Friday, December 11, 2020

असमिया भाषा संस्कृति के प्रति रूचि बरक़रार है

 

असमिया भाषा संस्कृति के प्रति रूचि बरक़रार है

रविवार को किताब पढने का आन्दोलन दिवस है l हर वर्ष 13 दिसंबर को किताब पढने का दिवस मनाया जाता है l दुसरे शब्दों में हम कहे, तब यह कहना उचित होगा कि पुस्तकालय, पुस्तक और उसके प्रति रूचि बढ़ाने के लिए एक आंदोलन कि शुरवात हुई है l बाजारवाद के युग में किसी की भी दिनचर्या मशीनी बन गयी है l व्यग्रता और चिंता की वजह से लोगों में किताब के प्रति रूचि कम ही हुई है l उपर से आधुनिक संवाद माध्यम से ख़बरों का सम्प्रसारण तेजी से बढ़ा है l इन्टरनेट युजरों की संख्या पिछले दशक की तुलना में कई गुना बढ़ी है l ऐसे में किताब और उसकी गुणवत्ता के प्रति ध्यान दिलाना साहित्य प्रेमियों का कर्तब्य बन जाता है l किसी भी भाषा के साहित्य को विश्व पटल पर ले जाने के लिए सबसे पहली जरुरत होती है, उसका भाव अनुवाद और उसका प्रसारण l असमिया गीतों को जब हम सांस्कृतिक मंचों पर सुनते है, और भाव-विभोर हो जाते हैं l असमिया गीतों को पिछले वर्ष नागरिकता कानून के विरोध में हुए आंदोलन में भी गाये गए थे l भाषा साहित्य एक दुसरे को जोड़ देता है l अगर हम पुस्तकों के लेखन और अनुवाद के कार्य की और देखे, तब पाएंगे कि पिछले 50 वर्षों में जिन लेखकों ने हिंदी में मौलिक लेखन के साथ में असमिया पुस्तकों का हिंदी अनुवाद किया है, उनमे सर्वप्रथम नाम भगवती प्रसाद लडिया का आता है, जिन्होंने पुस्तकालय आंदोलन की शुरुवात की थी और लोगों में पढने के लिए जागरूकता लाने का प्रयास किया था l एक समृद्ध भाषा को विश्व पटल पर ले जाने के लिए, उस भाषा के साथ जुड़े हुए पत्रों और किंवदंतियों को लोगों के समाने रखना जरुरी हो जाता है l नाटकों के माध्यम से पुस्तकों को लोगों के सामने ले जाने की विधा असम में काफी पुरानी है, जो थियेटर के रूप में आज भी एक जीवंत विधा प्रचलित है l जयंती युग के महामना कमल नारायण देव का नाम आज भी बड़े सम्मान से लिया जाता है, जिन्होंने जयंती नामक पत्रिका का संपादन किया था l नवारुण वर्मा और कृष्ण प्रसाद मागध जैसे मनीषियों ने भाषा संस्कृति से जुड़े पत्रों के उपर पोथियाँ लिख, अनुवाद कर ना सिर्फ असमिया संस्कृति को समृद्ध किया है, बल्कि हिंदी साहित्य को भी उन्नत किया है l गुवाहाटी के छगनलाल जैन और डिब्रूगढ़ के देवी प्रसाद बगरोडिया को असमिया और हिंदी के बीच का एक सेतु के रूप में असमिया लोग जानते है, जिन्होंने विभिन्न भाषा-भाषी के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया है l असम में वैष्णव धर्म गुरु श्रीमंत शंकरदेव और संस्कृति पुरोधा ज्योति प्रसाद अगरवाला पर हिंदी में पुस्तक लिख कर सांवरमल सांगानेरिया ने दोनों महापुरुषों का परिचय पुरे भारतवर्ष से करवाने का एक महत कार्य किया है l कुबेर नाथ राय, मास्टर नागेन्द्र शर्मा, दामोदर जोधानी, डा. हीरालाल तिवाड़ी, चंद्रमुखी जैन, धरमचंद जैन, कपूर चंद जैन जैसे महानुभावों ने अपनी लेखनी द्वारा असम के महापुरुषों के जीवन दर्शन को पुरे भारत में प्रचारित किया है l असम के कौन कौने में ऐसे लोग मौजूद है, जिनकी मातृभाषा मारवाड़ी, हिंदी या भोजपुरी रही हो, पर उन्होंने असमिया भाषा संस्कृति को करीब से समझा और उस पर कार्य भी किया है l ऐसे और पचासों लोग और मिल जायेंगे जो असम के गावों, शहर और कस्बों में मिल जायेंगे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन दो संस्कृतियों के बीच नजदीकियां करने का प्रयास किया है l कभी भाषा संस्कृति के द्वारा, तो कभी संवाद के सूत्र को पिरोकर l ऐसे कई नाटकार, लेखक, संपादक और फिल्म निर्माता भी मौजूद है, जिन्होंने लाभ नुकसान की परवाह ना करते हुए असमिया में भरपूर कार्य कर रहे हैं l कुछ और नामों का उल्लेख आने वाले अंकों में देने का प्रयास करूँगा l

इस बात पर कोई दो राय नहीं है कि अब किसी को और परीक्षा देने कि जरुरत नहीं है कि अमुक हिंदी भाषी है और अमुक मारवाड़ी भाषी है l सदियों से यहाँ एक मिश्री संस्कृति विराज कर रही है l कोई ज्यादा कार्य कर रहा है तो कोई कम, पर माटी के प्रति लगाव बरक़रार है, चाहे वह कोई भी भाषा बोल रहा हो l बड़ी बात यह है कि स्थानीय संस्कृति के प्रति लगाव और उसके प्रचार प्रसार किये जाने कि जरुरत है l इस बात में भी कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि यहाँ के लोगों ने बड़ा ह्रदय दिखलाते हुवे, ऐसे लोगों को गले से भी लगाया है, जिससे आने वाली पीढ़ी को प्रेरणा भी मिली है l आज युवा कवि और लेखकों की एक जमात तैयार हो गयी है, जो असमिया भाषा संस्कृति को ऊँचा करने में कोई कसार नहीं छोड़ रहे हैं l चिर सनेहे मुर भाषा जोनोनी’, के साथ जय घोष करने वाले नवयुवकों ने असमिया कला संस्कृति के मर्म को समझ कर आत्मसात किया है l    ऐसे लोगों के प्रति सम्मान आज भी बरक़रार हैं l

Friday, December 4, 2020

असमिया बोली से परहेज क्यों ?

 

असमिया बोली से परहेज क्यों ?

