Friday, May 19, 2017

दिल और दिमाग के संघर्ष में फंसा धर्म
रवि अजितसरिया
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।(रामधारी सिंह दिनकर )

अभी देश में धार्मिक कानूनों और परम्पराओं पर उच्चतम न्यायलय की पांच सदस्यीय बेंच, ट्रिपल तलाक पर बहस कर रही है l इस बहस के शुरू होने से पुरे देश में धर्म और धार्मिक भावनाओं पर लोगों की अलग-अलग राय खुल कर सामने आई है l प्रगतिवादी जनता का यह मानना है कि भारत को अब धर्म और आस्था से निकल कर आगे जाना है जबकि रुढ़िवादी तबका धर्म को जीने का आधार मानता है l चाहे कोई भी धर्म हो, सदियों से भारत में धार्मिक अनुपालनाओं ने बहुसंख्यक समाज को प्रति पल जीवन जीने के गुर सिखाये है l जीवन जीने के गुर हम इसलिए कहते है क्योंकि हर धर्म मानवता के लिए बना हुवा है, जो शांति और संप्रिती का सन्देश देतें है l ना जाने कब से, धर्म और आस्था के नए स्वरुप को लेकर प्रगतिवादियों ने संग्राम किये, और धर्म के विरुद्ध जा कर अपने हिसाब से जीवन को संजोने की कौशिश की है l परम्पराओं के विपरीत जा कर एक नए धर्म की स्थापना भी अभी तक हजारों लोगों ने की है l ईश्वर और भगवान् को अनेको रूपों में धरती पर बसाने की चेष्टा भी की है l मानव ने अपने आप को भगवान् घोषित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है l धर्म गुरुओं ने भारत की सनातन परम्पराओं को जीवित रख कर एक सेतु का कार्य भी किया है l  भारत में, अगर देखा जाये, तब पाएंगे कि भारत एक आस्था प्रधान देश है, जहाँ लोग भगवान् को ढूंढने पहाड़ों पर कठिन यात्रा करतें है, और मन की शांति पातें है l मनुष्य को जब भी धर्म के विश्लेषणों जरुरत पड़ी, इन गुरुओं, दिगम्बरों और पैगम्बरों ने मानव को सही राह दिखाई है l
समय के परिवर्तन के साथ विचार धाराओं और आस्थाओं को मानाने वालों में, शिक्षा के व्यापक प्रचार प्रसार से, व्यापक परिवर्तन देखने को मिल रहें है l संभवतः दिल और दिमाग में एक गहरा संघर्ष इस समय भारतीय समाज के समक्ष चल रहा है, जिसमे राजनीति और आर्थिक कारण भी शामिल है l शायद यह एक परीक्षा की घडी है, जहाँ एक तरफ विज्ञान आधारित सुंदर धरती बसाने की कल्पना है जो तर्क विज्ञान सापेक्ष है और दूसरी और सदियों से चल रहे धार्मिक सिद्धांत, जो इस दुनिया के सञ्चालन का दावा करतें है l इस कठिन घडी में फैसला कुछ तर्कों और सिद्धांतों का हवाला दे कर नहीं हो सकता बल्कि मनुष्य के जन्म और उसकी सामाजिकता, उसके विश्वास को ध्यान में रख कर ही हो सकता है l  
इस बात को भी कोई नकार नहीं सकता कि समय समय पर धार्मिक मान्यताओं और परम्पराओं में विकृतियाँ आई है, जिससे धार्मिक आस्थाओं को मानाने वालों में कमी भी आई है l ये विकृतियाँ इस लिए आई है क्योंकि मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए उन मुलभुत सिद्धांतों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया, जो मानवता के लिए अभिशाप साबित होने लगा l धर्म के उन मुलभुत सिद्धांतों, जो कभी मनुष्य के रहन सहन और सामान्य अचार-व्यवहार को संचालित कर रहें थे, वे अब मनुष्य के लिए अभीशाप बन गयें है l इतने सारे अंतर्विरोध कि प्रगतिवादी विचारधारा के लोगों को यह लगने लगा कि अब यह धर्म उनका धर्म नहीं है, बल्कि एक नए विचार के साथ, मुलभुत विचारों से बिलकुल भिन्न, एक खंडित धर्म उनके सामने पेश किया जा रहा है l ऐसे में अदालतों के समक्ष इस तरह के प्रश्न आने स्वाभाविक है, चाहे वह कोई भी धर्म के क्यों ना हो l इसके अलावा कर्मकांड और पाखंड में