Friday, November 27, 2020

आखिर कौन है, यें हिंदी भाषी ?

 

आखिर कौन है, यें हिंदी भाषी ?


पिछले अंक में हिंदी भाषियों पर लिखने के पश्चात,एक तर्क यह निकल कर आया कि आखिर कौन यें हिंदी भाषी l राजस्थानी मूल के लोग तो मारवाड़ी बोलते है, बिहारी मूल के भोजपुरी या मैथली में बात करते हैं, फिर असम में हिंदी भाषी कौन हुए ? क्या ज्योंति प्रसाद अगरवाला को भी हिंदी भाषी की संज्ञा दी जा सकती है ? इस तरह के विचार कुछ बुद्धिजीवियों ने उठाये हैं l दरअसल में, हिंदी भाषियों के समूह में कौन से भाषा-भाषी के लोग समाहित है, इसमें हमेशा से ही विवाद रहा हैं l जिस तरह से भारत में जातिवाद की जड़े इतनी गहरी और हरी है कि कोई कितनी भी कौशिश कर ले, हर बार जाति का प्रश्न उभर कर आ ही जाता हैं l सन 1985 के बाद जब, असम में एक क्षेत्रीय राजनीति का दौर शुरू हुवा, तब भी कई मर्तबा सभी जातियों को एक छत के नीचे लाने के प्रयास हुए थे, पर कोई भी प्रयास फलीभूत नहीं हुए और सभी जातियों को हिंदी भाषी के रूप में संज्ञा दी जाए लगी l हिंदी भाषी बोलने पर यह समझा जाता है कि उत्तर भारत की यह बोली है, असम में यह एक आगंतुक है l एनआरसी के समय भी जब सर्व प्रथम नियम बनाये थे, तब ओर्गिनाल्स इन्हेबितेंत (स्थानीय)और नॉन ओर्गिनल रेजिडेंट(प्रवासी) के रूप में लोगों को चिन्हित करने का प्रयास किया गया था, पर विवाद होने पर इसे हटा दिया था l लेकिन ऐसे हजारों लोगों ने अपना नाम दर्ज ही नहीं करवाया, जिनकी उपाधि ही असम के स्थानीय कह कर दर्शाती हैं l उनका यह तर्क था कि हम यहाँ के निवासी है, हमें प्रमाण देने की जरुरत क्यों हैं l पर नियम तो नियम थे, सभी को प्रमाण देने पड़े l यह अलग बात थी कि जांच पड़ताल कम ज्यादा की गयी थी l हिंदी भाषियों को लेकर हमेशा एक संजीदगी रही है कि यह एक जाति कमाने आई है और कमा कर वापस चली जायेगी l स्थानीय संसधानों पर कोई इनका अधिकार नहीं हैं l पर ऐसा नहीं हुवा l तर्क करने वाले का मंतव्य यह था कि स्थानीय भाषा और संस्कृति को अपना कर उसकी सेवा करना, उसमे मिल जाना ही एक मानव का स्वभाव होता है, पर उसके जींस में उत्पत्ति के स्थान के अनुवांशिक अंश मौजूद रहते है, जो कभी भी समाप्त नहीं होते, और इसी गुण कि वजह से वें स्थानीय से अलग दिखते हैं l असम में रहने वाले नेपाली और सिख समुदाय के लोगों ने असमिया रहन सहन और बोली को ना सिर्फ अपनाया बल्कि उसकी भरपूर सेवा भी कर रहें हैं l इसी तरह से असम के कई स्थानों पर मारवाड़ी और अन्य समुदायों के लोग असमिया संस्कृति में रच बस गए है l माजुली और ढाकुवाखाना इसके उदहारण बने हुए है l ज्योति प्रसाद अगरवाला जैसा व्यक्तित्व अब और पैदा नहीं हो सकता, जिसको कोई भी हिंदीभाषी के रूप में चिन्हित भी नहीं कर सकता, ना कोई भाषा-भाषी इनको अलग से अपना सकता है l वे भाषा संस्कृति के हिसाब से पूर्ण रूप से असमिया थे, जिनको लोग पूजते हैं l ऐसे महापुरुष को किसी भी भाषा में बांधना, उनका अपमान होगा l एक विश्व मानव के रूप में प्रतिष्ठित हुए थे, ज्योति प्रसाद अगरवाला, जिनको असमिया होने पर गर्व था l

