Monday, November 9, 2015

कागज की चकरी से प्यार है आज भी

जब भी मैं एक सामाजिक नेट्वोर्किंग साईट का विज्ञापन देखता हूँ, जिसमे एक बच्चा कागज की चकरी चलाता हुवा दिखाया जाता है और फिर वह बच्चा बड़ा हो कर एक पवन चक्की बनता हुवा गावं में पवन चक्की से चापाकल से पानी निकाल लेता है, तब मेरा मन बचपन की और लौटने लगता है l यह कागज की चकरी इतना क्यों आकर्षित करती है, क्यों उसे देखते ही तमाम तरह की उथल-पुथल मन में हिचखोले खाने लगती है l शायद इसका सम्बन्ध उस वैज्ञानिक मन से रहता है, जो बार बार हमें पूछता है कि यह चकरी अपने आप क्यों घुमती है l क्यों उसके रंग बिरंगे पंखे इतनी तेजी से घूम कर एक नया रंग बना देते है l क्यों नहीं इस तरह की चकरी बिजली बनाने के कार्य में इस्तमाल होती है l चकरी के पंखे के घुमने से मन भी उसके साथ एक नए अनंत दुनिया में चलने लगता है l कभी बचपन की और तो कभी उस विज्ञापन की और जिसमे पवन चक्की द्वारा बिजली उत्पादित की गयी और गावं में खुशहाली लौट आयी l कितनी सकारात्मक है यह कागज की चकरी l निरंतर चलती हुई l जीवन को चलने का सन्देश देती हुई, जीवन कौशिका बन कर l इस बाजारवाद के जमानें में, सड़कों पर एक बांस में घास लगाकर बांसुरी,फिरनी और कागज के पंखे बेचनें वालें हॉकरों ने अभी भी आशा नहीं छोड़ी है l वे आज भी त्यौहार के दिनों में रंग बिरंगी हस्त निर्मित कागजी पंखें, बांस की बांसुरी इत्यादि एक बांस में खोंस कर बड़ें शहरों के चोरहों पर खडें हो जातें है, और राहगीरों को अपनी और आकर्षित करतें है l मैदानों में जहाँ वार्षिक उर्स, मेला लगता है, उस जगह पर कम कीमत पर खुशियाँ बाँटने का कार्य यह हॉकर करतें है l ढोल, बेलून और गाड़ी बेचने वालें ये हॉकर अब बड़े शहरों के हिस्से बन चुकें है l शहर में रहने वालें कामगारों और श्रमिकों के लिए ये हॉकर रोजमर्रा में लगनें वालें सामानों की आपूर्ति भी यह हॉकर का देते है l एक अनुमान के अनुसार देश भर में करीब एक करोड़ लोग सड़कों पर सामान बेच कर अपना परिवार चलातें है l इसके हिसाब से करीब पांच करोड़ लोग इस अस्थाई असंगठित व्यापार पर आश्रित है l बड़े महानगरों में जहाँ लाखों सैलानी आतें है, उस जगह पर खास करकें, ये हॉकर छोटी मोटी वस्तु, खिलोनें, खाद्य सामग्री, वैलून, टोकरी, चश्में और न जाने क्या क्या बचतें है,जिनका मूल्य बेहद कम होता है, आज भी यें हॉकर आधुनिक समाज और बाजारवाद के लिए प्रतिस्पर्धा का विषय बने हुवें है l आधुनिक लोकतंत्र में ऐसा माना जाता है कि यह हॉकर टेक्स देने वालें दुकानदारों के अधिकारों का हनन कर रहें है l पर हो रहा है एकदम उल्टा l हॉकर बतातें है कि उनकों निगम, पुलिस और गुंडई तत्वों के हाथ रोजाना गर्म करनें पडतें है, यह खर्च सौ रुपयें से लेकर दौ सो तक होतें है l अगर यह राशी एक वर्ष तक एक हॉकर देता रहें, तब यह राशि हजारों तक पहुच जाती है, जो एक दूकानदार के द्वारा दिया गया निगम कर और अन्य करों से बहुत ज्यादा रहता है l यह हॉकर हमें अतीत की और ले जातें है l अतीत के झरोंखों से जब हम झाँकतें है, तब पातें है कि तमाम तरह की यादें और संस्मरण हमें ताज़ी हवा की भांति तारों ताजा तो कर के एक नई स्फूर्ति का संचार कर देती है l उन यादों में जीवन की उथल पुथल के साथ मीठी गुदगुदी करने वालें चित्र भी रहतें है, जो बेहद नोस्तेल्जिक होने के साथ हमारें मानस पटल पर गहरी छाप छोड़ जातें है l अब तो फिरकी बनने की कक्षा कराई जा रही  है l अपने अतीत में जाने के लिए थीम पार्टियाँ आयोजित की जाती है, जहाँ चकरी, सिटी, लट्टू,कागज की नाव और ऐसी तमाम वस्तुयें उस पार्टी में राखी जाती है, ताकि आने वालें मेहमान अपने आप को पुरानें दिनों में ले जाय l तभी तो आज भी हमें प्रसिद्ध गज़ल गायक जगजीत सिंह के ग़ज़ल के बोल याद आतें है –यह दौलत भी ले लो, यह शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझे को लौटा दो बचपन का सावन,वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी..    
