Saturday, November 24, 2018

संघर्ष के नए रूप और स्वरुप


संघर्ष के नए रूप और स्वरुप
उत्तरपूर्वीय राज्य कई जातीय समूहों की गृहभूमि हैं, जहाँ विभिन्न जातियां अपने स्व-रक्षण में लगी हुई रहती हैं। सभी जाति-जनजातियां अपने अस्तित्व की रक्षा कर रही है l जातियों के वर्स्चस्व की ना जाने कितनी लड़ाइयां अब तक हो चुकी है, सशस्त्र भी शांतिप्रिय भी l अभी भी पूर्वोत्तर में स्थाई शांति नहीं है l समय समय पर उग्रवादी अपनी बन्दुक कर मुहं बेकसूर लोगों की तरफ कर देतें है , जबकि यह अब तक प्रमाण हो चूका है कि बेकसूर व्यक्तियों की हत्या करने से किसी को कुछ हासिल नहीं होगा l दहशत और संदेह का वातावरण फैलने के अलावा शायद कुछ भी नहीं l अगर हम मिजोराम की तरफ देंखे तब पाएंगे कि आज मिजोराम एक शांतिप्रिय प्रदेश है और हर क्षेत्र में तेजी से प्रगति कर रहा है l वहां उग्रवादियों को यह समझ में आ चूका था, कि हिंसा से किसी समस्या का समाधान नहीं है l जब उद्ध्यमशील मिज़ो औरतें गुवाहाटी में अकेले बाज़ार करतें हुए दिखाई पड़ती है, तब एक सुखद अहसास होता है कि कैसे वहां के लोगों ने ही वहां का कायापलट कर दिया है l उल्लेखनीय है कि इस राज्य की साक्षरता दर 92 प्रतिशत है l पूर्वोत्तर में जनजातियों और अन्य सामुदायिक संघर्षों के अनेकों वाक्यें है,जिन्हें इतिहासकारों ने संजो कर रखा है l जब सन 1979 में आसू का आन्दोलन शुरू हुवा था, तब यह आन्दोलन असम के अवेध रूप से रह रहें विदेशियों के खिलाफ था l उसके साथ ही असम के उत्पादित खनिज और चाय के दोहन के खिलाफ भी यह एक सशक्त मुहीम थी l इस मुहीम में किसी भी हिंदी भाषी को ऐसा नहीं लगा कि आसू उनके खिलाफ है, उन्होंने तन-मन-धन से आसू को भरपूर सहयोग किया था l इतना ही नहीं कुछ उत्साहित हिंदी भाषी युवा जिसमे, मारवाड़ी, बिहारी, और अन्य इत्तर भाषी जिसमे पंजाबी लोग मुख्यतः थे, आसू में शामिल हो कर आन्दोलन को समर्थन किया था l छह वर्षों तक चलने वाला यह आन्दोलन असम में रहने वाले स्थाई लोगों, चाहे वे किसी भी भाषा भाषा और धर्म के हो, उनके खिलाफ नहीं था, बल्की बड़ी संख्या में आये लाखों विदेशी लोगों के खिलाफ था, जो बिना कुछ दिए, असम का संसाधन बड़ी आसानी से गटक रहें थे l असम में रहने वाले मारवाड़ी व्यापारियों ने सहजता से इस शांतिप्रिय आन्दोलन को एक तरह से सपोर्ट किया था l आसू के आन्दोलन समाप्त होने के पश्चात जब असम जन परिषद् की सरकार बनी, तब ऐसा लगा कि असम के लोगों की अपनी सरकार बन रही है l क्या उसमे हिंदी भाषियों के कोई योगदान नहीं था ? फिर भी जातिय और सामुदायिक संघर्ष समाप्त नहीं हुए l हिंदी भाषियों को प्रताड़ित किया जाता रहा l एक सहनशील जाति होने की वजह से उसने राज्य के कभी भी अहित नहीं किया, बल्कि आर्थिक संबल ही प्रदान किया है l यह हम इसलिए कह रहें है क्योंकि सन 1985 के बाद राज्य में छोटे और मझले दर्जे के कारखाने और व्यवसायिक प्रतिष्ठानों स्थापित होने शुरू हो गए थे, जिससे राज्य के राजस्व में भारी बृद्धि होनी शुरू हो गयी थी l आज भी यह सिलसिला जारी है l पर जातिय हिंसा का दौर समाप्त नहीं हुवा l सरकार भले ही लोगों के जान माल की सुरक्षा की जिम्मवारी ले रही है, पर हकीकत यही है कि निर्दोष लोग बेकसूर मरे जा रहें है l दहशत और डर का वातावरण पैदा करने की कौशिश कामयाब हो रही है l अगर गौर से देखा जाये, तब पाएंगे कि हमें शिक्षा के साथ, अच्छे-बुरे में निर्णय करने की क्षमता को हासिल करली है, पर कठिन परिस्थितियों में भी संयम बरतने की क्षमता विकसित नहीं कर पाए है l यहाँ आन्दोलन के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, राज्य में ज्यादातर बहुसंख्यक असमियाभाषी लोग होने के बावजूद भी यहाँ, असमिया हितों की रक्षार्थ निर्णय नहीं लिए जातें, इसका सीधा-साधा जबाब यह है कि शासन में अभी भी पूर्वाग्रह हावी है l हमें फायदा हो न हो, पर दूसरों को फायदा नहीं होना चाहिये l फिर भी असमिया मुख्यधारा में शामिल रह कर असमिया अस्मिता की रक्षा करने के वचन जिन लोगों ने भी लिया है, वे असम के सच्चे हितेषी है l  सदियों से बड़ी संख्या हिंदी भाषियों के लिए यह सबसे बड़ी समस्या थी कि जो लोगो वर्षों से यही रच-बस गए है, उनके लिए देश के दुसरे कौनों में भी कोई स्थान नहीं था l आज भी कामो-वेस यही स्थिति बनी हुई है l हिंदी भाषियों ने यहाँ रहते हुए व्यापार-वाणिज्य का विस्तार किया, राज्य के विकास में भरपूर सहयोग किया, पर कभी भी अपने लिए कोई आरक्षण की मांग नहीं की l अपने लिए कोई राजनैतिक आवरण भी इन्होने कभी भी नहीं बनाया, बस सतारुख पार्टियों के साथ मित्रता करके हमेशा से ही राज्य के उत्तरोतर विकास में सहयोगी रहें है l फिर भी निर्दोष हिंदी भाषियों को इस तरह से मारा जा रहा है, जिससे मानवता शर्मसार हो जाय l
इन सबके बीच, यह कहा जायेगा कि भारतीय समाज की श्रेष्ठम उपलब्धियां अगर गिनी गए, तब उसमे से पाएंगे कि सदियों से यहाँ एक जीवंत सस्कृति वास कर रही है, जिसका आधार एक सामाजिक तानाबाना यहाँ स्थित है l यह तानाबाना हमें एक दुसरे से जोड़े हुए रखता है l असम में रहने वाली जातियां, जन्गोष्ठियाँ और विभिन्न समुदायों के बीच सोहार्द कैसे हो, जिससे सभी को एक सामान विकास के अवसर मिले, यह एक मूल प्रश्न होना चाहिये l  हिंसा को एक सिरे से नकारा जाना चाहेये l         

