मध्यम वर्ग अब त्रस्त
हो कर बदलाव की उम्मीद कर रहा है
शादी एक पवित्र रस्म
है l इसमें कही भी चकाचौंध आड़े नहीं आता l वैदिक मंत्रोचारण और सप्तपदी इसकी सबसे
बड़ी जरुरत है l इस रस्म को निभाने के लिए एक मुहर्त रहता है, जिसमे वर-वधु को यह
विधि संपन्न करनी पड़ती है l अब रही बात शादी के अवसर पर किया जाने वाला शोर-शराबा
l वह तो एक व्यवहारिकता के तराजू पर तौले जाने वाली आचार-संहिता है, जिसको आम जनता
इसलिए निभाती है कि समाज में हर रस्म को लेकर एक विधान बना रहे l जीवन की आपाधापी
के बीच शादी वह मौका आता है जब इंसान थोड़ी मन की भी की करता है l इस मन की करने के
लिए उसके पास इनपुट अपने अडोस-पड़ोस, यार मित्रों और अजीजों की शादियों को देख कर
मिलता है l भव्य और शोर-शराबे वाली शादियों के चर्चे कई दिनों तक रहतें है l
शादियों के अवसर पर बिताये गए लम्हे दोस्त-यार के बीच चर्चा का कारण बने, यह भी एक
दबी हुई इच्छा किसी के भी मन में हो सकती है l माध्यम वर्ग के लिए शादियों जैसे
बड़े आयोजन करने में इसलिए समस्या आ रही है क्योंकि यह एक महंगा इवेंट बन गया है l
खासकरके अत्यधिक सजावट और बेतुके से कार्यक्रम के आयोजन में काफी धन खर्च करना पड़
रहा है, जिसकी वजह से आयोजकों की कमर ही टूट जाती है l शायद इवेंट वालों ने शादी
को एक मार्किट बन दिया है, जिसकी वजह से हर वर्ष खाने की बर्बादी से करोड़ो रुपये
यूँ ही स्वाहा हो जातें है l शादी और कम खर्च ये शायद सभी को अजीब लगे, पर अब शादी पर कम खर्च का प्रचलन हो चला है, क्योंकि इससे समय और पैसा दोनों की ही बचत होती
है l वर्त्तमान समय में जब देश में इकोनॉमिक्स को लेकर हर कोई चिंतित है, शादियों
के खर्चे में कही कोई कमी दिखाई नहीं दे रही है l इसके मुख्य कारण जो समझा जा रहा
है, माध्यम वर्ग की एक मानसिकता कि जीवन भर वह एक या दो शादियों के लिए कमाता है,
और बड़ी धूम-धाम से खर्च करता है l उसकी यह इच्छा रहती है कि उसने जो कमाया वह इसी
शादी में खर्च भी हो जाय तब भी कोई बात नहीं है l यह अपने लिए बस दाल रोटी की
व्यवस्था की बात करता है l
आम तौर पर समाज में
निम्न आय वर्ग, उच्च आय वर्ग के तौर
तरीकों का अनुसरण करता है। आज गांव गांव तक पहुंचे हुए टेंट हाउस इसी बात का सबूत
हैं। शादियों में तमाम तरह के व्यंजन परोस देना, यही बीते दो-तीन दशकों का आविष्कार है। आम
भारतीय परिवार अच्छी शादी के चक्कर में कर्ज में डूब जाते हैं, लेकिन दबाव ऐसा है कि उधार ले लेकर चकाचौंध भरी
शादी करनी पड़ती है। ऐसे समाज के सामने हाल की इन महंगी शादियों और उनकी अंधी
मीडिया कवरेज ने बहुत अच्छा उदाहरण पेश नहीं किया है। शादी में पैसा खर्च करना कोई
अपराध नहीं है। हाल ही में संपन्न एक शादी के आयोजन में इस बात की चर्चा हो रही थी
कि सजावट कितनी जरुरी है l कितने फुल लगने चाहिये, और कितने फ़ूड काउंटर होने
चाहिये l यह एक विवेचना का विषय है कि सजावट कितनी होने से एक सुंदर सा मंडप दिखे,
जिसमे अथिति सहज महसूस करे l इसका कोई निश्चित मापदंड नहीं है l यह उस व्यक्ति पर
निर्भर करता कि वह कितना खर्च करना चाहता है l पर बड़ी बात यह होनी चाहिये कि बड़े
