगरवाला ने सन 1811 में सबसे पहले अविभाजित ग्वालपाड़ा में एक मारवाड़ी फर्म में नौकरी कर, अपना असम का सफ़र शुरू किया था l उस समय बंगाल उत्तरी बंगाल के सूबों में रहने वाले मारवाड़ी व्यापारियों ने तब तक असम में व्यापार करना शुरू कर दिया था l जगत सेठ का एक प्रसिद्द नाम इतिहास में आता है l सन 1700 से 1800 के बीच जगत सेठ का नाम  मुर्शिदाबाद में बेंकिंग और साहूकारी के लिए प्रसिद्द था l उस समय से ही असम में बड़ी संख्या में राजस्थानी मूल के लोग यहाँ बसना शुरू कर दिए थे l उनमे से बहुत से लोगों का स्थानीय लोगों के साथ रोटी-बेटी के संबंध बन चुके थे l उल्लेखनीय है कि रोटी-बेटी के संबंध की परिभाषा इस तरह है कि जिससे रोटी खा सकते है या जिसे रोटी खिला सकेवह रोटी का संबंध है और जिसके यहाँ बेटी दे सके या जिसकी बेटी ला सकेउसे बेटी का संबंध कहते है l बेटियों का संबंध अपनी ही जातियों में होता है और रोटी का संबंध मित्र और बधुओं में पनपता हैं l असम में रोटी बेटी के संबंध उस समय से बनने शुरू हो गए थेजब बड़ी संख्या में बाहर से आये हुए लगों ने यहाँ स्थानीय भाषा संस्कृति को अपना कर यहाँ लोगों के बीच रहना शुरू कर दिया था l कई परिवार तो उस समय से ही असमिया मुख्यधारा में रच बस गए थे l ज्योति प्रसाद के परदादा ने गमेरी स्थान पर असमिया परिवार में शादी कर असमिया भाषा संस्कृति को अपना लिया था l इस बात का बखान करने की जरुरत नहीं कि उनके बाद उनके पुत्रो और पोतों ने किस तरह से अपनी प्रतिभा से असमिया कला और संस्कृति को समृद्ध किया l उसी तरह से ऐसे हजारों परिवार हैजिन्होंने असमिया परिवार में रिश्ते स्थापित किये और असमिया संस्कृति के साथ पूरी तरह से रच बस गए l उपरी असम के गावों और कस्बों में इस तरह के हजारों उदहारण खोजने से मिल जायेंगे l आज भी सैकड़ों ऐसे मारवाड़ी परिवार है, जिनमे असमिया लड़की बहु बन कर गयी हैं l व्यवसाय और रोजगार के उद्देश्य से आने वाले मारवाड़ी लोगों ने छोटे छोटे गावों और कस्बों में दुकाने खोल कर स्थानीय समाज के साथ मित्रता पूर्ण संबंध बनाए और प्रेम पूर्वक यहाँ रहने लगे l उनमे से सैकड़ों ऐसे भी हैजिन्होंने राजस्थान से नाता ही तोड़ दिया हैं l ऐसे लोगों ने असम को ही अपनी भूमि माना है l