Friday, October 19, 2018

शादी विवाह में फिजूल खर्ची क्यों ?


कौन बनेगा इस बदलाव का ध्वजधारक
अल्लामा इक़बाल इस एक प्रसिद्द शायरी इस मौके पर याद आ रही है -ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है l लिखने के पीछे मकसद यह है कि पिछले अंक में शादी विवाह पर फिजूल खर्च, आडम्बर और दिखावे पर एक चर्चा करने का जो मैंने प्रयास किया था, उसका नतीजा यह निकला कि कई लोगों ने इसका समर्थन तो किया पर यह कह रहें है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे l हम माध्यम वर्ग की समस्या यह है कि वह एक डरपोक वर्ग है l वह सामजिक वर्जनाओं या फिर घिसी-पिटी परम्पराओं को तोड़ने से घबराता है l  अगर सभी करने लगे तब, वह कर सकता है l उच्च वर्ग, जब वही कार्य बड़ी आसानी से कर देता है, तब मध्यम वर्ग भी इसे कर डालता है, बिना किसी घबराहट के, क्योंकि अनुसरण करना यह वर्ग बखूबी जानता है l यहाँ भी कुछ ऐसा ही मामला है l एक प्रस्ताव आया है कि वर और वधु, दोनों पक्षों की आपसी सहमती से, शादी की एक ही पार्टी होनी चाहिये l इस प्रस्ताव में इसलिए दम है , क्योंकि शादी के पहले दिन लड़के वाले के यहाँ पार्टी होती है, जिसमे वे ही मेहमान रहते है, जिन्हें अगले दिन दिन बुलाया जाना है l लड़के वाले अपने मेहमान को भी अगले दिन होने वाली शादी में निमंत्रित करतें है, जिससे लड़की वाले के यहाँ अनावश्यक रूप से दबाब बढ़ जाता है l इसको ख़त्म करने के लिए शादी के रेसप्सन का खर्च दोनों पक्ष मिल कर उठायें, जिससे अनावश्यक खर्चे में रोक लगेगी l तब लड़केवाले बेतुकी मांग नहीं रख पाएंगे, क्योंकि आधा खर्च तो उन्ही को देना है l भारत में शादियां बड़ी ख़ुशी का अवसर होती हैं l समारोह कभी-कभी कई दिनों तक चलता है और इसकी तैयारी महीनों पहले शुरू हो जाती हैं l इन समारोहों में लाखों और करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जाते हैं l हज़ारों लोगों के खाने का इंतज़ाम किया जाता है l मजे कि बात यह होती है कि इसमें शान दिखाने के अलावा किसी के कुछ हाथ नहीं आता l बेहिसाब खर्चे ने शादी के बजट को कहाँ से कहाँ तक पंहुचा दिया है l अगर रिसेप्सन दोनों पक्ष मिल कर करें, तब खर्च की सीमा पर लगाम लग सकती है l दूसरा प्रस्ताव यह है कि शादी दिन में संपन्न हो, जिससे एक ही दिन में सभी मंगल कार्य संपन्न हो सके, और खर्च पर भी रोक लगाईं जा सके l अब दिन के समय में शादी किये जाने को लेकर बात हुई, तब मुहरत और समय की बात होने लगी, इस विषय में पंडितों और जानकारों से राय लेनी भी उचित रहेगी l दिन में शादी अगर हो सकती है, तब यह सोने में सुहागा होगा l एक प्रस्ताव यह है कि शादी एक निजी मामला है, इसलिए अपनी सहूलियत के हिसाब से शादी की जाये, ना कि मुहरत और लगन के हिसाब से l क्यों समय और मुहरत देख कर ही शादियाँ हमेशा की जाती है, जबकि मुहरत वैगरह को कड़ाई से कौन मानता है l प्रस्तावक कहता है कि ऐसी हजारों शादियाँ मुहरत और समय देख कर होती है और कुछ दिन तक भी नहीं चलती l समाज में तलाक के मामले इन दिनों बेहिसाब बढ़े है l यह एक क्रांतिकारी प्रस्ताव हो सकता है l ऑफ-सीजन में शादी के वेन्यू को बुक करने का खर्चा भी नवंबर-फरवरी के वेडिंग सीजन के मुकाबले कम होगा l ऑफ-सीजन में शादी करने से आपके खर्चों में कमी आएगी l आपको कैटरर्स को न तो मुंहमांगी रकम ही देनी पड़ेगी और न ही वे आपकी शादी में किसी और की शादी का बचा हुआ खाना ही परोसेंगे l कई बार यह देखा गया है कि अगले छह महीने तक लगन और मुहरत नहीं होने की बात होती रहती है, पर उसके बावजूद भी शादियाँ उन्ही दिनों में होती है, जिसमे मुहरत नहीं रहतें है l मसलन, कोई एक वर्ष में 11 नवंबर को देव उठनी एकादशी से भगवान के जागने के साथ ही विवाह के मुहूर्त फिर एक महीने तक बनेंगे, इस अवधि में लोग सिर्फ भगवान के भजन-कीर्तन कर सकेंगे. चातुर्मास में शादी-ब्याह, उपनयन संस्कार, मुंडन संस्कार आदि सभी मांगलिक कार्य वर्जित हैं l इस तरह की कई घोषणाएं प्राय: होती रहती है, पर होता है, बिलकुल उल्टा l उन्ही वर्जित दिनों में शादियाँ करवाई जाती है l इस विषय पर क्या कोई बात हो सकती है? पिछले वर्षों में कई ऐसी शादियाँ हुई, जिनके वास्तविक निमंत्रण नहीं आये थे, बस व्हात्सप्प पर इ-कार्ड ही आये थे, एक प्रस्ताव यह भी है कि पारंपरिक निमंत्रणों से तौबा कीजिए और कोरियर वगैरह का खर्चा बचाया जाय l अपने दोस्तों को ईमेल करिए या फिर वॉट्सऐप पर ही शादी का निमंत्रण दे डालिए l आखिरकार हम एक डिजिटल युग में रह रहे हैं l शादी के मौके पर एक खर्च विडियो फोटोग्राफी और स्टील फोटोग्राफी होने लगा है l ज्यादातर वेडिंग फोटोग्राफर एक अच्छी-खासी फीस की डिमांड करते हैं l जो लोग इतने महंगे फोटोग्राफर अफॉर्ड नहीं कर सकते, उन्हें दुसरे का अनुसरण नहीं करके अपने हिसाब से फोटोग्राफी करवानी चाहिये, ताकि अनावश्यक खर्च बचाया जा सके l और समय की कमी की वजह से कितने लोग अपनी शादी के विडियो दुबारा देखतें है l ऐसे कई लोग भी सामने आये जो कुछ नया करना तो चाहतें है, पर सामजिक वर्जनाओं की वजह से अपना नाम उल्लेख नहीं करना चाहतें है l ऐसे लोग अपने प्रस्ताव गुमनाम रहकर दे सकते है l
शादी विवाह पर इस चर्चा को करने के पीछे उद्देश्य यह है कि एक नई पहल आजकल के पढ़े-लिखे शिक्षित लोग करना चाहतें है l यह चर्चा इस लिए भी जरुरी है क्योंकि, पानी अब सिर से उपर चला गया है l माध्यम वर्ग अब त्रस्त हो कर बदलाव की उम्मीद कर रहा है l पर समस्या यह है कि कैसे संभव हो पायेगा, यह कार्य l कौन बनेगा ध्वजधारक, कौन बनेगा इस बदलाव का झंडाबरदार l  