असम में सन 1960 में एक बड़ा भाषा आंदोलन हुवा था, जिसके बाद असमिया भाषा को असम के तीन जिलों को छोड़ कर सभी जिलों में सरकारी भाषा के रूप में घोषित किया गया l इस आंदोलन से असमिया भाषा को ना सिर्फ सरकारी मान्यता मिली, बल्कि उसके बोलनेवालों को एक पहचान मिली l ब्रहमपुत्र घाटी में असमिया बोलने वालों की संख्या करीब 2 करोड़ है, जबकि असम में फैले हुए जनगोष्ठियों के लोगों की बोलिया थोड़ी भिन्न है, पर आम तोर पर वें असमिया भाषा ही लेखन कार्य में उपयोग करते हैं l अब बात करते है राज्य में रह रहे हिंदी भाषियों की या अन्य भाषा-भाषियों की जो राज्य में पिछले तीन सौ साल से असम में रह रहें हैं l इसमें राजस्थानी लोगों की संख्या भी बहुतायत में है, जिन्होंने यहाँ के उद्योग और वाणिज्य को बखूबी संभाल रखा है, जिनको असम में मारवाड़ी कह कर संबोधित किया जाता हैं l जब सन 1828 में नौरंगराय अगरवाला असम पहली बार राजस्थान से आये थे, तब उनको क्या पता था कि उनके वंशज, असम की कला संस्कृति का एक स्तम्भ और एक अभिन्न अंग बन जाएंगे l नौरंगराय अगरवाला की बाद की पीढ़ियों ने ना सिर्फ असमिया को अपनाया, बल्कि उसकी सेवा भी की l जिसका नतीजा यह निकला कि असमिया कला, भाषा-संस्कृति को एक मजबूती मिली और उसका विस्तार असम के चारों कौनों में होने लगा l उस परिवार ने गीत और नाटकों के माध्यम से नव-जागरण शुरू किया, जिससे असमिया लोगों को सम्पूर्ण भारतवर्ष में पहचान मिलने लगी l बाद में असम आंदोलन ने यहाँ के लोगों को एक नई पहचान दी थी l किसी भी राज्य की संस्कृति को आत्मसात करने के पहले वहां की बोली और भाषा को सर्वप्रथम अपनाना होगा, तभी उसके मर्म को समझा जा सकता है l राजस्थानी मूल के लोगों को हिंदी भाषी के रूप में चिन्हित किया जाने लगा है, जिसकी मुख्य वजह है उनके के खुद की संस्कृति का तिल मात्र भी प्रचार ना होना l एक समृद्ध संस्कृति के वाहक मारवाड़ी समुदाय के लोग ना सिर्फ अपनी बोली, भाषा और संस्कृति को तो छोड़ ही रहे है उपर से हिदी को भी तोड़-मरोड़ कर बोल रहे हैं l इस गड़बड़झाले की वजह से इनकी पहचान किसी जनागोष्ठी या भाषाई अल्पसंख्यक के रूप में नहीं हो कर हिंदी भाषी के रूप में होने लगी है l जबकि इस तथ्य से किसी को कोई परहेज नहीं है कि असमिया भाषा की सेवा करने वाले 100(संख्या सांकेतिक है) ऐसे मारवाड़ी असम के चारों कौनों में मिल जायेंगे, जिन्होंने अपनी लेखनी द्वारा असमिया भाषा को उन्नत किया है l ऐसे कई मारवाड़ी परिवार मिल जायेंगे, जिहोने असमिया भाषा-संस्कृति को अपना लिया है l ऐसे उदहारण असम में सर्वत्र मिल जायेंगे, जिन्होंने असमिया भाषा के द्वारा असमिया आमजनों के बीच अपनी पहचान छोड़ी हैं l फिर भी इस समुदाय के लोगों को एक अलग मान्यता नहीं मिल पाई है l इसका कारण ढूंढे जाने जरुरत है l एक कारण जो मैंने जाना है, वह है, असमिया बोली के प्रति असंवेदनशीलता और अनदेखी l भाषा खिखने कि बात तो अभी छोड़ ही देतें हैं l बोलने के परहेज ने लोगों में एक नकारात्मक छवि बन दी हैं l दुकानों में जब ग्राहक आते हैं, तब वें पूछते है कि क्या आपको असमिया आती है l कई दफा, वर्षों से यहाँ रहने वला व्यक्ति शर्मशार हो कर बगले झाँकने लगता है और लजाते हुए जबाब देता है की थोड़ी थोड़ी l असम में भाषा संस्कृति एक संवेदनशील विषय है l एक सत्य यह भी है कि एक बोली-एक भाषा, एक सम्पूर्ण संस्कृति होती होती है l हर सौ वर्षों में ना जाने कितनी बोलियाँ इतिहास में विलीन हो जाती हैं l मारवाड़ी इलाके की कई बोलियों के साथ भी यही होने वाला है l जब एक परिवार में तीसरी पीढ़ी या चौथी पीढ़ी अपनी मातृभाषा को छोड़ कर हिंदी या अन्य भाषा बोलने लगता है, तब यह तय है कि वह बोली लुप्त होने वाली है l असमिया भाषा ने अपने उदय काल में(सन 1900 के पश्चात) गीतों और कविताओं के माध्यम से एक वजूद बनाया है l अपनी भाषा को समृद्ध कर इसका व्यापक विस्तार किया है l नहीं तो विभिन्न समय में असम में प्रवर्जन कर रहे लोगों ने कभी का यहाँ की भाषा को तोड़ मरोड़ कर रख दिया होता l पर संवेदनशील असमिया ने अपनी भाषा को बचा कर एक संस्कृति को समूचे भारत वर्ष में प्रचारित किया है l

असमिया बोली को बोलने की जरुरत इसलिए भी है क्योंकि जो लोग यहाँ के हो गए है, परिवार, जमीन यही है, वर्षों से यही रह रहें है, रिश्तें-नाते यही है, उनको स्थानीय स्थानीय से एक संवाद का माहोल बनाने की जरुरत होगी, जिससे यह नहीं लगे कि इस समुदाय के लोग अलग है l असमिया बोली एक सेतु का कार्य कर सकती है l अब देवकी और योशोधा दोनों यही है, दोनों ही प्यार निछावर कर रही है l             

Friday, November 27, 2020

आखिर कौन है, यें हिंदी भाषी ?

 

आखिर कौन है, यें हिंदी भाषी ?


पिछले अंक में हिंदी भाषियों पर लिखने के पश्चात,एक तर्क यह निकल कर आया कि आखिर कौन यें हिंदी भाषी l राजस्थानी मूल के लोग तो मारवाड़ी बोलते है, बिहारी मूल के भोजपुरी या मैथली में बात करते हैं, फिर असम में हिंदी भाषी कौन हुए ? क्या ज्योंति प्रसाद अगरवाला को भी हिंदी भाषी की संज्ञा दी जा सकती है ? इस तरह के विचार कुछ बुद्धिजीवियों ने उठाये हैं l दरअसल में, हिंदी भाषियों के समूह में कौन से भाषा-भाषी के लोग समाहित है, इसमें हमेशा से ही विवाद रहा हैं l जिस तरह से भारत में जातिवाद की जड़े इतनी गहरी और हरी है कि कोई कितनी भी कौशिश कर ले, हर बार जाति का प्रश्न उभर कर आ ही जाता हैं l सन 1985 के बाद जब, असम में एक क्षेत्रीय राजनीति का दौर शुरू हुवा, तब भी कई मर्तबा सभी जातियों को एक छत के नीचे लाने के प्रयास हुए थे, पर कोई भी प्रयास फलीभूत नहीं हुए और सभी जातियों को हिंदी भाषी के रूप में संज्ञा दी जाए लगी l हिंदी भाषी बोलने पर यह समझा जाता है कि उत्तर भारत की यह बोली है, असम में यह एक आगंतुक है l एनआरसी के समय भी जब सर्व प्रथम नियम बनाये थे, तब ओर्गिनाल्स इन्हेबितेंत (स्थानीय)और नॉन ओर्गिनल रेजिडेंट(प्रवासी) के रूप में लोगों को चिन्हित करने का प्रयास किया गया था, पर विवाद होने पर इसे हटा दिया था l लेकिन ऐसे हजारों लोगों ने अपना नाम दर्ज ही नहीं करवाया, जिनकी उपाधि ही असम के स्थानीय कह कर दर्शाती हैं l उनका यह तर्क था कि हम यहाँ के निवासी है, हमें प्रमाण देने की जरुरत क्यों हैं l पर नियम तो नियम थे, सभी को प्रमाण देने पड़े l यह अलग बात थी कि जांच पड़ताल कम ज्यादा की गयी थी l हिंदी भाषियों को लेकर हमेशा एक संजीदगी रही है कि यह एक जाति कमाने आई है और कमा कर वापस चली जायेगी l स्थानीय संसधानों पर कोई इनका अधिकार नहीं हैं l पर ऐसा नहीं हुवा l तर्क करने वाले का मंतव्य यह था कि स्थानीय भाषा और संस्कृति को अपना कर उसकी सेवा करना, उसमे मिल जाना ही एक मानव का स्वभाव होता है, पर उसके जींस में उत्पत्ति के स्थान के अनुवांशिक अंश मौजूद रहते है, जो कभी भी समाप्त नहीं होते, और इसी गुण कि वजह से वें स्थानीय से अलग दिखते हैं l असम में रहने वाले नेपाली और सिख समुदाय के लोगों ने असमिया रहन सहन और बोली को ना सिर्फ अपनाया बल्कि उसकी भरपूर सेवा भी कर रहें हैं l इसी तरह से असम के कई स्थानों पर मारवाड़ी और अन्य समुदायों के लोग असमिया संस्कृति में रच बस गए है l माजुली और ढाकुवाखाना इसके उदहारण बने हुए है l ज्योति प्रसाद अगरवाला जैसा व्यक्तित्व अब और पैदा नहीं हो सकता, जिसको कोई भी हिंदीभाषी के रूप में चिन्हित भी नहीं कर सकता, ना कोई भाषा-भाषी इनको अलग से अपना सकता है l वे भाषा संस्कृति के हिसाब से पूर्ण रूप से असमिया थे, जिनको लोग पूजते हैं l ऐसे महापुरुष को किसी भी भाषा में बांधना, उनका अपमान होगा l एक विश्व मानव के रूप में प्रतिष्ठित हुए थे, ज्योति प्रसाद अगरवाला, जिनको असमिया होने पर गर्व था l