मारवाड़ी युवा मंच का जब गठन हुवा थातब समाज सेवा ,उसके गठन के पीछे का आधार बना l यह इसलिए हुवा क्योंकि एक मारवाड़ी लोगों को एक शक्तिशाली मंच की जरुरत थीदूसराक्षेत्रीयतावादी राजनीति इतनी जोरो से उफान मार रही थी कि हिंदी भाषियों और खास करके मारवाड़ी लोगों को हाशिये पर धकेल दे रही थी l तीसरा, मारवाड़ी जाति एक सेवा परायण जाति होने की वजह से जन सेवा करने में उसको महारत हासिल थी l मारवाड़ी युवा मंच के जरिये वह यह कार्य बड़ी आसानी से कर सकती थी l असम के बड़े टाउन और छोटे शहरों में युवा मंच शाखाएं खुलने से एक लड़ी बन चुकी थीजिसे समग्र रूप से समाज सेवा की जा सके l सामाजिक जिम्मेवारीस्थानीय समाज से साथ नियमित संवाद और उनके सुख-दुःख में भागीदारी युवा मंच का हमेशा से ध्येय था l उसकी यह स्थिति आज भी बरक़रार बनी हुई है l मारवाड़ी युवा मंच एक अकेली ऐसी प्रतिनिधि  संस्था है, जो स्थानीय लोगों के सुख दुःख की भागिदार है l  यह सब इसलिए संभव हुवा क्योंकि लोगों में सेवा भाव विराजमान था और स्थानीय समाज के साथ मिल जुल कर रहने का एक जज्बा था l इस बात को स्थानीय समाज ने भी समझा है और मारवाड़ी युवा मंच को मान्यता प्रदान की है l

असम में हमेशा से देश के अन्य भागों से अनेकों जाति समुदाय के लोगों का आगमन होता रहा हैं l कौन पहले आया कौन बाद में, इसका आंकलन कभी भी नहीं हुवा हैं l मारवाड़ी जाति के लोग इसलिए नजर में आ जाते है, क्योंकि वें व्यापारी है और असम के सभी गावों- कस्बों और शहरों में दुकानों में माल बेचते हुए दिखाई दे जाते हैं l रही बात असमिया जानने की, तब स्थिति यह है कि असमिया भाषा का ज्ञान अधिकतर लोगों को हैं l असम में वास करने वाली अनेकों ऐसी जातियां जिनमे मिसिंग, दिमासा, बोड़ो आदि, जिन्हें अभी भी असमिया भाषा का तील मात्र भी ज्ञान नहीं हैं l उनकी जनसँख्या असम में रहने वले हिंदी समुदाय के लोगों से भी कम है l मजे की बात यह है कि उनकी पहचान राजनितिक और सामाजिक स्थिति काफी अच्छी हैं l उन्हें भूमि पुत्र की संज्ञा दी जाती हैं l  इधर व्यापार कर रहे मारवाड़ियों के लिए अलंकार भरे हुए शब्दों का उपयोग, उनके लिए अपशब्द और उन्हें समय समय पर प्रताड़ित किये जाने से वर्षों से बना हुवा सामाजिक तानाबाना खंडित होने की कगार पर हैं l जिस वृहत्तर जाति के गठन के लिए दोनों समाज के मनीषियों ने अपना पूरा दमखम लगा दिया था, उसे राज्य की क्षुद्र  राजनीति ने तहस नहस कर दिया हैं  l असमिया पुनर्जागरण के नाम पर समय समय पर मत संग्रह करना और फिर अधिवेशनों और बैठकों के नाम पर चंदा उठाना किसी भी सभ्य समाज के लिए लज्जाजनक बात है l इधर पूर्वी बंग से आये हुए शरणार्थियों ने सत्र और चर इलाकों की भूमि को दखल कर, असम में जनसांख्यिकी में बदलाव के संकेत दे दिए हैं l वर्षों से रह रहे हिंदी भाषियों, खास करके मारवाड़ियों ने कभी भी किसी तरह का आंदोलन नहीं किया और ना ही असमिया जाति के लिए कोई खतरा का कारण बने l उन्होंने तो सत्तारूढ़ पार्टी से मित्रता कर उनके हाथों कमो मजबूत ही किया हैं l

असम अब देश के विकसित राज्यों की फेहरिस्त में शुमार होने की कगार पर l असम के मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा और उनका पूरा मंत्रिमंडल इसके लिए लगातार कोशिश में लगा हुवा है  l इस तरह से एक समृद्ध समुदाय, जिसका एक बड़ा अवदान है, राज्य में, उसको भाषा संस्कृति के नाम पर प्रताड़ित करना, राज्य की विकास यात्रा को धीमी कर देगा l दोनों समुदाय के बुद्धिजीवियों को चाहिये कि सोहार्द का वातावरण कैसे मजबूत हो, इसके लिए प्रयास करे l