Tuesday, October 2, 2018

टूटते सपनों के बीच विकास की परियोजनाएं


टूटते सपनों के बीच विकास की परियोजनाएं
रवि अजितसरिया
एक बार निवर्तमान मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने कहा था कि वे गुवाहाटी को संघाई बना देंगे l उन्होंने यह बात गुवाहाटी के ब्रह्मपुत्र के किनारे को सुन्दर बनाने के सन्दर्भ में कही थी l संघाई, चीन और समूचे एशिया का सबसे बड़ा शहर है, जिसकी आबादी 2 करोड़ 40 लाख है, जो करीब 7 हजार वर्ग किलोमीटर तक फैला हुवा है l चीनी भाषा में संघाई का मतलब होता है नदी या समुद्र के उपर’ l व्यापारिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण बंदरगाह है, जो पूरब को पश्चिम से जोड़ता है l यहाँ बंड नामक एक नदी का किनारा है, जिसके किनारे एतिहासिक इमारतों की एक कतार बनी हुई है l यह एक संघाई का बेहद सुंदर इलाका है l गुवाहाटी और उत्तर गुवाहाटी के बीच पुल बनाने की घोषणा पिछले 14 वर्षों में चार बार की गई, पर आज तक यह योजना तिल मात्र भी नहीं घिसकी, जिसका खामियाजा उत्तर गुवाहाटी के लोग अपनी जान दे कर चूका रहें है l पिछली पांच तारीख को उत्तर गुवाहाटी में एक नावं के पलटने से करीब 20 लोगों के डूबने की आशंका व्यक्त की जा रही है, जबकि 12 लोगों को बचा लिया गया था l असम इनलैंड वाटर ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट, जो गुवाहाटी और उत्तर गुवाहाटी के बीच चलने वाली नावं और जहाजों का संचालन करता है, उनके एक अधिकारी के मुताबिक, सिर्फ 22 टिकट बेचे गए थे जबकि लोग ज्यादा सवार थे। विभाग से लाइसेंस लेकर प्राइवेट कंपनियों द्वारा मशीनचालित नावें चलाई जाती है, जिसकी मदद से हजारों यात्री रोज नदी पार करते हैं। इस बड़ी दुर्घटना से लोगों में दुःख भी है तो भरपूर गुस्सा भी है l गुस्सा इसलिए है क्योंकि नावं और जहाज चालन का संचालन सही तरीके से नहीं हो रहा था l जिस पुल बनाने की घोषणा कई सरकारें पिछले 14 वर्षों से कर रही है, वह अभी भी कागजों में ही बन रही थी l गुस्सा इसलिए भी है, क्योंकि सरकार उत्तर गुवाहाटी और गुवाहाटी के बीच चलने वाली इन नावों को लाइसेंसे तो दे रही है, पर उनका रखरखाव कैसा है, इस बात पर ध्यान नहीं दे रही है l गुवाहाटी शहर का लम्बा नदी किनारा पर्यटकों के लिए एक आनंद का स्थान बन सकता हैं l इसके किनारे अभी दो चलता-फिरता रेस्टोरेंट और एक डिस्को चल रहा है l अगर नदी के किनारों को मुंबई के मेरिन ड्राइव की तर्ज पर आगे ले जाया जाय, और फिर तट को सुंदर बनाया जाय, तब यह एक पर्यटकों के आकर्षण का स्थान पबन सकता है l मरीन ड्राइव मुंबई में 1920 में निर्मित हुआ था, जो बारह वर्षों में बन कर तैयार हुवा था । यह अरब सागर के किनारे-किनारे, नरीमन प्वाइंट पर सोसाइटी लाइब्रेरी और मुंबई राज्य सेंट्रल लाइब्रेरी से लेकर चौपाटी से होते हुए मालाबार हिल तक के क्षेत्र में स्थित है। मरीन ड्राइव के शानदार घुमाव पर लगी स्ट्रीट-लाइटें रात्रि के समय इस प्रकार जगमाती हैं कि इसे क्वीन्स नैकलेस का नाम दिया गया है। उपर से अगर सिंगापूर की हेंडरसोन वेव नामक पुल की तर्ज पर उत्तर गुवाहाटी और गुवाहाटी के बीच एक पुल बनाया जाय, तब तो सोने पर सुहागा हो जाएगा l उल्लेखनीय है कि इस सिंगापूर की पुल पर पर्यटक देर रात तक