Friday, December 4, 2020

असमिया बोली से परहेज क्यों ?

 

असमिया बोली से परहेज क्यों ?

असम में सन 1960 में एक बड़ा भाषा आंदोलन हुवा था, जिसके बाद असमिया भाषा को असम के तीन जिलों को छोड़ कर सभी जिलों में सरकारी भाषा के रूप में घोषित किया गया l इस आंदोलन से असमिया भाषा को ना सिर्फ सरकारी मान्यता मिली, बल्कि उसके बोलनेवालों को एक पहचान मिली l ब्रहमपुत्र घाटी में असमिया बोलने वालों की संख्या करीब 2 करोड़ है, जबकि असम में फैले हुए जनगोष्ठियों के लोगों की बोलिया थोड़ी भिन्न है, पर आम तोर पर वें असमिया भाषा ही लेखन कार्य में उपयोग करते हैं l अब बात करते है राज्य में रह रहे हिंदी भाषियों की या अन्य भाषा-भाषियों की जो राज्य में पिछले तीन सौ साल से असम में रह रहें हैं l इसमें राजस्थानी लोगों की संख्या भी बहुतायत में है, जिन्होंने यहाँ के उद्योग और वाणिज्य को बखूबी संभाल रखा है, जिनको असम में मारवाड़ी कह कर संबोधित किया जाता हैं l जब सन 1828 में नौरंगराय अगरवाला असम पहली बार राजस्थान से आये थे, तब उनको क्या पता था कि उनके वंशज, असम की कला संस्कृति का एक स्तम्भ और एक अभिन्न अंग बन जाएंगे l नौरंगराय अगरवाला की बाद की पीढ़ियों ने ना सिर्फ असमिया को अपनाया, बल्कि उसकी सेवा भी की l जिसका नतीजा यह निकला कि असमिया कला, भाषा-संस्कृति को एक मजबूती मिली और उसका विस्तार असम के चारों कौनों में होने लगा l उस परिवार ने गीत और नाटकों के माध्यम से नव-जागरण शुरू किया, जिससे असमिया लोगों को सम्पूर्ण भारतवर्ष में पहचान मिलने लगी l बाद में असम आंदोलन ने यहाँ के लोगों को एक नई पहचान दी थी l किसी भी राज्य की संस्कृति को आत्मसात करने के पहले वहां की बोली और भाषा को सर्वप्रथम अपनाना होगा, तभी उसके मर्म को समझा जा सकता है l राजस्थानी मूल के लोगों को हिंदी भाषी के रूप में चिन्हित किया जाने लगा है, जिसकी मुख्य वजह है उनके के खुद की संस्कृति का तिल मात्र भी प्रचार ना होना l एक समृद्ध संस्कृति के वाहक मारवाड़ी समुदाय के लोग ना सिर्फ अपनी बोली, भाषा और संस्कृति को तो छोड़ ही रहे है उपर से हिदी को भी तोड़-मरोड़ कर बोल रहे हैं l इस गड़बड़झाले की वजह से इनकी पहचान किसी जनागोष्ठी या भाषाई अल्पसंख्यक के रूप में नहीं हो कर हिंदी भाषी के रूप में होने लगी है l जबकि इस तथ्य से किसी को कोई परहेज नहीं है कि असमिया भाषा की सेवा करने वाले 100(संख्या सांकेतिक है) ऐसे मारवाड़ी असम के चारों कौनों में मिल जायेंगे, जिन्होंने अपनी लेखनी द्वारा असमिया भाषा को उन्नत किया है l ऐसे कई मारवाड़ी परिवार मिल जायेंगे, जिहोने असमिया भाषा-संस्कृति को अपना लिया है l ऐसे उदहारण असम में सर्वत्र मिल जायेंगे, जिन्होंने असमिया भाषा के द्वारा असमिया आमजनों के बीच अपनी पहचान छोड़ी हैं l फिर भी इस समुदाय के लोगों को एक अलग मान्यता नहीं मिल पाई है l इसका कारण ढूंढे जाने जरुरत है l एक कारण जो मैंने जाना है, वह है, असमिया बोली के प्रति असंवेदनशीलता और अनदेखी l भाषा खिखने कि बात तो अभी छोड़ ही देतें हैं l बोलने के परहेज ने लोगों में एक नकारात्मक छवि बन दी हैं l दुकानों में जब ग्राहक आते हैं, तब वें पूछते है कि क्या आपको असमिया आती है l कई दफा, वर्षों से यहाँ रहने वला व्यक्ति शर्मशार हो कर बगले झाँकने लगता है और लजाते हुए जबाब देता है की थोड़ी थोड़ी l असम में भाषा संस्कृति एक संवेदनशील विषय है l एक सत्य यह भी है कि एक बोली-एक भाषा, एक सम्पूर्ण संस्कृति होती होती है l हर सौ वर्षों में ना जाने कितनी बोलियाँ इतिहास में विलीन हो जाती हैं l मारवाड़ी इलाके की कई बोलियों के साथ भी यही होने वाला है l जब एक परिवार में तीसरी पीढ़ी या चौथी पीढ़ी अपनी मातृभाषा को छोड़ कर हिंदी या अन्य भाषा बोलने लगता है, तब यह तय है कि वह बोली लुप्त होने वाली है l असमिया भाषा ने अपने उदय काल में(सन 1900 के पश्चात) गीतों और कविताओं के माध्यम से एक वजूद बनाया है l अपनी भाषा को समृद्ध कर इसका व्यापक विस्तार किया है l नहीं तो विभिन्न समय में असम में प्रवर्जन कर रहे लोगों ने कभी का यहाँ की भाषा को तोड़ मरोड़ कर रख दिया होता l पर संवेदनशील असमिया ने अपनी भाषा को बचा कर एक संस्कृति को समूचे भारत वर्ष में प्रचारित किया है l

असमिया बोली को बोलने की जरुरत इसलिए भी है क्योंकि जो लोग यहाँ के हो गए है, परिवार, जमीन यही है, वर्षों से यही रह रहें है, रिश्तें-नाते यही है, उनको स्थानीय स्थानीय से एक संवाद का माहोल बनाने की जरुरत होगी, जिससे यह नहीं लगे कि इस समुदाय के लोग अलग है l असमिया बोली एक सेतु का कार्य कर सकती है l अब देवकी और योशोधा दोनों यही है, दोनों ही प्यार निछावर कर रही है l             

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