कागज की चकरी से प्यार है आज भी
जब भी मैं एक सामाजिक नेट्वोर्किंग साईट का विज्ञापन देखता
हूँ, जिसमे एक बच्चा कागज की चकरी चलाता हुवा दिखाया जाता है और फिर वह बच्चा बड़ा
हो कर एक पवन चक्की बनता हुवा गावं में पवन चक्की से चापाकल से पानी निकाल लेता
है, तब मेरा मन बचपन की और लौटने लगता है l यह कागज की चकरी इतना क्यों आकर्षित
करती है, क्यों उसे देखते ही तमाम तरह की उथल-पुथल मन में हिचखोले खाने लगती है l
शायद इसका सम्बन्ध उस वैज्ञानिक मन से रहता है, जो बार बार हमें पूछता है कि यह
चकरी अपने आप क्यों घुमती है l क्यों उसके रंग बिरंगे पंखे इतनी तेजी से घूम कर एक
नया रंग बना देते है l क्यों नहीं इस तरह की चकरी बिजली बनाने के कार्य में
इस्तमाल होती है l चकरी के पंखे के घुमने से मन भी उसके साथ एक नए अनंत दुनिया में
चलने लगता है l कभी बचपन की और तो कभी उस विज्ञापन की और जिसमे पवन चक्की द्वारा
बिजली उत्पादित की गयी और गावं में खुशहाली लौट आयी l कितनी सकारात्मक है यह कागज
की चकरी l निरंतर चलती हुई l जीवन को चलने का सन्देश देती हुई, जीवन कौशिका बन कर
l इस बाजारवाद के जमानें में, सड़कों पर एक बांस में घास लगाकर बांसुरी,फिरनी और कागज
के पंखे बेचनें वालें हॉकरों ने अभी भी आशा नहीं छोड़ी है l वे आज भी त्यौहार के
दिनों में रंग बिरंगी हस्त निर्मित कागजी पंखें, बांस की बांसुरी इत्यादि एक बांस
में खोंस कर बड़ें शहरों के चोरहों पर खडें हो जातें है, और राहगीरों को अपनी और
आकर्षित करतें है l मैदानों में जहाँ वार्षिक उर्स, मेला लगता है, उस जगह पर कम
कीमत पर खुशियाँ बाँटने का कार्य यह हॉकर करतें है l ढोल, बेलून और गाड़ी बेचने
वालें ये हॉकर अब बड़े शहरों के हिस्से बन चुकें है l शहर में रहने वालें कामगारों
और श्रमिकों के लिए ये हॉकर रोजमर्रा में लगनें वालें सामानों की आपूर्ति भी यह
हॉकर का देते है l एक अनुमान के अनुसार देश भर में करीब एक करोड़ लोग सड़कों पर
सामान बेच कर अपना परिवार चलातें है l इसके हिसाब से करीब पांच करोड़ लोग इस अस्थाई
असंगठित व्यापार पर आश्रित है l बड़े महानगरों में जहाँ लाखों सैलानी आतें है, उस
जगह पर खास करकें, ये हॉकर छोटी मोटी वस्तु, खिलोनें, खाद्य सामग्री, वैलून,
टोकरी, चश्में और न जाने क्या क्या बचतें है,जिनका मूल्य बेहद कम होता है, आज भी
यें हॉकर आधुनिक समाज और बाजारवाद के लिए प्रतिस्पर्धा का विषय बने हुवें है l
आधुनिक लोकतंत्र में ऐसा माना जाता है कि यह हॉकर टेक्स देने वालें दुकानदारों के
अधिकारों का हनन कर रहें है l पर हो रहा है एकदम उल्टा l हॉकर बतातें है कि उनकों
निगम, पुलिस और गुंडई तत्वों के हाथ रोजाना गर्म करनें पडतें है, यह खर्च सौ
रुपयें से लेकर दौ सो तक होतें है l अगर यह राशी एक वर्ष तक एक हॉकर देता रहें, तब
यह राशि हजारों तक पहुच जाती है, जो एक दूकानदार के द्वारा दिया गया निगम कर और अन्य
करों से बहुत ज्यादा रहता है l यह हॉकर हमें अतीत की और ले जातें है l अतीत के झरोंखों
से जब हम झाँकतें है, तब पातें है कि तमाम तरह की यादें और संस्मरण हमें ताज़ी हवा
की भांति तारों ताजा तो कर के एक नई स्फूर्ति का संचार कर देती है l उन यादों में
जीवन की उथल पुथल के साथ मीठी गुदगुदी करने वालें चित्र भी रहतें है, जो बेहद
नोस्तेल्जिक होने के साथ हमारें मानस पटल पर गहरी छाप छोड़ जातें है l अब तो फिरकी
बनने की कक्षा कराई जा रही है l अपने अतीत
में जाने के लिए थीम पार्टियाँ आयोजित की जाती है, जहाँ चकरी, सिटी, लट्टू,कागज की
नाव और ऐसी तमाम वस्तुयें उस पार्टी में राखी जाती है, ताकि आने वालें मेहमान अपने
आप को पुरानें दिनों में ले जाय l तभी तो आज भी हमें प्रसिद्ध गज़ल गायक जगजीत सिंह
के ग़ज़ल के बोल याद आतें है –यह दौलत भी ले लो, यह शोहरत भी ले लो, भले छीन लो
मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझे को लौटा दो बचपन का सावन,वो कागज की कश्ती वो बारिश का
पानी..
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