Friday, August 30, 2019

चिंता, भय और उत्कंठा वाया एन आर सी


चिंता, भय और उत्कंठा वाया एन आर सी
आख़िरकार असम की 3 करोड़ 30 लाख जनता जो पिछले छह वर्षों से भय ओर चिंता में जी रही थी, कि उनके नाम एन आर सी से कट नहीं जाय, उनकी प्रातिक्षा ख़त्म हुई और असम में बहुप्रतीक्षित एन आर सी शनिवार को प्रकशित हो गयी l इस एन आर सी में करीब 19 लाख 6 हज़ार लोग अपना स्थान पाने में असफल रहें हैं l एन आर सी प्रकाशित होने से एक दिन पहले असम के एक प्रभावशाली मंत्री ने यह कहा कि भारतीय जनता पार्टी इस दस्तावेज को एक राष्ट्रिय दस्तावेज नहीं मानती, क्योंकि यह एक त्रुटी मुक्त दस्तावेज नहीं हैं l हालाँकि, उन्होंने एन आर सी के प्रकाशन का विरोध नहीं किया पर, अचानक भाजपा के यह बदला मिजाज किसी के समझ में नहीं आ रहा हैं l भाजपा के इस स्टेंड से विरोधी पार्टियाँ पसोपेश में हैं कि कौन सा स्टेंड ले, समर्थन का या फिर विरोध का l सभी एक नापा तुला व्यक्तव्य दे रहें हैं l इधर एन आर सी प्रक्रिया शुरू करने के मुख्य नायक आसू ने एन आर सी को लेकर राजनीति नहीं करने का आह्वान किया हैं l आसू ने त्रुटी को लेकर अभी कोई अभी अपना कोई स्टेंड नहीं बनाया हैं, और एक सही एन आर सी आने की आशा की हैं l इधर असम के भूमि-पुत्रों को एक सम्मलित संस्था- असम सम्मलित महासभा ने राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद से एन आरसी के प्रकाशन पर रोक लगाने की अपील भी की थी l उसने 25 मार्च 1971, जिसको एन आर सी में शामिल होने का एक बेस इयर माना गया था, का ही विरोध कर डाला हैं l दरअसल असम देश का इकलौता राज्य हैं, जहां एनआरसी बनाया जा रहा हैं l एनआरसी वो प्रक्रिया हैं, जिससे देश में गैर-कानूनी तौर पर रह विदेशी लोगों को खोजने की कोशिश की जाती हैं l असम में आजादी के बाद 1951 में पहली बार नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन बना था l 1905 में जब अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन किया, तब पूर्वी बंगाल और असम के रूप में एक नया प्रांत बनाया गया था, तब असम को पूर्वी बंगाल से जोड़ा गया था l जब देश का बंटवारा हुआ तब यह डर सता रहा था, कि कही असम को पूर्वी पाकिस्तान के साथ जोड़कर भारत से अलग ना कर दे l तब उस समय के मुख्यमंत्री रहे गोपीनाथ बोरदोलोई की अगुवाई में असम विद्रोह शुरू हुआ और असम अपनी रक्षा करने में सफल रहा l 1950 में असम देश का राज्य बना l हालात तब ज्यादा खराब हुए जब तब के पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश में भाषा विवाद को लेकर आंतरिक संघर्ष शुरू हो गया l उस समय पूर्वी पाकिस्तान में परिस्थितियां इतनी हिंसक हो गई कि वहां रहने वाले हिंदू और मुस्लिम दोनों ही तबकों की एक बड़ी आबादी ने भारत का रुख किया और लोगों का असम में प्रवेश जारी रहा l ऐसा माना जाता हैं कि उस समय करीब 10 लाख लोगों ने असम में प्रवेश किया और उन्होंने कभी अपने वतन में वापसी नहीं की हैं l