Wednesday, April 26, 2017

चमचमाते बाज़ार का साइड सिंड्रोम  
रवि अजितसरिया

इस समय भारत का सभ्य समाज अपने जीवन के एक सबसे जरुरी उपक्रम शादी और वैवाहिक अनुष्ठानों के आयोजनों को लेकर बेहद परेशान नजर आ रहा है l खासकरके, शादी के दौरान होने वाले खर्चे को लेकर l इस पूरी कायावाद में आधुनिक सोच लोगों पर एक मनोवैज्ञानिक दबाब डाल रही है, जिससे ऐसे आयोजन एक दिमागी खेल की तरह हो गए है, जिसमे दोनों पक्ष अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च करने के लिए उतावलापन दिखातें हुए नजर आते है l ऐसा माना जा रहा है कि बदलते दौर में अब कम बजट की शादी का आयोजन करना बेहद मुश्किल काम हो चला है, जिससे माध्यम दर्जे और निम्न माध्यम दर्जे के लोगों की मुश्किलें बढ़ गयी है l आज ऐसे लोग, एक तनावग्रस्त जीवन जी रहें है l शादी के दौरान होने वाली रस्मों का निभाने में जो आधुनिकता का तड़का आया है, वह दोनों पक्ष के लिए एक मुश्किल का सबब बन गया है l इसे हम चमचमाते बाज़ार के साइड सिंड्रोम कहते है l आधुनिक शादी में देर रात तक फेरों का टलना, इस बात का गवाह है कि वर और उसके पक्ष के लोग, फेरे से पहले सभी तरह के छद्म आनंद की दुनिया में डूब कर वह सब पा लेना चाहतें है, जिसकी चाह उन्होंने कभी की होगी, मानो पूरी गाथा इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाये, और वे एक प्रशंसा के पात्र बन जाए l हर पहलु में आधुनिकता, कुछ नयापन, क्षणिक सुख, जिसकी चाह एकाएक पनपती है, एक मृगमरीचिका जैसी, वह शादी जैसे आयोजन में दिखाई देने लगी है l जो एक आम शादी को एक महँगी शादी में बदल कर दोनों पक्षों के लिए परेशानी पैदा करती है l शादी मात्र एक रश्म ही नहीं, बल्कि उस नए रिश्ते को निभाए जाने के लिए एक संकल्प है, जिसे दो जने लेतें है l भारतीय सामाजिक अचार संहिता और रिवाज कुछ ऐसे है कि भारतीय शादी मात्र दो जनों का संबंध नहीं बल्कि दो परिवारों के बीच रिश्तेदारी है, जिसे जन्मो तक निभाना पड़ता है l कुछ दाम्पत्य सूत्र, जिनके अपने दर्शन होतें है, जिनके अपने तर्क होतें है, वें सूत्र गहनता के बीच एकाएक जीवंत लगने लागतें है, जिन्हें निभाने के लिए दो परिवार प्रस्तुत होतें है l इसी परंपरा को निभाने ले किये, शादी जैसे आयोजन, जिसे आजकल महोत्सव का रूप दे दिया गया है, दोनों पक्ष अपनी हैसियत से आगे जा कर आयोजित करतें है l कुछ सामाजिक शर्म और कुछ आत्मीय संतुष्टि के लिए तो कभी एक पक्ष के जिद के लिए l दोनों पक्षों के रिश्तेदारों की एक बड़ी फौज को एकाएक स्वयं कुछ अधिकार प्राप्त हो जातें है, जो अक्सर आयोजकों को मीठी-मीठी गुदगुदी भरे अनुभव दे जातें है l संवादों की मुखर दुनिया,सम्प्रेषण की कला, बढ़ता मीडिया का असर हमारें इर्द-गिर्द एक व्यू रचना किये हुए है l इधर सुंदर, सप्राण, जीवंत गुणों को आत्मसात करके, एक नई दुनिया रचने को आतुर, हमारा सुंदर मन, हर पल खुशिया चाहता है l इस चढ़े परवान के लिए हम खुशियाँ मनातें है l  यह भी एक कटु सत्य है कि जीवन की आप धापी के बीच, ऐसे अयोजनों को आयोजित करना अब एक जने की बस की बात नहीं रह गयी है l उसे वैवाहिक आयोजक(इवेंट मेनेजर) की जरुरत पड़ने लगी है,  