वनबन्धु परिषद् और एकल विद्यालय अभियान के होने के मायने
रवि अजितसरिया, गुवाहाटी
अंग्रेजी में एक कहावत है “सीईइन्ग इस बिलिविंग”, जिसके मायने है, देखने से ही पता चलता है l मैंने वन बंधु परिषद् के कार्यक्रमों को नजदीक से देखा है, जिसको देखने पर पता चलता है कि यह एक पुर्णतः अनुशासित और उद्देश्यपरक संस्था है l एक बड़े उदेश्य की प्राप्ति के लिए जिस तरह हमें छोटी शुरुवात करके आगे बढ़ते रहना है, उसी तरह इस संस्था के लोगों को भी मैंने धीरे-धीरे आगे बढ़ते देखा है l शुरुवात के दिनों में मुझे कुछ समझ में नही आ रहा था, जब मै परिषद् की सभाओं में जाता था l सभाओं के होने के मायने मुझे समझ में नहीं आ रहे थे l बस एक के बाद एक सभा l कभी महीने में एक बार तो कभी महीने में दो बार l मजे की बात एक यह भी थी कि शहर की नामी-गिरामी हस्तियाँ भी इन सभाओं में जरुर उपस्थित रहती थी l चर्चा सिर्फ आदिवासी लोगों के विकास की होती थी l एक अजीब सी सरसराहट मुझे सदस्यों में दिखाई देती थी l यहाँ मै दौबारा उस उद्देश्य का यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा, जिस पर परिषद् ने हमेशा अपनी आँखे गड़ाये रखी l मकसद था, आदिवासी समुदाय की बौद्दिक, सामाजिक और आर्थिक उत्थान, जिस पर वन बंधु परिषद् को गंभीरता से काम करना था l पूर्वोत्तर में यह कार्य अति गंभीर और दुष्कर सा था l पर वन बंधु ने शुरुवात में, समस्त पूर्वोत्तर में चार हज़ार स्कूलों(एक शिक्षक स्कूल) को खोलने का लक्ष्य रखा, जिसके लिए एक सशक्त नगर चेप्टरों के जाल की जरुरत थी l गुवाहाटी चेप्टर वन्बब्धु के लक्ष्य को पूरा करने में के महत भूमिका निभा सकता, यह बात पूरे देश के शीर्ष नेतृत्व को पता थी l और इसी दिशा में शायद कार्य हो रहा था l बहरहाल, जब मैं पहली बार वनबन्धु की वनयात्रा पर गया, तब वहां जो देखा उससे मैं विस्मित और अचंभित हो गया l उस दिन समझ में आया कि “देखने से पता चलता है” का क्या मतलब होता है l सैकडों आदिवासी गांववासी वनबन्धु द्वारा संचालित स्कूल में हमारा स्वागत करने के लिए एकत्र थे, गायन-बायन के साथ हमें अंदर ले जाया गया l चारों और ढोल-नगाड़ों की आवाज गूंज रही थी l ऐसा मालूम हो रहा था कि किसी नायक का स्वागत हो रहा था l जिस तरह से रामायण की एक चरित्र शबरी ने भगवन राम के आने की बाट जोह रही थी, उसी तरह का नजारा हमें यहाँ देखने को मिलो रहा था l हर कोई चहरे पर मुस्कान लिए, हाथों में माला लिए हमारा स्वागत कर रहा था l वन यात्रियों पर जल छिरकाव, पुष्प वर्षा, और असमिया परंपरा के अनुरूप स्वागत l हमारे चरण धोने के लिए भी कुछ लोगों ने व्यवस्था कर रखी थी(जिसकों धन्यवाद के साथ मना किया गया)l  यह नजारा इतना हर्षित करने वाला था कि कई वन यात्री उन आदिवासियों के साथ नृत्य करने में लग गए और करीब घंटेभर तक किया l फिर शुरू हुई बैठक और बच्चों की प्रस्तुति l भारतीय संस्कृति को समझने के लिए अगर कोई किसी एकल विद्यालय में जाये, तब उसे शायद कही और जाने की जरुरत नहीं होगी l    