यद्ध्यपी, सन 1950 में एक एन आर सी इस लिए बनाई गयी थी, कि असम में प्रवेश किये हुए लाखों अनुप्रवेश्कारियों की पहचान की जाय और असम के स्थाई नागरिकों को एक अपनी पहचान मिले, पर पूर्व बंगाल से लगातार बंगला भाषी लोगों का प्रवेश असम में लगातार होता रहा, जिससे 1950 में बनी एन आर सी के होने का कोई मतलब नहीं रह गया था l राजनीतिक कारणों से और वोट बेंक की राजनीति के कारण उस राष्ट्रिय दस्तावेज को भी एक ठंडे बस्ते में रख दिया गया l इस बार भाजपा सरकार ने करीब-करीब यह घोषणा कर दी हैं कि उनको एन आरसी से कोई मतलब नहीं हैं और वे अवैध अनुप्रवेशकारियों को निकालने के दुसरे तरीके निकालेंगे l इस एक सीधा साधा मतलब यही होता हैं कि छह वर्षों के कठिन परिश्रम से बनाये गए एक दस्तावेज अभी भी राजनितिक पार्टियों की आशा और आकांशा पर खरा नहीं उतर रहा हैं l पर सत्य यही हैं कि एन आर सी प्रकाशित हो गयी हैं और जिन लोगों ने ड्राफ्ट एन आर सी निकलने के पश्चात कठिन परिश्रम से हियरिंग में भाग लिया उनके लिए अभी खुशियाँ और गम दोनों हैं l जिन लोग के नाम शामिल हुए हैं, वे खुश हैं और जो लोग इसमें स्थान पाने से वंचित रह गए हैं, उनके लिए एक बड़ी और लम्बी क़ानूनी प्रक्रिया शुरू हो गयी हैं, उनके लिए आने वाले दिन मुश्किल भरे भी हो सकते है, जो निश्चित रूप से असम के आर्थ-सामाजिक जीवन में नए परिवर्तन लेकर आएँगी l    

Friday, August 23, 2019

असम समझोते की धारा 6 पर ब्रेन स्टोर्मिंग


असम समझोते की धारा 6 पर ब्रेन स्टोर्मिंग   

असम समझोते की धारा छह के सन्दर्भ में विचार विमर्श के लिए गठित कमिटी ने पिछले बुधवार को को एक अधिसूचना जारी की हैं जिसमे एक नागरिक अपील की गई है, और सभी हितधारकों, सामाजिक संगठनों और व्यक्तियों से असम समझोते की धारा छह को लागु किये जाने को लेकर सुझाव मांगे हैं l यें सुझाव आगामी 20 सितम्बर तक समित्ति के कार्यालय तक पहुच जाने चाहिये l   असम समझौते के 35 वर्षों के बाद भी समझौते की धारा 6 को पूरी तरह से कार्यान्वित नहीं किया गया है। इसलिए असम मंत्रिमंडल ने एक उच्‍चस्‍तरीय समिति गठित की हैं जो असम समझौते की धारा 6 के आलोक में संवैधानिक, विधायी और प्रशासनिक  सुरक्षात्‍मक उपायों से संबंधित अनुशंसाएं प्रदान करेगी। समिति सभी हितधारकों के साथ विचार-विमर्श करेगी और असमिया लोगों के लिए असम विधानसभा तथा स्‍थानीय निकायों में आरक्षण के लिए सीटों की संख्‍या का आंकलन करेगी। समि‍ति असमिया और अन्‍य स्‍थानीय भाषाओं को संरक्षित करने, असम सरकार के तहत रोजगार में आरक्षण का प्रतिशत तय करने तथा असमी लोगों की सांस्‍कृतिक, सामाजिक, भाषायी पहचान व विरासत को सुरक्षित, संरक्षित तथा प्रोत्‍साहित करने के लिए अन्‍य उपायों की आवश्‍यकता का आंकलन करेगी। उच्च समिती जब असम के सभी हितधारकों से वार्तालाप करगी, तब असम में स्थापित हिंदी और अन्य भाषा-भाषी समुदायों की प्रतिनिधि संस्थाओं को अपना पक्ष जरुर रखना होगा, तभी उनके, असम