 

 

 

Friday, August 27, 2021

कुछ डर, कुछ शंका और एक बड़ी प्रतिस्पर्धा से मध्यम वर्ग जुंझ रहा है

 

कुछ डर, कुछ शंका और एक बड़ी प्रतिस्पर्धा से मध्यम वर्ग जुंझ रहा है 

देश में दो चीजें अभी मुख्य रूप से लोगों के दिलो-दिमाग पर छाई हुई है l एक, बच्चों का भविष्य और दूसरा, जीएसटी l कोरोना काल के आने और अधिक समय तक टिके रहने के पश्चात देश में अचानक कुकुरमुते की तरह ऑनलाइन पढाई करवाने वालों की बाढ़ सी आ गयी है l कोई कह रहा है समझ कर पढ़ेगा तो समझेगा, तो कोई कह रहा है, पढाई में पार्टनर बना लेने से बोझ कम होगा l पर ऑनलाइन पढाई करवाने के नए महंगे एप्प रोजाना लांच हो रहे है l इस नयी प्रणाली से बच्चों के माता-पिता पर मानसिक और आर्थिक बोझ बढ़ गया है l बच्चा कौन से संकाय में जाएगा, इसका निर्णय कक्षा 8 से ही ले लिया जाता है, और फिर शुरू होता है, स्कूल के बाद अलग से ट्युशन l कोई भी कल्पना कर सकता है कि 8 से 10 घंटे तक स्कूल में बिताने के पश्चात बच्चे की हालत क्या होती होगी और फिर स्कूल के पश्चात ट्युशन l कोरोना काल के पश्चात शिक्षा के नए संसथान खुल गए है, जो बढ़िया ऑनलाइन पढाई करवाने का दावा कर रहे है l पर जब स्कूल पूरी तरह से खुल जायेंगे, तब किस तरह का परिवेश होगा स्कूलों में होगा, यह अभी कोई नहीं कह सकता l चीन में हाल ही में निजी शिक्षा कंपनियों को नॉन प्रोफिटिंग कंपनी बनाने का निर्देश दिया गया है, जिसे स्टॉक मार्किट में लिस्टिंग भी नहीं किया जा सकेगा l भारत में अभी स्थिति यह है कि अभिभावक यह सोचते है कि स्कूलों में शिक्षक जो पढ़ाते है, उससे नंबर अधिक नहीं आ सकते, प्राइवेट ट्युशन ही एक विकल्प है l कई छात्र दो से अधिक ट्युशन भी करते है l ‘कोटा फैक्ट्री फेनोमेनन’ देश भर में पहले से ही फैला हुवा है l बच्चों पर दबाब अधिक है l 99 नंबर पाने की जद्दोजहेद में, उनका बचपन कही खो सा गया है l उपर से ऑनलाइन पढाई करने का ख्वाब कम्पनियाँ जो दिखा रही है, वें माता-पिता पर भारी पड़ रहे हैं l कोरोना की वजह से दुनिया भर में स्कूल बंद होने से 1.5 अरब से अधिक बच्चे और युवा प्रभावित हुए हैं। इनमें से कई छात्र अब कक्षाएं ले रहे हैं और साथ ही ऑनलाइन रूप से सोसिएल वेबसाइट पर भी अधिक सर्च कर रहे हैं । वर्चुअल प्लेटफॉर्म पर अधिक समय बिताने से बच्चे ऑनलाइन यौन शोषण और फेक साइटों की चपेट में आ रहे हैं l दोस्तों के साथ मेल-मिलाप कम होने से और आमने सामने के संपर्क में कमी आने से बच्चों और युवा ज्यादा समय मोबाइल और कम्प्यूटर पर देना शुरू कर दिया है l इस समय स्कूलों के यह जरुरी हो जाता है कि घर से सीखने वाले बच्चों के लिए नई जरूरतों को प्रतिबिंबित करने के लिए वर्तमान सुरक्षा नीतियों को अपडेट करें, अच्छे ऑनलाइन व्यवहारों को बढ़ावा देना, उनकी निगरानी करना और यह सुनिश्चित करना कि बच्चों की स्कूल-आधारित परामर्श सेवाओं तक निरंतर पहुंच है। माता-पिता यह सुनिश्चित करें कि बच्चों के उपकरणों में नवीनतम सॉफ़्टवेयर अपडेट और एंटीवायरस प्रोग्राम हैं l वें बच्चों के साथ खुले संवाद करें कि वे कैसे और किसके साथ ऑनलाइन संवाद कर रहे हैं l  इंटरनेट का उपयोग कैसे, कब और कहाँ किया जा सकता है, इसके लिए नियम स्थापित करने के लिए बच्चों के साथ काम करना l इन्टरनेट संवाद के समय जो अनावश्यक संवाद उभर के आता है, उनसे कैसे बचे, इसकी शिक्षा और निगरानी अभिभावकों को रखना होगा, ताकि बच्चे संकट के संकेतों के प्रति सतर्क रहें जो उनकी ऑनलाइन गतिविधि के संबंध में उभर सकते हैं l   