जो उसके सारे कार्य निबटा कर उसको सरदर्दी से मुक्ति दिला सकता है l बस आयोजक को पाकेट ढीली करने की आवश्यकता रहती है l कार्ड की छपाई से लेकर कर टेंट और डिजायन तक, सारे कार्य इवेंटवालें लोग निबटा सकते है, बशर्ते उसे सभी कार्यों के लिए ठेका दे दिया जाए और चैन की नींद सोये l बड़े महानगरों की तर्ज पर इस समय असम में भी इस तरह के इवेंट मैनेजमेंट ग्रुप सक्रीय हो कर यह दायित्व निभा रहें है l पर, इससे शादी के आयोजन पर लोगों का खर्च पहले से कई गुना बढ़ गया है l यहाँ एक बार और महत्वपूर्ण है कि बाजारवाद की चाशनी में डुबो कर रस्मों को महंगा बनाया जा रहा है, जिसका सीधा असर आयोजकों की जेब पर पड़ रहा है, और दोनों पक्षों में से किसी को कुछ भी हाथ नहीं आता है l   
फिजूलखर्ची और अनावश्यक दिखावे को लेकर सैकड़ो लेख लिखे जा चुके है, सभाएं की जा चुकती है, पर ज्यो-ज्यो दवा दी गई, मर्ज बढ़ता ही गया, वाली तर्ज पर, समाज में आयोजनों में फिजूलखर्ची बढती चली गयी l अब तो आलम यह है कि छोटे से छोटे आयोजनों में भी मार्केटिंग वालें लोगों को आयोजन सफल करने के लिए लगाया जाता है l आयोजन की सफलता के लिए मेजबान अपनी पूरी ताकत लगा देता है, चाहे, उसका एक नकारात्मक प्रभाव समाज पर क्यों ना पड़ रहा हो l इस समस्या से माध्यम वर्ग और निम्न-माध्यम वर्ग बुरी तरह से जुंझ रहा है l फिजूल-खर्ची और आडंबर का प्रभाव शादी विवाह पर सबसे ज्यादा पड़ा है l हमने कई शादियों को लेन-देन की भेंट चढ़ते भी देखा है और कई शादियों को शादी वाले दिन से ही असफल होते भी देखा है l इस समस्या को लेकर न जाने कितनी बार हमारी सामजिक और प्रतिनिधि संस्थाएं समाज में बैठकें और सभाएं कर, इस विषय पर प्रस्ताव भी ले चुकी है, पर हर बार इन सब का कोई नतीजा समाज में नहीं निकलता है l समाज में इन तथा-कथित उत्सवों की वजह से लोगों के जीवन में जब तूफ़ान आने लगे है l अब समय आ गया है कि हम अपने आप को बदले और शादी-विवाह जैसे शुद्ध और पवित्र आयोजनों पर बाजारवाद से निकले हुवे लोक-लुभावन प्रभाव को तो ना थोपे, और इसकी पवित्रता को बनाये रखे, जिससे शादी पवित्र रस्म अपनी सफलता के सोपान तय करे l समाज में बढ़ते तालक और विवाह विच्छेद के मामले बढ़ने से समाज-शास्त्रियों की चिंता इसलिए भी बढ़ी है कि कही अधिक महत्वाकांक्षाएं तो इन शादियों के सफल होने के मार्ग में तो नहीं आ रही है l पर अनेक मामले और अनेक कारण l  