में गर्व से रहने का मार्ग प्रसस्त होगा l असम समझोते में वर्णित धारा 6 स्पष्ट रूप से कहती हैं कि केंद्र असम के मूल असमिया लोगों को संविधानिक कवच प्रदान करेंगा l कई जानकारों का मानना हैं कि राष्ट्रिय नागरिकता पंजी का अभी जो नवीनीकरण हो रहा है, वह धारा 6 के क्रियान्यवयन की दिशा में चल रहा हैं l हालाँकि धारा 6 असम से बाहरी लोगों के निष्काषित करने की बात नहीं करती, पर असम समझौते की धारा 6 में राज्य के लोगों की सांस्कृतिक, सामाजिक पहचान और विरासत को संरक्षित रखने के लिए जरुरी संवैधानिक, विधायी और प्रशासनिक प्रावधान हैं l इस धारा को पूर्ण रूप से लागु करने के लिए केंद्र को असम के लिए अलग से कानून बनाना होगा, जिसका क्या प्रभाव होगा, अभी यह कहना मुश्किल हैं l आशा की जाती हैं कि समिति के गठन से असम समझौते को अक्षरश: लागू करने का मार्ग प्रशस्‍त होगा और यह असम के लोगों के लम्‍बे समय से चली आ रही आशाओं को पूरा करेगा। इस समिति की अधिसूचना अनुसार, समिति असम की मूल जनजाति, असमिया जाति और असम के अन्यान्य लोगों के लिए विभिन्न तरह के आरक्षण पर विचार करेगी l अब सवाल उठता हैं कि असम की मूल जनजाति या असमिया के मूल निवासी कैसे परिभाषित किये जायेंगे l जब सन 1951 की जनसँख्या रजिस्टर बना था, उसमे यह कहा गया कि जो व्यक्ति असम में बोली जाने वाली प्रचलित भाषा का उपयोग कर रहा है, वह असमिया हैं l हालाँकि इस परिभाषा को बाद में एक समिति ने नकार दिया था l बाद में असम समझोते में क्रमानुसार बार बार असमिया लोगों के हितों की रक्षा की बात हर उपधाराओं में की गयी l असम साहित्य सभा ने भी एक बृहत्तर असमिया जाति के गठन की वकालत की हैं l उसके अनुसार जो व्यक्ति असम में रह कर मूल असमिया भाषा बोलता है, वह असमिया हैं या उसकी दूसरी या तीसरी भाषा असमिया है, उसको असमिया माना जाना चाहिये l आसू ने बाद में इस परिभाषा का विरोध भी किया था l असम आन्दोलन के समय आसू को प्रथम मांग थी कि सन 1951 के बाद असम में दाखिल लोगों को असम से निष्काषित  किया जाये l बाद में समझोते के समय यह तिथि 25 मार्च 1971 कर दी गयी l वर्ष 1950 और वर्ष 1960 के बीच आये लोगों को मतदान का अधिकार दिया गया l सदिया से कोकराझाड़ तक, असम में रहने वाले बड़ी संख्या हिंदी भाषियों के लिए यह सबसे बड़ी समस्या थी कि जो लोगो वर्षों से यही रच-बस गए है, उनके लिए देश के दुसरे कौनों में, (यहाँ तक कि अपने मूल प्रदेश में भी), भी कोई स्थान नहीं था l आज भी कामो-वेस यही स्थिति बनी हुई हैं l अपने लिए कोई राजनैतिक आवरण भी इन्होने कभी भी नहीं बनाया, बस सतारुढ पार्टियों के साथ मित्रता करके, हमेशा से ही राज्य के उत्तरोतर विकास में सहयोगी रहें हैं l असम में ना जाने कितने वर्षों से हिंदी भाषी रह रहे है, इसके कोई पुख्ता सबुत तो नहीं है, पर दस्तावेज बताते हैं कि पंद्रहवी शताब्दी से ही राज्य में हिंदी भाषियों का जमावड़ा शुरू हो गया था l इस बात के भी प्रमाण हैं की अंग्रेजो