Friday, May 19, 2017

दिल और दिमाग के संघर्ष में फंसा धर्म
रवि अजितसरिया
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।(रामधारी सिंह दिनकर )

अभी देश में धार्मिक कानूनों और परम्पराओं पर उच्चतम न्यायलय की पांच सदस्यीय बेंच, ट्रिपल तलाक पर बहस कर रही है l इस बहस के शुरू होने से पुरे देश में धर्म और धार्मिक भावनाओं पर लोगों की अलग-अलग राय खुल कर सामने आई है l प्रगतिवादी जनता का यह मानना है कि भारत को अब धर्म और आस्था से निकल कर आगे जाना है जबकि रुढ़िवादी तबका धर्म को जीने का आधार मानता है l चाहे कोई भी धर्म हो, सदियों से भारत में धार्मिक अनुपालनाओं ने बहुसंख्यक समाज को प्रति पल जीवन जीने के गुर सिखाये है l जीवन जीने के गुर हम इसलिए कहते है क्योंकि हर धर्म मानवता के लिए बना हुवा है, जो शांति और संप्रिती का सन्देश देतें है l ना जाने कब से, धर्म और आस्था के नए स्वरुप को लेकर प्रगतिवादियों ने संग्राम किये, और धर्म के विरुद्ध जा कर अपने हिसाब से जीवन को संजोने की कौशिश की है l परम्पराओं के विपरीत जा कर एक नए धर्म की स्थापना भी अभी तक हजारों लोगों ने की है l ईश्वर और भगवान् को अनेको रूपों में धरती पर बसाने की चेष्टा भी की है l मानव ने अपने आप को भगवान् घोषित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है l धर्म गुरुओं ने भारत की सनातन परम्पराओं को जीवित रख कर एक सेतु का कार्य भी किया है l  भारत में, अगर देखा जाये, तब पाएंगे कि भारत एक आस्था प्रधान देश है, जहाँ लोग भगवान् को ढूंढने पहाड़ों पर कठिन यात्रा करतें है, और मन की शांति पातें है l मनुष्य को जब भी धर्म के विश्लेषणों जरुरत पड़ी, इन गुरुओं, दिगम्बरों और पैगम्बरों ने मानव को सही राह दिखाई है l
समय के परिवर्तन के साथ विचार धाराओं और आस्थाओं को मानाने वालों में, शिक्षा के व्यापक प्रचार प्रसार से, व्यापक परिवर्तन देखने को मिल रहें है l संभवतः दिल और दिमाग में एक गहरा संघर्ष इस समय भारतीय समाज के समक्ष चल रहा है, जिसमे राजनीति और आर्थिक कारण भी शामिल है l शायद यह एक परीक्षा की घडी है, जहाँ एक तरफ विज्ञान आधारित सुंदर धरती बसाने की कल्पना है जो तर्क विज्ञान सापेक्ष है और दूसरी और सदियों से चल रहे धार्मिक सिद्धांत, जो इस दुनिया के सञ्चालन का दावा करतें है l इस कठिन घडी में फैसला कुछ तर्कों और सिद्धांतों का हवाला दे कर नहीं हो सकता बल्कि मनुष्य के जन्म और उसकी सामाजिकता, उसके विश्वास को ध्यान में रख कर ही हो सकता है l  
इस बात को भी कोई नकार नहीं सकता कि समय समय पर धार्मिक मान्यताओं और परम्पराओं में विकृतियाँ आई है, जिससे धार्मिक आस्थाओं को मानाने वालों में कमी भी आई है l ये विकृतियाँ इस लिए आई है क्योंकि मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए उन मुलभुत सिद्धांतों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया, जो मानवता के लिए अभिशाप साबित होने लगा l धर्म के उन मुलभुत सिद्धांतों, जो कभी मनुष्य के रहन सहन और सामान्य अचार-व्यवहार को संचालित कर रहें थे, वे अब मनुष्य के लिए अभीशाप बन गयें है l इतने सारे अंतर्विरोध कि प्रगतिवादी विचारधारा के लोगों को यह लगने लगा कि अब यह धर्म उनका धर्म नहीं है, बल्कि एक नए