अगर समाज के सभी घटक एक साथ बैठ कर फिजूल खर्ची और दिखावे के रोकथाम के लिए निर्णय लेवे तब शायद कुछ बात बन जाये l समाज की प्रतिनिधि संस्था इस कार्य के लिए अग्रणी भूमिका ले सकता है l सवाल यह भी नहीं की अमुक आयोजन में इतनी आयटम होनी होनी चाहिये, अहम् सवाल यह है कि फिजूलखर्ची और दिखावे वाली मानसिकता को कैसे बदला जाये l सोच के बदलने से परिस्थिति स्वयं बदल जाएगी, ऐसी उम्मीद की जा सकती है l

Friday, April 21, 2017

हिंदी का अपमान या असमिया का
रवि अजितसरिया


पिछले दिनों असम में दो बड़ी घटनाओं की चर्चा सर्वत्र रही, जिसको राष्ट्रिय मीडिया ने गौर देखा और विचार मंथन भी किया l पहली थी, गुवाहाटी के नूनमाटी के बिहू उत्सव के दौरान असम के लोकप्रिय असमिया गायक जुबिन गर्ग को हिंदी गीत गाने से रोका जाना और दूसरी इस घटना के ठीक तीन दिनों बाद असम में संयुक्त हिंदी सलाहकार समिति की बैठक का होना और उस बैठक में केन्द्रीय मंत्री एम् वन्कैया नायडू और असम के मुख्यमंत्री सर्वानन्द सोनोवाल द्वारा एक साथ यह कहना कि देश के विकास के लिए राष्ट्रभाषा एक महत्वपूर्ण माध्यम है l मुख्यमंत्री सर्वानन्द सोनोवाल ने सभी से हिंदी सिखने की अपील भी की  है l दरअसल में हिंदी के राष्ट्रभाषा होने से देश भर में हिंदी के विकास और उपयोग के लिए बनी समितियां और भाषा परिषदों ने आपने काम ठीक से नहीं किये है l नहीं तो, हिंदी के साथ क्षेत्रीय भाषाओँ का भी ठीक उसी तरह से विकास हो जाता, एक संयुक्त परिवार की तरह, जहाँ कम-ज्यादा जानने और करने वालें, हर तरह के सदस्य, छोटे से बड़े हो जातें है, और अपनी राह पा ही लेतें है l लेकिन स्थिति यह है कि देश के दक्षिण और पूर्व भाग में हिंदी के उपयोग को लेकर भारी मतभेद है l एक तरफ स्थानीय भाषा का उपयोग और उसकी महत्ता, उसका जुड़ाव, माध्यम और दूसरी और हिंदी एक संपर्क भाषा का होना l कितना विरोधाभास प्रतीत हो रहा है l दरअसल में, हिंदी को जानने और पढने वालें लोगों को हमेशा से ही देश की अन्य भाषा और उसके साहित्य के प्रति भी उतना ही अनुराग रहा है जितना की हिंदी के प्रति उनका लगाव है, बस शर्त एक ही है कि देश कि प्रादेशिक भाषाओँ के साहित्य को हिंदी में अनुवाद कर उसको राष्ट्रिय पटल पर रखा जाये, ताकि हिंदी पट्टी के लोग भी उस समृद्ध भाषा की मिठास का अनुभव कर सकें l रविंद्रनाथ ठाकुर को अपनी रचनवाली ‘गीतांजलि’ के लिए नोबेल पुरस्कार ही तो मिला था, जो उन्होंने बंगाली में ही तो लिखी थी l बाद में उसका अनुवाद अंग्रेजी(मतभेद अलग करते हुए) और अन्य भाषा में हुवा, तब जा कर पूरी दुनिया की नजर उस पर पड़ी l इस तरह से क्षेत्रीय भाषाओं को विश्व पटल पर ले जाने के लिए उसका अनुवाद होना अत्यंत जरुरी है l हिंदी यह काम आसानी कर सकती है, अनुवाद, पहचान और स्थापना, तीनों काम एक साथ l असम के मामले में अगर देंखे, तब पाएंगे कि जिन्होंने ने भी राष्ट्रिय पटल पर ख्याति प्राप्त की है, उन्होंने, हिंदी की और रुख किया और अपने असमिया गीतों को हिंदी में अनुवाद कर उनको राष्ट्र के सामने पेश किया l सुधाकंठ भूपेन हजारिका