से पहले कोच राजाओं ने उत्तर भारत के कई राजाओं के साथ संधि भी की थी l पर जब से हिंदी भाषियों ने असम में रहना शुरू किया है, उन्होंने असम को ही अपनी भूमि माना हैं और कभी भी पृथकवादी राजनीति नहीं की असम में कौन पहले आया और कौन बाद में, इस बात पर हमेशा से ही बहस होती रही हैं l किस समुदाय ने असम के विकास में क्या योगदान दिया है, क्या इसका मूल्यांकन कभी हो पायेगा ? पर जब से हिंदी भाषियों ने असम में रहना शुरू किया है, उन्होंने असम को ही अपनी भूमि माना हैं और कभी भी पृथकवादी राजनीति नहीं की l अभी भी हजारों ऐसे लोग है, जिन्होंने कभी भी असम में रह कर, कोई स्थानीय दस्तावेज नहीं बनवाया या जाली दस्तावेज बनवाने की कभी चेष्टा की l बस वर्षों से रह रहें हैं l पर सवाल यह उठता हैं कि धारा 6 को पूर्ण रूप से लागु करने में सभी स्टेकहोल्डरों से क्या कभी बात हुई हैं ? धारा 6 के लागु किये जाने के लिए अब तक जो उपाय किये गए, उनकी सूची बहुत लम्बी हैं l पर मूल बात यह हैं कि राज्य में रह रहे बड़ी संख्या में अवेध बंगलादेशी लोगों ने सब कुछ गड़बड़झाला किया हुवा है, जिससे ऐसा लग रहा हैं कि राज्य के मूल लोगों के लिए रोजगार, भाषा और संस्कृति का संकट उत्पन्न हो गया हैं l
पुरे प्रकरण में उन लोगों पर भी ऊँगली उठ रही हैं जो असमिया माता की संतान तो नहीं है, पर पिछले 7-8 दशकों से असम में असमिया हो कर रह रहें हैं l ऐसे लोगों की संख्या लाखों में है, जिन्होंने अपने वास स्थान असम को ही बनाया हैं और असम के आर्थिक, सामजिक और सांस्कृतिक विकास के लिए भरपूर सहयोग दिया है, जिसका वर्णन समय समय पर किया जाता रहा हैं l क्या उन लोगों पर भी धारा 6 लागु होगी l इस प्रश्न के कई जबाब हो सकते हैं l कुछ उत्तर समय के साथ आयेंगे l पर बड़ी बात यह हैं कि असम के आर्थ-सामाजिक विकास में सभी समुदायों ने भरपूर सहयोग दिया है, इसका जिक्र भी होना जरुरी हैं l इस समय, असम में रहने वाले विभिन्न समुदायों की प्रतिनिधि संस्थाओं के समक्ष एक परीक्षा की घड़ी आ गयी है l इस समय उन्हें अपनी जाति और उसके अधिकारों की सुरक्षा को लेकर चिंतित होना पड़ेगा और समुदायों की तरफ से इस उच्च स्तरीय समिति को सुझाव पेश करना होगा जिससे वे अपना पक्ष अपनी जाति और उसके संरक्षण के लिए प्रस्ताव पेश कर सकती हैं l समिती के समक्ष दिए गए प्रस्ताव पर मौखिक रूप से भी प्रतिवेदन दिया जा सकता है l    

Friday, August 16, 2019

लाल किले की प्राचीर से भाषण अच्छा लगता हैं


लाल किले की प्राचीर से भाषण अच्छा लगता हैं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वंतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से दिए गए राष्ट्र के नाम संबोधन में कई चीजे नई और अहसास कराने वाली भी थी l मेरे हिसाब से इनमे सबसे मुख्य बात थी, ‘इज ऑफ़ लिविंग’ l ख़ुशी की बात यह रही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इज ऑफ़ लिविंग की बड़ी वकालत की हैं l भारत एक