Friday, May 12, 2017

सपनों के दुनिया में भारत का आम आदमी
रवि अजितसरिया

किसी भी बड़े शहर की खासियत होती है, गगनचुम्बी मकानों की लड़ी, चौड़ी-चौड़ी सड़कें जिसपर सरपट दौड़ती हुई लम्बी-लम्बी गाड़ियाँ, शहर हमेशा दुधिया प्रकाश में डूबा हुवा, खाने और रोजमर्रा के जीवन में जरुरत की अनगिनत दुकानें, हमेशा भीड़-भाड़ और हल्ला l भारत के बड़े शहरों में हर तरह से जिया जा सकता है l यानी कम और ज्यादा पैसों में भी l मसलन, कोलकाता जैसे शहर में बीस का नाश्ता मिल सकता है तो हजार का भी l हर इनकम ग्रुप के लिए इस शहर में जगह है l कुछ लोग कहतें है कि कोलकाता के मध्यमवर्ग के लोग आज भी एक संघर्षमय जीवन जीतें है l बड़ी सुबह काम पर लग जातें है, और देर रात तक काम करतें है l कोई बागड़ी मार्किट की बगल वाली तंग गलियों पर डोसा की दूकान लगता है, तो कोई चौरंगी की चौड़ी फुटपाथ पर पूरी-भाजी और भात का ठेला लगता है l सभी अपना कार्य इस बड़े शहर में इतनी खूबसूरती से करतें है कि दूर दूर से लोग शाम होते ही मैदान के पश्चिम कौने में स्थित विक्टोरिया मेमोरियल के सामने वाली सड़क पर चाट और आइसक्रीम के ठेले पर लोगों की भारी भीड़ दिखाई देती है l इसका अभिप्राय यह निकलता है कि भारत में अभी भी संघर्ष और जिजीविषा के बिना मध्यमवर्ग के लिए दो वक्त का खाना मयस्सर नहीं है l इस स्थिति का अगर विश्लेषण किया जाये, तब पायेंगे, कि भारत अभी भी माध्यम वर्गीय भारत है, विकसित या ऐसा कुछ भी नहीं है l ये जो बड़े शहरों में विकास की खनक जो हमें दिखाई देती है, वह सब एक मिथ्या है, छलावा है, पश्चिम को दिखाने के लिए, मोटे रूप में कहा जाये तब कहेंगे कि विदेशी मुद्रा जमा करने के लिए l हम अभी भी अंग्रेजी दासता से मुक्त नहीं हुए है l कुछ लोगों के पास इतना धन है कि समाये नहीं और कुछ लोग सड़क पर भूखे सोने पर मजबूर है l कुछ लोग इसी भारत में रहने के लिए इतने बड़े बंगले बना लेतें है कि उसमे एक दो हज़ार लोगो रह सकते है, और बहुतों के पास झोपडी तक नहीं l कहने के लिए यहाँ गरीबों के लिए सैकड़ों योजनायें चल रही है, पर आज तक उन योजनाओं के लाभ से भारत में गरीब कम नहीं हुए l सभी योजनाओं का लाभ उन लोगों को ज्यादा मिलता है, जो सुबह शाम पार्टी के कार्यालय की चोखट पर खड़े रहतें है l मानो,अंग्रेज साब को सलाम मारने के लिए, भारत के लोग पैदा हुए हो l कब मिलेगी ऐसे लोगों को सामंतवाद के दंश से मुक्ति l एक स्वप्न में जी रहें है भारत के लोग l हम आज भी एक पिछड़ा देश है l कुछ लोगो तो रोजाना पच्चास रुपये से भी कम कमातें है l अब कल्पना की जा सकती है कि ऐसे लोगो कैसे अपने परिवार का भरण पोषण करतें होंगे l उपर से राजनीतिक पार्टियों के नेता उन्हें सपने दिखा कर वोट वसूल लेतें है, और फिर वापस मुड़ कर भी नहीं देखतें l देश में सामान्य तंत्र कुछ ऐसा बना हुवा है कि आम लोगों की समस्या तंत्र को अपने आप दिखाई नहीं देती l कोई जब तक शिकायत नहीं करता, तंत्र जगता नहीं l एक-आध शिकायत से तो बिलकुल ही नहीं l यहाँ के कर्यकयों में जरुरत से ज्यादा कर्मचारी है, पर जब शिकायत करने सरकारी कार्यालय