घुमने जातें हैं l गुवाहाटी को संघाई बनाने का गोगोई का सपना साकार होगा या नहीं, इस बारे में तो कहना मुश्किल है, पर नई सरकार के आने के करीब २७ महीने गुजरने के पश्चात भी हम गुवाहाटी के हालात में कोई जबरदस्त सुधार नहीं देख रहें है l हाल ही गुवाहाटी में भंग की गई नगर निगम काउंसिल के पार्षदों ने सफाई और कचरा निष्पादन का कार्य बड़ी बखूबी से किया, पर जहाँ तक सुन्दरता का सवाल है, अभी भी वही पुरानी गुवाहाटी पसरी पड़ी हुई है l नई सरकार से लोगों ने बड़ी अपेक्षा की हैं  कि सरकार उन योजनाओं पर कार्य करना शुरू करे, जो पिछली सरकार के समय पारित की गयी थी l इस समय  बिजली के तारों को जमीन में केबल के माध्यम से हस्तांतरित करने का कार्य शुरू हुवा है l ख़ुशी की बात यह है कि गुवाहाटी और उत्तर गुवाहाटी के बीच केबल-कार योजना, पुरानी जेल भूमि पर वनस्पति उद्यान बनाना, यातायात व्यवस्था को दुबारा निर्धारित करना, इत्यादि, योजनाओं पर इस समय गुवाहाटी विकास विभाग तेजी से कार्य कर रहा है l गुवाहाटी का फैंसी बाज़ार इलाका, पूर्वोत्तर की सबसे बड़ी व्यापारिक मंडी है, जहाँ हर वक्त व्यापारिक गतिविधियाँ चलती रहती है l गुवाहाटी और उत्तर गुवाहाटी के बीच हजारों लोग सफ़र करतें है, जो नौकरी और व्यवसाय के लिए गुवाहाटी आतें है l इस पुल के बनाने से गुवाहाटी की सुंदरता बढ़ेगी ही, साथ ही उत्तर गुवाहाटी भी गुवाहाटी का एक अभिन्न अंग बन जायेगा l  अगर गौर से देखा जाये, तब पाएंगे कि स्मार्ट सिटी परियोजना के मसौदे से अभी भी लोग अनजान है l उसका मोड्यूल कौन सा होगा, परियोजना के व्यय धन वाकई में लोगों के काम आ सकेगा l तमाम तरह की शंकाएं अभी भी जीवित है l दरअसल में आमतौर पर देखा जाता है कि इस तरह से आनन-फानन नई योजना पर काम तो शुरू हो जाता है, पर बड़ा प्रश्न यह रहता है कि वाकई में योजना से लोगों की जीवन शैली में कोई उत्थान देखा जा सकता है l विकास के नाम पर जिस तरह से नकारात्मक राजनीति और कारोबार चल रहा है, उससे ये तमाम योजनाओं के सफलतापूर्वक होने में संशय होना लाजमी है, और उपर से नावं दुर्घटना, मुहं का स्वाद एकाएक खट्टा हो जाता है, और हम एक नॉन-रिटर्निंग स्टेज में चलें जातें है, जहाँ से उसका लौटना मुश्किल ही नहीं नामुनकिन हो जाता है l उसे तमाम योजना के सफल होने का दंभ भरतें राजनेतिक नेताओं के ढकोसले एकाएक बेमानी से लगने लागतें है l इतिहास गवाह है कि राजनेतिक खम्भों पर टिकी हुई योजनाओं के मानव सापेक्ष नहीं होने के वजह से उसके सफल होने पर प्रश्न चिन्ह लग जातें है, क्योंकि योजना में निहित उद्देश्य व्यक्तिगत कल्याण के लिए बनें हुए है, जिससे आमजनों का भला होना संभव नहीं हो सकता l अभी सरकार के लिए गुवाहाटी शहर में हो रही कृत्रिम बाढ़ को रोकना एक बड़ी चुनौती बनी हुई है l
इन्ही तमाम विरोधाभासों के बीच अभी भी यह तय नहीं हो रहा है कि मानवजाति के विकास का कौन सा रास्ता अपनाया जाये, एक, जिसको पाने के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है, दूसरी, जिसमे वर्तमान से चिपक कर अर्ध-विकसित तकनीकों के बोझ को ढोतें हुवे, संस्कृति का महाजाप करतें हुवे अप्रासंगिक हो जाये l मुद्दों को लेकर अगर सरकार संवेदनशील है, तब वह बहुत कुछ कर सकती है l               