लोकतांत्रिक देश हैं l यहाँ जनता हर पांच वर्षों में एक नई सरकार को चुनती हैं l चुनी हुई सरकार संविधान में वर्णित और जनता को प्रदत अधिकारों के क्रियान्वयन के लिए, जिसमे जानमाल की सुरक्षा, रोजगार और आम लोगों के हितों की रक्षा करने का वचन मुख्य रूप से रहता है, सत्ता सँभालने के समय शपथ लेती हैं l यह क्रिया पिछले बहत्तर वर्षों से आजाद भारत में चल रही हैं l भारत की जीवनधारा को सँभालने के लिए, नौकरशाहों की एक बड़ी फौज देश के कौने-कौने में कार्यरत हैं l देश में कानून और न्याय का राज हो, इसके लिए देश में एक पूरी व्यवस्था बनी हुई है, जो देश के हर नागरिक को शासन के प्रति आस्था का अनुभव करवाता हैं l यह एक आम और स्थाई चीजें है, जिसको हम दशकों से देख रहें हैं l सुविधाजनक तरीके से जीवन-यापन संबंधी बुनियादी सुविधाएं बेहतर करने लिए सरकार ने पहल तो की है, और इसका मकसद सभी शहरों में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप नागरिक सुविधाएं बहाल करना है। पर गौर से अगर हम देंखे, तो पाएंगे कि अभी भी आम लोग मुश्किल से जीवन यापन कर रहें हैं l अभी भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है, लोग l सरकारी नौकरी पेशा आबादी, जो एक बड़ी राशि आय कर के रूप में देतें है, हो सकता हैं कि वें आराम से अपना जीवन यापन कर रहें हो, पर निजी क्षेत्र में कार्य करने वालें माध्यम और निम्न माध्यम श्रेणी के लोग वे सबसे अधिक परेशान है, जिनको अपने परिवार की शिक्षा और स्वास्थ को लेकर सबसे अधिक चिंता हैं l ये दोनों सरकारी सेवाएं चिंताजनक अवस्था में हैं l हो सकता हैं कि इन वर्षों में स्कूल की बिल्डिंग रंग हो कर नई सी दिखने लगी हो, यह भी हो सकता हैं कि मेडिकल कॉलेजों और सरकारी चिकित्सालयों में साफ़ सफाई पहले से ज्यादा होने लगी हो, पर दोनों सेवाओं में बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव अभी भी दिखाई दे रहा हैं l  विचलित करने वाली ख़बरें अक्सर टेलीविजन के परदे पर दिखाई पड़ जाती हैं l आम लोगों की रिहायस का ख्याल कौन रखेगा, इसका जबाब सरकार के पास नहीं हैं l या यूँ कहें कि आम लोग ही सरकार का ख्याल रखे-उसके मंत्रियों का, उसके विधयाकों का, उसके डिएम का, उसके ना जाने किनाका..किनका l एक आम आदमी यही सब तो कर रहा है, पिछले 72 वर्षों से l सरकारी औधे पर बैठे हुए अधिकारीयों की आव भगत, जिससे उसके रहन-सहन में थोड़ी सोलिहत होने लगे l कई बार तो हद हो जाती है, जब सरकारी मशीनरी साधारण से साधारण कार्य करने में फ़ैल हो जाती हैं l जैसे गावों में होने वाले विकास कार्य, जिसको संपन्न होने में वर्षों लग जातें हैं l प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब बिजली के खम्भों का जिक्र किया, तब अनायास ही उन्होंने भारत के गावों में होने वाली स्थितियों का जिक्र भी कर दिया, और एक बड़ा खांचा खींचने का प्रयास किया हैं l गावों में जहाँ बिजली, पानी, सड़क और सामान्य जन सेवा के कार्य बस