एक अन्यतम उदारहण है, जिन्होंने अपने गीतों को हिंदी में अनुवाद कर पुरे देश में अपना नाम किया l सुधाकंठ का गीत दिल हम हम करें, आज भी लोग अनायास ही गुनगुना लेतें है l क्या इससे हमे आनंद की अनुभूति नहीं होती ? जुबिन, अंगराग महंत जैसे गायकों का समूचे देश में एक सुनाम है, जिन्होंने असमिया गीतों को असम की चाहरदीवारी से बाहर ले जा कर, एक अलग राग बनाई हैं l उन्होंने लगभग हर भाषा में गीत गायें है l अंगराग के कोक स्टूडियो में गाये  
हुए टुकारी गीतों को आज लोग इतना पसंद कर रहें है कि उनकी मांग पुरे देश में है l हाल के बिहू का मौके पर उन्होंने मुंबई में कई कार्यक्रमों में मुंबई के श्रोताओं का सामने असमिया गीतों की झड़ी लगा दी, जिसे वहां उपस्थित जनता ने तालियाँ बजा कर, पेश किये हुए बिहू नृत्य और गानों को सराहा l यह असमिया भाषा और गीत संगीत की जीत थी, उस गायक की विजय थी, जिसने असमिया गीतों को बड़े मंच पर ले जार कर पुज्वाया l यहाँ एक बात और सिद्ध होती है कि गीतों कि कोई भाषा नहीं होती l अगर गौर से पंजाबी गीतों की और देंखे, तब पायेंगे कि उस भाषा और राग के गीतों की धुनें हमें देश के किसी भी कोने में हर कभी सुनाई पड़ जाएगी l किसी भी समारोह में पंजाबी गीतों की मांग हमेशा रहती है l पंजाबी गीतों पर युवा सबसे ज्यादा थिरकतें है l क्या इससे पंजाबी भाषा और अधिक मजबूत होती नहीं दिखाई देती l हालाँकि इस बात पर मतभेद है कि जुबिन गर्ग ने जब करार किया था, तब उसे तोडना नहीं चाहिए था l यात्रा वृतांत लेखक सांवरमल सांगनेरिया ने असमिया वैष्णव धर्मगुरु श्रीमंत शंकरदेव को विश्व दरबार में पहुचाने का कार्य किया है l ऊन्होने गुरु के उपर 450 पृष्ठ की एक पुस्तक हिंदी भाषा में लिख कर, सम्पूर्ण भारतवर्ष को इस संत के बारे में बताया ही नहीं बल्कि इस पुस्तक के माध्यम से असमिया जाति, संस्कृति और चरित्र का एक ठोस परिचय हिंदी पट्टी के लोगों के सामने रखा है l इतना ही नहीं उनकी पुस्तक का मलयालम और मराठी अनुवाद भी हो चूका है l उनकी इस पुस्तक पर मुंबई विश्वविद्यालय पर छात्र शोध कार्य कर रहें है l यह सब इसलिए संभव हुवा, की उन्होंने असम को अपना कर्म क्षेत्र बनाया, नहीं तो वे भी मुंबई में बड़े आराम से बस कर अभी तक राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार प्राप्त कर रहे होतें l पर एक असमिया की भांति उन्होंने ज्योति प्रसाद अगरवाला के बारे में पुस्तक लिख कर पुरे भारत वर्ष में इस सांस्कृतिक के बारे में विस्तार से बताया l मलयालम भाषा में उनकी श्रीमंत शंकरदेव पर लिखी हुई पुस्तक का अनुवाद सिर्फ इसलिए हुवा क्योंकि देश के इस महान संत के बारे में लोग जानना चाहते है l इस तरह से भारतवर्ष में अंगराग और जुबीन आज जाने जातें है, तब उससे असम का नाम उज्जवल होता है, जिससे असमिया गीत और संगीत को मान्यता प्राप्त होती है l इसमें कही भी दो राय नहीं