भारत माता की पूजा आरती के साथ मन्त्र जाप तक उन छोटे नौनिहालों ने हमारे सामने प्रस्तुत किया l इतने सरे आकर्षण के पश्चात, कोई कैसे इस संस्था के प्रति आकर्षित नहीं रह सकता l कई वन यात्रियों ने पुरे परिवार के साथ यह यात्रा की थी l उनके बच्चे भी इस यात्रा में होने वाली घटनाओं को अचम्भे से देख रहे थे l जब छोटे-छोटे बच्चे एक साथ बैठ कर अनुशासन के साथ विभिन्न प्रकार की प्रस्तुति से रहे थे, तब यह सन्देश जरुर गया था कि एकल विद्यालयों में भी शहर के बड़े स्कूलों की तरह अनुशासन सीखाया जाता है l कहने का अर्थ यह था कि जिन आदिवासी गावंवालों के पास सरकारी और प्राथमिक शिक्षा नहीं पहुच रही थी, वहा वनबन्धु परिषद् ने मात्र एक स्कूल खोल कर गावं में आशा की जो लौ जलाई, उसी से गावं का एक नया रंग देखने को मिल रहा था l प्राथमिक शिक्षा के अलावा, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक उन्नति के लिए जो प्रयास गावं में किये जा रहे थे, उससे यह तय था की आने वाले दिनों में उस गावं की शक्ल की बदल जाएगी l हर एकल विद्यालय सिर्फ प्राथमिक शिक्षा केंद्र मात्र नहीं था, इस केंद्र के जरीए, संस्कार शिक्षा, स्वास्थ ज्ञान, आत्मनिर्भरता के मूलमंत्र देने की एक बड़ी योगना है l      
 15 जनवरी, 1989 को स्थापित, वनबन्धु परिषद् आदिवासी और ग्रामीण जन जीवन के उत्थान का कारण बनने के लिए समर्पित एक गैर सरकारी सामाजिक सेवा संगठन है। प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक समूह द्वारा स्थापित, वनबन्धु परिषद्  के आदर्श वाक्य “आदिवासी समाज की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार और उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करना” अब देश के प्रमुख शहरों के लोगों के अधरों से निकलने लगे है l इस कोशिश में नगर समितियों ने अपने-अपने इलाके की जिम्मेवारियाँ ले कर यह सिद्ध कर दिया है कि देश को एक महाशक्ति के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए सकल रूप से वनवासी भाइयों के लिए पिछले दो दशकों से  साक्षरता के प्रसार, आर्थिक विकास, सामाजिक-सांस्कृतिक उन्नति और स्वास्थ्य सेवाओं जैसे  विभिन्न कार्यक्रमों को उपलब्ध कराने के लिए एकल अभियान जैसे कार्यक्रम हाथ में लिए गए है l
ऐसा माना जाता है कि देश के आदिवासी लोगों का विकास देश के अन्य जातियों की तरह उस तेजी से न हो सका है, और लंबे समय से बुनियादी सुविधाओं का आभाव, आर्थिक और राजनीतिक से उनका शोषण इस कदर हुवा है कि वे अपने आप को विकलांग और असहाय मानने लगे है l अपनी स्थापना के बाद वनबंधु परिषद् ने परिवर्तन या विकास लाने के लिए शिक्षा के महत्व पर जोर दिया है। यह उन लोगों का अधिकार था, उनके आत्मविश्वास को जगाने के लिए शिक्षा की बेहद जरुरत थी l इनके बीच विश्वास और भाईचारे की भावना को विकसित करना था,जिससे ये शोषण का विरोध साहस पूर्वक कर सके l निरक्षरता उन्मूलन के प्राथमिक उद्देश्य को पूरा करने के लिए, आदिवासी समाज के मित्र, झारखंड के गुमला जिले के ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में 1989 में एक अनूठी परियोजना एकल विद्यालय योजना शुरू की। यह परियोजना वर्तमान में दिसंबर 2014 की स्थिति के अनुसार परियोजना द्वारा कवर कर रहे हैं l  वन बंधु परिषद् अपने देश भर में फैले हुवे 25 चेप्टरों और अपने सहयोगी संगठनों के सहयोग से 15,35,078 आदिवासी बच्चों को करीब 15000  स्कूलों के माध्यम से गांवों में कार्य कर रहा है। प्राथमिक शिक्षा के साथ वनबन्धु परिषद् विद्यालय वालें गावं में लोगों के बीच जागरूकता फ़ैलाने