भगवान भरोसे रहता हैं l किसी गावं में अगर बिजली का ट्रांसफार्मर ख़राब हो जाता है, तब हफ्ते तक वह ठीक नहीं होता है, सड़क अगर टूटी हुई है, तब वह वर्षों तक दुबारा नहीं बनती l मसलन एक सड़क टूटी हुई है, आम आदमी उसको ठीक करवाने के लिए मांग करता रहता है, फिर भी वर्षों तक सड़क ठीक नहीं होती हैं l एक दिन सड़क पर ठेकदार काम करने के लिए आतें हैं और घटिया सड़क बना कर चले जातें है, जो कुछ ही दिनों में दुबारा टूट जाती हैं l असम में जब तटबंध बने थे, तब यह आशा की जा रही थी कि इस बार कार्य अच्छा हुवा है, पर हाल ही में आई बाढ़ ने सभी तटबंधों को अपने में समा लिया हैं l जब शासन में बैठे लोग ही अपनी ड्यूटी ठीक से नहीं निभाते, तब आम आदमी तो बहकेगा ही l एक चुनी हुई सरकार के लिए क्या जिम्मेवारियां है, यह उसे बताने की आवश्यकता नहीं है, .. उसे पहले से ही पता हैं कि उसे क्या करना चाहिये l  अपने आप संपन्न होने वाली तमाम प्रशासनिक गतिविधियाँ, जिसमे शिकायतों का निबटारा, विकासमूलक कार्य, इत्यादि, मानों रुक सी गयी है, नहीं तो एक शिकायतकर्ता को मुख्यमंत्री या पीएमओ तक शिकायत पहुचाने की जरुरत क्यों पड़ रही हैं l उनके नीचे बने हुए तंत्र, जब शिकायतकर्ताओं की शिकायतों का निबटारा करने में असक्षम रहतें है, तब आम आदमी के पास उपर के अधिकारीयों के समक्ष गुहार लगाने के अलावा कोई और रास्ता नजर नहीं आता l रोजाना हजारों शिकायतें पीएमओ तक पहुचती है, क्योंकि लोगों को न्याय नहीं मिलता l   क्यों वह सिस्टम को बदलने के लिए आन्दोलन करता हैं l क्या आम आदमी का एक मात्र रोल हर पांच वर्षों में वोट देना ही हैं ?
यह तो पिछले कुछ वर्षों में देश में विद्वेष, विरोध और टांग खिंचाई की राजनीति और सत्ताधारियों में आपस में संघर्ष ने आम आदमी का ना सिर्फ विश्वास तोडा है, बल्कि उसका उन तमाम चीजों से विश्वास उठाने लगा है, जिन्हें वह लोकतंत्र का स्तम्भ मानता था l lदेश में एक निर्णायक व्यवस्था अभी भी कायम हैं l न्यायलय, जिसके पास जाने के अलावा अब आम आदमी के पास कोई चारा नहीं हैं l  जब समस्त शक्तियां जनता में निहित है, तब फिर यह कैसा असंतोष , फिर यह कैसा रोना-पीटना l वर्तमान लोकतंत्र में सरकारी सिस्टम किस तरह कार्य करता है, देश के आम नागरिक पूरी तरह से समझ चुके है, पर दमघोंटू परिस्थितियों और बदले की तुच्छ राजनीति होने के कारण, आम जनता चुप रहने पर विवश हैं l अब यह देखना हैं कि देश के अंतिम व्यक्ति को इज्जत से दो जून की रोटी कब नसीब होगी l 
  

Friday, August 9, 2019

अनुच्छेद 370, 371, 35ए और असम समझोते की धारा 6


अनुच्छेद 370, 371, 35ए और असम समझोते की धारा 6