है कि असम प्रदेश में हिंदी बोलने और समझने वालों की तादाद बड़ी है, जिसका मुख्य कारण है, पिछले कई वर्षों से असम का सर्वभारतीय मुख्यधारा में शामिल होकर एक अपनी पहचान बनाना l असम के मुख्यमंत्री सर्वानन्द सोनोवाल और वित्त मंत्री हिमंत विश्व शर्मा का नाम पुरे भारतवर्ष के लोगों की जबान पर है l यह इसलिए संभव हुवा कि असम उन रुढ़िवादी बेड़ियों से निकल कर, एक नए क्षितिज पहुचने को आतुर है l यहाँ भाषा अब आड़े नहीं आयेगी l असमिया सार्वभौमिकता की रक्षा करना, हर असमियावासी का नैतिक धर्म है, जिसके लिए यहाँ कई आन्दोलन हुवें है l असमिया बिहू मंच पर अगर असमिया पारम्परिक गीत अगर गाने है, तो इसमें हर्ज ही क्या है l बस जरुरत इस बात की है कि इस पूरी कवायद में कोई दूसरी भाषा का अपमान ना हो l इस सुचना क्रांति के समय में पूरा विश्व एक नजर आ रहा है l ओनलाईन  

कम्युनिटी ग्रुप, सोसिएल मिडिया जैसी जगहों पर सगज राजनेता और फिल्म अभिनेताओं को आम लोगों से सक्रीय रूप से जुड़े हुए रहने के लिए उनसे वार्तालाप करना रहता है, जिसमे भाषा कही भी आड़े नहीं आती l यहाँ उन्माद के लिए कोई जगह नहीं है l बस, जैसा कि ऑस्कर वाइल्ड ने लिखा है कि दुनिया में केवल व्यक्ति रहते हैं और समाज उनके मन में...सूचना क्रांति का हिस्सा बनने की जरुरत है, ना कि उससे किनारा करने की l अपने संस्कारों की जड़ों को सींचने के लिए युवाओं में बोध करवाने की जिम्मेवारी भी हमारी है l हमें अपने संस्कारों में जीवंतता घोलनी होगी ना कि शुष्कता l संक्षेप में अगर कहे, तब कहेंगे कि दुःख कि इस धरती पर आंनद का राग हमेशा गूंजता रहे और बिखरते रहे उत्सवों और त्योहारों का रंग, जिससे समस्त मानवजाति अपने दुःख और वेदनाओं को कुछ समय तक भूल कर आनंद में सराबोर हो जाये l               

Friday, April 7, 2017

त्वमेव माता च पिता त्वमेव ...
रवि अजितसरिया
त्वेमेव माता च पिता त्मवेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव, त्वमेव बिद्या द्रविम त्वमेव,
त्वमेव सर्वं मम देव देव l

उपरोक्त श्लोक महाभारत काल का है, पांडव गीता में समाहित है, जिसमे देवी गांधारी श्री कृष्ण के  समक्ष समर्पण करते हुए कहती है कि तुम इस जगत के स्वामी हो, तुम ही हमारे पालनहार हो, और वे इतना कह कर मोक्ष की कामना करती है l कहने को तो यह एक श्लोक है, पर इस श्लोक के मायने अनेक है l यह एक सकारात्मक दृष्टिकोण दर्शाता है l महाभारत काल में जब अर्जुन अपना गांडीव रख देते है, श्री कृष्ण उन्हें अपना विराट रूप दिखाते है, जिसमे सभी देवता का वास होता है l विराट स्वरुप देख कर अर्जुन अपना गांडीव पुनः उठा केर युद्ध करने लगते है l इस श्लोक में यही तथ्य छुपा हुवा है कि श्री कृष्ण, तुम ही सर्व-व्याप्ति हो, तुम ही सेव-सर्वा हो, तुम जो आदेश दोगे, वह पूर्ण रूपेण पालित किया जायेगा l देश की संसद भी सर्वे-सर्वा है, वहां से देश संचालित