Sunday, December 19, 2010

बदलाव और बिखराव

हम एकल परिवार की कल्पना करतें करतें इस स्तर पर पहुच गएँ है, कि अब एकलता खलने लगी है। युवाओं में बढ़ी प्रतिभा ने सामाजिकता के नए उपक्रम बनने लगे है। मानव मूल्यों के र्हास के साथ ही एक नयी सामाजिकता ने जन्म ले लिया है, जो सबको भा रही है। समाजशास्त्रियो ने इस स्थिति को खतरनाक और अससंस्कारी बतायाँ है। अब अपनेपन की बातें किसी ट्रेड की टर्म्स एंड कान्डिसन सी लगने लगी है. गिवे एंड टेक का बोलबाला है। इस विषय पर और बातें कर्नेगे..क्रमश

Sunday, October 24, 2010

जंगल और समाज

इस बात पर न जाने कितनी बार बहस हो चुकी है है, कि समाज नामक प्रतिष्ठान और अनियंत्रित जंगल में किस तरह के फर्क है। हर बार इन्सान ही जीतता है, क्योंकि परिवारों से समाज का गठन होता है, जो एक दुसरे का सुख और दुःख में परष्पर रूप से ख्याल रख कर सामाजिकता का परिचय देते है। शायद इसी को समाज कहते है। इसी समाज में रहने वालें लोगो के लिए हमने आचार संहिता बनाई ,जो सामाजिक सरोकारों को चिन्हित करके उनको अघोषित नियमो की शक्ल में परिवर्तित करते है। यह फर्क हमें जंगल में नहीं मिलता। वहा एक मुक्त वातावरण रहने की वजह से कोई कानून लागू नही होता। कई दफा हमारे देश के लोग यु ही टिपण्णी कर बैठते है कि देश में जंगल के कानून का राज हो गया। शायद वे उस स्थिति का वर्णन करना चाहते है, जहा कोई भी बाधाएँ नहीं होती, एक अराजकता की स्थिति बनी रहती है। इतना ही नहीं कई बार देश में लोकतंत्र होने के बावजूद भी लाठी का बोलबाला होता है, जो अक्सर हुमे चुनाव के दौरान दिखाई देता है। उस समय कुछ जंगली लोग शहर में आ कर लोकतंत्र पर गहरी चोट करतें है, और प्रजातंत्र प्रणाली को ध्वंश कर देतें है। ऐसे लोगो को हम कौन सी संज्ञा देंगे। हिंसा फैलाने वालें आंतकवादी या कुछ शरारती तत्त्व, जो उन्माद फैला कर अपने स्वार्थो की पूर्ति करतें है। जंगल के उन्मादी कानून में रोष है, जो हर किसी को उपने आप को बलवान साबित करने के लिए पूरा अवसर देता है। यह बात समाज में लागू नहीं होती है। समाज में किये गए कार्यों की हर समय समीक्षा होती रही है और आगे भी होती रहेंगी, चाहे कोई कुछ भी सोचे। यहाँ हर किसी को उन नियमो में बांध जाना होगा जिन पर समाज की बुनियादे टिकी रहती है। जो इन नियमो को नहीं मानेगा वह असामाजिक कहलायेगा। असामजिक तत्वों को सख्ती के निपटने के लिए एक मनोबल की जरूरत होती, जो हमें जंगल में नहीं मिलती। वहा किसी के पास समय नहीं की वह किसी विषय पर विवेचना भी करें। वह तो मारो या मरो की स्थिति रहती है। समाज और सामाजिकता दोनों एक सिक्के के दो पहलू है। जहाँ समाज रहेंगा वहा सामाजिकता भी रहेंगी। इसमें मनुष्य रहेंगे ओर कोई नहीं। वे मनुष्य जो समाज को सामाजिकता अपने कार्यो के द्वारा प्रदान करेंगे ओर समाज को उतरोत्तर प्रगति की ओर ले जायेंगे। तभी हम समाज ओर जंगल में फर्क कर पाएंगे। जानवरों को हम क्या सामाजिकता सिखायेंगे, वे ऐसे ही जानवर नहीं कहलाते, इसलिए तो वे जंगल के वासी है। एक प्रश्न यह है भी है कि, क्या हम सामाजिकता के पहलु पर खरे उतर पायें है?

Friday, October 15, 2010

कोमोंवेल्थ का आनंद

देश में कोमोंवेल्थ गेम्स समाप्त हो गए, अब देखना है कि कैसी दिखेगी हमारी राजधानी डेल्ही, जिस पर हमने करोड़ों रुपये खर्च कर डाले। यह तो गनीमत है कि गेम्स भालिंभान्ति समाप्त हो गए और भारतीय खिलाडियों ने अच्छा प्रदर्शन किया और सरकार की नाक बच गयी। एक गरीब देश की आमिर राजधानी में हुवे इस खेल ने कइयो को बेघर किया है। ना जाने कितना व्यापार बाधित हुवा है, पर देश कि इज्जत के लिए सबने साथ दिया और हम एक बार पुरे विश्व के सामने एक ताकतवर देश के रूप में उभर कर आये है। शायद अब हम अगली बार ओलिम्पिक्स का आयोज़न करें। एक अच्छे आयोजन के लिए सभी को बधाई.

Friday, July 16, 2010

भारत और पाकिस्तान में बातचीत क्यों ?

इस बात पर बहस की गुन्जयास है कि भारत और पाकिस्तान क्यों आपस में बात करें, जबके दोनों देश में समस्याएँ बहुत है। यहाँ पाकिस्तान के द्वारा प्रायोजित अंतकवाद है, जिसको, भाजपा के अनुसार, शख्ती से निबटना चाहिए । इसमें कोई दो राय नहीं है कि दोनों देश की सीमा एक साथ होने पर हमें बातचीत करनी चाहेये, पर जब हमारे विदेशमंत्री वह जातें है तब, वे उनकी बेइज्जती करतें है। आज भारत को अन्तराष्ट्रीय समुदाय को बता देना चाहिए किपाकिस्तान बातचीत के मूड में नहीं है। कांग्रेस क्यों डरे पाकिस्तान से। उसे वोट की राजनीति को त्याग कर भारत केमुसलमानों पर विस्वास करना चाहेये। वे उसके साथ है चाहे असम हो या फिर कश्मीर।