भारतीय जनता पार्टी का पिछले लोकसभा चुनाव में अपने घोषणापत्र में जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने संबंधी अनुच्छेद 370 तथा जम्मू कश्मीर के गैर स्थायी निवासियों को परिभाषित करने वाले अनुच्छेद 35ए को समाप्त करने का वादा था, तथा कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी की दिशा में काम करने का संकल्प व्यक्त किया था। भाजपा के संकल्प पत्र में कहा गया था कि पार्टी राज्य के विकास के मार्ग में आने वाले सभी अवराधों को समाप्त करने तथा सभी क्षेत्रों के विकास के लिये पर्याप्त वित्तीय संसाधन मुहैया करायेगा। जब अनुच्छेद 370 के तहत कश्मीर को स्पेशल स्टेटस प्रदान किया गया, तब भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 एक ऐसा लेख था जो जम्मू और कश्मीर को स्वायत्तता का दर्जा देता था। अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष प्रावधान। जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा को, इसकी स्थापना के बाद, भारतीय संविधान के उन लेखों की सिफारिश करने का अधिकार दिया गया था जिन्हें राज्य में लागू किया जाना चाहिए या अनुच्छेद 370 को पूरी तरह से निरस्त करना चाहिए। बाद में जम्मू-कश्मीर संविधान सभा ने राज्य के संविधान का निर्माण किया और अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की सिफारिश किए बिना खुद को भंग कर दिया, इस लेख को भारतीय संविधान की एक स्थायी विशेषता माना गया। मोदी सरकार ने अपना चुनावी वादा निभाते हुए 5 अगस्त 2019 को राज्यसभा में एक ऐतिहासिक संकल्प पेश किया जिसमें जम्मू कश्मीर राज्य से संविधान का अनुच्छेद 370 हटाने और राज्य का विभाजन जम्मू कश्मीर एवं लद्दाख के दो केंद्र शासित क्षेत्रों के रूप में करने का प्रस्ताव किया गया । जम्मू कश्मीर केंद्र शासित क्षेत्र में अपनी विधायिका होगी जबकि लद्दाख बिना विधायी वाली केंद्रशासित क्षेत्र होगा। 
लोक सभा चनाव के दौरान भाजपा ने कहा था कि हम धारा 35ए को भी खत्म करने के लिये प्रतिबद्ध हैं, और अनुच्छेद 35ए जम्मू कश्मीर के गैर स्थायी निवासियों और महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण है।इस प्रस्ताव पर अमल के लिये संसद के दोनों सदनों के समर्थन की जरूरत थी। अपनी चुनावी जीत के दो महीने बाद, बीजेपी सरकार ने सोमवार को संसद में दो प्रस्ताव पारित किए, जिनमें अनुच्छेद 370 को भंग नहीं किया और फिर भी राज्य की विशेष स्थिति को प्रभावी ढंग से समाप्त कर दिया। इसने एक संवैधानिक संशोधन पारित किए बिना ऐसा किया, जिसे अन्यथा दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती। इसके बजाय, एक साधारण बहुमत पर्याप्त था। मोदी सरकार ने वास्तव में इसे कैसे किया? इसका जवाब वास्तव में कुछ ऐसा हैंजो संसद के बाहर हुआ और उसके भीतर नहीं। गृह मंत्री अमित शाह के अनुच्छेद 370 को खत्म करने के प्रस्ताव के पहले, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 367 में संशोधन के लिए एक राष्ट्रपति आदेश जारी किया गया। अनुच्छेद 367 एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करने के लिए है, यह कुछ कानूनों की व्याख्या में मदद करता है। यदि आप अनुच्छेद 367 को बदलने में सक्षम हैं, तो किसी मामले में आप सीधे ऐसा करने के बिना