Wednesday, December 8, 2021

ये जीवन है, इस जीवन का यही है रंग-रूप....

 ये जीवन है, इस जीवन का यही है रंग-रूप....

‘पिया का घर’ फिल्म के इस भावपूर्ण गीत को गीतकार आनंद बक्षी ने लिखा और किशोर कुमार ने गाया है l 1972 में प्रदर्शित इस फिल्म को इसलिए सराहा गया क्योंकि यह फिल्म एक आम आदमी के परिवार की कहानी है, जो जीवन से जद्दोजेहेद करता है और अपना घर संसार चलाता है l कही ना कही हर एक आम आदमी अपने आप को इस फिल्म में पाता है l गाने के बोल इतने मर्मस्पर्शी और दिल की गहराइयों तक छूने वाले है कि समझ में नहीं आता है कि गाना दुःख का है या ख़ुशी का l जीवन के विभिन्न पहलु को दर्शाता यह गाना संवेदनाओं के गहरे समुद्र में गोता लगाता रहता है, शायद सुनने वाले के सभी दुःख-दर्द समेट लेता है और वह तारो-ताजा हो कर अपने जीवन पथ पर आगे की यात्रा पर निकल पड़ता है l जीवन के फलसफे को गाने में समेटने वाले आनंद बक्शी ने बखूबी जीवन के उतार-चढाव को तो इस गाने में उजागर किया है, साथ ही अक आम आदमी को संबल प्रदान करने का भी कार्य किया है l  

कोई भी कल्पना कर सकता है कि नागालैंड के मोन जिले में मारे गए 14 बेकसूर नागरिकों के परिजनों का क्या हाल हो रहा होगा, जिनमे एक व्यक्ति का विवाह नौ दिनों पहले ही हुवा था l जीवन के क्रूर पंजों ने उनसे उनके परिजनों को छीन लिया, हमेशा के लिए l पूर्वोत्तर के लिए इस तरह की घटना कोई नहीं नहीं है, इससे पहले भी मणिपुर में हेइरान्गोइथोन्ग हत्याकांड के नाम से प्रख्यात घटना में केंद्रीय रिजर्व बल के जवानों ने 14 नागरिकों को गोली मार दी थी, जो फुटबोल मैच देख रहे थें l यह नहीं, आजादी के बाद से ही मणिपुर में इस तरह की दसों घटना घटी है, जिनमे बेकसूर नागरिक मरे हैं l इस तरह की जिंदगी की कल्पना उस नौ दिनों की विवाहिता ने कभी भी नहीं की होगी l इस बड़ी घटना के पश्चात समूचे पूर्वोत्तर में सशस्त्र बल(विशेषाधिकार) कानून को हटाने एक लिए एक जबरदस्त मुहीम शुरू हो चुकी है l असम आंदोलन के समय जब, सेना को यहाँ उतरा गया, तब जबर्दस्त विरोध हुवा और असम आंदोलन के प्रथम शहीद खर्गेश्वर तालुकदार पुलिस के बर्बरता का शिकार हो गया, तब संवेदनाओं का एक जबरदस्त उबार देखने को मिला, आंदोलन और अधिक उग्र हो गया, फिर तो सैकड़ों लोग पुरे आंदोलन के काल में मारे गए l कुल 855 लोग इस कहने को शांतिप्रिय आंदोलन में पुलिस के हाथों मारे गए थे l इसी तरह से मणिपुर और नागालैंड में जहाँ अभी शांति वार्ता चल रही है, ऐसे समय इस तरह की घटना का जाना, शांति वार्ता की पूरी कोशिशों पर पानी फेर सकती है l पूर्वोत्तर हमेशा से ही एक संवेदनशील इलाका रहा है l यहाँ आजादी के बाद विकास की बयार कभी भी नहीं पहुची थी l पिछले दस वर्षों से यहाँ एक योजनबद्ध तरीके से विकास हो रहा है l सडकों का जाल बिछाया जा रहा है l पिछडापन, भिन्नता, असंतोष, गुलाम और उपनिवेश बनाने की भावना का पनपना, कुछ ऐसे कारण है, जिसकी वजह से पूर्वोत्तर में असंतोष शुरू हुवा I यह भावना पिछले 30 वर्षों से लोगों के दिल में विद्यमान है, अधिक स्वायत्तता के लिए आन्दोलन शुरू होने लगे I जब असम में छात्र आन्दोलन शुरू हुआ था, एक ऐसा छात्र आन्दोलन जिसने शासन को भी हिला कर रख दिया था I तब यह मांग उठने लगी थी कि पूर्वोत्तर के राज्यों को भी अन्य राज्यों जैसे सामान अधिकार मिले, संसाधन के उपयोग के बदले उचित पारितोषिक प्राप्त हो I मालूम हो कि पूर्वोत्तर के असम में देश भर के 95% चाय उत्पादित होती है, जिनके स्वत्वाधिकारी देश विदेश के बड़े व्यापारिक घराने से है I तेल और प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर पूर्वोत्तर अपने समग्र विकाश की मांग करने लगा, जिनमे तेल और गैस के खनन पर उचित पारिश्रमिक मुख्य मांगों में शामिल थी l इतना ही नहीं, पडोसी देश बंग्लादेश से आये हुए लाखो  अवैध नागरिकों के निष्कासन छात्र आन्दोलन की एक मुख्य मांग थी I पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों से भी अधिक स्वायत्त की मांगे उठने लगी हैं I भारत द्वारा पूवोत्तर,खास करके असम को एक उपनिवेश की तरह उपयोग करने का आरोप लगते हुए, बुद्धिजीवियों ने इस 6 वर्षों तक चलने वालें आन्दोलन को भरपूर सहयोग दिया था, जिसके चलते स् न 1985 में असम में क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी असम गण परिषद भारी मतों से जीत कर सत्ता में आई थी l क्षेत्रीयता का शुरुआती दौर यही से शुरू हुवा, जो अब तक चल रहा है l

