एन आर सी पर सामाजिक
संस्थाए क्या कर रही है
लोकतंत्र में दबाब
की राजनीति का बड़ा महत्व है, चाहे वह सामने आ कर हो या फिर नेप्पथ्य में हो कर की
जाए l ऐसे दबाब समूह होते है, जो सत्ता को निर्णय बदलने में बाध्य कर देतें है l
जब भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई तब, कुछ ऐसा नहीं हुवा कि अंग्रेज रातो-रात
दिल्ली छोड़ कर चले गए l सामने से दबाब के लिए स्वतंत्रता आन्दोलन और पीछे से
राजनैतिक तरीके से दबाब डाला गया, जिसके फलस्वरूप अंग्रेजों ने भारत छोड़ने का
निर्णय लिया l जब असम आन्दोलन हुवा, तब वह छह वर्ष चला, खूब प्रदर्शन और हड़तालें
हुई, पर दबाब की राजनीति भी खूब चली l तब जा कर एक समझोता हुवा, जिसे हम असम
समझोता के नाम से जानते है l दबाव समूह ऐसे हित समूह होतें है, जो सार्वजनिक
नीतियों को प्रभावित करके कुछ विशेष हितों को सुरक्षित करने के लिये काम करते हैं।
वे किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन नहीं करते तथा अप्रत्यक्ष रूप से काम करते
हैं, परंतु ये बड़े शक्तिशाली
समूह होते हैं, जो निर्णय को प्रभावित करने की क्षमता रखतें है । लोकतंत्र को
मज़बूत करने के लिये और सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्य को प्राप्त करने में दबाव
समूह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दबाव समूहों के माध्यम से नीति-निर्माताओं
को यह पता चलता है कि कैसे कुछ विशेष मुद्दों पर जनता क्या अनुभव करती है। तमाम आलोचनाओं
के बावजूद भी दबाव समूहों का अस्तित्व लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये अनिवार्य है।
दबाव समूह राष्ट्रीय और विशेष हितों को बढ़ावा देते हैं तथा नागरिकों एवं सरकार के
बीच संवाद का एक ज़रिया बनते हैं। इस समय राज्य में हिंदी भाषियों की संस्थाओं को
एक मजबूत दबाब समूह बनना होगा, जो बाहर से और अंदर से, दोनों, और से केंद्र पर
दबाब बनाये, जिससे बड़ी संख्या में एन आर सी में छुटे हुए नामों को
वापस डाला जा सके l वर्षों से हिंदी भाषियों ने कभी भी इस तरह से कोई मांग नहीं
रखी है l ना तो कभी अपने लिए आरक्षण की मांग की है ना ही आंदोलन, प्रदर्शन, तालाबंदी आदि के
द्वारा अपनी मांग मनवाने का प्रयत्न किया है l अब समय आ गया है कि हिंदी भाषियों
के संगठन एन आर सी को लेकर सगज हो जाए, जिससे उनकी आने वाली पीढ़ी गर्व से सिर ऊँचा
करके असम में रह सके l हिंदी भाषी लोगों की सामाजिक संस्थाएं किस तरह से अपने
लोगों के नाम अंतिम एन आर सी में डलवाने के लिए क्या क्या प्रयास कर रही है, इसकी
सुचना लोगों तक जरुर पहुचनी चाहिये l यह बात एक इनफार्मेशन और सहायता सेंटर खोल कर
भी कही जा सकती है l इस बात में कोई दो राय नहीं है कि इन वर्षों में बहुत सी नई संस्थाए
अपने लोगों के हितों की रक्षार्थ कार्य कर रही है है, पर वे कार्य सिर्फ आयोजनों
तक ही सीमित रहते है l गावं, शहर और कसबे के नाम से बनी हुई संस्थाओं को क्या एन
आर सी से कोई मतलब नहीं है ? क्या उनको आगे आ कर बड़ी अम्ब्रेला आर्गेनाईजेशन के
हाथ मजबूत नहीं करने चाहिये ? धर्म-कर्म करने वाली कई बड़ी संस्थाओं को क्या इस महत
