चमचमाते बाज़ार का साइड
सिंड्रोम
रवि अजितसरिया
इस समय भारत का सभ्य समाज
अपने जीवन के एक सबसे जरुरी उपक्रम शादी और वैवाहिक अनुष्ठानों के आयोजनों को लेकर
बेहद परेशान नजर आ रहा है l खासकरके, शादी के दौरान होने वाले खर्चे को लेकर l इस
पूरी कायावाद में आधुनिक सोच लोगों पर एक मनोवैज्ञानिक दबाब डाल रही है, जिससे ऐसे
आयोजन एक दिमागी खेल की तरह हो गए है, जिसमे दोनों पक्ष अपनी हैसियत से ज्यादा
खर्च करने के लिए उतावलापन दिखातें हुए नजर आते है l ऐसा माना जा रहा है कि बदलते दौर में अब कम बजट की शादी का आयोजन करना बेहद मुश्किल काम हो चला है, जिससे माध्यम
दर्जे और निम्न माध्यम दर्जे के लोगों की मुश्किलें बढ़ गयी है l आज ऐसे लोग, एक तनावग्रस्त
जीवन जी रहें है l शादी के दौरान होने वाली रस्मों का निभाने में जो आधुनिकता का
तड़का आया है, वह दोनों पक्ष के लिए एक मुश्किल का सबब बन गया है l इसे हम चमचमाते
बाज़ार के साइड सिंड्रोम कहते है l आधुनिक शादी में देर रात तक फेरों का टलना, इस
बात का गवाह है कि वर और उसके पक्ष के लोग, फेरे से पहले सभी तरह के छद्म आनंद की
दुनिया में डूब कर वह सब पा लेना चाहतें है, जिसकी चाह उन्होंने कभी की होगी, मानो
पूरी गाथा इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाये, और वे एक प्रशंसा के पात्र बन जाए l
हर पहलु में आधुनिकता, कुछ नयापन, क्षणिक सुख, जिसकी चाह एकाएक पनपती है, एक मृगमरीचिका जैसी, वह शादी जैसे आयोजन में दिखाई देने लगी है l जो एक आम शादी को एक महँगी शादी
में बदल कर दोनों पक्षों के लिए परेशानी पैदा करती है l शादी मात्र एक रश्म ही
नहीं, बल्कि उस नए रिश्ते को निभाए जाने के लिए एक संकल्प है, जिसे दो जने लेतें
है l भारतीय सामाजिक अचार संहिता और रिवाज कुछ ऐसे है कि भारतीय शादी मात्र दो
जनों का संबंध नहीं बल्कि दो परिवारों के बीच रिश्तेदारी है, जिसे जन्मो तक निभाना
पड़ता है l कुछ दाम्पत्य सूत्र, जिनके अपने दर्शन होतें है, जिनके अपने तर्क होतें
है, वें सूत्र गहनता के बीच एकाएक जीवंत लगने लागतें है, जिन्हें निभाने के लिए दो
परिवार प्रस्तुत होतें है l इसी परंपरा को निभाने ले किये, शादी जैसे आयोजन, जिसे आजकल
महोत्सव का रूप दे दिया गया है, दोनों पक्ष अपनी हैसियत से आगे जा कर आयोजित करतें
है l कुछ सामाजिक शर्म और कुछ आत्मीय संतुष्टि के लिए तो कभी एक पक्ष के जिद के
लिए l दोनों पक्षों के रिश्तेदारों की एक बड़ी फौज को एकाएक स्वयं कुछ अधिकार
प्राप्त हो जातें है, जो अक्सर आयोजकों को मीठी-मीठी गुदगुदी भरे अनुभव दे जातें
है l संवादों की मुखर दुनिया,सम्प्रेषण की कला, बढ़ता मीडिया का असर हमारें इर्द-गिर्द एक व्यू
रचना किये हुए है l इधर सुंदर, सप्राण, जीवंत गुणों को आत्मसात करके, एक नई दुनिया रचने को आतुर, हमारा सुंदर मन, हर पल खुशिया चाहता
है l इस चढ़े परवान के लिए
हम खुशियाँ मनातें है l यह भी एक कटु सत्य है कि जीवन
की आप धापी के बीच, ऐसे अयोजनों को आयोजित करना अब एक जने की बस की बात नहीं रह