भारत सरकार की लुक ईस्ट योजना स् न 1992 में शुरू हुई, जिसमे यह तय किया गया कि भारत की विदेश नीति के तहत पडोसी देशों के साथ मैत्री बढ़ाई जाएँ, जिससे व्यापार और अन्य तरह के आदान प्रदान हो सके I इसके लिए यह जरुरी हो जाता है कि भारत पूर्वोत्तर क्षेत्र को एक महत्पूर्ण स्थान प्रदान कर, उसका समग्र विकास किया जाय l

इन तमाम उलझनों और कोलाहलों के बीच भी पूर्वोतर के लोग बेहद उर्जावान बने रहने के लिए हमेशा जद्दोजहेद करते हैं l मिजोरम के लोग खुशियों के ग्राफ में देश में सबसे उपर है l वनस्पतिओं और प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर पूर्वोत्तर अब विकास के मार्ग पर चल पड़ा है, जिसके लिए अब नयी दिल्ली को पूर्वोत्तर की और चाहत भारी नज़रों से देखना होगा l चाहे बात उग्रवादियों से शांति बातचीत की हो, या फिर विषेश आर्थिक योजना हो, यहाँ के लोगो को यह लगना होगा कि उनके साथ कोई सौतेला व्यव्हार नहीं हो रहा है l खुशी की बात यह भी है की पूर्वोत्तर के मुख्य उग्रवादी गुटों जिनमे उल्फा और एनेएससीन के उग्रवादियों ने भारत सरकार से शांति वार्ता के लिए जंगलों से बाहर निकल आयें है, जिसका यहाँ के लोगों ने स्वागत किया है l अंत में गाने के कुछ बोल लिख कर अपनी बात समाप्त कर रहा हूँ l यह ना सोचो इसमें अपनी हार है...उसे अपना लो..जिसमे जीवन की रीत है....हर पल एक दर्पण है l ये जीवन है, इस जीवन का यही है एक रूप-रंग..थोड़े गम है..थोड़ी खुशियाँ है....