पुरे भारतवर्ष में प्रवजन का इतिहास बहुत पुराना है l असम में भी कौन सी जाति पहले आई, इस पर बहुत विवाद हैं l यूँ तो असम में राजस्थान से राजपुताना इलाके से लोगों के आने का दौर शुरू हो चूका था, पर यांदाबू संधि के पश्चात बड़ी संख्या में भाषा-भाषी के लोग असम आने लगे थे l इसमें अंग्रेजो द्वारा बसाये हुए लोग भी शामिल है, जिन्होंने अंग्रेजों के बेन्केर्स के रूप में भी काम किया l चाय बागानों में मुजदुरों को बसाया गया, चाय बागानों में दुकानों की बसावट की गयी, जिनको राजस्थानी मूल के लोग चलाते थें l इसी तरह से नौकरी और पोस्टिंग की वजह से भी लोग यहाँ बसते चले गए l कहते है कि भूमि पर एक खिंचाव है, जो एक बार यहाँ आ जाता है, वह यही बस जाता है l सहज सरल असमिया लोगों ने आगुन्तकों की आगवानी भी दोनों हाथों से की हैं l जो लोग यहाँ बस गए, वें यही के हो गए, मूल प्रदेशों में उनके लिए कोई स्थान अब नहीं है l कुछ परिवारों के सभी रिश्तेदार तक यही रहते हैं l यह तो क्षेत्रीयतावाद की आंधी ने सामाजिक तानेबाने को ध्वंश कर दिया है, नहीं तो जाति और भाषा कभी भी किसी के आड़े नहीं आई थी l

असम में सदियों से एक मिश्रित संस्कृति वास करती आई है l समुदायों के बीच समरसता हमेशा ही बनी रही l बस चुनाव के समय ही थोड़ी बहुत कड़वाहट आ जाती है l पर बड़ी बात यह है कि सभी समुदाय शांति से वास कर रहे हैं l अच्छी बात यह भी है कि सभी के लिए अलग अलग स्थान और जगह बनी हुई हैं l राजनीति कभी भी समुदायों के बीच बने हुए मधुर और आत्मीय संबधों को विच्छेद नहीं कर सकती l         

Friday, November 6, 2020

रोमांस, क्रांति, परिवर्तन, इत्यादि ..

 

रोमांस, क्रांति, परिवर्तन, इत्यादि ..


जब सन 1932 में ज्योति प्रासाद अगरवाला ने असम की पहली फिल्म जयमती का निर्माण शुरू किया था, तब उनको इस फिल्म में काम करने वाले कलाकार मिलने में बेहद तकलीफ हुई थी l फिल्म की नायिका आइदेव हेन्द्क को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा था l पर ज्योति प्रसाद का रोमांस शीर्ष पर था, और उन्होंने फिल्म का निर्माण कर डाला l कवि ह्रदय ज्योति प्रसाद ने अपने जीवनकाल में करीब 300 गीतों की रचना की थी l एक रोमांटिक कवि कब एक क्रन्तिकारी बन गया किसी को पता ही नहीं चला l जब उन्होंने लिखा ‘तुम्ही करिबो लागिबो अग्नि स्नान’, तब एकाएक एक जलजला सा उठा और असमिया पुनर्जागरण का दौर शुरू हो गया l असमिया संस्कृति, कला और साहित्य को दिशा प्रदान करने के लिए उनका नाम अग्रणी है l बाद में जब भाषा आंदोलन और असम आन्दोलन शुरू हुवा था, तब छात्र उनके इन्ही गीतों को गा कर क्रांति का आगाज किया करते थे l इतना ही नहीं नागरिकता संसोधन कानून 2016 के विरोध के समय भी असम के रंगकर्मियों ने रोमांस की चाशनी में डूबे हुए क्रांति गीत गाये और कानून का विरोध किया l जब सन 1996 में भारत में पहली बार भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई थी, तब देश प्रेम का जज्बा इस तरह से उभरा कि आम लोगों ने इस पार्टी को भरपूर समर्थन दिया, हालाँकि यह सरकार सन 1996 में तो सिर्फ 13 दिनों तक ही चल पाई, पर सन 1998 में पूर्ण बहुमत से अपना 5 वर्षों का कार्यकाल समाप्त किया l एक नई राष्ट्रीयता की शुरुवात हुई, जो आज तक कायम है l इसी तरह से असमिया पुर्नार्जगरण के छोटे छोटे दौर स्वतंत्रता के बाद पूरी तरह से शुरू हुए थे, सभी असमिया अस्मिता और संस्कृति की रक्षार्थ थे l असम आंदोलन इसमें से प्रमुख और निर्णायक दौर था l

2021 में असम विधान सभा का चुनाव होना है l चुनाव कि तयारियां शुरू हो गयी है l नेताओं के चहरे अब पहले से ज्यादा दिखाई देने लगे हैं l कुछ नई पार्टियाँ भी गठित हो गयी हैं l आइये, चुनाव को मद्देनजर रखते हुए थोड़ा पीछे चलते है l असम आन्दोलन के दौरान जब मतदाता सूची में संसोधन हुवा था, तब भी यह मुद्दा आया था कि जिन लोगों का नाम मतदाता सूची में नहीं होगा, उनको असम छोड़ कर जाना होगा l इतना ही नहीं, असम आन्दोलन के समय आसू को प्रथम मांग थी कि सन 1951 के बाद असम में दाखिल लोगों को असम से बाहर किया जाये l बाद में समझोते के समय यह तिथि 25 मार्च 1971 कर दी गयी l 1950 और 60 के बीच आये लोगों को मतदान का अधिकार दिया गया l असम में कौन पहले आया और कौन बाद में, इस बात पर हमेशा से ही बहस होती रही है l किस समुदाय ने असम के विकास में क्या योगदान दिया है, क्या इसका मुक्यांकन कभी हो पायेगा ? असम में ना जाने कितने वर्षों से हिंदी भाषी रह रहे है, इसके कोई पुख्ता सबुत तो नहीं है, पर दस्तावेज बताते है कि पंद्रहवी शताब्दी से ही राज्य में हिंदी भाषियों का जमावड़ा शुरू हो गया था l इस बात के भी प्रमाण है की अंग्रेजो से पहले कोच राजाओं ने उत्तर भारत के कई राजाओं के साथ संधि भी की थी l पर जब से हिंदी भाषियों ने असम में रहना शुरू किया है, उन्होंने असम को ही अपनी भूमि माना है और कभी भी पृथकवादी राजनीति नहीं की l अभी भी हजारों ऐसे लोग है, जिन्होंने कभी भी असम में रह कर कोई स्थानीय दस्तावेज नहीं बनवाया या जाली दस्तावेज बनवाने की चेष्टा की l बस वर्षों से रह रहें है l असम आन्दोलन के दौरान जब विदेशी हटाओं के नारा गुंजायमान था, तब असम के हिंदी भाषियों ने तन-मन और धन से इस आन्दोलन को समर्थन दिया था l उन दिनों भी यह बात उठी थी,जब 1983 में असम में विधान सभा के चुनाव हुवे थे, जिसमे कुल 33 प्रतिशत लोगों ने ही मतदान किया था l उस समय राज्य में विवादस्पद कानून आईएम् (डीटी) लागु था, जिसके विरोध में असम के ज्यादातर लोगो थे, पर इस कानून को पास कर दिया गया l नतीजा यह हुवा कि सन 1983 के चुनाव फिस्सडी साबित हुए l सन 1985 में जब नए सिरे से असम चुनाव हुए और क्षेत्रीय पार्टी असम गण परिषद् ने सत्ता संभाली थी l सत्ता मिलने के बावजूद एक भी विदेशी नागरिक को बहिष्कृत नहीं किया जा सका, जिसका मुख्य कारण था, विवादस्पद कानून आईएम् (डीटी) l उस समय सन 1983 और सन 1985 में जब चुनाव हुए थे l यह स्थिति कमोबेश यूँ ही चलती रही, जब तक मामला उच्चतम न्यायलय में नहीं पंहुचा, जब विवादस्पद कानून आईएमडीटी को उच्चम न्यायलय ने अवेध घोषित कर दिया था l उल्लेखनीय है कि सर्वानन्द सोनोवाल के प्रयास से यह कार्य संभव हो पाया था l तभी से असम में उनको जातिय नायक कहा जाता है l इसलिए अब दुबारा से अगले साल चुनाव होने है, मतदाता सूचि में संसोधन होना ही है l इस सूचि में सभी अपना नाम दर्ज करवाए, तभी जा कर बात में वजन आएगा l     