होता है l देश के इस शासन केंद्र की बनावट इसी तथ्य को ध्यान में रख कर की गयी कि इस संसद में देश के सभी जाति. वर्ण और समुदाय के लोगों का प्रतिनिधित्व हो, जो देश की दशा और दिशा का निर्धारण कर सके l एक पालनहार की तरह यह संसद, लोगों को देखे, और सामाजिक सुरक्षा, रोटी कपडा और मकान जैसी सामान्य सुविधाएँ जनता तक मुहय्या करवाए l देश की संसद एक मजबूत केंद्र है और सर्वोपरि है, ताकतवर है, सभी कानून से उपर है l उसके आदेश की कोई अवेलहना नहीं कर सकता है l इस मायने में देश की संसद में चुने हुए सांसद भी उतने ही ताकतवर हुए, जितनी की संसद l अगर ऐसा नहीं होता तब, अभी हाल में उस्मानाबाद से जीते हुए शिव सेना के एक सांसद रविन्द्र गायकवाड ने एक विमानन अधिकारी को चप्पल से पीटने की हिमाकत नहीं करते l ठीक इसी तरह से तृणमूल कांग्रेस की सांसद डोला सेन ने भी एयर इंडिया के विमान को सीट के आवंटन को लेकर 40 मिनट का रोके रखा, और अपने सांसद होने का रुतबा दिखाया l एक तरह से देश के सांसद आम आदमी से बहुत ऊँचे है, विधाता है l किसी को भी पीट सकते है, कोई कुछ नहीं कर सकता l देश का कानून भी नहीं l भारतीय दंड संहिता की धारा 308 भी रविन्द्र गायकवाड पर लगी हुई है, फिर भी आराम से दिल्ली-मुंबई ट्रेन से, चार्टेड प्लेन से सफ़र कर रहे है l कानून मूक दर्शक की तरह कुछ कर नहीं पा रहा है l देश में आम आदमी के विरुद्ध रोजाना सैकड़ों मामले दर्ज होतें है, और दर्ज होने के कुछ ही घंटों में पुलिस उस आम आदमी को पकड़ने के लिए उसके ठिकाने पर पहुच जाती है l इधर सांसद महोदय के उपर केस लगे हुए आज 15 दिन होने के बावजूद, पुलिस उनके विरुद्ध कुछ नहीं कर सकी, क्योंकि उनको संसद का संरक्षण जो प्राप्त है, ठीक अर्जुन की तरह,  
जिसे श्री कृष्ण का संरक्षण प्राप्त था l भारतीय सांसद को यह छुट प्राप्त है कि उन्हें सत्र शुरू होने के 40 दिनों पहले और समाप्ति के 40 दिनों के बाद तक गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है, और वह भी स्पीकर की अनुमति से l हालाँकि, कुछ प्रतिरोधक कानूनों में सांसदों को जरुर गिरफ्तार किया जा सकता है, पर उसके लिए भी स्पीकर की अनुमति लेनी पड़ती है l सांसदों को यह छुट भले ही प्राप्त होती है, पर कानून से उपर कोई नहीं, और विमान में तो बिलकुल भी नहीं l यह स्पष्ट है कि विमान के अंदर कोई भी, चढ़ते ही उसके ज्यादातर अधिकार विमानन कानूनों के तहत सेवा को संचालित कंपनी के पास स्थानांतरित हो जातें है, जिसके तहत बैठना, उठाना और सामान्य नागरिक व्यवहार की अंचार संहिता लागु हो जाती है l कितनी बड़ी बात है कि एक सांसद, भारतीय सरकार के उपक्रम इंडियन एयरलाइन्स के अधिकारी को सरे आम पीट देता है, और माफ़ी मांगने के बजाय सीना फुलाये वहा से निकल जाता है, जैसे कोई जंग जीत कर सिपाही आता है l क्या कोई आम आदमी इस तरह से एयरपोर्ट से इस तरह से व्यवहार करके