गयी है l उसे वैवाहिक आयोजक(इवेंट मेनेजर) की जरुरत पड़ने लगी है,
जो उसके सारे कार्य निबटा
कर उसको सरदर्दी से मुक्ति दिला सकता है l बस आयोजक को पाकेट ढीली करने की
आवश्यकता रहती है l कार्ड की छपाई से लेकर कर टेंट और डिजायन तक, सारे कार्य
इवेंटवालें लोग निबटा सकते है, बशर्ते उसे सभी कार्यों के लिए ठेका दे दिया जाए और
चैन की नींद सोये l बड़े महानगरों की तर्ज पर इस समय असम में भी इस तरह के इवेंट
मैनेजमेंट ग्रुप सक्रीय हो कर यह दायित्व निभा रहें है l पर, इससे शादी के आयोजन
पर लोगों का खर्च पहले से कई गुना बढ़ गया है l यहाँ एक बार और महत्वपूर्ण है कि
बाजारवाद की चाशनी में डुबो कर रस्मों को महंगा बनाया जा रहा है, जिसका सीधा असर
आयोजकों की जेब पर पड़ रहा है, और दोनों पक्षों में से किसी को कुछ भी हाथ नहीं आता
है l
फिजूलखर्ची और
अनावश्यक दिखावे को लेकर सैकड़ो लेख लिखे जा चुके है, सभाएं की जा चुकती है, पर ज्यो-ज्यो दवा दी गई, मर्ज बढ़ता ही गया, वाली तर्ज पर, समाज में आयोजनों में फिजूलखर्ची बढती चली गयी l अब तो आलम यह है कि छोटे से छोटे आयोजनों में भी
मार्केटिंग वालें लोगों को आयोजन सफल करने के लिए लगाया जाता है l आयोजन की सफलता के लिए मेजबान अपनी पूरी ताकत
लगा देता है, चाहे, उसका एक नकारात्मक प्रभाव समाज पर क्यों ना पड़ रहा हो l इस
समस्या से माध्यम वर्ग और निम्न-माध्यम वर्ग बुरी तरह से जुंझ रहा है l फिजूल-खर्ची और आडंबर का प्रभाव शादी विवाह पर
सबसे ज्यादा पड़ा है l हमने कई शादियों को
लेन-देन की भेंट चढ़ते भी देखा है और कई शादियों को शादी वाले दिन से ही असफल होते
भी देखा है l इस समस्या को लेकर न
जाने कितनी बार हमारी सामजिक और प्रतिनिधि संस्थाएं समाज में बैठकें और सभाएं कर, इस विषय पर प्रस्ताव भी ले चुकी है, पर हर बार इन सब का कोई नतीजा समाज में नहीं
निकलता है l समाज में इन
तथा-कथित उत्सवों की वजह से लोगों के जीवन में जब तूफ़ान आने लगे है l अब समय आ गया
है कि हम अपने आप को बदले और शादी-विवाह जैसे शुद्ध और पवित्र आयोजनों पर बाजारवाद
से निकले हुवे लोक-लुभावन प्रभाव को तो ना थोपे, और इसकी पवित्रता को बनाये रखे, जिससे शादी पवित्र रस्म अपनी सफलता के सोपान तय
करे l समाज में बढ़ते तालक
और विवाह विच्छेद के मामले बढ़ने से समाज-शास्त्रियों की चिंता इसलिए भी बढ़ी है कि
कही अधिक महत्वाकांक्षाएं तो इन शादियों के सफल होने के मार्ग में तो नहीं आ रही
है l पर अनेक मामले और
अनेक कारण l
अगर समाज के सभी घटक
एक साथ बैठ कर फिजूल खर्ची और दिखावे के रोकथाम के लिए निर्णय लेवे तब शायद कुछ
बात बन जाये l समाज की प्रतिनिधि
संस्था इस कार्य के लिए अग्रणी भूमिका ले सकता है l सवाल यह भी नहीं की अमुक आयोजन में इतनी आयटम
होनी होनी चाहिये, अहम्
सवाल यह है कि फिजूलखर्ची और दिखावे वाली मानसिकता को कैसे बदला जाये l सोच के बदलने से परिस्थिति स्वयं बदल जाएगी, ऐसी उम्मीद की जा सकती है l