पुरे भारतवर्ष में प्रवजन का इतिहास बहुत पुराना है l असम में भी कौन सी जाति पहले आई, इस पर बहुत विवाद हैं l यूँ तो असम में राजस्थान से राजपुताना इलाके से लोगों के आने का दौर शुरू हो चूका था, पर यांदाबू संधि के पश्चात बड़ी संख्या में भाषा-भाषी के लोग असम आने लगे थे l इसमें अंग्रेजो द्वारा बसाये हुए लोग भी शामिल है, जिन्होंने अंग्रेजों के बेन्केर्स के रूप में भी काम किया l चाय बागानों में मुजदुरों को बसाया गया, चाय बागानों में दुकानों की बसावट की गयी, जिनको राजस्थानी मूल के लोग चलाते थें l इसी तरह से नौकरी और पोस्टिंग की वजह से भी लोग यहाँ बसते चले गए l कहते है कि भूमि पर एक खिंचाव है, जो एक बार यहाँ आ जाता है, वह यही बस जाता है l सहज सरल असमिया लोगों ने आगुन्तकों की आगवानी भी दोनों हाथों से की हैं l जो लोग यहाँ बस गए, वें यही के हो गए, मूल प्रदेशों में उनके लिए कोई स्थान अब नहीं है l कुछ परिवारों के सभी रिश्तेदार तक यही रहते हैं l यह तो क्षेत्रीयतावाद की आंधी ने सामाजिक तानेबाने को ध्वंश कर दिया है, नहीं तो जाति और भाषा कभी भी किसी के आड़े नहीं आई थी l

असम में सदियों से एक मिश्रित संस्कृति वास करती आई है l समुदायों के बीच समरसता हमेशा ही बनी रही l बस चुनाव के समय ही थोड़ी बहुत कड़वाहट आ जाती है l पर बड़ी बात यह है कि सभी समुदाय शांति से वास कर रहे हैं l अच्छी बात यह भी है कि सभी के लिए अलग अलग स्थान और जगह बनी हुई हैं l राजनीति कभी भी समुदायों के बीच बने हुए मधुर और आत्मीय संबधों को विच्छेद नहीं कर सकती l         

Friday, November 6, 2020

रोमांस, क्रांति, परिवर्तन, इत्यादि ..

 

रोमांस, क्रांति, परिवर्तन, इत्यादि ..


जब सन 1932 में ज्योति प्रासाद अगरवाला ने असम की पहली फिल्म जयमती का निर्माण शुरू किया था, तब उनको इस फिल्म में काम करने वाले कलाकार मिलने में बेहद तकलीफ हुई थी l फिल्म की नायिका आइदेव हेन्द्क को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा था l पर ज्योति प्रसाद का रोमांस शीर्ष पर था, और उन्होंने फिल्म का निर्माण कर डाला l कवि ह्रदय ज्योति प्रसाद ने अपने जीवनकाल में करीब 300 गीतों की रचना की थी l एक रोमांटिक कवि कब एक क्रन्तिकारी बन गया किसी को पता ही नहीं चला l जब उन्होंने लिखा ‘तुम्ही करिबो लागिबो अग्नि स्नान’, तब एकाएक एक जलजला सा उठा और असमिया पुनर्जागरण का दौर शुरू हो गया l असमिया संस्कृति, कला और साहित्य को दिशा प्रदान करने के लिए उनका नाम अग्रणी है l बाद में जब भाषा आंदोलन और असम आन्दोलन शुरू हुवा था, तब छात्र उनके इन्ही गीतों को गा कर क्रांति का आगाज किया करते थे l इतना ही नहीं नागरिकता संसोधन कानून 2016 के विरोध के समय भी असम के रंगकर्मियों ने रोमांस की चाशनी में डूबे हुए क्रांति गीत गाये और कानून का विरोध किया l जब सन 1996 में भारत में पहली बार भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई थी, तब देश प्रेम का जज्बा इस तरह से उभरा कि आम लोगों ने इस पार्टी को भरपूर समर्थन दिया, हालाँकि यह सरकार सन 1996 में तो सिर्फ 13 दिनों तक ही चल पाई, पर सन 1998 में पूर्ण बहुमत से अपना 5 वर्षों का कार्यकाल समाप्त किया l एक नई राष्ट्रीयता की शुरुवात हुई, जो आज तक कायम है l इसी तरह से असमिया पुर्नार्जगरण के छोटे छोटे दौर स्वतंत्रता के बाद पूरी तरह से शुरू हुए थे, सभी असमिया अस्मिता और संस्कृति की रक्षार्थ थे l असम आंदोलन इसमें से प्रमुख और निर्णायक दौर था l