विचार के साथ, मुलभुत विचारों से बिलकुल भिन्न, एक खंडित धर्म उनके सामने पेश किया जा रहा है l ऐसे में अदालतों के समक्ष इस तरह के प्रश्न आने स्वाभाविक है, चाहे वह कोई भी धर्म के क्यों ना हो l इसके अलावा कर्मकांड और पाखंड में लिप्त धर्म ने बची-खुची आशा को भी धूमिल कर दिया है l धर्म के ठेकेदार ही धर्म के दुश्मन बन गये है l धर्म को बाज़ार में ला कर ऐसे खड़ा कर दिया गया कि लोग उससे दूर भागने लगे है l हिंदी फिल्म पीके और ओ माई गॉड कुछ ऐसी ही फिल्मे थी, जिनमे धर्म के स्वरुप पर बहस दिखाई गई है, जिसे लोगों ने पसंद भी किया है  l ऐसा भी नहीं है कि धर्म को मानने वालों की संख्या घटी है, पारिवारिक और सामाजिक कारणों से भी लोग धर्म में आस्था रखते है l दुनिया भर में अभी भी करोड़ों लोगो ऐसे है जो कोई भी धर्म को नहीं मानते l वे मानवता में विश्वास रखतें है l धर्म हमेशा से तर्क का विषय रहा है l कई लोग यह सवाल करतें है कि क्या धर्म के ना होने पर पृथ्वी पर मानवता ख़त्म हो जाएगी ? इस प्रश्न का जबाब, हालाँकि, कुछ भी सटीक नहीं है, पर धर्म मनुष्य के जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है l उसे एक ऐसी शक्ति की जरुरत है, जो उसे मुसीबत की घडी में धीरज और संबल प्रदान करें l धर्म यह सब कर सकता है, बेशर्त व्यक्ति पर वह थोपा नहीं जाए, बल्कि व्यक्ति स्वेच्छा से उसे अपनाये और उसके होने के अहसास में आनंद में डूब जाये l अगर ऐसा नहीं होता तब, लोग धर्म के बाहर अध्यात्म को नहीं तलाशते l उनकी जिज्ञाशाओं का कोई ठोर नहीं है l
धर्म कोई डराने की चीज नहीं है, बल्कि महसूस करने का भाव है l रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, महर्षि अरविन्द और गाँधी जैसे महापुरुषों ने हमेशा से ही धर्म की आवाज को बुलंद किया, एक नई पहचान दी, जिसमे मानव धर्म भी शामिल था l इसलिए आज उनके करोड़ों अनुयायी है, जो धर्म की एक नई व्याख्या को समझने में सक्षम है l इसी भाव को भगवान् महावीर और बुद्द्ध ने भी समझा और मानव धर्म की स्थापना के लिए आध्यात्मिक धर्म की स्थापना की थी, जो विधि-विधानों के परे हो, धर्म गुरुओं के अधीन ना हो l पर ऐसा नहीं हुवा, मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए धर्म को कर्म-काण्ड और तमाम तरह की पूजा-अर्चना के माध्यम से ही पाने का रास्ता अपनाया, जो आज एक ऐसी अवस्था में पहुच गया है कि धर्म लोगों के आपसी भाईचारे का कारण नहीं बन कर, सामाजिक संकीर्णता पैदा कर रहा है l  
वेद उपनिषदों और अनेक धर्मों के धर्म ग्रंथों में निहित तत्वों को समझने के लिए उसे जीवन के यतार्थ और उस प्रभाव करने वाली क्रियाओं को एक साथ समझना होगा, ताकि हम अपने लिए एक ऐसे धर्म का चयन कर सके, जो हमें राह दिखने में सक्षम हो l किसी डर से किया गया ईश्वरीय कार्य, इंसान को मानसिक रूप से कमजोर बना देता है l
