अबाबील, तुम अपना घोंसला क्यों छोड़ जाती हो ?
भारत में स्थानीय और
बाहरी की समस्या कई राज्यों में है l भूमिपुत्र के नाम से कहलाये जाने वाले लोगों
को हमेशा से ही अपने राज्य के संसाधनों में अग्राधिकार रहता आया है l यह बात हम सब
को पता है यद्यपि कही जाने वाली बात नहीं है, पर सत्ता के गलियारों में स्थानीय और
बाहरी लोग, जैसे विषय हमेशा ही चर्चा में बने रहते है l जब असम आंदोलन शुरू हुवा
था, तब भी यह एक प्रमुख विषय था, आज 41 वर्षों बाद भी यही विषय धारा 6 के रूप में,
एनआरसी के रूप में हमारे सामने है l इसके विश्लेषण की और कोई नहीं जाता, कि क्यों
बार बार स्थानीय लोगों के संरक्षण की बात बार बार जोरो से उठती है l क्यों जाति,
रंग और भाषा के नाम पर भूमि पर रक्त बहने लगता है l शायद भारतीय लोगों में जातिवाद
के बीज इतने गहरे है कि हम कितने भी आधुनिक हो जाय, एमए पीएचडी की डिग्री ले ले,
पर एकदम अंदर हम वही 18वी शताब्दी के लोगों की तरह से ही रहते है l जो बड़ी बड़ी
बातें हम स्टूडियो में बैठ कर करते है, वें कोरी कल्पना मात्र ही रहती है, जो हम
बोलना चाहते है, वह बात जबान पर आते आते रुक जाती है, और जो हम बोलते है, वह सफ़ेद
झूठ और पाखंड के अलावा कुछ नहीं है l समाज का रंग-रूप और बाहरी आवरण और बोल चाल
भले ही आधुनिक शैली का दिखता है, पर बार बार जाति और भाषा पर आंदोलन होना, यह बात
का सबूत है कि एक भय और शंका लोगों के अंदर कही घुसी हुई है, जो बार बार उफान मरती
है l जातिवाद के बीज बार बार हरे होने के कई कारण होते है l एक, राजनीतिक सत्ता
हासिल करना, दूसरा, सरकारी नौकरी में ज्यादा से ज्यादा एक ही जाति के लोगों को
लाना, तीसरा, राज्य के संसाधनों पर स्थानीय लोगों का अधिकार होना और चौथा सत्ता
फिसलने का भय रहना l
असम में स्थाई रूप
से रह रहे हिंदी भाषियों की इतनी भी संख्या नहीं है कि वह राज्य की राजनीति में भूचाल
ला दे l ना ही वह अपने दम पर किसी एक विधान सभा की कोई सीट जीत सकती है l असम में जितने
भी विधानसभा सदस्य हुए है, उनकी स्थानीय लोगों में ख्याति इतनी अधिक थी, कि सभी
लोगों ने उनको माथे पर चढ़ाया l पर जब जातिवाद के नाम पर तीव्र हमले शुरू हुए, उसका
गर्भ में यही बीज छिपा था कि कैसे बाहरी लोगों को मुख्यधारा से अलग किया जाय l
नतीजा यह हुवा कि राजनीति मात्र एक विमर्श का विषय बन गया, उसके परिणाम और
फायदा-नुकसान से किसी को कोई मतलब नहीं रह गया l चूँकि संख्या मात्र 6-7 प्रतिशत
ही है, और वह भी राज्य के कौन कौन में फैली हुई, किसी भी एक सीट को प्रभावित नहीं
कर सकती l हां, जीत के अंतर को बढ़ने के लिए यह संख्या काम में आ सकती है l अन्यथा,
कई बार इनको एक दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल भी किया हैं l
अबाबील नामक एक
प्रवासी पक्षी वर्ष में दो बार करीब 6000
किलोमीटर का सफ़र यूरोप और दक्षिण अफ्रीका के बीच करती है और वापस अपने उसी घोसले
में लौट आती है l इस रहस्य को कोई समझ नहीं सका है कि कैसे कोई पक्षी वापस अपने
बनाये हुए घोसले में छह महीने बाद भी लौट आती है l एक स्पेनिश कहावत है, “अबाबील
तुम अपना घोसला क्यों छोड़ जाती हो” l क्यों चली जाती हो, ठंड के कारण या फिर खाना
ढूंढने l शायद खाना ढूंढने, पर इतनी दूर क्यों ? भूमंडल के एक कौने से दुसरे कौने
की ओर l शीत से बचने के लिए और पर्याप्त खाने कि तलाश में अबाबील घंटों और दिनों
तक उड़ सकती है, प्रशांत महासागर और रेगिस्तानों को पार कर जाती है, बिना रुके l
मानव प्रवजन भी कुछ इसी तरह से है, खाने कि तलाश में अपने घरोंदे बना डालता है, और
वापस लौट कर उसी में आ जाता है l प्रवजन करने की ललक उसकी जन्मजात जो है l धीरे
धीरे वह वही पर घुलमिल जाता l कोलोम्बस ने भी इसी तरह से नई मानव सभ्यता की खोज की
थी, जो सागर पार कभी भोजन की तलाश में गई थी, और उर्वर माटी को देख कर वही रुक गयी
थी l असम की उर्वर माटी और अतिथि परायण लोगों ने दोनों हाथों से प्रवासियों को
हमेशा से ही गले लगाया हैं l समस्या हिंदी भाषियों से कभी भी नहीं हुई, बल्कि, जब
बड़ी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से प्रवजन करके लोग आने शुरू हुए, और जनसांख्यिकी
में बदलाव देखने को मिलने लगे, तब जा कर राजनीति सक्रिय हुई और ढोल नगाड़े बजने
शुरू हो गए l जब वैज्ञानिकों ने कुछ प्रवासी पक्षियों पर प्रयोग करने शुरू किये,
तब उन्होंने कुछ कबूतरों के आखों पर चश्मे लगा दिए, चुम्बकीय थेले लगाये गए, ताकि
वें स्थानों को नहीं पहचान सके, पर उन्होंने सभी बाधाओं को पार करके दुबारा से
अपने घोसलों की और रुख किया था l इसी तरह से वर्षों से प्रवासी हिंदी भाषियों का
बार बार वापस आना, और यही रुक जाना यही एक संकेत है कि यही उसका घोसला है, जिसमे
वह वापस चला आता है l जो लोग रुक गए है, उन्होंने स्थानीय भाषा संस्कृति को ना
सिर्फ अपनाया है बल्कि उसका प्रसारण भी किया है l वरिष्ठ लेखक सांवरमल संगानेरिया
ने वैष्णव गुरु श्रीमंत शंकरदेव पर हिंदी में एक शोध ग्रन्थ रच कर, इस संत को असम
से बाहर ले जाने का एक गुरु कार्य किया है l इससे हिंदी पट्टी के लोगों को असम और
असमिया भाषा संस्कृति को जानने का मौका मिला और असमिया भाषा संस्कृति को बढ़ावा
मिला l जिस तरह नाविक को अबाबील पक्षी दिखने पर यह पता चल जाता है कि किनारा नजदीक
है, उसी तरह से बड़ी संख्या में हिंदी भाषियों का स्थानीय भाषा संस्कृति का
प्रचार-प्रसार करना, इस बात को दर्शंता है कि वें हमेशा से ही असमिया संस्कृति के
साथ जुड़े रहे हैं l