  

Saturday, December 4, 2021

जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ

 

जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ

ऐसे हजारों हिंदी भाषी, ,पंजाबी, मराठी और दक्षिण भारतीय मूल के लोग को वर्षों से यहाँ रह रहे है, जिनके बाप दादा यहाँ मर-खप गए, उनके लिए यही उनकी जन्मभूमि है और यही उनकी कर्मभूमि l देश के दुसरे छोर पर उनके ना तो कोई र्नातेदार है, ना ही कोई घर-मकान l ऐसे लोगों में अपने घर-मकान यही बना लिए है, व्यापार का विस्तार भी यही किया है l जब भी उनके बच्चे बाहर पढने के लिए जाते है, उनका परिचय ‘आसाम का’ ही रहता है l ‘असम के होने’ का परिचय वें गौरव से देते है l और क्यों कोई नहीं देगा l यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि असम एक अथिति परायण राज्य है, जहाँ आने वाले सभी के लिए आदर-सत्कार है l जब कोरोना प्रथम ने दस्तक दी थी, तब सभी ने ऐसे लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था की थी, जिनका रोजगार लॉकडाउन की वजह से बंद हो गया था l लगभग सभी समुदाय के लोगों ने आगे आ कर अपने लोगों की तो मदद की ही थी, बल्कि दुसरे समाज के लिए भोजन और राशन प्रदान किया था l सिखों की एक समाजसेवी संस्था खालसा ग्रुप तो आज तक भोजन का लंगर लागा कर यह सेवा अनवरत रखे हुए है l अमृत भंडारा नाम से रसोई चलाने वाले भागचंद जैन तो आज भी समाज के सहयोग से हरियाणा भवन में निशुल्क रसोई चल रहे है l मारवाड़ी युवा मंच ने पुरे लॉकडाउन के दौरान सुखा राशन जरुरतमंदों को बांटा l चाहे शाहनी कावड़ संघ हो, या फिर रोटरी, लाइंस क्लब हो, सभी ने आगे आ कर जरुरतमंदों की मदद की थी l यहाँ गौर करने लायक बात यह थी कि समुदाय या भाषा-भाषी विशेष, जैसी भावना कभी भी बीच में नहीं आई, बस समाज सेवा का जज्बा बना हुवा है l मारवाड़ी युवा मंच ने अपने स्थापना काल से ही सेवा को अपना आधार बनाया है l उसकी एम्बुलेंस सेवा एक समय में ना जाने कितनो की जान बचा चुकी हैं(रेड क्रॉस के बाद मारवाड़ी युवा मंच ही एक ऐसी संस्था थी, जिसके पास सबसे अधिक एम्बुलेंस कार्यरत थी) l कृत्रिम पैर और कैलीपर प्रदान करने वाली यह एक अकेली समाज सेवी संस्था रही है l उल्लेख करने के मतलब यह है कि जिस जगह पर रह कर अर्थ उपार्जन जो लोग कर रहे है, उस जगह पर सामुदायिक सेवा भी बराबर कर रहे हैं l