सुचना तकनीक पर आधारित व्यापार को लेकर तमाम शंकाएं


सुचना तकनीक पर आधारित व्यापार को लेकर तमाम शंकाएं
शुक्रवार को भारत में सिंगल रिटेल में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश के विरोध में फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया एवं विभिन्न राज्यों के उद्योग व्यापार प्रतिनिधिमंडल ने जीएसटी, एफडीआई, मंडी शुल्क, सैंपलिंग, आयकर, ऑनलाइन ट्रेडिंग के विरोध में भारत बंद का आह्वान किया था। असम में भी इसका प्रभाव देखने को मिला l गुवाहाटी में सायं पांच बजे तक दुकानें और अन्य प्रतिष्ठान बंद देखे गए l इसे एक व्यापक जन आन्दोलन की तरह देख जा रहा है l विश्व में अब तक जितने भी बड़े जन आन्दोलन सफल हुए हैं, उसके कारण को अगर ढूंढे, तब पायेंगे कि उन आंदोलनों में एक विशाल जन भागीदारी थी, जिसकी वजह से ये आन्दोलन सफल हुए और अपने उद्देश्य तक पहुचें l आन्दोलन के उद्देश्य कोई भी हो, अगर उसमे जन समूह का स्वतःस्फुर्थ भागीदारी है, तो यह तय हैंकि सरकार को झुकना ही होगा l फ़्रांसिसी क्रांति जो सन 1789 से 1799 तक दस वर्षों तक चली, आधुनिक युग में जिन महापरिवर्तनों ने पाश्चात्य सभ्यता को हिला दिया था, उसमें फ्रांस की राज्यक्रांति सर्वाधिक नाटकीय और जटिल साबित हुई। इस क्रांति ने केवल फ्रांस को ही नहीं अपितु समस्त यूरोप के जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था । फ्रांसीसी क्रांति को पूरे विश्व के इतिहास में मील का पत्थर कहा जाता है। इस क्रान्ति ने अन्य यूरोपीय देशों में भी स्वतन्त्रता की ललक कायम की और अन्य देश भी राजशाही से मुक्ति के लिए संघर्ष करने लगे। इसने यूरोपीय राष्ट्रों सहित एशियाई देशों में राजशाही और निरंकुशता के खिलाफ वातावरण तैयार किया। ऐसे बड़े आंदोलनों में भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन भी था, जिसमे आपार जन भागीदारी थी, जिससे अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था l सन 1970 में जेपी आन्दोलन के नाम से मशहूर सम्पूर्ण क्रांति में सम्पूर्ण क्रान्ति जयप्रकाश नारायण का विचार व नारा था जिसका आह्वान उन्होने इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ फेकने के लिये किया था।लोकनायक नें कहा कि सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियाँ शामिल हैं- राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति। इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रान्ति होती है।पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का आहवान किया था। मैदान में उपस्थित लाखों लोगों ने जात-पात, तिलक, दहेज और भेद-भाव छोड़ने का संकल्प लिया था। सम्पूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। बिहार से उठी सम्पूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी थी। यह एक सामाजिक क्रांति और हसियाग्रस्त लोगों का शासन के प्रति जन आक्रोश था, जो एक क्रांति बन कर उभरी थी l हालाँकि जेपी आन्दोलन सफल होने के बावजूद भी भारत में आज भी जातिगत राजनीति की जाती हैंl
भारत में खुदरा बिक्री का प्रारूप को अगर हम देखे, तब पायेंगे कि ज्यादातर उत्पाद हॉकर/सड़क विक्रेता (ज्यादातर ताजा फल और सब्जियाँ ),सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत उचित मूल्य की दुकानें (पीडीएस),परंपरागत खुदरा विक्रेता, मुख्य  उपज, एफएफवी, और मासं के लिए अलग-अलग दुकानें,जनता बाजार, और सैन्य कैंटीन जैसी सहकारी संस्थाएं।लाभ मुक्त दुकानें, आधुनिक संगठित खाद्य खुदरा श्रृंखला,छोटी से मध्यम खाद्य खुदरा दुकानें जैसी मीडियम और छोटी इकाइयों के माध्यम से ही बिकते हैंl बड़े उत्पादनकर्ता इन दुकानों के माध्यम से अपने उत्पाद बेच्तें हैंl इस समय भारत में संगठित रिटेल व्यापर करीब 150 अरब अमिरीकी डॉलर का है l भारत में करीब 10 करोड़ छोटे और माध्यम दुकानदार है, जो भारत के तमाम बड़े और मध्यम-वर्गीय शहरों, कस्बों और गावों में स्थित है, जहाँ बाजार और हाटों में बनी हुई छोटी बड़ी दुकानों में घी-तेल, दूध-ब्रेड, दाल-आटा, बिस्कुट-नमकीन, शैम्पू-टूथपेस्ट जैसी तमाम चीज़ें मिलती हैंl किराने की एक छोटी दुकान- काउंटर के उस पार ज़रूरी नहीं कि सामान करीने से लगा हो लेकिन अक़्सर जो नहीं भी दिख रहा होगा, माँगने पर मिल जाएगा l खुदरा व्यापार में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रस्ताव सरकार ने ले लिया हैं, और जानकारों के मुताबिक़ अगर ऐसा हुआ तो उनके घाटे बढ़ जाएंगे, ग्राहक टूटेंगे और फिर वापस शायद ना आएं l गली के नुक्कड़ पर या फिर घर के पास वाली दुकानों के हो सकता हैंकि ग्राहक एक आध ब्रेड पानी खरीद ले, पर विदेशी चैन में ऑफर की जाने वाली योजनाओं और केशबेक का सामना ये दुकानें कभी नहीं कर पाएगी l उनका अच्छा व्यवहार, वर्षों का रिश्ता भी ग्राहकों को बड़े स्टोर में जाने से नहीं रोक पायेगा l भारत का नब्बे फ़ीसदी से ज़्यादा खुदरा उद्योग असंगठित है l कुछ उपभोक्ताओं के मुताबिक उनकी पसंद घर के नज़दीक की छोटी दुकानें हैं क्योंकि वैसी विविधता मॉल में नहीं मिलती l वें कहतें हैंकि गाड़ी लेकर जाओ, पार्किंग करो, सामान भी खुद बटोरो, फिर पैसे देने के लिए लंबी लाइन में लगो, घर तक सामान पहुंचाने का भी कोई तरीका नहीं, तो मॉल तक जाने मे ये सब दिक्कतें पेश आती हैंl वही युवाओं की पहली पसंद है, शौपिंग मॉल,  वे कहतें हैंकि दोनों बाज़ारों की अपनी अहमियत है, अगर कुछ ब्रान्डेड लेना हो, ख़ास लेना हो तो मॉल, लेकिन रोज़मर्रा के कपड़ों और बाक़ी चीज़ों के लिए पास का बाज़ार काफ़ी होता हैंl
तकनीक विस्तार और उसके लाभ लेने के लिए सामाजिक स्तर पर एक बदलाव देखने को मिल रहा है, पिज़्ज़ा से लेकर अन्य प्रोसेस्ड खाने की डिलीवरी के लिए इस समय देश में लाखों युवकों को रोजगार मिल रहा हैंl ठीक इसी तरह से छोटी और मध्यम इकाइयाँ भी असंगठित क्षेत्र में रोजगार उपलब्ध करवा कर एक बहुत बड़ा सामाजिक रोल अदा कर रही हैंl कोई कल्पना कर सकता हैंकि अगर इन दुकानों में ग्राहक नदारद हो जायेंगे, तब किस तरह की परिस्थिति देश में होगी l बदलाव अवश्यम्भावी है, पर उसकी कीमत अगर रोजगार और मुहं का निवाला हैं, तब ऐसा बदलाव किस काम का l  