आइये, अब जीएसटी की तरफ रुख करते है l देश में इस बात पर हमेशा से जोर दिया जा रहा है कि थोक, मंझले और फुटकर व्यापरियों को कर कैसे संग्रह में भागीदार बनाया जाय l इस बात को ध्यान में रखते हुए ही जीएसटी प्रणाली को लागु किया गे l जीएसटी एक आने के पश्चात सरकार के राजस्व में बृद्धि हुई है, पर जीएसटी की कड़ी धाराओं को निभाते-निभाते मंझले और थोक व्यपारियों को खासी दिक्कते आ रही हैं l जीएसटी एक बड़ी कर प्रणाली है l इस समय देश में करीब 14 करोड़ थोक, मंझले और फुटकर व्यापारी, जिनमे सुपर मार्किट, रेहड़ी और पटरी वाले भी शामिल है l वें एक दुसरे से खरीदकर देश के राजस्व की बढ़ोतरी में अपना योगदान देते हैं l कुछ अर्थशास्त्रियो के अनुसार जीएसटी के लागू होने के पश्चात मुदास्फीति में बढ़ोतरी हुई है l इस बढ़ोतरी के अनुमान के पीछे दो तर्क हो सकते है l पहली वजह ये के जीएसटी के सारे नियमों के अनुपालन करने से कुछ कंपनियों के लागत में इजाफा हो सकता हैं l इस तरह से लागत बढ़ने का मुख्य कारण यह है कि भारत में बहुत ही बड़ी संख्या में कंपनियां, खासकर छोटी एवं मंझली श्रेणी इकाइयाँ, जो देश भर में फैली हुई है, अपने इलाके में थोक व्यपारियों को माल बेचती थी, उनको अब जीएसटी के तहत कड़ा अनुपालन करना पड़ रहा है, जिससे उनकी लागत बढ़ रही है, और वें इस लागत को आगे बढ़ा कर थोक व्यपारियों पर डाल रहें हैं l थोक व्यापारी यह भार मंझले व्यापारी और फिर यह चैन लम्भी हो रही है l जीएसटी के अंतर्गत इनपुट टैक्स क्रेडिट या आईटीसी प्रावधान का लाभ उठाने के लिए ये आवश्यक है कि निर्माता या व्यापारी सिर्फ उन्हीं  निर्माता या व्यापारी से सामान या सेवा खरीदे जो जीएसटी में रजिस्टर्ड है एवं सारे कर नियमित रूप से चुकाते हैं l इस प्रावधान की वजह से इस बात की गहरी संभवना हैं कि अब तक जो निर्माता एवं व्यापारी नियमों का पालन नहीं कर रहे थे एवं कर भी नहीं चुका रहे थे उन्हें अब दोनों ही चीजें करनी पड़ेगी, और इससे कुल लागत बढ़ने की संभवना है l पर बड़ा सालवाल यह उठता है कि बेचने वाला व्यापारी अगर अपना कर नहीं देता है, तब क्रय करने वाला व्यापारी इसका खामियाजा क्यों भुगते l क्यों उसे इनपुट क्रेडिट का लाभ नहीं मिल सकता  l अभी कई वास्तविक समस्याएं है, जिनका समाधान सरकार को खोजने हैं l  