और आकर्षक मंडप को सामाजिक मॉडल नहीं बनने देना है l नहीं तो माध्यम वर्ग इसी
कुंठा में आ जायेगा कि उसने बच्चों की शादी में वह इस तरह के मंडप क्यों नहीं बनवा
सकता l
इस समय ज्यादातर
भारतीय लोगों की मेहनत से कमाई हुई गाढ़ी कमाई अपने बच्चों की शादियों पर हो रही
हैं l चाहे लड़का हो या
लड़की, शादियाँ अब एक महंगा
इवेंट बन गयी हैं l मानो एक अदद इंसान
के जीवन का उद्देश्य अपने बच्चों की धूमधाम से शादी करना ही हो गया हो l एक एक पैसा जोड़-जोड़ कर रखना, जिसे शादी के लिए बस खर्च करना हैं l कोई अगर पूछे कि कैसे, शादी तो सात फेरे की रस्म है, कही भी आयोजित की जा सकती हैं l इसका जबाब सीधा और सपाट नहीं हैं l यह कहा जा रहा हैं कि शादी सिर्फ फेरे की रस्म
मात्र नहीं है, यह एक इच्छा और
आकांशा पूरी करने का अवसर है, जिसे अभिभावक इस समय पूरी करके, अपने बच्चों को प्यार का तोहफा देतें हैं l जीवन भर की कमाई एक ही रात में महंगे रिसेप्शन
पर खर्च करके बेशक वह अपनी पीठ खुद ही थपथपा लेता है, पर दिल के किसी कौने में उसे इस बात का भी मलाल
रहता हैं कि उसने क्यों इतना खर्च किया l शायद सामाजिक प्रतिष्ठा की वजह से, या फिर भेड़ चाल में, नहीं तो कैसे होती उसके बच्चे की शादी l इतना तो जरुरी है, भाई.. l यह कितना जरुरी है, इसके मापदंड क्या हैं l कौन तय करेगा ? अगर गौर से देखा जाये, तब पाएंगे कि इस समय उपभोक्तावाद संस्कृति
मनुष्य पर हावी हो गयी हैं l अब वह खर्च करने ने पिछड़ता नहीं, बल्कि उस होड़ में शामिल हो गया है, जिसको कहते है-आधुनिकता l इक्कीसवीं सदी का अगर कोई सबसे नकरात्मक और नायाब तोहफा अगर हैं तो वह
है-उपभोक्तावादी संस्कृति, जिसके विस्तार के लिए पश्चिम के देश ने एक ऐसा जाल बिछाया हैं कि विकासशील देश
के लोग उसमे फंसते चलें गए l एक सुनियोजित ढंग से आधुनिकता के नाम पर लोगों को उत्सव और आयोजनों के मौकों
पर आधुनिकता के नाम पर बेहिसाब खर्च करने के लिए उकसाना, कुछ लोगों की एक सोची-समझी चाल है, जिसमे माध्यम श्रेणी के लोग फंस गए हैं l सामर्थ नहीं होते हुए भी खर्च करने की इच्छा
करना और बाहरी सुन्दरता और दिखावा मानो जीवन का एक ध्येय बन गया हैं l उनको अब अपने
बच्चों के रिश्ते ढूंढने में दिक्कत आ रही हैं l महँगी शादियों के चक्कर में जो पड़ गया हैं समाज l पूर्वोत्तर के कई छोटे कस्बों और शहरों में
लोगों को अपने बच्चों के लिए उपयुक्त जीवन साथी ढूंढने में असुविधा हो रही हैं l उनका कहना हैं कि नई जीवन शैली से प्रभावित
बच्चे, अपने लिए जीवनसाथी
का चयन करने में पहले से ज्यादा समय ले रहें हैं l शायद एकल परिवार का यह भी एक साईड इफ़ेक्ट हो कि
बच्चें अपने निर्णय लेने में खुद ही सक्षम हो गए हैं l पर ज्यादा उम्र होने पर भी शादी नहीं होने, पर वें डिप्रेशन का शिकार भी हो रहें हैं l
शादी विवाह पर इस
चर्चा को करने के पीछे उद्देश्य यह है कि एक नई पहल आजकल के पढ़े-लिखे शिक्षित लोग
करना चाहतें है l यह चर्चा इस लिए भी
जरुरी है क्योंकि, पानी अब सिर से उपर
चला गया है l माध्यम वर्ग अब
त्रस्त हो कर बदलाव की उम्मीद कर रहा है l पर समस्या यह है कि कैसे संभव हो पायेगा, यह कार्य l कौन बनेगा ध्वजधारक, कौन बनेगा इस बदलाव का झंडाबरदार l