मनुष्य के जन्म और सभ्यता के विकास में धर्म का एक बड़ा रोल रहा है, इस बात को हम नकार नहीं सकते l सदियों से धर्म ने मनुष्य को नैतिकता का पाठ पढाया है l धर्म के प्रति आस्था रखने वाले लोग, पाषण युग में भी थे और आज इक्कीसवी सदी में भी है l आज हम एक मानव निर्मित पृथ्वी पर वास करतें है, जहाँ उसके कानून है, मान्यताएं है, जिनको मानना इश्वर को मानाने जैसा है l ईश्वर के होने की जड़े इतनी मजबूत है कि रुढ़िवादी ताकतें तमाम आचार संहिता लगाये, कल्पनाये गढ़े, पर आज का मनुष्य उन आंचार संहिताओं से उपर उठ एक गतिमान संसार का स्वप्न देख रहा है l जिस धर्म के लोगों ने अपने विकास की यात्रा में विज्ञान, समाज शास्त्र और मानवता को स्वंत्रता से अपनाया है, उस धर्म के लोगों ने विकास की नई बुलंदियों को छु कर, पूरी दुनिया पर राज किया है l  


Friday, May 12, 2017

सपनों के दुनिया में भारत का आम आदमी
रवि अजितसरिया

किसी भी बड़े शहर की खासियत होती है, गगनचुम्बी मकानों की लड़ी, चौड़ी-चौड़ी सड़कें जिसपर सरपट दौड़ती हुई लम्बी-लम्बी गाड़ियाँ, शहर हमेशा दुधिया प्रकाश में डूबा हुवा, खाने और रोजमर्रा के जीवन में जरुरत की अनगिनत दुकानें, हमेशा भीड़-भाड़ और हल्ला l भारत के बड़े शहरों में हर तरह से जिया जा सकता है l यानी कम और ज्यादा पैसों में भी l मसलन, कोलकाता जैसे शहर में बीस का नाश्ता मिल सकता है तो हजार का भी l हर इनकम ग्रुप के लिए इस शहर में जगह है l कुछ लोग कहतें है कि कोलकाता के मध्यमवर्ग के लोग आज भी एक संघर्षमय जीवन जीतें है l बड़ी सुबह काम पर लग जातें है, और देर रात तक काम करतें है l कोई बागड़ी मार्किट की बगल वाली तंग गलियों पर डोसा की दूकान लगता है, तो कोई चौरंगी की चौड़ी फुटपाथ पर पूरी-भाजी और भात का ठेला लगता है l सभी अपना कार्य इस बड़े शहर में इतनी खूबसूरती से करतें है कि दूर दूर से लोग शाम होते ही मैदान के पश्चिम कौने में स्थित विक्टोरिया मेमोरियल के सामने वाली सड़क पर चाट और आइसक्रीम के ठेले पर लोगों की भारी भीड़ दिखाई देती है l इसका अभिप्राय यह निकलता है कि भारत में अभी भी संघर्ष और जिजीविषा के बिना मध्यमवर्ग के लिए दो वक्त का खाना मयस्सर नहीं है l इस स्थिति का अगर विश्लेषण किया जाये, तब पायेंगे, कि भारत अभी भी माध्यम वर्गीय भारत है, विकसित या ऐसा कुछ भी नहीं है l ये जो बड़े शहरों में विकास की खनक जो हमें दिखाई देती है, वह सब एक मिथ्या है, छलावा है, पश्चिम को दिखाने के लिए, मोटे रूप में कहा जाये तब कहेंगे कि विदेशी मुद्रा जमा करने के लिए l हम अभी भी अंग्रेजी दासता से मुक्त नहीं हुए है l कुछ लोगों के पास इतना धन है कि समाये नहीं और कुछ लोग सड़क पर भूखे सोने पर मजबूर है l कुछ लोग इसी भारत में रहने के लिए इतने बड़े बंगले बना लेतें है कि उसमे एक दो हज़ार लोगो रह सकते है, और बहुतों के पास झोपडी तक नहीं l कहने के लिए यहाँ गरीबों के लिए सैकड़ों योजनायें चल रही है, पर आज तक उन योजनाओं के लाभ से भारत में गरीब कम नहीं हुए l सभी योजनाओं का लाभ उन लोगों को ज्यादा मिलता है, जो सुबह शाम पार्टी के कार्यालय की चोखट पर खड़े रहतें है l मानो,अंग्रेज साब को सलाम मारने के लिए, भारत के लोग पैदा हुए हो l कब मिलेगी ऐसे लोगों को सामंतवाद के दंश से मुक्ति l एक स्वप्न में जी रहें है भारत के लोग l हम आज भी एक पिछड़ा देश है l कुछ लोगो तो रोजाना पच्चास रुपये से भी कम कमातें है l अब कल्पना की जा सकती है कि ऐसे लोगो कैसे अपने परिवार का भरण पोषण करतें होंगे l उपर से राजनीतिक पार्टियों के नेता उन्हें सपने दिखा कर वोट वसूल लेतें है, और फिर वापस मुड़ कर भी नहीं