असम में संवेदनाएं कुरेदने से काम बन जाता हैं l परिवर्तन नाम से सरकार बदल सकती है l यह इसलिए है, क्योंकि असम को बड़ी मुश्किल से अपने अधिकार मिले हैं l जब कच्चे तेल की रोयल्टी पर आंदोलन चल था, तब सभी को पता चला कि किस तरह प्राकर्तिक सम्पदा का दोहन हो सकता है, और उनकी कीमत क्या है l असम आंदोलन में घोषित 855 लोगों की जानें गयी थी l देश के प्रति प्रेम कब क्रांति में बदल जाती है, यह पता ही नहीं चलता और फिर क्रांति परिवर्तन की मांग करने लगती है l इस समय राजनीति में भरी उथल पुथल देखने को मिल रही है l नई पार्टियाँ और नए गठबंधन के संकेत भी मिल रहे है l पर बड़ी बात यह रहेगी कि असमिया अस्मिता और पहचान बनाये रखने के लिए एक मुक्कमल जहां जो भी बनाएगा, वही सिरमौर कहलायेगा l उसी की जीत होगी l       

Friday, September 4, 2020

अबाबील, तुम अपना घोंसला क्यों छोड़ जाती हो ?

 

अबाबील, तुम अपना घोंसला क्यों छोड़ जाती हो ?



भारत में स्थानीय और बाहरी की समस्या कई राज्यों में है l भूमिपुत्र के नाम से कहलाये जाने वाले लोगों को हमेशा से ही अपने राज्य के संसाधनों में अग्राधिकार रहता आया है l यह बात हम सब को पता है यद्यपि कही जाने वाली बात नहीं है, पर सत्ता के गलियारों में स्थानीय और बाहरी लोग, जैसे विषय हमेशा ही चर्चा में बने रहते है l जब असम आंदोलन शुरू हुवा था, तब भी यह एक प्रमुख विषय था, आज 41 वर्षों बाद भी यही विषय धारा 6 के रूप में, एनआरसी के रूप में हमारे सामने है l इसके विश्लेषण की और कोई नहीं जाता, कि क्यों बार बार स्थानीय लोगों के संरक्षण की बात बार बार जोरो से उठती है l क्यों जाति, रंग और भाषा के नाम पर भूमि पर रक्त बहने लगता है l शायद भारतीय लोगों में जातिवाद के बीज इतने गहरे है कि हम कितने भी आधुनिक हो जाय, एमए पीएचडी की डिग्री ले ले, पर एकदम अंदर हम वही 18वी शताब्दी के लोगों की तरह से ही रहते है l जो बड़ी बड़ी बातें हम स्टूडियो में बैठ कर करते है, वें कोरी कल्पना मात्र ही रहती है, जो हम बोलना चाहते है, वह बात जबान पर आते आते रुक जाती है, और जो हम बोलते है, वह सफ़ेद झूठ और पाखंड के अलावा कुछ नहीं है l समाज का रंग-रूप और बाहरी आवरण और बोल चाल भले ही आधुनिक शैली का दिखता है, पर बार बार जाति और भाषा पर आंदोलन होना, यह बात का सबूत है कि एक भय और शंका लोगों के अंदर कही घुसी हुई है, जो बार बार उफान मरती है l जातिवाद के बीज बार बार हरे होने के कई कारण होते है l एक, राजनीतिक सत्ता हासिल करना, दूसरा, सरकारी नौकरी में ज्यादा से ज्यादा एक ही जाति के लोगों को लाना, तीसरा, राज्य के संसाधनों पर स्थानीय लोगों का अधिकार होना और चौथा सत्ता फिसलने का भय रहना l

असम में स्थाई रूप से रह रहे हिंदी भाषियों की इतनी भी संख्या नहीं है कि वह राज्य की राजनीति में भूचाल ला दे l ना ही वह अपने दम पर किसी एक विधान सभा की कोई सीट जीत सकती है l असम में जितने भी विधानसभा सदस्य हुए है, उनकी स्थानीय लोगों में ख्याति इतनी अधिक थी, कि सभी लोगों ने उनको माथे पर चढ़ाया l पर जब जातिवाद के नाम पर तीव्र हमले शुरू हुए, उसका गर्भ में यही बीज छिपा था कि कैसे बाहरी लोगों को मुख्यधारा से अलग किया जाय l नतीजा यह हुवा कि राजनीति मात्र एक विमर्श का विषय बन गया, उसके परिणाम और फायदा-नुकसान से किसी को कोई मतलब नहीं रह गया l चूँकि संख्या मात्र 6-7 प्रतिशत ही है, और वह भी राज्य के कौन कौन में फैली हुई, किसी भी एक सीट को प्रभावित नहीं कर सकती l हां, जीत के अंतर को बढ़ने के लिए यह संख्या काम में आ सकती है l अन्यथा, कई बार इनको एक दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल भी किया हैं l



अबाबील नामक एक प्रवासी पक्षी वर्ष  में दो बार करीब 6000 किलोमीटर का सफ़र यूरोप और दक्षिण अफ्रीका के बीच करती है और वापस अपने उसी घोसले में लौट आती है l इस रहस्य को कोई समझ नहीं सका है कि कैसे कोई पक्षी वापस अपने बनाये हुए घोसले में छह महीने बाद भी लौट आती है l एक स्पेनिश कहावत है, “अबाबील तुम अपना घोसला क्यों छोड़ जाती हो” l क्यों चली जाती हो, ठंड के कारण या फिर खाना ढूंढने l शायद खाना ढूंढने, पर इतनी दूर क्यों ? भूमंडल के एक कौने से दुसरे कौने की ओर l शीत से बचने के लिए और पर्याप्त खाने कि तलाश में अबाबील घंटों और दिनों तक उड़ सकती है, प्रशांत महासागर और रेगिस्तानों को पार कर जाती है, बिना रुके l मानव प्रवजन भी कुछ इसी तरह से है, खाने कि तलाश में अपने घरोंदे बना डालता है, और वापस लौट कर उसी में आ जाता है l प्रवजन करने की ललक उसकी जन्मजात जो है l धीरे धीरे वह वही पर घुलमिल जाता l कोलोम्बस ने भी इसी तरह से नई मानव सभ्यता की खोज की थी, जो सागर पार कभी भोजन की तलाश में गई थी, और उर्वर माटी को देख कर वही रुक गयी थी l असम की उर्वर माटी और अतिथि परायण लोगों ने दोनों हाथों से प्रवासियों को हमेशा से ही गले लगाया हैं l समस्या हिंदी भाषियों से कभी भी नहीं हुई, बल्कि, जब बड़ी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से प्रवजन करके लोग आने शुरू हुए, और जनसांख्यिकी में बदलाव देखने को मिलने लगे, तब जा कर राजनीति सक्रिय हुई और ढोल नगाड़े बजने शुरू हो गए l जब वैज्ञानिकों ने कुछ प्रवासी पक्षियों पर प्रयोग करने शुरू किये, तब उन्होंने कुछ कबूतरों के आखों पर चश्मे लगा दिए, चुम्बकीय थेले लगाये गए, ताकि वें स्थानों को नहीं पहचान सके, पर उन्होंने सभी बाधाओं को पार करके दुबारा से अपने घोसलों की और रुख किया था l इसी तरह से वर्षों से प्रवासी हिंदी भाषियों का बार बार वापस आना, और यही रुक जाना यही एक संकेत है कि यही उसका घोसला है, जिसमे वह वापस चला आता है l जो लोग रुक गए है, उन्होंने स्थानीय भाषा संस्कृति को ना सिर्फ अपनाया है बल्कि उसका प्रसारण भी किया है l वरिष्ठ लेखक सांवरमल संगानेरिया ने वैष्णव गुरु श्रीमंत शंकरदेव पर हिंदी में एक शोध ग्रन्थ रच कर, इस संत को असम से बाहर ले जाने का एक गुरु कार्य किया है l इससे हिंदी पट्टी के लोगों को असम और असमिया भाषा संस्कृति को जानने का मौका मिला और असमिया भाषा संस्कृति को बढ़ावा मिला l जिस तरह नाविक को अबाबील पक्षी दिखने पर यह पता चल जाता है कि किनारा नजदीक है, उसी तरह से बड़ी संख्या में हिंदी भाषियों का स्थानीय भाषा संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना, इस बात को दर्शंता है कि वें हमेशा से ही असमिया संस्कृति के साथ जुड़े रहे हैं l              