अन्य प्रावधानों को बदल सकते हैं, क्योंकि आप बस उनकी व्याख्या को बदलते हैं। इस अनुच्छेद के अनुसार हैंकि राष्ट्रपति आदेश जम्मू और कश्मीर राज्य पर लागू प्रावधानों की व्याख्या करने में मदद करने के लिए एक नया खंड जोड़ता है। यह खंड अनुच्छेद 370 की व्याख्या को बदल देता है, और अनुच्छेद 370 के खंड 3 में "संविधान सभा" के साथ "विधानसभा" शब्दों को बदल दिया गया है। अनुच्छेद 370 के खंड 3 ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि राष्ट्रपति अनुच्छेद 370 के भीतर कुछ भी बदलना चाहते हैं, तो उन्हें जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा की सिफारिश की आवश्यकता है। लेकिन जम्मू कश्मीर संविधान विधानसभा 1957 में भंग कर दी गई थी, इसलिए यह संभवतः एक सिफारिश नहीं दे सकता था।सोमवार के राष्ट्रपति के आदेश ने उस भाषा को संविधान सभा के बजाय विधान सभा बनाने के लिए बदल दिया है।फिर भी, यह जरुरी हैंकि राष्ट्रपति के कोई भी आदेश को उस आदेश को जम्मू कश्मीर की विधान सभा में इस प्रस्ताव को पारित करवाना की जरुरत रहती है, लेकिन जम्मू और कश्मीर विधान सभा के पास अभी एक अधिकार नहीं है, क्योंकि इसे 2018 में भंग कर दिया गया था और पहले राज्यपाल के नियम और बाद में, राष्ट्रपति के शासन के साथ बदल दिया गया था। जब कोई राज्य राष्ट्रपति शासन के अधीन होता है, तो राज्य के लिए कानून बनाने की शक्ति भारतीय संसद में निहित होती है। जम्मू और कश्मीर वर्तमान में राष्ट्रपति शासन के अधीन है। इतनी प्रभावी रूप से, सरकार का कदम संसद को जम्मू और कश्मीर विधानसभा की ओर से राज्य के चरित्र को बदलने की अनुमति देता है। यह, हालांकि, संघवाद पर ऐसे संशोधनों के प्रभाव पर, कई सवाल उठतें है।
इधर पूर्वोत्तर में 371ए और 371 की अन्य अनुछेदों को लेकर चर्चा शुरू हो गयी हैंl हालाँकि चर्चा और डर बेबुनियाद है, क्योंकि सरकार इन अनुछेदों को हटाने नहीं जा रही है, जो पूर्वोत्तर के कई राज्यों को स्पेशल स्टेट्स देता हैंl इसमें नागालैंड मुख्य राज्य है, जहाँ 371ए के तहत स्थानीय जनजाति कानूनों को देश के कानून के उपर प्राथमिकता दी गयी हैंl इसके अलावा भूमि क्रय और स्थानांतरण पर भी रोक हैंl इसके साथ ही असम में असम समझोते की धारा छह को लेकर भी चर्चा जोरो से हैंl असम समझौते के खंड 6 में कहा गया हैंकि असमिया लोगों की सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषाई पहचान और विरासत की रक्षा, संरक्षण और संवर्धन के लिए उचित संवैधानिक, विधायी और प्रशासनिक सुरक्षा उपाय प्रदान किए जाएंगे।
अनुछेद 370 में हुए बदलाव से पुरे देश में खास करके असम में अब कई प्रश्न उठ खड़े हुए है- क्या नागरिकता संशोधन बिल 1955 वापस आयेगा ? क्या केंद्र एक शुद्ध नागरिकता रजिस्टर बना पायेगा और क्या असम समझोते की धारा छह को लागु किया जा सकेगा ? प्रश्नों के उतर काल के गाल में समाये हुए हैंl इस समय कश्मीर और असम में एनआरसी देश के सामने मुख्य मुद्दा हैंl