देखतें l देश में सामान्य तंत्र कुछ ऐसा बना हुवा है कि आम लोगों की समस्या तंत्र को अपने आप दिखाई नहीं देती l कोई जब तक शिकायत नहीं करता, तंत्र जगता नहीं l एक-आध शिकायत से तो बिलकुल ही नहीं l यहाँ के कर्यकयों में जरुरत से ज्यादा कर्मचारी है, पर जब शिकायत करने सरकारी कार्यालय जावो, तब जबाब मिलेगा कि जिम्मेदार अधिकारी छुट्टी पर है, दुसरे दिन आईये l क्या कर्मरत अधिकारीयों को सड़क पर बुझी हुई स्ट्रीट लाईट और उससे सड़क पर पसरा हुवा अँधेरा अपने आप दिखाई नहीं देता ? उन्हें हमेशा शिकायत की जरुरत क्यों आन पड़ती है l अंग्रेजों द्वारा बनाये हुए तंत्र में उपर मंत्री, उनके नीचे सचिव, फिर कमिश्नर, फिर बाबु और फिर इंस्पेक्टर l हुए ना देख रेख के लिए आधा दर्जन सरकारी कर्मचारी, फिर भी शहर की स्ट्रीट लाईट बुझी हुई दिखाई देगी l गावों की बात ना ही करें तो अच्छा है l भारत में थ्री टियर सिस्टम में कही ना कही छेद हो गया है, जिससे वह चरमरा कर अनियंत्रित हो चला है l कभी कभी तो जिसकी लाठी-उसकी भैंस वाली कहावत यहाँ चरितार्थ होती दिखाई देती है l यदा-कदा अंधेर नगरी चौपट राजा, टका सेर खाजा और टका सेर भाजा वाली कहावत भी हमें याद आने लगती है l विवेकानंद, अरविन्द, गाँधी और लचित जैसी महान आत्मा हमें याद आती है, और हम कुछ उनकी तारीफ करतें है तो कुछ उनको दुबारा धरती पर आने के लिए आह्वान भी करतें है l जब जीने का यह संघर्ष असीम वेदनाओं और असफलताओं के बीच से गुजरता है, तब हममे से ही कुछ लोग टूट जातें है और विद्रोह करने लगतें है l यह सब इसलिए होता है, जब वर्त्तमान तंत्र अपना काम ठीक से नहीं करता, और असवेदनशील हो कर, अंग्रेजों की तरह वर्ताव करने लगता है l बड़े-बड़े भाषणों से आम आदमी का पेट नहीं भरता l रोजगार सृजन सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है l कब तक मनरेगा जैसी योजना से जनता की पेट भराई की जाएगी l कब तक सरकारी बाबुओं के एक बड़े तबके को मीटिंगों और राजनेताओं के स्वागत के लिए लगाये जाते रहेंगे l इस स्थिति से हमें जल्द निकलना होगा, नहीं तो इन परिस्थितियों में वास्तविक विकास कम से कम भारत में तो संभव नहीं है l जिस तरह से हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने एक आजाद भारत का स्वप्न देखा था, क्या वह यही भारत है l घोर गरीबी, आपधापी, अराजकता और अविश्वास l एक और अमीरी की पराकाष्ठा है और दूसरी और अभाव और जातिवाद की पराकाष्ठा, दोनों स्थिति इसी समाज में पल-बढ़ रही है, जिसका कोई ठोर दिखाई नहीं दे रहा है l इतनी सारी विषमताएं कि एक आम आदमी चैन से नहीं रह सकता l रोजाना योजनाओ का अम्बार लग रहा है,, पर गरीब तो गरीब ही है, उनके रहने का स्तर भी वही है l बिलकुल फणीश्वर रेणु कि बहुचर्चित पुस्तक मैला आँचल में वर्णित गावं मेरीगंज की तरह, जातिवाद का विभीत्स चहरा l जातिवाद की जड़े अब भारत में इतनी दिखाई नहीं देती, पर जातिवाद के तीखे तेवर अभी भी अपने पैर जमाये हुए है l

भारत एक असीम संभावनाओं का देश है l यहाँ के लोग बड़े आशावादी है, जिन्होंने हजारों वर्षों से कई सभ्यताओं के संघर्ष देखे और सहें है l नए भारत के विकास के लिए संकीर्ण राजनीति से उपर उठ कर जाति विहीन समाज का गठन करना होगा, नहीं तो सभी कोशिशें मंथर गति से चलेगी, जिससे समस्त उर्जाएं व्यर्थ हो जाने की प्रचुर संभावनाएं है l              