2021 में असम विधान सभा का चुनाव होना है l चुनाव कि तयारियां शुरू हो गयी है l नेताओं के चहरे अब पहले से ज्यादा दिखाई देने लगे हैं l कुछ नई पार्टियाँ भी गठित हो गयी हैं l आइये, चुनाव को मद्देनजर रखते हुए थोड़ा पीछे चलते है l असम आन्दोलन के दौरान जब मतदाता सूची में संसोधन हुवा था, तब भी यह मुद्दा आया था कि जिन लोगों का नाम मतदाता सूची में नहीं होगा, उनको असम छोड़ कर जाना होगा l इतना ही नहीं, असम आन्दोलन के समय आसू को प्रथम मांग थी कि सन 1951 के बाद असम में दाखिल लोगों को असम से बाहर किया जाये l बाद में समझोते के समय यह तिथि 25 मार्च 1971 कर दी गयी l 1950 और 60 के बीच आये लोगों को मतदान का अधिकार दिया गया l असम में कौन पहले आया और कौन बाद में, इस बात पर हमेशा से ही बहस होती रही है l किस समुदाय ने असम के विकास में क्या योगदान दिया है, क्या इसका मुक्यांकन कभी हो पायेगा ? असम में ना जाने कितने वर्षों से हिंदी भाषी रह रहे है, इसके कोई पुख्ता सबुत तो नहीं है, पर दस्तावेज बताते है कि पंद्रहवी शताब्दी से ही राज्य में हिंदी भाषियों का जमावड़ा शुरू हो गया था l इस बात के भी प्रमाण है की अंग्रेजो से पहले कोच राजाओं ने उत्तर भारत के कई राजाओं के साथ संधि भी की थी l पर जब से हिंदी भाषियों ने असम में रहना शुरू किया है, उन्होंने असम को ही अपनी भूमि माना है और कभी भी पृथकवादी राजनीति नहीं की l अभी भी हजारों ऐसे लोग है, जिन्होंने कभी भी असम में रह कर कोई स्थानीय दस्तावेज नहीं बनवाया या जाली दस्तावेज बनवाने की चेष्टा की l बस वर्षों से रह रहें है l असम आन्दोलन के दौरान जब विदेशी हटाओं के नारा गुंजायमान था, तब असम के हिंदी भाषियों ने तन-मन और धन से इस आन्दोलन को समर्थन दिया था l उन दिनों भी यह बात उठी थी,जब 1983 में असम में विधान सभा के चुनाव हुवे थे, जिसमे कुल 33 प्रतिशत लोगों ने ही मतदान किया था l उस समय राज्य में विवादस्पद कानून आईएम् (डीटी) लागु था, जिसके विरोध में असम के ज्यादातर लोगो थे, पर इस कानून को पास कर दिया गया l नतीजा यह हुवा कि सन 1983 के चुनाव फिस्सडी साबित हुए l सन 1985 में जब नए सिरे से असम चुनाव हुए और क्षेत्रीय पार्टी असम गण परिषद् ने सत्ता संभाली थी l सत्ता मिलने के बावजूद एक भी विदेशी नागरिक को बहिष्कृत नहीं किया जा सका, जिसका मुख्य कारण था, विवादस्पद कानून आईएम् (डीटी) l उस समय सन 1983 और सन 1985 में जब चुनाव हुए थे l यह स्थिति कमोबेश यूँ ही चलती रही, जब तक मामला उच्चतम न्यायलय में नहीं पंहुचा, जब विवादस्पद कानून आईएमडीटी को उच्चम न्यायलय ने अवेध घोषित कर दिया था l उल्लेखनीय है कि सर्वानन्द सोनोवाल के प्रयास से यह कार्य संभव हो पाया था l तभी से असम में उनको जातिय नायक कहा जाता है l इसलिए अब दुबारा से अगले साल चुनाव होने है, मतदाता सूचि में संसोधन होना ही है l इस सूचि में सभी अपना नाम दर्ज करवाए, तभी जा कर बात में वजन आएगा l     

असम में संवेदनाएं कुरेदने से काम बन जाता हैं l परिवर्तन नाम से सरकार बदल सकती है l यह इसलिए है, क्योंकि असम को बड़ी मुश्किल से अपने अधिकार मिले हैं l जब कच्चे तेल की रोयल्टी पर आंदोलन चल था, तब सभी को पता चला कि किस तरह प्राकर्तिक सम्पदा का दोहन हो सकता है, और उनकी कीमत क्या है l असम आंदोलन में घोषित 855 लोगों की जानें गयी थी l देश के प्रति प्रेम कब क्रांति में बदल जाती है, यह पता ही नहीं चलता और फिर क्रांति परिवर्तन की मांग करने लगती है l इस समय राजनीति में भरी उथल पुथल देखने को मिल रही है l नई पार्टियाँ और नए गठबंधन के संकेत भी मिल रहे है l पर बड़ी बात यह रहेगी कि असमिया अस्मिता और पहचान बनाये रखने के लिए एक मुक्कमल जहां जो भी बनाएगा, वही सिरमौर कहलायेगा l उसी की जीत होगी l