इधर, बड़ी रिटेल कंपनियां, ऑनलाइन ढेरों रियायत दे कर ग्राहकों को अपनी और आकर्षित कर रही है, जिससे खुदरा व्यवसाय को कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है l

 

Friday, August 20, 2021

हम बहनों के लिए मेरे भैया, आता है एक दिन साल में..

 

हम बहनों के लिए मेरे भैया, आता है एक दिन साल में..

कहने को तो उपरोक्त शीर्षक हिंदी फिल्म अंजना के एक गाने का मुखड़ा है, पर गाने के मायने इतने अधिक है कि शब्दों में व्याख्या नहीं की जा सकती l गाना संवेदना का एक ज्वार है, जिसे महसूस किया जा सकता हैं l रक्षा बंधन आम जनमानस का त्यौहार है l दिवाली और होली के पश्चात यह एक ऐसा त्यौहार है, जिसमे सभी की भागीदारी रहती है l स्वतंत्रता आंदोलन में दो प्रमुख त्योहारों ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी l एक थी गणेश चतुर्थी और दूसरा रक्षा बंधन l भाई-बहन, ननद-भोजी, पंडित-जजमान, हर रिश्तों में रक्षा सूत्र बांधे जाते हैं l पूरा भारतवर्ष रिश्तों के धागों में बंध कर प्रेम, भाईचारे और सामाजिकता को अक्षुण रखने का संदेश रक्षा बंधन त्यौहार के जरिये प्रेषित करता हैं l l समाज में एकबद्धता बनी रहे, इसके लिए रक्षा बंधन जैसे त्यौहार ने कड़ियों को ना सिर्फ जोड़ा है, बल्कि त्यौहार के माध्यम से परिवारों के बीच अटूट संबंध कायम किये है l अब तो प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बाँधने की परम्परा भी प्रारम्भ हो गयी है। संकेत भर से यह जताया जा रहा है कि रक्षा सूत्र बांध कर पेड़ों की रक्षा की जाएगी l उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत में यह पर्व अलग नाम एवं अलग-अलग पद्धतियों से मनाया जाता है। उत्तर भारत में 'श्रावणी' नाम से प्रसिद्ध यह पर्व ब्राह्मणों का सर्वोपरि त्योहार है। यजमानों को यज्ञोपवीत एवं रक्षा-सूत्र देकर दक्षिणा प्राप्त की जाती है। महाराष्ट्र में इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिए नारियल अर्पित करने की परंपरा भी है। दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को अवनि अवित्तम कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मण स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्पण कर नया यज्ञोपवीत धारण करते हैं। भारत में प्रजापति ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्वविध्यालय की बहनों ने हमेशा से ही रक्षा बांधकर सन्देश दिया है कि मन वचन और कर्म से पूर्ण पवित्र व्यवहार की भावना बढे l रक्षाबंधन का उत्सव एक आध्यात्मिक उत्सव है। व्यावहारिक रूप में तो इस पर्व को बहनों के द्वारा भाइयों की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधकर बहनों की रक्षा के संकल्प दिलाना होता है। लेकिन उत्सव का आध्यात्मिक संदेश यह है कि रक्षाबंधन से व्यक्ति के जीवन में उमंग उत्साह निरोगी और दीर्घायु बनाने की परमात्मा से कामना की जाती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुरुष सदस्य परस्पर भाईचारे के लिये एक दूसरे को भगवा रंग की राखी बाँधते हैं। हिन्दू धर्म के सभी धार्मिक अनुष्ठानों में रक्षासूत्र बाँधते समय कर्मकाण्डी पण्डित या आचार्य संस्कृत में एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षा बंधन का संबंध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बांधते हुए निम्नलिखित स्वस्तिवाचन किया (यह श्लोक रक्षा बंधन का अभीष्ट मंत्र है)-

येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।

तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥

इस श्लोक का हिन्दी भावार्थ है- "जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।)" भारतीय स्वत्रंता संग्राम में जन जागरण के लिये भी इस पर्व का सहारा लिया गया। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षा बंधन त्यौहार को बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर, इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरंभ किया। 1905 में उनकी प्रसिद्ध कविता "मातृभूमि वंदना" प्रकशित हुई, जिसमें वे लिखते हैं-

"हे प्रभु! मेरे बंगदेश की धरती, नदियाँ, वायु, फूल - सब पावन हों;

है प्रभु! मेरे बंगदेश के, प्रत्येक भाई बहन के उर अन्तःस्थल, अविछन्न, अविभक्त एवं एक हों।"

रक्षा बंधन का संबंध महिलाओं के मान की रक्षा से हैं l देश में महिलाओं को पुरुष के बराबर सम्मान दिए जाने से महिलाएं अब अपनी रक्षा खुद करने में सक्षम हो गयी हैं l देश की महिलाओं के लिए उभरी नई संभावनाओं ने उन्हें एक नए क्षितीज पर ला कर खड़ा कर दिया है l टोकियों ओलंपिक्स इसका जीता जाता उदाहरण है l देश में महिलाओं के शशक्तिकरण के लिए नए द्वार खुल चुके हैं l  देश के कई राज्यों ने रक्षा बंधन के दिन महिलाओं के लिए योजनाओं की झड़ी लगाने का भी निर्णय लिया है l उत्तर प्रदेश में रक्षा बंधन के दिन महिलाओं के लिए कई योजनायें शुरू होने जा रही हैं l रक्षाबंधन के पर्व पर इस बार भी महिलाओं को सरकार ने रोडवेज बसों में निशुल्क बस यात्रा का तोहफा दिया है। रक्षा बंधन के दिन प्रदेश की महिलाओं को प्रदेश के अंदर उत्तराखंड परिवहन निगम द्वारा संचालित रोडवेज बसों के किराये में शत-प्रतिशत की छूट दी जाएगी। इतना ही नहीं कई स्वयंसेवी संगठनों ने लड़कियों के लिए पाठ्य पुस्तकें और कलम-कागज भी भेंट स्वरुप देने की तैयारी की हैं l   

रक्षा बंधन त्यौहार को भाषाई या धार्मिक लघुता में बांधना, उसके महत्त्व को कम करना जैसा है l राष्ट्रिय अस्मिता को पहचान दिलाने वाला यह त्यौहार, बहन के विश्वास एवं भाई का संकल्प का प्रतिरूप हैं l समरसता, एकता और क्षेत्रीय समन्वयता को दीर्घ काल के लिए जीवित रखने और सभी को एकसूत्र में पिरोकर रखने का यह एक उत्तम त्यौहार हैं l देश भर में इस दिन सामूहिक रूप से यह त्यौहार मनाया जाता हैं l परिवार के लोग एक जगह इकठ्ठा हो कर एक साथ एक दुसरे को राखी बांधते हैं l हां, बाजारवाद का कुछ असर इस त्यौहार में भी देखने में आया है l मंहंगी राखियाँ और कीमती गिफ्ट देने की एक आधुनिक परंपरा चल पड़ी है l पर भारत जैसे विशाल देश में हर श्रेणी के लोग रहते है, जो इन सब से उपर उठ कर रक्षा बंधन त्यौहार बड़े प्रेम से मानते हैं l हर तरह की सीमाओं को लांघ कर यह पर्व अपनी एक अलग पहचान बनाये हुए हैं l