Thursday, May 4, 2017

मेरे राम का मुकुट भीग रहा है
 रवि अजितसरिया

“मोरे राम के भीजे मुकुटवा, लछिमन के पटुकवा
मोरी सीता के भीजै सेनुरवा त राम घर लौटहिं।
(मेरे राम का मुकुट भीग रहा होगा, मेरे लखन का पटुका (दुपट्‍टा) भीग रहा होगा, मेरी सीता की माँग का सिंदूर भीग रहा होगा, मेरे राम घर लौट आते)
उपरोक्त शीर्षक देश के महान लेखक, चिन्तक और ललित निबंधकार विद्यानिवास मिश्र के निबंध संकलन का है, जिसे आज इसलिए लिया गया है क्योंकि आज यह वाक्य अचानक प्रासंगिक और सामायिक हो गया है l चारों और राम नाम की गूंज सुनाई पड़ रही है, जिसे कुछ लोग धर्म से जोड़ रहें, तो कुछ उसकी राजनीति कर रहें है l कुछ उसकी खा भी रहें है l राम सिर्फ धर्म और आस्था के प्रतिक नहीं थे, बल्कि आदर्श शासन की प्रतिमूर्ति थे, जिसको लोकतंत्र का एक परिमार्जित रूप अगर कहे, तब कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी l बाल्मीकि रामायण में एक जगह लिखा है कि.. जब से राम का राम के रूप में अभिषेक हुवा है, तभी से अयोध्या में लोगों में एक नई स्फूर्ति दिखाई दे रही है, लोग स्वतः ही अपना-अपना कार्य कर रहे है..l विद्यानिवास मिश्र के निबंध में एक व्यक्ति के चिंतन के स्वरुप को राम के वनवास के समय के साथ जोड़ा गया है, जब राम बनवास गए थे, तब परिस्थितियों के उत्पन्न होने से हर पल को राम के बनवास के साथ जोड़ा जाता था l वे दुःख के क्षण हर पल मन को कचोटते थे l आज के भारत के प्रसंग में अगर यह कहा जाए कि राम के आदर्श राज की जबरदस्त मांग होने लगी है, तब कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी l भारतीय जनता पार्टी जब सन 2014 में पुरे दमखम के साथ दश में सत्ता में आई, तब कुछ इसी तरह के विचार लोगों के मन में उभर कर आये थे, एक नई आशा के साथ लोगों ने इस भगवा पार्टी को शासन पर बिठाया था l तब से आज तक, देश में हजारों बदलाव हुए, कड़े निर्णय लिए गए, तब भी लोगों ने पार्टी का साथ दिया है l उत्तर प्रदेश इसका जीता-जाता उदारहरण है l आर्थिक क्षेत्र में सरकार ने इन तीन वर्षों में अप्रत्याशित प्रगति की है l उसका सकल घरेलु उत्पाद तेजी से बढ़ कर दुनिया के कई प्रगतिशील देशों से आगे है, भारत विश्व की पांचवीं बड़ी आर्थिक महशक्ति बनने कि कागार पर है l उसका विदेशी मुद्रा भण्डार 370 बिलियन डॉलर तक पहुच गया है l देश में लगातार नए प्रकल्पों की घोषणाएं हो रही है l आगामी 1 जुलाई से देश में नया कर ढांचा जीएसटी के आने से विभिन्न स्तर पर लगने वाले कर पर रोक लगेगी, जिससे एक ही भाव में देश में सामान मिलने लगेंगे l इसमें कोई शक नहीं है कि देश बदल रहा है l देश के लोगों के चहरे पर ख़ुशी दिखाई दे रही है l इसका जीता-जाता उदहारण है, चुनावों में भाजपा की जीत l अगर ऐसा नहीं होता तब हाक ही के दिल्ली के निकाय चुनाव में आम आदमी पार्टी जीतती l  