Saturday, August 29, 2020

उसका असम के प्रति सरोकार बढ़ा है

 

उसका असम के प्रति सरोकार बढ़ा है 

असम में दरअसल में कितने हिंदी भाषी है, इसकी सटीक वैज्ञानिक संख्या अभी तक किसी के पास नहीं है l आंकड़े है, पर प्रमाणिकता नहीं है l हिंदी भाषियों की संख्या को लेकर कईयों ने शंका व्यक्त की है कि 2011 के मनुष्यगणन के हिसाब से असम में उनकी संख्या जनसँख्या का 6.73 प्रतिशत है l 2011 की जनगणना के अनुसार असम की कुल जनसँख्या 3.12 करोड़ है, जिसके हिसाब से राज्य में हिंदी भाषियों की जनसँख्या करीब 20 लाख होती है l मैंने जब जनगणना के आंकड़ों को खंगालना शुरू किया तब पाया कि जनगणना के भाषा खंड के तृतीय अध्याय में यह दर्शाया गया है कि असम में प्रति 10000 लोगों में हिंदी भाषियों की संख्या 673 है, जबकि असमिया भाषियों की संख्या 4838 है l इसी तरह से असम में बंग्ला भाषियों की संख्या प्रति दस हज़ार 2892 और बोड़ो भाषियों की संख्या 454 हैं l इन तथ्यों से यह पता चलता है कि असम में मिश्रित भाषा-भाषी के लोग हमेशा से वास करते आयें है, जिसमे असमिया बोलने वाले लोग सर्वाधिक है l जब असम आन्दोलन शुरू हुवा, वह दौर एक असमिया पुनर्जागरण का दौर था l असम की भाषा और संस्कृति को जनसांख्यिकी में आये बदलाव से कैसे बचाया जाय, इसके उपर एक बड़ी चर्चा शुरू हो चुकी थी l खास करके पूर्व पाकिस्तान, बाद में बांग्लादेश, से आये नागरिकों ने सिर्फ सीमाओं पर ही नहीं, बल्कि असमिया मुख्य भूमि पर भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था l मतदाता सूची अवेध बंगादेशियों के नाम शामिल हो गए थे l उस समय के बहुत पहले से ही असम में बड़ी संख्या में हिंदी पट्टी के लोग भी रोजगार के लिए असम में आते-जाते रहते थे l दिल्ली की असम को लेकर नीतियों से भी यहाँ के लोग काफी नाराज थे l इसलिए सन 1979 में असम में एक बड़े आन्दोलन का सूत्रपात हुवा, जिसकी अगुवाई छात्र संगठन आसू ने की थी l कहने को तो यह एक छात्र आन्दोलन था, पर उसकी पैरवी यहाँ के बुद्धिजीवी और असम और असमिया भाषा से नाता रखनेवाले, जिसमे बड़ी संख्या में हिंदी भाषी लोग भी शामिल थे, करीब-करीब सभी कर रहे थें l असमिया पुनर्जागरण के इस आन्दोलन ने अपना असर दिखाया और सन 1985 में छात्र नेताओं द्वारा गठित की गई राजनितिक पार्टी असम गण परिषद् सत्ता में आई l क्षेत्रीयतावाद का परचम लिए, यह पार्टी असमिया लोगों के लिए असमिया भाषा, साहित्य और संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन करने का पर्याय मानने लगी थी l शायद असमिया इतिहास में इस तरह का वातावरण कभी भी नहीं बना था l कुछ लोग इस एक नया सवेरा का रहे थे l  

असम में रोजगार और व्यवसाय के कारणों से ही असम में हिंदी भाषियों के जमावड़ा नहीं हुवा है l दरअसल में असम में वैष्णव संस्कृति के प्रवर्तक श्रीमंत शंकरदेव के समय से ही हिंदी भाषियों का आना शुरू हो गया था l यह एक माइग्रेशन पैटर्न है, जो हर राज्यों और देशों के साथ लागु होता है l कई संस्कृतियाँ इसमें उजड़ी और कई नई बनी, कई बोलियाँ इतिहास के साथ गुम हो गई, नई बोलियाँ ने जन्म लिया l जैसे कुछ प्रवासी प्रक्षी प्रवास किये गए स्थान पर रुक जाते हैं उसी तरह कुछ लोग पहले से ही यहाँ रुक गए थे, जिन्हें हिंदी भाषी या बहिरागोत कहा जाता है l इनकी कुल  जनसँख्या बोड़ो भाषी लोगों से थोड़ी अधिक है, बोड़ो भाषियों ने, हम सभी को याद है, आन्दोलन करके पुरे देश में हंगामा खड़ा किया था, आज एक बड़ी राजनितिक शक्ति है, जो असम में सरकार बनाने में महत भूमिका निभातें है l हिंदी भाषियों ने कभी भी आन्दोलन का रुख नहीं अपनाया l सत्तारूढ़ पार्टियों से मित्रता करके अपना भरपूर सहयोग दिया है l पर सवाल उठता है कि जब असम समझोते की धारा 6 तो कभी भी गैर असमिया भाषी के निष्कासन की बात नहीं करती, फिर आज उन्ही लोगों के अधिकारों को सीमित करने और सांप्रदायिक वृक्ष बेल को दुबारा हरा करने का प्रयास क्यों किया जा रहा है ? इसको इस तरह से समझते है कि असम में जातिगत भावनाएं प्रबल रूप से हमेशा से ही चरम पर रही है l जरा सी चिंगारी देने की जरुरत है, बस उफान मारने लगती है l ‘का’ आन्दोलन के दौरान हम यह देख चुके है l असम में बड़े स्तर शांति के लौट आने से एक राष्ट्रीय पार्टी के शासन के दौरान, स्थानीय असमिया जाति से एक बड़ा तबका जातिगत भावना से उपर उठ कर राज्य और देशहित की बातें भी सोचने लगा है l शिक्षा और रोजगार को प्राथमिकता देने लगा है, जिससे देश भर में असमिया बच्चे शिक्षा प्राप्त और नौकरी करने लगे है l ऐसे बच्चों के अभिवावक यह सोचते है कि देश की मुख्यधारा में शामिल हो कर ही एक विकसित असम बनाया जा सकता है l

सन 2016 में हिंदी भाषियों ने असम की राजनीति में एक बड़ी भूमिका निभाई थी, इस में कोई दो राय नहीं है l आने वाले दिनों में भी वें दुबारा से असम की राजनीति में पहले से भी अधिक सक्रियता दिखायेंगे l इसका मुख्य कारण है कि हिंदी भाषियों का असम के प्रति सरोकार बढ़ा है l एक आम हिंदी भाषी असम के बारे में अधिक जानना चाहता है, अधिक असमिया हो कर यहाँ की भाषा, साहित्य और संस्कृति को आत्मसात करना चाहता है l यह वह इसलिए चाहता है क्योंकि विभिन्न भाषा-भाषी के लोगों के आपस में संवाद बढ़ा है l असमिया और हिंदी भाषियों में संपर्क, व्यवसाय और सामजिकता बढ़ी है, जिससे विश्वास का वातावर्ण दुबारा से दुरुस्त हो कर, एक नए परिपेक्ष्य में बनाना शुरू हो गया है l      

