रूपकुंवर ज्योति प्रसाद
अगरवाला की आलोक यात्रा
रवि अजितसरिया
असमिया भाषा संस्कृति की
नीवं रखने वाले रूपकुंवर ज्योति प्रसाद अगरवाला, एक युग पुरुष के रूप में परिणित
हो कर आज असमिया जनमानस में एक पूजनीय व्यक्ति है l असम के उन श्रेष्ठ असमिया में
उनका शुमार होता है, जिन्होंने असमिया भाषा, संगीत और संस्कृति के क्षेत्र में
अभूतपूर्व योगदान दिया है l आगामी 17 जनवरी को उनकी पुन्य तिथि है, जिसको असमवासी
शिल्पी दिवस के रूप में मानतें है l प्रसिद्ध साहित्यकार और यात्रा वृतांत लेखक सांवरमल
सांगनेरिया ने उन पर गहरा शोध करके हिंदी भाषा में एक पुस्तक ‘ज्योति की अलोक
यात्रा’ लिखी है, जहाँ उन्होंने लिखा कि दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं के मूर्धन्य
कवियों की रचनाओं का हिंदी अनुवाद हो कर पूरा राष्ट्र उनके बारे में जान चूका है,
पर असम के इस महापुरुष के बारे में भारतवर्ष में कही भी चर्चा नहीं है l उनका
इशारा बंगला कवि रविन्द्र नाथ ठाकुर की और था, जिन्होंने बंगला साहित्य में
अभूतपूर्व योगदान दिया और साहित्य में नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया l गीतांजलि नमक
काव्य प्रस्तुति के साथ, कई बंगला साहित्यकारों की कृतियों का हिंदी और कई भाषाओँ
में अनुदित हुवा है, जिसका यह नतीजा हुवा है कि बंगला साहित्य और उसके जीवनप्राण
का बखान आज चहुँ और है l यह बात असम पर लागू नहीं होती l पंद्रहवीं सदी के वैष्णव
धर्म के संत शंकरदेव के बारे में भी भारतवर्ष में ज्यादातर लोगों को नहीं पता है l
इसी बात का मलाल अनुवादक और साहित्यकार देवी प्रसाद बागड़ोदिया को भी है, जिन्होंने
ज्योति प्रसाद अगरवाला के गीत, कविता, निबंध और नाटकों को हिंदी में अनुवाद कर हिंदी
भाषी लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया है l एक अन्य अनुवादक और हिंदी सेंटिनल के
संपादक दिनकर कुमार ने भी ज्योति प्रसाद अगर्वला की जीवनी पर पर एक हिंदी पुस्तक
रूपकुंवर नामक प्रकाशित की है l अभी कुछ वर्षों पहले सांवरमल सांगनेरिया ने
श्रीमंत शंकरदेव पर एक 453 पृष्ठों की एक पुस्तक निकाल कर यह सिद्ध कर दिया कि
अनुवाद के द्वारा किसी भी भाषा और साहित्य को देश से एक भाग से दुसरे भाग में ले
जाया जा सकता है l ज्योति प्रासाद के साथ भी यही हुवा l कहने को तो उनके वंशज
राजस्थान से आये थे,पर उनका परिवार असमिया संस्कृति में एकाकार हो गया l इतना ही
नहीं, व्यापार करते हुए भी असमिया साहित्य, संस्कृति, गीत, संगीत और विधा पर कार्य
आरंभ किया, जिसका नतीजा यह निकला कि असम में साहित्य, गीत और विधा का एक नया
लोकार्पण हुवा l इसका सम्पूर्ण श्रेय ज्योति प्रसाद अगरवाला को जाता है l उनके
समकालीन भारतीय भाषा के कवि जयशंकर प्रसाद, गणेश शंकर विद्यार्थी, सूर्य कान्त
तिरपाठी निराला, आदि कवियों ने हिंदी भाषा में श्रेष्ठ रचना लिख कर हिंदी भाषा को
तो विश्व स्तर पर तो गौरवान्वित किया ही है, साथ ही भारतवर्ष में साहित्य के
क्षेत्र में एक नई पहचान भी बनाई l
असमिया सहित्य का दूसरी
भाषा में अनुवाद पर आज हम यह चर्चा नहीं कर रहे, बल्कि यह कहने का प्रयास किया जा