मगर जिस तरह से आर्थिक क्षेत्र में सरकार ने तेजी दिखाई है, उससे आने वाले दिनों में लोगों के जीवन यापन में बढ़ोतरी निश्चित रूप से दिखाई देगी l पर आंतकवाद के मुद्दे को जिस तरह से संभाला गया, उससे घरेलु आंतक और सीमा पर आंतक, दोनों बढ़ गया है l ऐसा माना जा रहा था कि सरकार सख्ती दिखा कर देश से आंतकवाद नाश कर देगी l पर ऐसा नहीं हुवा l देश में आन्तरिक आंतकवादी हमलों में हमारे जवान मर रहें है, सीमा पर पाकिस्तान हमारे जवानों के शवों के साथ दरिंदगी दिखा रहें है l कश्मीर में सेना पर लगातार छात्र पत्थर फेक रहें है l तब शहीद जवानों की विधवाओं को सीता मय्या की मांग भींगती हुई नजर आती है, राम का मुकुट भींगते हुए नजर आता है l जब शहीद जवानों के बच्चे रोते बिलखते हुए सरकार से बदले की कार्यवाई की मांग करती है, तब उस समय तो सरकार कह देती है कि जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा, बदला लिया जाएगा, पर ऐसा नहीं होता, घटना के कुछ ही दिनों बाद, पहले वाली घटना जैसी एक नई घटना दुबारा घट जाती है, मनो देश में खुफिया विभाग विफल हो गया हो l असम के सन्दर्भ अगर देंखे, तब पायेंगे कि भाजपा सरकार शासन आये हुए अब एक वर्ष होने को है l जैसा की 2014  में देश में भाजपा पुरे दमखम के साथ आई थी, ठीक वैसा ही माहोल असम में भी 2016 के समय दिखाई दे रहा था l खास करके हिंदी भाषियों के मन में एक नया उत्साह दिखाई दे रहा था, कि राज्य में एक ऐसी पार्टी सत्ता में आई है, जिसने हमेशा से ही हिंदी भाषियों का साथ दिया, वह हिंदी भाषियों की सुरक्षा और अश्मिता के प्रति संवेदनशील होगी l भ्रष्टाचार के मामले में सरकार ने कुछ बड़ी कार्यवाही करके, राज्य के लोगों के मन में विश्वास जमाया है l अभी राज्य की भाजपा कार्यकारिणी में 11 हिंदी भाषियों कों लेना इस बात का गवाह है कि भाजपा हिंदी भाषियों के प्रति संवेदनशील और सजग है l पर जब हम अख़बारों की सुर्ख़ियों कि और देखतें है तब पातें है कि राज्य के हिंदी भाषियों को राज्य में कानून-व्यवस्था को लेकर भारी आक्रोश और रोष है l तब, यहाँ के हिंदी भाषियों को राम का मुकुट भींगता हुवा नजर आता है, लक्ष्मण का पटुवा भींगता हुवा नजर आता है l पूर्वोत्तर में वास करने वालें लाखों हिंदी भाषियों की जान-माल की सुरक्षा का जिम्मा सरकार पर है l पूर्वोत्तर में रोजगार कर रहें व्यापारियों को अगर खुले मन से व्यापार के लिए प्रोत्साहित किया जाये, तब यह तय है कि पूर्वोत्तर में विकास कि एक नई बयार बहने लगेगी, और जब सर्वांगीण विकास होगा, तब यहाँ के स्थानीय लोगों में भी एक नए उत्साह का संचार होगा l दिल्ली के प्रति पूर्वोत्तर का नजरिया सकरात्मक होगा और उन्हें विश्वास होगा कि भारत में विकास की बयार किस और से बहती है l इस भ्रम को झुठलाया जा सकता है कि दिल्ली से ही विकास की हवा बहती है, जो पूर्वोत्तर राज्यों के पास पहुचते-पहुचते धीमी गति हो कर रुक सी जाती है l असम अपने दमखम पर खड़ा हो सकने में सक्षम है, बस कड़ी राजनैतिक इच्छा शक्ति की जरुरत होगी l   
अनादि काल से हम अपने देश में रामराज्य के बारे में सुनते आ रहे हैं। हर युग में जनता रामराज्य के आने के स्वप्न देखती आई है। रामराज्य का मतलब है, राम जैसे पुण्यपुरुष के शासन में होने वाला राज्य । राजा यदि राम जैसा महायोगी होगा, तभी ऐसा राज्य धरती पर हो सकता है,जिसकी कल्पना लोग आज कर रहें है । अभी देश के लोग, वर्तमान शासन से बड़ी अपेक्षा लगाये हुए है l उनको, शासक की बुद्धिमत्ता, विचारधारा और निर्णयों पर पूरा भरोसा है l