     

Friday, August 7, 2020

बहुसंख्यक लोगों की एक मुराद पूरी हुई

 

बहुसंख्यक लोगों की एक मुराद पूरी हुई

चाहे कोई कुछ भी कहे, पर 5 अगस्त को राममंदिर के निर्माण की आधारशिला जब रखी गयी, तब पूरी दुनिया में हिन्दुओं में ख़ुशी की लहर देखने को मिली l विश्व भर में करोड़ों लोगों ने इसका सीधा प्रसारण देखा l देश के कुछ घोर चरमपंतियों में इसे लोकतंत्र की हत्या बताया तो कुछ ने प्रधानमंत्री पर शपथ तोड़ने का आरोप लगाया l हद तो तब हो गयी, जब पाकिस्तान ने मंदिर निर्माण को  बहुसंख्यकवाद करार दे दिया और जम कर विष वमन किया l सत्य यह है कि देश भर में बहुसंख्यक हिन्दु राम मंदिर निर्माण को लेकर हमेशा से ही संवेनशील रहे, और चाहते थे की राम मंदिर का निर्माण शीघ्र हो l अगर इतनी शीघ्रता नहीं थी, तब 6 दिसंबर सन 1992 को बिना कोई मशीनी ओजार के उपयोग से कार सेवक, एक बनी हुई ईमारत को अपने हाथों से नहीं गिराते l यह एक धार्मिक आस्था का प्रश्न ही महज नहीं था, बल्कि एक बहुसंख्यक हिन्दू देश के लोगों की पहचान का सवाल भी था l जब आक्रान्ताओं ने देश के अस्थतिव को मिटने की चेष्टा की और सभी प्रतीकों को नष्ट कर दिया, तब भी वें बहुसंख्यक लोगों की भावना को बदल नहीं सके, और दुबारा से धार्मिक आस्थाएं प्रबल रूप से संचित हो गयी हैं l इतना ही नहीं ढांचा गिरने के पश्चात भी बहुसंख्यक लोगों ने उच्चतम न्यायालय के फैसले का इंतजार किया और फैसले के आने के पश्चात ही मंदिर निर्माण का कार्य प्रारंभ किया l नहीं तो मंदिर निर्माण के अपने वादे के साथ एक बहुमत के साथ सत्ता में आने वाली एक पार्टी बड़ी आसानी से एक अध्यादेश जरी करके मंदिर निर्माण करवा सकती थी, पर उसने ऐसा नहीं किया, क्योंकि उसे विश्वास था की सत्य की जीत होगी और निर्णय बहुसंख्यक लोगों के हक़ में ही आएगा l भारत और नेपाल में राम सामाजिकता का हिस्सा है, जब किसी से नेपाली भाषा में पूछा जाता है कि कैसे हो, तब सामने से जबाब आता है राम्रो छो !!, यानी अच्छा हूँ l राम अच्छाई का प्रतिक है l यह पश्चिम एशिया में वास करने वाले बहुसंख्यक लोगों के जीवन यापन करने का तरीका है, जिसमे राम शब्द सनातन है, सिर्फ ईश्वरीय नहीं बल्कि अभिवादन करने का तरीका है, सामाजिकता है, जिसे बहुसंख्यक समाज ने सिद्दत से अपने जीवन में आत्मसात किया है l राम राज्य की कल्पना किसी चरम हिंद्वादी चरित्र मात्र का एक स्वप्न नहीं है, एक ऐसे समाज की कल्पना है, जहाँ सभी मनुष्य आपस में प्रेम करें और अपने अपने धर्म का पालन करके एक आदर्श शासन की स्थापना की जाय l इस शब्द के साथ एक दिनचर्या जुड़ी है l ना जाने कितनी ही बार दिन में बहुसंख्यक समाज राम राम के उच्चारण को अनायास की करतें हैं, जिसका कोई धार्मिक महत्त्व नहीं भी हो सकता हैं l क्या इसको हम लोकतंत्र की हत्या कहेंगे l क्या किसी कानून से या सेकुलर शब्द के जुड़ने से बहुसंख्यक आबादी के आचार व्यवहार और सभ्यता को बदला जा सकता है l शायद नहीं, संयम और सहिष्णुता का प्रतिक रहा हिन्दू समाज हर जाति, धर्म के लोगों को अपने साथ रहने का सामान अवसर देता है, जिससे जीव मात्र की सेवा हो सके l पुरे दक्षिण एशिया क्षेत्र में राम नाम और उनसे जुड़ी हुई तमाम किंवदंतियां छिपी हुई है, जिन पर अभी भी शोध चल रहा हैं l कंबोडिया देश में अंकोरवाट मदिर एक पर्यटन क्षेत्र है, जिस पर भारतीय संस्कृति और धर्म ग्रंथों के के प्रसंगों के चित्रण है l इंडोनेशिया विश्व के एक देश है जहाँ भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म का प्रचार आज भी है l

राम मंदिर के निर्माण कार्य शरु होने से भाजपा का एक चुनावी वादा पूरा होने जा रहा है l अनुछेद 370 हटाने का अपना वादा वह पहले ही पूरी कर चुकी है l अब इसके सामने एक बड़ी चुनौती है, देश की आर्थिक स्थिति को दुबारा से पटरी पर लाना l घोर गरीबी की मार झेल रहे लोगों को कैसे देश की मुख्य धारा में शामिल करें, यह एक बड़ा प्रश्न हो सकता है उसके सामने l कोरोना काल में जो मजदुर वापस अपने गावं लौट कर आ गए है, उनके रोजगार के लिए क्या किया जा सकता है,  उनको दुबारा कैसे बसाया जा सकता हा, भाजपा का अगले कुछ वर्षों का यह एक एजेंडा हो सकता है l क्योंकि सब कुछ रामभरोसे तो छोड़ा नहीं जा सकता है l   

 

           