Friday, September 14, 2018

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत


मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
मन के हारे हार है,
मन के जीते जीत है।
कहे कबीर गुरु पाइये,
मन ही के प्रतीत।।
संत कबीर के इस दोहे से शुरुआत करते है l जब से मनुष्य में जीने के लिए जद्दोजहेद शुरू की है, उसने मन को सबसे पहले संतुलित किया है l मन यानी दृढ निश्चय l एक बार उसने निश्चय कर लिया, बस फिर विजय उसके कदम चूमती है l सरकारी आदेशों और राजनैतिक घोषणाओं ने भारत में हमेशा से ही अपना प्रभाव तेजी से दिखाया है l असम में इस समय हवा तेजी से बदल रही है l मानो एन आर सी के अलावा लोगों को कुछ सूझ ही नहीं रहा है l जिनके नाम नही आयें है, वे हाथ पर हाथ धर कर बैठें हुए हैं l रोजाना एक नई घोषणा लोगों की दिल की धड़कन तेज कर रही है l अब लोगों को 19 तारीख का इंतेजार है, जब दुबारा से क्लेम फॉर्म एनआरसी केंद्र में लिए जायेंगे l 15 दस्त्रवेजों पर उच्चतम न्यायलय का निर्णय आने वाला है l इधर राजनीतिक पार्टियाँ यह कह रही है कि किसी भी भारतीय का नाम बाद नहीं जायेगा l पर यह कैसे होगा, यह कोई नहीं कह रहा है l एन आर सी केन्द्रों में क्लेम फॉर्म रिसीव नहीं कर रहें है l कह रहें है कि उचित दस्तावेज नहीं है l कितना विरोधभास है l राजनैतिक घोषणाओं की तरह, जिसको धरातल के तराजू में अगर टोला जाए, तब घोषणा की हवा अक्सर निकल जाती है l आम आदमी की छटपटाहट इसी बात से दिखाई दे रही है कि लोग अपने पुरखों के नाम अपने मूल स्थानों में खोजने में लगें हुए है l किसी तरह से कोई दस्तावेज हाथ लग जाए l 1971 के पहले के दस्तावेज निकलना भी एक टेढ़ी खीर है, वह भी 47 वर्षों बाद l असम में जिस एन आर सी की मूल साईट से लिगेसी डाटा निकलते थे, वह इस समय किसी कारण से बंद कर दी गयी है, जिसकी वजह से लोग अपने नाम दुबारा से ढूंढ नहीं पा रहें है और वे सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगा रहें है l इसी तरह से इस समय प्रत्येक राजनेता एक ही भाषण दे रहा हैं कि किसी भी भारतीय का नाम नहीं छुटेगा l पर आगे आ कर वही नेता किसी भी भारतीय को यह समझा नहीं पा रहा कि कैसे उसका नाम अंतर्भुक्त हो पायेगा l कुछ लोग मानसिक रूप से टूटने की कगार पर है l कारण साफ़ है, लाख कौशिश करने पर भी वे दस्तावेज जुगाड़ नहीं कर पाए l उन्हें भय है कि उनको कई भारत के बाहर नहीं खदेड़ा जाय, या विदेशी अधिनियम के तहत कही मामला नहीं दर्ज किये जाय l चार्टर्ड अकाउंटेंट ओमप्रकाश अगरवाला कहते है कि भारतीय नागरिकता कानून, 1955 लोगों की सहायक बन सकती है l उनका कहना है कि 26 जनवरी 1950 के बाद परन्तु 1 जुलाई 1947 से पहले भारत में जन्मा कोई भी व्यक्ति जन्म के द्वारा भारत का नागरिक है।1 जुलाई 1987 इसमें संशोधन हुवा और इसमें यह जोड़ा गया कि 1 जुलाई 1987 के बाद भारत में जन्मा कोई भी व्यक्ति भारत का नागरिक है यदि उसके जन्म के समय उसका कोई एक अभिभावक भारत का नागरिक था। 