के लिए प्रयासरत है l ग्रामवासियों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए, एक ग्राम समिति उत्साही ग्रामीणों के बीच से ही बनाई जाती है । इस समिति का कार्य पर्यवेक्षण करने के लिए, शिक्षक का चयन, स्थान और स्कूल के समय शामिल है। कई विकास और जागरण कार्यक्रमों के माध्यम से यह समिति ग्रामवासियों में जागरूकता पैदा करने और स्कूल में बेहतर उपस्थिति के लिए योगदान दे रही है। `कार्यवाहक समिति समय समय पर चेप्टर का दौरा करवाने में अहम् भूमिका निभाते है, जिससे छात्र और ग्रामवासी गांव के बाहर की दुनिया से अनजान नहीं रहते हैं l एकल विद्यालयों के होने से असाधारण परिणाम सामने आए है। निरपेक्ष संख्या को ध्यान में रखा जाता है, तो लगभग 25 लाख बच्चों को ओटीएस प्रणाली से लाभ हुआ है। केवल साक्षरता के स्तर में वृद्धि ही नहीं हुई है, साथ ही  गलत प्रथाओं, जादू टोने और शराब से होने वाली बीमारी में तेज गिरावट भी देखी गयी है l
इसके अलावा वनबन्धु निम्नलिखित कार्यक्रमों पर अपना ध्यान लगा रहा है l  - आरोग्य योजना के तहत स्वास्थ्य देखभाल शिक्षा और प्राथमिक चिकित्सा के द्वारा स्वास्थ्य देखभाल को बढ़ावा देना। शिक्षित और छोटे व्यवसायों के लिए प्रशिक्षण और गौमूत्र के साथ गाय के गोबर और कीटनाशक के साथ तैयार किया सबसे सस्ता और सबसे प्रभावी खाद के साथ शून्य लागत प्राकृतिक खेती के लिए प्रशिक्षण प्रदान करके आर्थिक विकास को प्राप्त करने के लिए।
आत्मनिर्भर बनने के लिए और आत्म-सम्मान के साथ जीने के लिए उन्हें सक्षम करने, सूचना का अधिकार अधिनियम की मदद से सरकारी परियोजनाओं के बाहर उनकी बकाया राशि को प्राप्त करने, उनके अधिकारों के बारे में जागरूकता पैदा करके अधिकारिता शिक्षा।
सत्संग केंद्र से संस्कार शिक्षा के साथ सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जागरूकता।

जमीनी स्तर पर हो रहे इस एकल अभियान को भारी जन समर्थन प्राप्त हो रहा है l इसका उदहारण है, वनबन्धु द्वारा हर वर्ष किये जाने वाले वार्षिक समारोह, जिसमे गुवाहाटी के अलावा आसपास के दुसरे शहर के लोग भी, मंचन होने वाले नाटकों को देखने आते है l इन नाटकों के मंचन से जमा होने वालीं राशी, उन विद्यालयों के संचालन उपयोग होती है, जिनको गुवाहाटी चेप्टर ने जिम्मेवारी ली हुई है l इसके अलावा गुवहाटी के न जाने कितने उद्योगपति और अन्य जागरूक लोगों ने हर वर्ष स्कूलों के लिए धनराशी देने की प्रतिबद्धता दिखाई है l एकल विद्यालय के संचालन के लिए जिन नगर समितियों ने आगे आ कर कार्य करने का बीड़ा उठाया है, उससे लोगों में आपसी भाईचारे की भावना भी प्रबल हुई है l एकल अभियान ने नगर समितियों के सदस्यों में एक उत्सुकता और एक नई चाह का आगाज़ किया है, जिसकी वजह से हर बार सभाओं में सदस्य कुछ नया होने का इंतज़ार करतें है l इस यात्रा में, मैं अपने आपको सोभाग्यशाली मानता हूँ, क्योंकि इतने लोगों से मिलने का मौका मिला, जिनके लिए एकल एक मिशन बन गया है l इस एकल परिवार के लिए अब सिर्फ एकल एक मिलने का जरिया मात्र नहीं रह गया है, सदस्य, अब एक दुसरे के पारिवारिक आयोजनों में भी भाग लेने लगे है l एकल, तो ऐसा लग रहा है, एक जरिया मात्र है, मिशन तो समरसता का है, भाईचारे का है l 


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