जावो, तब जबाब मिलेगा कि जिम्मेदार अधिकारी छुट्टी पर है, दुसरे दिन आईये l क्या कर्मरत अधिकारीयों को सड़क पर बुझी हुई स्ट्रीट लाईट और उससे सड़क पर पसरा हुवा अँधेरा अपने आप दिखाई नहीं देता ? उन्हें हमेशा शिकायत की जरुरत क्यों आन पड़ती है l अंग्रेजों द्वारा बनाये हुए तंत्र में उपर मंत्री, उनके नीचे सचिव, फिर कमिश्नर, फिर बाबु और फिर इंस्पेक्टर l हुए ना देख रेख के लिए आधा दर्जन सरकारी कर्मचारी, फिर भी शहर की स्ट्रीट लाईट बुझी हुई दिखाई देगी l गावों की बात ना ही करें तो अच्छा है l भारत में थ्री टियर सिस्टम में कही ना कही छेद हो गया है, जिससे वह चरमरा कर अनियंत्रित हो चला है l कभी कभी तो जिसकी लाठी-उसकी भैंस वाली कहावत यहाँ चरितार्थ होती दिखाई देती है l यदा-कदा अंधेर नगरी चौपट राजा, टका सेर खाजा और टका सेर भाजा वाली कहावत भी हमें याद आने लगती है l विवेकानंद, अरविन्द, गाँधी और लचित जैसी महान आत्मा हमें याद आती है, और हम कुछ उनकी तारीफ करतें है तो कुछ उनको दुबारा धरती पर आने के लिए आह्वान भी करतें है l जब जीने का यह संघर्ष असीम वेदनाओं और असफलताओं के बीच से गुजरता है, तब हममे से ही कुछ लोग टूट जातें है और विद्रोह करने लगतें है l यह सब इसलिए होता है, जब वर्त्तमान तंत्र अपना काम ठीक से नहीं करता, और असवेदनशील हो कर, अंग्रेजों की तरह वर्ताव करने लगता है l बड़े-बड़े भाषणों से आम आदमी का पेट नहीं भरता l रोजगार सृजन सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है l कब तक मनरेगा जैसी योजना से जनता की पेट भराई की जाएगी l कब तक सरकारी बाबुओं के एक बड़े तबके को मीटिंगों और राजनेताओं के स्वागत के लिए लगाये जाते रहेंगे l इस स्थिति से हमें जल्द निकलना होगा, नहीं तो इन परिस्थितियों में वास्तविक विकास कम से कम भारत में तो संभव नहीं है l जिस तरह से हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने एक आजाद भारत का स्वप्न देखा था, क्या वह यही भारत है l घोर गरीबी, आपधापी, अराजकता और अविश्वास l एक और अमीरी की पराकाष्ठा है और दूसरी और अभाव और जातिवाद की पराकाष्ठा, दोनों स्थिति इसी समाज में पल-बढ़ रही है, जिसका कोई ठोर दिखाई नहीं दे रहा है l इतनी सारी विषमताएं कि एक आम आदमी चैन से नहीं रह सकता l रोजाना योजनाओ का अम्बार लग रहा है,, पर गरीब तो गरीब ही है, उनके रहने का स्तर भी वही है l बिलकुल फणीश्वर रेणु कि बहुचर्चित पुस्तक मैला आँचल में वर्णित गावं मेरीगंज की तरह, जातिवाद का विभीत्स चहरा l जातिवाद की जड़े अब भारत में इतनी दिखाई नहीं देती, पर जातिवाद के तीखे तेवर अभी भी अपने पैर जमाये हुए है l

भारत एक असीम संभावनाओं का देश है l यहाँ के लोग बड़े आशावादी है, जिन्होंने हजारों वर्षों से कई सभ्यताओं के संघर्ष देखे और सहें है l नए भारत के विकास के लिए संकीर्ण राजनीति से उपर उठ कर जाति विहीन समाज का गठन करना होगा, नहीं तो सभी कोशिशें मंथर गति से चलेगी, जिससे समस्त उर्जाएं व्यर्थ हो जाने की प्रचुर संभावनाएं है l              

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