लिप्त धर्म ने बची-खुची आशा को भी धूमिल कर दिया है l धर्म के ठेकेदार ही धर्म के दुश्मन बन गये है l धर्म को बाज़ार में ला कर ऐसे खड़ा कर दिया गया कि लोग उससे दूर भागने लगे है l हिंदी फिल्म पीके और ओ माई गॉड कुछ ऐसी ही फिल्मे थी, जिनमे धर्म के स्वरुप पर बहस दिखाई गई है, जिसे लोगों ने पसंद भी किया है  l ऐसा भी नहीं है कि धर्म को मानने वालों की संख्या घटी है, पारिवारिक और सामाजिक कारणों से भी लोग धर्म में आस्था रखते है l दुनिया भर में अभी भी करोड़ों लोगो ऐसे है जो कोई भी धर्म को नहीं मानते l वे मानवता में विश्वास रखतें है l धर्म हमेशा से तर्क का विषय रहा है l कई लोग यह सवाल करतें है कि क्या धर्म के ना होने पर पृथ्वी पर मानवता ख़त्म हो जाएगी ? इस प्रश्न का जबाब, हालाँकि, कुछ भी सटीक नहीं है, पर धर्म मनुष्य के जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है l उसे एक ऐसी शक्ति की जरुरत है, जो उसे मुसीबत की घडी में धीरज और संबल प्रदान करें l धर्म यह सब कर सकता है, बेशर्त व्यक्ति पर वह थोपा नहीं जाए, बल्कि व्यक्ति स्वेच्छा से उसे अपनाये और उसके होने के अहसास में आनंद में डूब जाये l अगर ऐसा नहीं होता तब, लोग धर्म के बाहर अध्यात्म को नहीं तलाशते l उनकी जिज्ञाशाओं का कोई ठोर नहीं है l
धर्म कोई डराने की चीज नहीं है, बल्कि महसूस करने का भाव है l रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, महर्षि अरविन्द और गाँधी जैसे महापुरुषों ने हमेशा से ही धर्म की आवाज को बुलंद किया, एक नई पहचान दी, जिसमे मानव धर्म भी शामिल था l इसलिए आज उनके करोड़ों अनुयायी है, जो धर्म की एक नई व्याख्या को समझने में सक्षम है l इसी भाव को भगवान् महावीर और बुद्द्ध ने भी समझा और मानव धर्म की स्थापना के लिए आध्यात्मिक धर्म की स्थापना की थी, जो विधि-विधानों के परे हो, धर्म गुरुओं के अधीन ना हो l पर ऐसा नहीं हुवा, मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए धर्म को कर्म-काण्ड और तमाम तरह की पूजा-अर्चना के माध्यम से ही पाने का रास्ता अपनाया, जो आज एक ऐसी अवस्था में पहुच गया है कि धर्म लोगों के आपसी भाईचारे का कारण नहीं बन कर, सामाजिक संकीर्णता पैदा कर रहा है l  
वेद उपनिषदों और अनेक धर्मों के धर्म ग्रंथों में निहित तत्वों को समझने के लिए उसे जीवन के यतार्थ और उस प्रभाव करने वाली क्रियाओं को एक साथ समझना होगा, ताकि हम अपने लिए एक ऐसे धर्म का चयन कर सके, जो हमें राह दिखने में सक्षम हो l किसी डर से किया गया ईश्वरीय कार्य, इंसान को मानसिक रूप से कमजोर बना देता है l
मनुष्य के जन्म और सभ्यता के विकास में धर्म का एक बड़ा रोल रहा है, इस बात को हम नकार नहीं सकते l सदियों से धर्म ने मनुष्य को नैतिकता का पाठ पढाया है l धर्म के प्रति आस्था रखने वाले लोग, पाषण युग में भी थे और आज इक्कीसवी सदी में भी है l आज हम एक मानव निर्मित पृथ्वी पर वास करतें है, जहाँ उसके कानून है, मान्यताएं है, जिनको मानना इश्वर को मानाने जैसा है l ईश्वर के होने की जड़े इतनी मजबूत है कि रुढ़िवादी ताकतें तमाम आचार संहिता लगाये, कल्पनाये गढ़े, पर आज का मनुष्य उन आंचार संहिताओं से उपर उठ एक गतिमान संसार का स्वप्न देख रहा है l जिस धर्म के लोगों ने अपने विकास की यात्रा में विज्ञान, समाज शास्त्र और मानवता को स्वंत्रता से अपनाया है, उस धर्म के लोगों ने विकास की नई बुलंदियों को छु कर, पूरी दुनिया पर राज किया है l  


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