निकल सकता है ? बिलकुल नहीं l उसकी एयरपोर्ट के थाने में इतनी पिटाई होगी कि वह दुबारा, बदतमीजी करना भूल जायेगा l पर यहाँ मामला संसद का है, जो सर्वोपरि है, आम आदमी से बहुत ऊँची l उसके सदस्य किसी अवतार से कम नहीं है, जिसको चाहे पीट सकते है, जिसको चाहे अपमानित कर सकते है l कोई कुछ नहीं कर सकता है l ब्रहस्पतिवार को संसद में सांसद महोदय में अपनी सफाई दी और बड़ी शान से कहा कि उसने अपने बचाव में अधिकारी को धक्का दिया, जिसका समर्थन उनकी पार्टी के अन्य सांसदों और कुछ अन्य पार्टी के सांसदों ने भी किया l मनो चप्पल से पिटाई कोई मामला ही नहीं, कोई जुर्म ही नहीं l सांसद के आम जीवन की कोई समान्य एक घटना हो l हद तो तब हो गई, जब सांसद गायकवाड ने उन पर लगी बिमान से सफ़र की रोक को महात्मा गाँधी के उस वाकये से जोड़ा, जब 7 जून, 1893 को महात्मा गाँधी को दक्षिण अफ्रीका में फर्स्ट क्लास में सफ़र करने की वजह से  ट्रेन से धक्का दे कर उतार दिया गया था l भारतीय लोगों ने कठिन संघर्ष के बाद स्वतंत्रता हासिल की है, दक्षिण अफ्रीका के उस वाकये ने महात्मा गाँधी को रंगभेद के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया था l उस मानसिकता के खिलाफ लड़ने के लिए खुद को तैयार किया, जहाँ एक ही धरती पर जन्म लेने वालें लोगों के लिए अलग-अलग कानून थे, क्योंकि उनके रंग अलग थे l यहाँ सांसद को विशेषाधिकार जरुर प्राप्त है, पर किसी को अपमानित, किसी की मानहानि के लिए तो बिलकुल भी नहीं l इस तरह से सार्वजनिक रूप से किसी अधिकारी को चप्पल से पिटाई करके ना सिर्फ उन्होंने संसद की गरिमा को ठेस पहुचाई है बल्कि अपने आप को आम आदमी से उपर होने के घमंड और सामंती विचारधारा को भी प्रदशित करने की चेष्टा की है l सांसद गायकवाड़ पर विमान पर चढ़ने की रोक तो हटा ली गयी है, पर इस बात का मलाल सभी को है कि सांसद ने एयर इंडिया के पीटे हुए कर्मचारी से अभी तक माफ़ी नहीं मांगी है, फिर भी राजनेतिक कारण से यह निर्णय सरकार ने लिया है l    

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने आप को देश का प्रधान सेवक कहते है, तब इस दृष्टि से उनके साथ देश की संसद के दोनों सदनों के 795 सदस्य, जन सेवक ही हुए l फिर यह कैसा इतराना l पांच वर्षों बाद फिर उनको लोगों के पास जाना होगा, फिर याचना करनी पड़ेगी, फिर वादे करने होगे, तब आम आदमी अपनी ताकत दिखा देगा l हाल ही संपन्न उत्तर प्रदेश के चुनाव में कुछ इसी तरह के नतीजे देखने को मिले l घमंड में चूर समाजवादी पार्टी को लोगों ने धुल चटा दी l पर बड़ा सवाल यह उठता है कि सांसदों का यह अभद्र व्यवहार देश में कब रुकेगा, कब वे भी आम आदमी से इंसानियत से पेश आयेंगे, जिससे देश की संसद का नाम धूमिल ना हो, देश के नेताओं पर लोग गर्व कर सके l देश के सांसद और नेता, लोगों के मददगार बने, ना कि अपना अधिपत्य स्थापित करने की कौशिश करें l