कार्य में हाथ नहीं बंटाना चाहिये ? इस बड़े अभियान में हर तरह की निति को अपनाना
होगा, नहीं तो वांछित परिणाम की आशा नहीं की जा सकती l यह भी समझी जानी चाहिये कि
आंदोलनों में धन की बहुत आवश्यकता होती है, कई बार धन के अभाव में उचित प्रबंधन
नहीं होता, जिससे आंदोलनों की आगे की रणनीति बाधित होती है l इस समय हिंदी भाषियों
के लिए असम आन्दोलन के पश्चात अस्तित्व का प्रश्न दुबारा आया है, जिसको पार लगाना
आवश्यक है l कई दबाब समूहों ने आबादी के शोषण के खिलाफ आंदोलन की अगुवाई की है और
सरकार को निर्णय बदलने पर विवश किया है l इन दबाव समूहों को हितैषी समूह भी कहा
जाता है l इनकी इच्छा सरकार में प्रभाव बनाकर अपने सदस्यों की रक्षा व हितों को
बढ़ाना होता है l दबाव समूह विधिक और
तर्कसंगत तरीकों द्वारा सरकार की नीति निर्माण व निर्धारण को प्रभावित करते हैं l जैसे कि सभाएं करना, पत्राचार,जन-प्रचार,जन वाद-विवाद आदि l हालांकि ये कभी-कभी लोकहितों और प्रशासनिक एकता
को नष्ट करने वाले अतर्कसंगत और गैर-विधिक तरीकों का आश्रय लेते हैं, जैसे कि हड़ताल और हिंसक गतिविधियां,भ्रष्टाचार आदि l लेकिन फिर भी इन्हें किसी व्यवस्था का एक अभिन्न
अंग माना जाता है! लोकतंत्र में भीड़ का भी बहुत महत्त्व है l नहीं तो एक बड़े नेता
के एक शहर में भाषण के आयोजन पर पर गावं-गावं से लोगों को बसों में भर कर, खाना और
पानी के प्रलोभन पर, शहर नहीं लाया जाता, यह जानते हुए भी उन लोगों को नेता के
भाषण से कोई मतलब नहीं l फिर भी भीड़ इकट्ठी करनी बहुत जरुरी है l भीड़ यह बता देती
है कि आयोजक कितना सक्रिय है l असम आन्दोलन के समय तब डिप्टी कमिश्नर के कार्यलय
के सामने छात्रों के प्रदर्शन होतें थे, और कानून उलंघन कर छात्र गिरफ्तारी देतें
थे, तब छात्र यह जानते थे, कि इस प्रदर्शन से कोई मसला तुरंत हासिल नहीं होने वाला,
पर एक बड़ी भीड़ एसी कमरे में बैठे उस बड़े बाबु के माथे पर पसीने जरुर ले आती थी l कोई
भी कल्पना कर सकता है कि एक ही समय जब सभी जिला और मंडल कार्यालयों के सामने
प्रदर्शन हो रहें होते थें, तब सरकार पर कितना दबाब बनता था l ठीक इसी तरह से एन
आर सी के मुद्दे पर सरकार पर दबाब बनाना उतना ही जरुरी है, जितना एक शांत नदी में
एक मछुवारे द्वारा मछली पकड़ने के लिए जाल बिछाना, और फिर चुप-चाप नाव में इन्तेजार
करना l इस समय असम के लिए और खास करके हिंदी भाषियों के लिए भी एक परीक्षा का समय
है, जिसको मिड-टर्म या छमाही तो बिलकुल भी नहीं समझा जाना चाहिये l
असम में एन आर सी को
लेकर इस समय हिंदी भाषियों के पास समय बहुत कम है, क्योंकि आगामी 28 तारीख से
क्लेम, इत्यादि, के फॉर्म लिए जायेंगे l जिनके पास दस्तावेज नहीं है, उनके फॉर्म
नहीं लिए जायेंगे l अब लोग दस्तावेज कैसे संग्रह करेंगे, यह एक लाख टेक का प्रश्न
है l फिलहाल, 1971 के पहले की वोटर लिस्ट के लिए लोगो मारे-मारे फिर रहें है l
क्या ऐसी कोई व्यवस्था हो सकेगी कि लोगों को 1971 की मतदाता सूची में नाम देखने की
सहूलियत मिल जाए, जिसको टंकित करके लोगो क्लेम फॉर्म जमा दे सके l