7 जनवरी 2004 के बाद भारत में पैदा हुआ वह कोई भी व्यक्ति भारत का नागरिक माना जाता है, यदि उसके दोनों अभिभावक भारत के नागरिक हों अथवा यदि एक अभिभावक भारतीय हो और दूसरा अभिभावक उसके जन्म के समय पर गैर कानूनी अप्रवासी न हो, तो वह नागरिक भारतीय या विदेशी हो सकता  हैं l यहाँ वे कहने का प्रयास कर रहें है कि 1 जुलाई 1987 तक भारत में जन्मे किसी भी व्यक्ति विदेशी करार नहीं दिया जा सकता है, अगर वह भारत में पैदा होने का प्रमाण दे सके l सन 2004 में एक अन्य संशोधन में घोषित किया गया कि जन्म के अधिकार से कोई भी नागरिक भारतीय हो सकता है, अगर उसके दोनों अभिभावक भारतीय हो l सन 1985 में एक नई धरा 6ए भी अंतर्भूत की गयी है, जो बांग्लादेशियों से डील करने के लिए बनाई गई है l अगर मोटे तौर पर देखे तो पाएंगे कि जिन भारतियों के पास एन आर सी बनवाने के पास दस्तावेज नहीं भी है, और उनके पास भारत में जन्म होने का प्रमाण पत्र मौजूद है, तब कम से कम उनको भारत से कोई भी निकाल नहीं पायेगा, यह तय है l इसलिए जितनी भी अफवाहे जो निकल कर आ रही है, वे निर्मूल और बेबुनियाद है l इस समय एन आर सी को लेकर भयंकर राजनीति हो रही है l हर कोई हिंदीभाषियों, बांग्लाभाषियों का रहनुमा बन रहा है l भारतीय नागरिकता अधिनियम 1955 इसमें लोगों की सहायक बन सकती है l हालंकि ओमप्रकाश अगरवाल भी कहते है कि इस संशोधन के उपर उच्चतम न्यायालय के बहुत सारे निर्णय भी है, जो इस अधिनियम को अपने मूल स्वरुप में लागु होने से रोकता है l उपर से असम में असम समझोता के साए में किये गए संसोधन 6ए भी अपने आप में एक कानून है l  
तेजी से बदलते दौर में, विचारों का बदलना भी एक स्वाभाविक सी प्रक्रिया है l अब रोटी-कपड़ा-मकान से जीवन नहीं चलता, बल्कि उन तमाम जरूरतों को जुटाते हुए जीवन को जीने की एक कला है, जिसको हर मनुष्य आज ढूँढ़ रहा है l कुछ लोग जो जीवन भर संघर्ष भरा जीवन जी रहें होतें है, उनके लिए मात्र समृद्धि ही सुखी होने की निशानी है l आसुओं से कुश्ती लड़ कर कुछ लोग, एक नई जिंदगी जीने के लिए जीवन से ही प्रेरणा प्राप्त कर लेतें है l खिड़की के झरोखे से दिखाई देने वाला एक छोटा सा दृश्य भी, उन्हें एक नए जीवन की और ले जाने में सक्षम है l परिवर्तन प्रकृति का नियम है। परिवर्तन सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही हो सकते हैं। तकनीक और सुचना प्रसारण अपने विकास के चरम पर है l मानव चाँद और अन्य ग्रहों पर घर बनाने की और अग्रसर है l न्याय संगत और विचार आधारित धरातल की सृजनशीलता ने मानवजाति के कद तो अब बहुत बड़ा बना दिया है l सन 1985 में बनी हिंदी फिल्म मेरी जंग का यह गीत इस समय याद आया रहा है.. ‘जीत जायेंगे हम-जीत जायेंगे$$ हम, तुम अगर संग हो.., जिंदगी हर समय एक नई जंग है...l
        

Sunday, September 2, 2018

भई, हिंदी भाषियों को ग़ुस्सा क्यों नहीं आयेगा ?


