Saturday, December 4, 2021

जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ

 

जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ

ऐसे हजारों हिंदी भाषी, ,पंजाबी, मराठी और दक्षिण भारतीय मूल के लोग को वर्षों से यहाँ रह रहे है, जिनके बाप दादा यहाँ मर-खप गए, उनके लिए यही उनकी जन्मभूमि है और यही उनकी कर्मभूमि l देश के दुसरे छोर पर उनके ना तो कोई र्नातेदार है, ना ही कोई घर-मकान l ऐसे लोगों में अपने घर-मकान यही बना लिए है, व्यापार का विस्तार भी यही किया है l जब भी उनके बच्चे बाहर पढने के लिए जाते है, उनका परिचय ‘आसाम का’ ही रहता है l ‘असम के होने’ का परिचय वें गौरव से देते है l और क्यों कोई नहीं देगा l यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि असम एक अथिति परायण राज्य है, जहाँ आने वाले सभी के लिए आदर-सत्कार है l जब कोरोना प्रथम ने दस्तक दी थी, तब सभी ने ऐसे लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था की थी, जिनका रोजगार लॉकडाउन की वजह से बंद हो गया था l लगभग सभी समुदाय के लोगों ने आगे आ कर अपने लोगों की तो मदद की ही थी, बल्कि दुसरे समाज के लिए भोजन और राशन प्रदान किया था l सिखों की एक समाजसेवी संस्था खालसा ग्रुप तो आज तक भोजन का लंगर लागा कर यह सेवा अनवरत रखे हुए है l अमृत भंडारा नाम से रसोई चलाने वाले भागचंद जैन तो आज भी समाज के सहयोग से हरियाणा भवन में निशुल्क रसोई चल रहे है l मारवाड़ी युवा मंच ने पुरे लॉकडाउन के दौरान सुखा राशन जरुरतमंदों को बांटा l चाहे शाहनी कावड़ संघ हो, या फिर रोटरी, लाइंस क्लब हो, सभी ने आगे आ कर जरुरतमंदों की मदद की थी l यहाँ गौर करने लायक बात यह थी कि समुदाय या भाषा-भाषी विशेष, जैसी भावना कभी भी बीच में नहीं आई, बस समाज सेवा का जज्बा बना हुवा है l मारवाड़ी युवा मंच ने अपने स्थापना काल से ही सेवा को अपना आधार बनाया है l उसकी एम्बुलेंस सेवा एक समय में ना जाने कितनो की जान बचा चुकी हैं(रेड क्रॉस के बाद मारवाड़ी युवा मंच ही एक ऐसी संस्था थी, जिसके पास सबसे अधिक एम्बुलेंस कार्यरत थी) l कृत्रिम पैर और कैलीपर प्रदान करने वाली यह एक अकेली समाज सेवी संस्था रही है l उल्लेख करने के मतलब यह है कि जिस जगह पर रह कर अर्थ उपार्जन जो लोग कर रहे है, उस जगह पर सामुदायिक सेवा भी बराबर कर रहे हैं l