Saturday, July 25, 2020

कम खर्च करना ही एक नई जीवन पद्दति की मांग है


कम खर्च करना ही एक नई जीवन पद्दति की मांग है
पुरे विश्व में कोविद 19 संकट के शुरू होने के पश्चात अंग्रेजी का दो नए शब्द इजाद हुए l न्यु नार्मल(नया सामान्य), जिसके मायने है कि कोविद संकट के पश्चात चलने वाली जिंदगी और उसके नए नियम l शायद ही किसी को पता था कि जीवन में कुछ ऐसा बड़ा संकट आएगा, जिसमे हर क्षेत्र में उथल-पुथल मच जाएगी और मानव और जीव-जंतु अपने अस्तित्व के लिए दुबरा संघर्ष करते हुए दिखाई देंगे l इस पृथ्वी के अस्तित्व के आने के पश्चात, पिछले पचास करोड़ वर्षों में, इसने पांच बार अपना संपूर्ण विनाश देखा है, जो कि हिम युग के पहले के युग से शुरू हो कर अभी के ‘छठवे विलुप्त’ होने की कगार पर है l कोविद संकट इसमें एक कड़ी है l पर हर बार पृथ्वी दुबारा से हरी-भरी हो कर उठ खड़ी होती है l इसमें जीवन के अति सूक्ष्म कण मौजूद है कि वें दुबारा जीवन से भर जाते हैं l यह बात तो तय है कि कोविद संकट के पश्चात हमारी जिंदगी पहले जैसी नहीं होगी l कई चीजे बदल जाएगी, जिसमे रहन-सहन के नए तरीके और जद्दोजहेद आधारित जीवन पद्दति होगी l यह माना जा रहा है कि कम खर्च करना और छोटी छोटी खुशिया ढूँढना अब नई सदी की मांग बन गयी हैं l नया सामान्य अब वो सामान्य नहीं है, जो उपभोक्तावादी संस्कृति पर टिका हुवा था l तीज-त्यौहार, शादी और अन्य समारोह अपनी परंपरागत तौर–तरीके को खोते हुए एक नए क्षतिज पर चढ़ गए है, जिसमे मार्केटिंग की चासनी से लिपटे हुए संस्कार उसके नए रक्षक बन गए है l अत्याधिक खर्च और दिखावे से त्रस्त माध्यम वर्ग और निम्न माध्यम वर्ग को कई त्योहार बोझ से लगने लगे है l इतना ही नहीं, शादियों में जरुरत से ज्यादा दिखावे ने लोगों के बजट को बुरी तरह से बिगाड़ कर रख दिया है l एक नए सामाजिक परिवेश की सृष्टि हो गयी है, जिसे मध्यम वर्ग नकारने के लिए तैयार है, पर उपभोक्तावादी संस्कृति उसे बार बार ऐसा करने से रोक रही है l जब देश में लॉकडाउन शुरू हुवा था, तब ऐसी सैकड़ो शादियों के महंगे रिसेप्शन कैंसिल हो गए थे, जिनमे हजारों के तादाद में मेहमान बुलाये गए थें l कई शादियाँ आगे की तिथि पर पुनर्निर्धारित हो गयी थी l लॉकडाउन के दौरान हमने कईयों की बारात जाते देखा, जिसमे कुल बीस लोग ही शामिल थे l शायद ‘नया सामान्य’ युग में एक सामान्य शादी ही एक जरुरत बन गयी है l मेहमानों को नहीं बुलाये गए, और किसी को कोई आपत्ति भी नहीं हैं l ऐसा इसलिए हुवा, क्योंकि समय की मांग है l अब इस नए सामान्य के दौर में तीज त्यौहार और मंगल को किस तरह से मनाये, इसके तरीके भी हमे ही खोजने हैं l कोविद एक अवसर बन सकता है, एक सामाजिक बदलाव का और एक नए समाज सुधार का l इसमें किसी दल संगठन की आवशयकता नहीं है, खुद ही हम इस नए अवसर का साक्षी बन, कल्पना के घोड़ों को दौड़ना है, जिससे सचमुच उत्सव की तरह लगे हमारे तीज त्यौहार l सभी लोग एक खुली हवा में सांस ले सके l जिनके पास कम है, वे भी और जिनके पास भरपूर है, वे भी l
स्नान, दान, परिमार्जन, पुण्यार्जन और वरण हमारे दर्शन से उठाये हुए कुछ अवसर है, जिनको हम अपनी संस्कृति का एक मुख्य अंग मानते आये हैं l कोविद के समय में सभी त्योहारों को घरों से मानाने पर मजबूर है l शादियों के मामले में स्थितियां थोड़ी भिन्न हैं l जब आमदनी के साधन संतुलित हो गए है, ऐसे में महंगे आयोजन की कल्पना करना चाँद को हाथ से पकड़ने जैसा हैं l एक प्रस्ताव आया है कि वर और वधु, दोनों पक्षों की आपसी सहमती से, शादी का आयोजन एक ही दिन में संपन्न हो, दिन में शादी और शाम को घर के लोगों के बीच पार्टी l प्रस्ताव में इसलिए दम है , क्योंकि शादी सप्तपदी और मंत्रोच्चारों के बीच संपन्न होने वाली क्रिया है, जिसको बड़ी सिद्दत से निभाया जाता है l दूसरी रस्मों को छोटा करके उनमे आवश्यक बदलाव किया जा सकता है l तभी हम यह कह सकते है कि हमने नए समान्य की और एक सार्थक कदम उठाया है l शादी विवाह पर इस चर्चा को करने के पीछे उद्देश्य यह है कि एक नई पहल आजकल के पढ़े-लिखे शिक्षित लोग करना चाहतें है l यह चर्चा इस लिए भी जरुरी है क्योंकि, पानी अब सिर से उपर चला गया है l माध्यम वर्ग अब त्रस्त हो कर बदलाव की उम्मीद कर रहा है l


Friday, July 3, 2020

पहले तो एक बार विरोध करना ही है


पहले तो एक बार विरोध करना ही है
कोरोना काल के दौरान तमाम तरह की विचलित करने वाली ख़बरें लगातार सोसिएल मीडिया पर छाई रहती है l मजदुर, मूल्यवृद्धि, घरेलु हिंसा, बलात्कार, इत्यादि l विपक्ष लगातार हमले कर रहा है l कभी चीन के मामले को लेकर तो कभी निजीकरण के निर्णय पर l असम में बाघजान में तेल के कुएं में लगी हुई आग अभी बुझी हुइ नहीं है कि एक नए मसले में यहाँ पर विरोध की गति पकड़ ली है l असम में मध्यम, लघु और शुक्ष्म उद्द्योग लगाने के लिए अब तीन वर्षों के लिए किसी भी तरह के अनुज्ञापत्र की जरुरत नहीं होगी l इस नए अध्यादेश के आने से दुबारा से व्यापारियों के विरुद्ध जहर उगला जा रहा हैं l खासकरके जातिवादी सगठनों को यह लगने लगा है कि असम में बड़े अनासमिया व्यापरियों को लाभ पहुचने के लिए इस अध्यादेश को पारित किया गया है l जबकि उद्द्योग मंत्री ने साफ़ कर दिया है कि कोरोना संकट के दौरान लौट कर वापस आये स्किल्ड लोगों को स्वरोजगार पाने के लिए एक सुविधा प्रदान की गयी है l पर सरकार के इस व्यक्तव्य से कोई भी यकीन नहीं कर रहा हैं और व्यापरियों के विरुद्ध लगातार बयानबाजी हो रही है l कुछ संगठन इसे असम समझोते की 6 नंबर दफा के विरुद्ध बता रहें है तो कुछ इसे असमिया जातिविरोधी अध्यादेश करार दे रहें हैं l मजे की बात है कि अध्यादेश अभी लागु भी नहीं हुवा है कि विरोध शुरू हो गया है l असम में उद्द्योग लगाना इसलिए सहज नहीं है क्योंकि यहाँ पर कई सरकारी अनुज्ञापत्रों को पहले लेना पड़ता है, उपर से सामाजिक रूप से यह समझा जाता है कि एक उद्द्योग यहाँ के सहज-सरल सामाजिक परिवेश को ख़त्म कर सकता है l उपर से जातिवादी संगठनों का भारी दबाब बना हुवा रहता हैं l अगर स्थानीय युवकों के लिए, जो कोरोना संकट के दौरान अपने गृह राज्य की और लौटे है, उनको इस योजना से लाभ मिलेगा, तब यह तो एक सोने में सुहागे वाली योजना है l तीन वर्षों तक कोई अनुज्ञापत्र नहीं, नहीं तो प्रस्ताव की फ़ाइल हाथों में लिए सरकारी ऑफिसों के चक्कर लगते हुए अक्सर लोगों की चप्पलें घिस जाती है l असम में बड़े पैमाने में उद्द्योग नहीं होने के एक कारण यह भी है कि स्थानीय लोग रिस्क लेने में कतराते है, और उद्द्योग का फैलाव नहीं हो पाता l किसी भी प्रदेश की समृद्धि उसके नागरिकों के खरीदारी करने की क्षमता से आंकी जाती है l खरीददारी करने की क्षमता व्यापार,वाणिज्य और रोजगार से होने वाली आमदानी से बढ़ता है l कोरोना संकट से बड़े पैमाने में हुए बेरोजगार लोगों के लिए खाने-पिने तक की समस्या हो गयी हैं l इसके साथ ही राज्य में उद्द्योग-धंधों पर भी इसका विपरीत असर पड़ा हैं l अप्रैल और मई के महीने में असम के चाय उद्योग को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा हैं l   
ऐसा क्यों होता है कि जब भी असम में कोई विरोध होता है, उसका केंद्र बिंदु व्यापरियों को बनाया जाता हैं l उसको कई सारे अलंकारों से सजाया जाता हैं l पिछले हफ्ते में जब गुवाहाटी में लॉकडाउन में दो दिनों की छुट दी गयी थी, तब आलू के भाव में अचानक उछाल देखा गया, जिसके लिए भी फैंसी बाज़ार के व्यपारियों को दोषी ठहराया गया था l स्थानीय न्यूज़ चनेलों पर कई बुद्धिजीवियों को व्यापरियों के विरुद्ध जहर उगलते हुए देखा गया l इतना ही नहीं, कोविड संकट से उबरने के किये सरकार को सहयोग कर रहें कुछ ठेकदारों को भी बलि का बकरा बनाया गया l अभी इस अध्यादेश के जारी होने से दुबारा से विरोध की सुई व्यापरियों की तरफ टनी हुई हैं l असम को आन्दोलन की भूमि कहा जाता है l एक संवेदनशील कौम होने के नाते, एक आम असमिया अपनी भाषा, संस्कृति को लेकर अति संवेदनशील रहता है l जरा सी आहत से वह चोकन्ना हो कर कुछ करने को उतारू हो जाता है l पिछले वर्ष नागरिकता संसोधन कानून के विरोध में जो गन आन्दोलन चला, उसके तार भी इसी संवेदनशीलता से जुड़े हुए थे l फिर भी जो लोग असम में पीढ़ी-दर पीढ़ी असम में रहा रहें है, उनकों अब अनासमिया नहीं कहा जा सकता l हो सकता है कि कुछ नए आये हुए विभिन्न भाषा-भाषी, असाधु व्यवसायियों ने मूल्य वृद्धि की हो, पर इसका यह मतलब तो नहीं निकला जा सकता कि हर बार व्यापारियों को ही टार्गेट किया जाय l आलू मूल्य वृद्धि पर व्यापारी अपना पक्ष रखने में नाकामयाब रहें l  
और अंत में रुडयार्ड किपलिंग की कविता अगरकी अंतिम लाइनें  अगर तुम भीड़ से बहस कर सकते हो, और बरकरार रख सकते हो अपने सद्गुण
या राजाओं के साथ टहलते हुए, गँवाते नहीं हो ख़ुद में साधारणता का स्पर्श
अगर ना तो शत्रु ना ही प्यारे मित्र तुम्हें आहत कर सकते हैं
अगर हर सह-जीवी का तुम्हारे लिए महत्व है, और कोई उनमें विशिष्ट नहीं है
अगर तुम एक निर्दयी मिनट के दरमियाँ
भर सकते हो
लंबी दौड़ के लिए मूल्यवान साठ सेकेंड्स
..तो ये जहान तुम्हारा है, और वो सबकुछ जो इसमें है
औरइस सबसे बढ़करतुम इंसान होगे, मेरे बच्चे!