भई, हिंदी भाषियों को ग़ुस्सा क्यों नहीं आयेगा ?
स्वतंत्रता के पश्चात, असम में रहने वाले हिंदी भाषियों के, एक खास सामाजिक रहन-सहन के वजह से, वे हमेशा से पहचाने जातें रहें है l यूँ तो असम में जाति को लेकर यहाँ कभी भी विशेष समस्या नहीं थी, पर हिंदी भाषियों पर हमेशा से ही इसलिए नजर थी, क्योंकि यह कौम अपनी भाषा, रीति रिवाजों और स्टेटस की वजह से चिन्हित होती रही है l वर्ग संघर्ष होने की एक मुख्य वजह यह भी रही कि असम में चारो दिशा से सदियों से लोग बसते चले गए, जिससे एक जाति का यहाँ कभी कोई वर्चश्व नहीं रहा, जिससे जातियों में संघर्ष वैचारिक रूप से विद्यमान बना रहा, कभी सतह पर तो कभी अंतर्मन में l विभाजन की स्थिति तब बनी जब, बोडोलैंड के आन्दोलन का सूत्रपात हुवा l उस समय असम के बुद्धिजीवियों ने ह्रदय पर पत्थर रख कर यह समझोता होने दिया, क्योंकि इससे इलाके में शांति हो रही थी l असम में रहने वाली विभिन्न जनजातियों को संविधानिक दर्जा देने के लिए लगातार आन्दोलन होते रहें है, जिससे हिंदी भाषियों के लिए संघर्ष की स्थितियां और कठिन होती गयी है l यह इस लिए कहा जा रहा है कि यह समुदाय हमेशा से ही सॉफ्ट टारगेट बना रहा है l एनआरसी की सूची जारी होने के बाद जिन लोगों के के नाम एन आर सी में नहीं आयें है, उनको इस बात का खतरा लग रहा है कि कड़े कानून,उनको कई सुविधाओं से वंचित नहीं कर दे l दबी जुबान में यह भी कहा जा रहा है कि जो लोग दशकों से असम में रह रहे थे, वे न तो पहले की तरह वोट दे सकेंगे, न इन्हें किसी कल्याणकारी योजना का लाभ मिलेगा। बड़ी संख्या में बंगला भाषियों के नाम एन आर सी सूची से काटे गएँ है, जिससे पूर्वी बगाल से अवैध रूप से आये लोगों पर स्टेटलेस होने का खतरा मंडराने लगा है l वहीं चुनाव आयोग ने भी स्पष्ट किया है कि एनआरसी से नाम हटने का मतलब यह नहीं है कि मतदाता सूची से भी ये नाम हट जायेंगे l उन्होंने कहा कि  जनप्रतिनिधित्व कानून 1950 के तहत मतदाता के पंजीकरण के लिए तीन जरूरी अनिवार्यताओं में आवेदक का भारत का नागरिक होना, न्यूनतम आयु 18 साल होना और संबद्ध विधानसभा क्षेत्र का निवासी होना शामिल है l यह बात हिंदी भाषियों पर भी लागू नहीं होती, जो देश के दुसरे भाग से असम में व्यापार और रोजगार के सिलसिले में आये है अब बड़ी संख्या में हिंदी भाषियों के नाम राष्ट्रीय नागरिक पंजी से काटे गए है, जिनके दस्तावेज या तो सत्यापित हो कर नहीं आयें है, या फिर जिनके दस्तावेज साधारण नियमानुसार नहीं है l l पर हिंदी भाषियों को लेकर एक बड़ी राजनीति यहाँ पर शुरू हो गयी है l यह सिलसिला आज से नहीं बल्कि आजादी के बाद से बदस्तूर जारी है l 1947 में जब भारत-पाकिस्तान का बँटवारा हुआ तो कुछ लोग असम से पूर्वी पाकिस्तान चले गए, लेकिन उनकी ज़मीन असम में थी और लोगों का दोनों ओर से आना-जाना बँटवारे के बाद भी जारी रहा। जिसके चलते वर्ष 1951 में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार किया गया था। वर्ष 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद भी असम में भारी संख्या में शरणार्थियों का आना जारी रहा जिसके चलते राज्य की आबादी का स्वरूप बदलने लगा। 80 के दशक में अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने अवैध तरीके से असम में रहने वाले लोगों की पहचान करने तथा उन्हें वापस भेजने के लिये एक आंदोलन शुरू किया। आसू के छह साल के संघर्ष के बाद वर्ष 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे। गया। साथ ही यह फैसला भी किया गया कि असमिया भाषी लोगों के सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषायी पहचान की सुरक्षा के लिये विशेष कानून और प्रशासनिक उपाय किये जाएंगे। असम समझौते के आधार पर मतदाता सूची में संशोधन किया गया। यह पूरी प्रक्रिया असम समझोते के तहत शुरू की गयी है, जिससे असम में रहने वाले मूल निवासियों के अधिकारों की रक्षा की जा सके l
दशकों से रहने वाले हिंदी भाषियों के लिए यह अचानक आने वाली समस्या नहीं है, पहले भी उन्होंने यहाँ रहने की एक बड़ी कीमत चुकाई है l पर इस बात का खतरा उन्हें कभी भी नहीं था कि उनको असम से निष्कासित कर दिया जायेगा l आज भी उनको असम में रह कर रहवास और व्यापार करने की पूरी आजादी है, जैसा कि यहाँ के मूल निवासियों को है l वैचारिक स्वतंत्रता के अलावा, धार्मिक आस्था प्रकट करने के उचित माहोल है, यहाँ l व्यापार वाणिज्य में फैलाव इन्ही हिंदी भाषियों ने कठिन परिस्थितियों में किया ही है l इन सबके बावजूद भी, उन लोगों के लिए अब यह एक चुनौती है, जिनके नाम एन आर सी के अंतिम मसौदे से नाम छुट गए है, कि कैसे अंतिम एन आर सी में डाले जाए l इस बात में सभी एकमत है कि बड़ी संख्या में छुटे हुए लोगों को इस स्थिति से डट कर मुकाबला करना चाहिये l उन्हें एन आर सी सेवा केंद्र से सबसे पहले फॉर्म संग्रह करना चाहिये, और ‘नाम किसलिए नहीं आये’ के आधार पर दुबारा से क्लेम फॉर्म दाखिल करना चाहिये l फिलहाल, यह आरोप भी है कि अभी तक लाखों लोगों को अभी तक यह नहीं बताया गया है कि उनके नाम एन आर सी में क्यों नहीं आया है l उनके लिए स्थिति बड़ी विकट है l