Friday, December 11, 2020

असमिया भाषा संस्कृति के प्रति रूचि बरक़रार है

 

असमिया भाषा संस्कृति के प्रति रूचि बरक़रार है

रविवार को किताब पढने का आन्दोलन दिवस है l हर वर्ष 13 दिसंबर को किताब पढने का दिवस मनाया जाता है l दुसरे शब्दों में हम कहे, तब यह कहना उचित होगा कि पुस्तकालय, पुस्तक और उसके प्रति रूचि बढ़ाने के लिए एक आंदोलन कि शुरवात हुई है l बाजारवाद के युग में किसी की भी दिनचर्या मशीनी बन गयी है l व्यग्रता और चिंता की वजह से लोगों में किताब के प्रति रूचि कम ही हुई है l उपर से आधुनिक संवाद माध्यम से ख़बरों का सम्प्रसारण तेजी से बढ़ा है l इन्टरनेट युजरों की संख्या पिछले दशक की तुलना में कई गुना बढ़ी है l ऐसे में किताब और उसकी गुणवत्ता के प्रति ध्यान दिलाना साहित्य प्रेमियों का कर्तब्य बन जाता है l किसी भी भाषा के साहित्य को विश्व पटल पर ले जाने के लिए सबसे पहली जरुरत होती है, उसका भाव अनुवाद और उसका प्रसारण l असमिया गीतों को जब हम सांस्कृतिक मंचों पर सुनते है, और भाव-विभोर हो जाते हैं l असमिया गीतों को पिछले वर्ष नागरिकता कानून के विरोध में हुए आंदोलन में भी गाये गए थे l भाषा साहित्य एक दुसरे को जोड़ देता है l अगर हम पुस्तकों के लेखन और अनुवाद के कार्य की और देखे, तब पाएंगे कि पिछले 50 वर्षों में जिन लेखकों ने हिंदी में मौलिक लेखन के साथ में असमिया पुस्तकों का हिंदी अनुवाद किया है, उनमे सर्वप्रथम नाम भगवती प्रसाद लडिया का आता है, जिन्होंने पुस्तकालय आंदोलन की शुरुवात की थी और लोगों में पढने के लिए जागरूकता लाने का प्रयास किया था l एक समृद्ध भाषा को विश्व पटल पर ले जाने के लिए, उस भाषा के साथ जुड़े हुए पत्रों और किंवदंतियों को लोगों के समाने रखना जरुरी हो जाता है l नाटकों के माध्यम से पुस्तकों को लोगों के सामने ले जाने की विधा असम में काफी पुरानी है, जो थियेटर के रूप में आज भी एक जीवंत विधा प्रचलित है l जयंती युग के महामना कमल नारायण देव का नाम आज भी बड़े सम्मान से लिया जाता है, जिन्होंने जयंती नामक पत्रिका का संपादन किया था l नवारुण वर्मा और कृष्ण प्रसाद मागध जैसे मनीषियों ने भाषा संस्कृति से जुड़े पत्रों के उपर पोथियाँ लिख, अनुवाद कर ना सिर्फ असमिया संस्कृति को समृद्ध किया है, बल्कि हिंदी साहित्य को भी उन्नत किया है l गुवाहाटी के छगनलाल जैन और डिब्रूगढ़ के देवी प्रसाद बगरोडिया को असमिया और हिंदी के बीच का एक सेतु के रूप में असमिया लोग जानते है, जिन्होंने विभिन्न भाषा-भाषी के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया है l असम में वैष्णव धर्म गुरु श्रीमंत शंकरदेव और संस्कृति पुरोधा ज्योति प्रसाद अगरवाला पर हिंदी में पुस्तक लिख कर सांवरमल सांगानेरिया ने दोनों महापुरुषों का परिचय पुरे भारतवर्ष से करवाने का एक महत कार्य किया है l कुबेर नाथ राय, मास्टर नागेन्द्र शर्मा, दामोदर जोधानी, डा. हीरालाल तिवाड़ी, चंद्रमुखी जैन, धरमचंद जैन, कपूर चंद जैन जैसे महानुभावों ने अपनी लेखनी द्वारा असम के महापुरुषों के जीवन दर्शन को पुरे भारत में प्रचारित किया है l असम के कौन कौने में ऐसे लोग मौजूद है, जिनकी मातृभाषा मारवाड़ी, हिंदी या भोजपुरी रही हो, पर उन्होंने असमिया भाषा संस्कृति को करीब से समझा और उस पर कार्य भी किया है l ऐसे और पचासों लोग और मिल जायेंगे जो असम के गावों, शहर और कस्बों में मिल जायेंगे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन दो संस्कृतियों के बीच नजदीकियां करने का प्रयास किया है l कभी भाषा संस्कृति के द्वारा, तो कभी संवाद के सूत्र को पिरोकर l ऐसे कई नाटकार, लेखक, संपादक और फिल्म निर्माता भी मौजूद है, जिन्होंने लाभ नुकसान की परवाह ना करते हुए असमिया में भरपूर कार्य कर रहे हैं l कुछ और नामों का उल्लेख आने वाले अंकों में देने का प्रयास करूँगा l

इस बात पर कोई दो राय नहीं है कि अब किसी को और परीक्षा देने कि जरुरत नहीं है कि अमुक हिंदी भाषी है और अमुक मारवाड़ी भाषी है l सदियों से यहाँ एक मिश्री संस्कृति विराज कर रही है l कोई ज्यादा कार्य कर रहा है तो कोई कम, पर माटी के प्रति लगाव बरक़रार है, चाहे वह कोई भी भाषा बोल रहा हो l बड़ी बात यह है कि स्थानीय संस्कृति के प्रति लगाव और उसके प्रचार प्रसार किये जाने कि जरुरत है l इस बात में भी कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि यहाँ के लोगों ने बड़ा ह्रदय दिखलाते हुवे, ऐसे लोगों को गले से भी लगाया है, जिससे आने वाली पीढ़ी को प्रेरणा भी मिली है l आज युवा कवि और लेखकों की एक जमात तैयार हो गयी है, जो असमिया भाषा संस्कृति को ऊँचा करने में कोई कसार नहीं छोड़ रहे हैं l चिर सनेहे मुर भाषा जोनोनी’, के साथ जय घोष करने वाले नवयुवकों ने असमिया कला संस्कृति के मर्म को समझ कर आत्मसात किया है l    ऐसे लोगों के प्रति सम्मान आज भी बरक़रार हैं l

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