Friday, June 26, 2020

शहर से कोरोना को निकालना जरुरी है


शहर से कोरोना को निकालना जरुरी है
असम की राजधानी गुवहाटी में कोरोना संक्रमण के मामले तेजी से बढ़ रहें है, जिसकी वजह से सोमवार से 14 दिनों का लॉकडाउन लगाया गया है l मुंबई में स्थित एशिया की सबसे बड़ी बस्ती धारवी में संक्रमण का सबसे बड़ा खतरा था, क्योंकि वहां पर जनसँख्या घनत्व इतना ज्यादा था कि लोग एक दुसरे के संपर्क में लगातार आ रहें थे l पर महाराष्ट्र सरकार ने संक्रमण का तेजी से पीछा करते हुए एक कारगर योजना के तहत काम करते हुए, वहां संक्रमण को फैलने से रोकने में सफल हुई l इसका मुख्य कारण था संक्रमण को पहली अवस्था में ही रोकना l मुंबई के नगर निगम में वहां पर स्थाई शिविर लगा दिए, जिसमे डॉक्टरों की टीम मुश्तैदी से कार्य कर रही थी l गुवाहाटी में भी अब मामले बढ़ने से सभी वार्डों में टेस्टिंग शिविर लगाये गए हैं, जिसमे आम आदमी अपना स्वाब टेस्ट करवा सकता हैं l धारवी मॉडल कुछ निश्चित बिन्दुवों पर आधारित था- संक्रमण पर निगाह रखना, उसपर तेजी से वार करना और फिर संक्रमित को अलग कर उसका इलाज करना l धारावी में जब कोरोना फैलना शुरू हुआ तो धीरे-धीरे पूरा इलाका ही कंटेनमेंट जोन बन गया। उसके बाद से प्रशासन ने जैसा काम किया, उसने पूरी तस्वीर ही बदलकर रख दी। अप्रैल से अब तक 47,500 घरों में जाकर अधिकारी लोगों के शरीर के तापमान और ऑक्सिजन की जांच कर चुके हैं। लगभग सात लाख लोगों की स्क्रीनिंग हो चुकी है। जिनमें थोड़े बहुत लक्षण दिखे, उन्हें क्वारंटीन सेंटर बनाए गए स्कूलों और स्पोर्ट्स क्लब्स में भेज दिया गया। असम में भी स्वास्थ्य विभाग ने कोविद संक्रमण को जिस तरह से संभाला है, उसकी चर्चा पुरे देश में हैं l स्वास्थ्य मंत्री में अपने पूरा समय कोरोना संक्रमण को रोकने में दे रहे है, जो काबिले तारीफ है l लगता है कि गुवाहाटी में भी धारवी मॉडल को अपनाया जा रहा है, जिसके के परिणाम हमे आने वाले दिनों में देखने को मिल जायेंगे l जनसँख्या घनत्व वाले इलाकों में सबसे पहले लॉकडाउन लगाया गया l जिन इलाकों में सामाजिक दुरी बनाना मुश्किल है, वहां पर स्वास्थ्य विभाग को कारगर ढंग से कार्य करना होगा l अब पुरे गुवाहाटी में लॉकडाउन की घोषणा की गई है l
कोरोना के बढ़ते संक्रमण के दौरान पिछले दिनों देश ने चीन सीमा पर अपने 20 सैनिक खो दिए l पाकिस्तान के साथ लगातार एक छद्म युद्ध जारी है, जिसकी वजह से पाकिस्तान सीमा पर रुक रुक कर बिना के चेतावनी के होने वाली का गोलीबारी से हर दफा सैनिक शहीद हो जातें है l उधर चीन के उकसावे पर भारत के एकमात्र हिन्दू निवासियों के देश नेपाल ने भी सीमा विवाद खड़ा कर दिया है l कहते है कि वामपंथियों की सरकार ने चीन का खुला समर्थन किया है l दुश्मन के दोस्त को अपनी तरफ करके चीन अपनी कुटिल चाल में सफल हो गया है l इसके अलावा पिछले मार्च से देश भर में जारी लॉकडाउन की वजह से लोग परेशान हो ही रखे हैं l कईयों ने अपने व्यापार खोएं हैं l स्टार्ट अप से लेकर जमे-जमाये व्यापार को कईयों ने खोते हुए देखा है l असम में जब बाढ़ आती है, तब नदी के किनारे बाढ़ के बढे हुए पानी से फ़ैल जाते हैं l भू क्षरण हो कर किनारे पर बसे हुए मकान कई बार नदी में बह जातें हैं l गुवाहाटी के करीब बसा हुवा पलाशबाड़ी भू कटाव का शिकार कई बार हो चूका हैं l इसके समीप कई गावं ब्रह्मपुत्र के बह गए थें l बाढ़ के दौरान कब कटाव हो जाय, कब पानी एकाएक घरों में घुस कर तबाही मचाने लगता है, इसका अंदाजा सहज ही नहीं लगता और एक मजबूत मकान भी अचानक नदी में समा सकता है l मकान का स्वामी अपनी किस्मत पर रोने के अलावा कुछ नहीं कर पाता l कोचकडाउन के बाद कई लोग, जो आमतोर पर एक सम्मान भरी जिंदगी गुजार रहे थें, मानसिक रूप से टूट कर अवसाद में घिर गए है l बोलीवुड में उभरते हुए होनहार कलाकार सुशांत सिंह राजपूत कुनबा-परस्ती का शिकार हो गए और मानसिक रूप से टूट कर उन्होंने आत्महत्या कर ली l लॉकडाउन के बीच देश में इस तरह की विचलित करने वाली घटनाओं से लोग अलग से परेशान हैं l घरेलु हिंसा, बलात्कार और चोरी-डैकेती की घटनाएँ कम नहीं हुई l लगता है कि अपराध करने की प्रवृति कोरोना के संक्रमण के संकट के दौरान भी विद्यमान है l या, इसको इस तरह से कहेंगे कि अपराध के लिए एक नया दल बन गया है, कुछ बेरोजगार हो कर अपराधिक गतिविधियों में संलग्न हो गए हैं l पर इसे हमारे सभ्य समाज की सबसे बड़ी विफलता नहीं कहेंगे तो क्यां कहेंगे l