रहा है कि एक समृद्ध संस्कृति का प्रचार प्रसार देश के अन्य भागों में क्यों नहीं
हो रहा, जिससे उत्तर भारत में रहेनें वालें भारतवासियों के मन में पूर्वोत्तर के
प्रति जो भ्रांतियां घर कर गयी, वह समाप्त हो सके l सांवरमल सांगनेरिया, देवी
प्रसाद बागड़ोदिया, किशोर जैन, दिनकर कुमार जैसे अनगिनत हिंदी भाषी साहित्यकारों ने
पिछले 30 वर्षों से यह कार्य अपने हाथों में ले कर माँ असमी की सेवा कर रहें है l ज्योति
प्रसाद अगरवाला के लिखे हुए नाटकों और गीतों को राष्ट्रिय पटल पर ले जाने की कौशिश
थोड़ी बहुत हुई भी है, पर यह चेष्टा उस तरह से भालिभुत नहीं हुई, जिस तरह से होनी
चाहिये थी l इस कार्य में यहाँ जी एल अग्रवाल ने भी ज्योति प्रसाद के उपर शोध एवं
प्रकाशन किया है l पूरी दुनिया को बताना जरुरी है कि कैसे एक परिवार सुदूर
राजस्थान से आ कर कला- साहित्य में अपना जीवन लगा देता है l ज्योति प्रसाद के दादा
हरविलास और दोने ताऊ चन्द्रकुमार और आनंदकुमार अगरवाला असमिया साहित्य संस्कृति के
विकास के कार्य में लग गए थे, और उनके पिता परमानन्द संगीत साधना में जुटे हुए थे
l उन महापुरुषों द्वारा रचित साहित्य, गीत, संगीत और लेखन आज भी जीवित है, असम की
जनता के रक्त में प्रह्मान है l असम साहित्य सभा के शताब्दी समारोह एक मनाये जाने
के पहले जब साहित्य सभा की शाखाओं ने सौ झंडे फहराए, तब विभिन्न जाति, जन्गोश्ठी
के लोग, भाषा, वर्ण से उपर उठ कर एक आकाश के नीच जमा हुए थे और रूपकुंवर ज्योति
प्रसाद अगरवाला के गीत ‘तुरे-मुरे अलोकोर जात्रा...’(जीवन-संग्रामी गीत)पुरे
वातावरण में गूंज गया था l यह वही गीत है, जिसको असम साहित्य सभा के सन 1935 के
अधिवेशन में गाया गया था l इसी तरह से उनके एक अन्य गीत ‘गोसे-गोसे पाती
दिले..फुलोरे सराई...ओ रामों-राम..(किसने सजाई पेड़ पर फूलों की लताएँ..राम-राम)
अन्जिनत बार असम के कौने-कौने में जुन्जय्मान हो चूका है l असम में रहेने वालें अनेक
हिंदी भाषियों ने पिछली शताब्दी में और अब तक माँ असमी की सेवा करते हुए असमिया
में अपना साहित्य लिखा और आज भी लिख रहें है l सदिया से लेकर धुबड़ी तक यह सिलसिला
बदस्तूर जारी है l गोलाघाट के स्व. भगवती प्रसाद लडिया, डिब्रूगढ़ के निर्मल
सहेवाला, बडुलीपाड़ा के विमल अगरवाला, नलबाड़ी के चिरंजीव जैन और कमल जैन जैसे
अनेकों हिंदी भाषी साहित्यकारों ने असमिया भाषा को अपनी लेखनी में प्रथम भाषा के
रूप में अपनाया और प्रासारित भी किया(क्षमा के साथ-ऐसे व्यक्तियों की लिस्ट लम्बी
है, उन सभी के नाम यहाँ लिखना सम्भव नहीं) l ज्योति प्रसाद के गीतों और नाटकों के
उपर जितना भी काम हुवा है, उनको अगर हिंदी में प्रकशित करवा कर भारत के कौन-कौने
में फैलाया जाये, तब ना सिर्फ असमिया भाषा समृद्ध होगी, बल्कि असम को मैत्री, भाईचारे
और प्रेम की भूमि के रूप में प्रतिष्ठित करवाने में सफलता मिल सकेगी l हिंदी पट्टी
के लोगों के बीच ज्योति प्रसाद अगरवाला के व्यक्तित्व, उनके संगीत, उनके नाटक से
परिचय हो, ऐसा गुरु कार्य
अगर राज्य सरकार हाथ में
ले, तब यह संभव है कि समस्त देशवासी असम और असम के लोगों के भावों को भली भांति
समझ सकें l