वर्षों पहले अपनी जड़ों से अलग हो कर नए घरोंदे बनाने का स्वप्न शायद किसी ने नहीं देखा होगा, पर व्यापार करते करते राजस्थान से आने वाले प्रवासियों के लिए यह भूमि अपनी भूमि बन गयी और यहाँ की आबो-हवा अच्छी लगने लगी l अब असम में उनकी जड़े बन चुकी हैं l ज्यादातर लोगों के रिश्तेदार यही रहते हैं l जिनके रिश्तेदार अभी भी राजस्थान में रह रहे है, वें कभी कभार नोस्टालजिक हो कर अतीतजीवी तो नहीं बनते, पर जब प्रताड़ना और उपद्व होते है, तब एकबारगी तो आँखों में आसूं जरुर आ जाते है l जो शख्स होली दिवाली अपने गावं जाता है, वापस आने पर मीठी मीठी जुद्जुदी करने वाले वाकये अपने यार-मित्रों को सुनाता है, और मानो प्रतिध्वनियाँ एक बार तो दीवारों से टकरा कर मन को हरा कर देती है l असीम शक्ति और ताकत से अपनी अश्मिता को तलाश भी करता है है, वह l कोई कल्पना कर सकता है कि मुसाफ़री करने आने वाले हजारों नवजवान, अपने पीछे परिवार को छोड़ कर आसाम आ जाते है l वहा मूल स्थान पर उनका परिवार उनके वापस आने का इन्तेजार करता हैं l यह सिलसिला सैकड़ों वर्षों से चल रहा हैं  l प्रवास का द्वंद्व और प्रवासे होने की यातना किसे कहते है, इस बात को असम में रहने वाले अनासमिया लोग भली भांति समझ सकते हैं l पर समय के साथ उन्होंने भी जीना सीख किया है l स्थानीय समाज के साथ संबंध बनाये, उनकों भी राजस्थान दिखाया,..वह सब कुछ किया जो एक दोस्त एक दुस्र्रे के लिए करता है l फिर भी प्रवासी को दोहरा संघर्ष करना पड़ता है l एक तो अपने को नयी जमीन पर रचने-बसाने का, दूसरा, अपनी जमीन को अंदर बसाने का l नयी जमीन पर रच-बसने वालों के लिए सबसे बड़ी समस्या हैं असमिया भाषा और लोक जीवन l असमिया लोगो में सरल सहज जीवन शैली जीने का एक ढंग है, जिसको समझने के लिए वर्षों बीत जाते हैं l सुख-दुःख, आशा-निराशा हर समुदाय के साथ एक साथ चलती हैं, इसमें जाति की बात नहीं आती है l हर समुदाय के अपने द्वंद्व है, अपने संघर्ष है l जैसे असमिया भाषा को बचाने के लिए असमिया जाति को आज भी संघर्ष करना पड़ रहा है l कछार की बंगला के साथ प्रतिस्पर्धा अभी भी है l पर संवेदनाओं के साथ घिरा हुवा आम असमिया उन्माद और आक्रोश में वर्षों से रह रहे अनासमिया लोगों की तरफ ऊँगली उठाने में गुरेज नहीं करता l ऐसा भी नहीं है कि एक आम असमिया भाषी दुसरे छोर पर रहने वाले लोगों के दुःख-दर्द नहीं समझता, पर अधिक संवेदनशील होने और वर्षों से अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते लड़ते, वह एकाएक भयातुर और अधिक शंकावान हो गया है l अस्सी और नब्बे के दशक में असम में आंदोलन के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था l पहले भाषा आन्दोलन, फिर असम आन्दोलन, ‘का’ आंदोलन, इत्यादि ने सभी के मन में एक डर बैठा दिया है, जिससे दिल्ली की तरफ जाने वाली सड़के उसे अच्छी नहीं भी लगती हैं l इसी सड़क से देश के दुसरे भागों से कोग यहाँ आते है l उल्लेखनीय है कि पड़ोसी राज्य अरुणाचल और मणिपुर में प्रवासियों की भीड़ को रोकने के लिए इनर लाइन परमिट व्यस्था बनी हुई हैं l जनशंख्यिकी के बदलाव का डर अभी भी बना हुवा है l

असम में एक सामाजिक तानाबाना बना हुवा है l सभी समुदाय के लोगों का अपना एक कृत्य है, योगदान है l हमेशा इसे भाषा और संकृति के दायरे में नहीं बांध कर, एक साफ चश्मे से देखने की जरुरत है l इज ऑफ़ बिज़नस के स्थापित होने से असम में व्यापर और राजस्व बाधा ही है, जिसको भी समझना होगा l हर बार अंगुली उठाना, प्रताड़ित करना, धमकी देना किसी भी सभ्य समाज का दृष्टिकोण नहीं हो सकता l राजनीति के तीक्ष्ण बाण मन के अंदर के घायल कर जाते है l इससे कुछ लोगों को ही फायदा होने वाला हैं l सामाजिकता को बचाना जरुरी है l        

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