वर्षों पहले अपनी जड़ों से अलग हो कर नए घरोंदे बनाने का स्वप्न शायद किसी ने नहीं देखा होगा, पर व्यापार करते करते राजस्थान से आने वाले प्रवासियों के लिए यह भूमि अपनी भूमि बन गयी और यहाँ की आबो-हवा अच्छी लगने लगी l अब असम में उनकी जड़े बन चुकी हैं l ज्यादातर लोगों के रिश्तेदार यही रहते हैं l जिनके रिश्तेदार अभी भी राजस्थान में रह रहे है, वें कभी कभार नोस्टालजिक हो कर अतीतजीवी तो नहीं बनते, पर जब प्रताड़ना और उपद्व होते है, तब एकबारगी तो आँखों में आसूं जरुर आ जाते है l जो शख्स होली दिवाली अपने गावं जाता है, वापस आने पर मीठी मीठी जुद्जुदी करने वाले वाकये अपने यार-मित्रों को सुनाता है, और मानो प्रतिध्वनियाँ एक बार तो दीवारों से टकरा कर मन को हरा कर देती है l असीम शक्ति और ताकत से अपनी अश्मिता को तलाश भी करता है है, वह l कोई कल्पना कर सकता है कि मुसाफ़री करने आने वाले हजारों नवजवान, अपने पीछे परिवार को छोड़ कर आसाम आ जाते है l वहा मूल स्थान पर उनका परिवार उनके वापस आने का इन्तेजार करता हैं l यह सिलसिला सैकड़ों वर्षों से चल रहा हैं  l प्रवास का द्वंद्व और प्रवासे होने की यातना किसे कहते है, इस बात को असम में रहने वाले अनासमिया लोग भली भांति समझ सकते हैं l पर समय के साथ उन्होंने भी जीना सीख किया है l स्थानीय समाज के साथ संबंध बनाये, उनकों भी राजस्थान दिखाया,..वह सब कुछ किया जो एक दोस्त एक दुस्र्रे के लिए करता है l फिर भी प्रवासी को दोहरा संघर्ष करना पड़ता है l एक तो अपने को नयी जमीन पर रचने-बसाने का, दूसरा, अपनी जमीन को अंदर बसाने का l नयी जमीन पर रच-बसने वालों के लिए सबसे बड़ी समस्या हैं असमिया भाषा और लोक जीवन l असमिया लोगो में सरल सहज जीवन शैली जीने का एक ढंग है, जिसको समझने के लिए वर्षों बीत जाते हैं l सुख-दुःख, आशा-निराशा हर समुदाय के साथ एक साथ चलती हैं, इसमें जाति की बात नहीं आती है l हर समुदाय के अपने द्वंद्व है, अपने संघर्ष है l जैसे असमिया भाषा को बचाने के लिए असमिया जाति को आज भी संघर्ष करना पड़ रहा है l कछार की बंगला के साथ प्रतिस्पर्धा अभी भी है l पर संवेदनाओं के साथ घिरा हुवा आम असमिया उन्माद और आक्रोश में वर्षों से रह रहे अनासमिया लोगों की तरफ ऊँगली उठाने में गुरेज नहीं करता l ऐसा भी नहीं है कि एक आम असमिया भाषी दुसरे छोर पर रहने वाले लोगों के दुःख-दर्द नहीं समझता, पर अधिक संवेदनशील होने और वर्षों से अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते लड़ते, वह एकाएक भयातुर और अधिक शंकावान हो गया है l अस्सी और नब्बे के दशक में असम में आंदोलन के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था l पहले भाषा आन्दोलन, फिर असम आन्दोलन, ‘का’ आंदोलन, इत्यादि ने सभी के मन में एक डर बैठा दिया है, जिससे दिल्ली की तरफ जाने वाली सड़के उसे अच्छी नहीं भी लगती हैं l इसी सड़क से देश के दुसरे भागों से कोग यहाँ आते है l उल्लेखनीय है कि पड़ोसी राज्य अरुणाचल और मणिपुर में प्रवासियों की भीड़ को रोकने के लिए इनर लाइन परमिट व्यस्था बनी हुई हैं l जनशंख्यिकी के बदलाव का डर अभी भी बना हुवा है l

असम में एक सामाजिक तानाबाना बना हुवा है l सभी समुदाय के लोगों का अपना एक कृत्य है, योगदान है l हमेशा इसे भाषा और संकृति के दायरे में नहीं बांध कर, एक साफ चश्मे से देखने की जरुरत है l इज ऑफ़ बिज़नस के स्थापित होने से असम में व्यापर और राजस्व बाधा ही है, जिसको भी समझना होगा l हर बार अंगुली उठाना, प्रताड़ित करना, धमकी देना किसी भी सभ्य समाज का दृष्टिकोण नहीं हो सकता l राजनीति के तीक्ष्ण बाण मन के अंदर के घायल कर जाते है l इससे कुछ लोगों को ही फायदा होने वाला हैं l सामाजिकता को बचाना जरुरी है l