Friday, November 29, 2019

हम इस वैश्विक मंदी को कैसे झेलेंगे ?


हम इस वैश्विक मंदी को कैसे झेलेंगे ?
हम भारतीय मूलतः एक डरी हुई कौम है l हम शक्ति, सम्पदा सभी कुछ चाहतें है, स्टीवे जॉब्स और मार्क जुकेर्बेर्ग बनाना चाहतें है l पर किसी अनजाने डर से हम किसी के सामने भी अपने शक्ति दिखाने में डरतें है l इसलिए हम असमंजस में है l कभी प्राचीनता को अपनातें है तो कभी आधुनिक बनतें है l हम एक पथ चुनने से कतरातें हैं l इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था लगातार नीचे की और अग्रसर है l छोटे और मंझले व्यापारियों ने लगभग हार मान ली है l यह कहावत सिद्ध हो रही है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है l मॉडर्न ट्रेड कहलाने वाले व्यवसाय ने खुदरा व्यवसाय को लगभग चोपट करके रख दिया है l उल्लेखनीय है कि 2010-12 की वैश्विक मंदी के दौर में भी भारत अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूती से बनाये रखने में सक्षम रहा l इसका मुख्य कारण था,भारत के छोटें और मंझले व्यापारी, जिन्होंने असंगठित मार्किट में स्थिरता बनाये रखी l यह स्थिति आज नहीं है l बाज़ार से ग्राहक लगभग गायब है,कारण अगर खोजने जाए, तब पायेंगे कि लोग नई खरीददारी नहीं कर रहें है l जानकार कह रहें है कि बाजार एक परिपूर्णता की स्थिति में पहुच चूका है l इससे अधिक और ऊँचाई पर नहीं जा सकता l जिस तरह से अमेरिका के बाजारों के बारे में कहा जाता है कि वहां के लोगों के पास एक अच्छी जिंदगी हो गयी है, लोग उसका लुफ्त उठा तरहें है l खरीददारी में अब वें विश्वास नहीं रखतें l भारत में बाजारवाद के असर पिछले दस वर्षों में इतना अधिक दिखाई पड़ रहा था कि यहाँ की आर्थ-सामाजिक व्यवस्था एक नए मोड़ पर पहुच गयी थी l हर क्षेत्र में बाजारवाद के अंश दिखाई पड़ रहें है l बाजारवाद के असर से उत्सव, त्यौहार, शादी-विवाह और सामाजिक रीतियों को निभाने में लोगों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है l इस बड़ी रुकावट आ रही है बेहिसाब खर्चे बढ़ने से l शायद भारतियों ने हर तरह से अपने आप को पश्चिम की तर्ज पर ढालने का मन बना लिया है l फिर भी आम आदमी असमंजस में होने के कई कारण सामने देखने को मिल रहें है, एक तो देश देश में एक नई कर प्रणाली, जीएसटी, के आने से और उसमे लगातार हो रहे बदलाव से लोगों को कुछ समझ नहीं आ रहा है, उनका सारा ध्यान कोम्प्लाइन्स में ही जा रहा है l दूसरा, कच्चे तेल की अंतराष्ट्रीय कीमतें बढ़ जाने से एकाएक देश में लोहा और अन्य कई मेटालों और उनसे जुडी हुई कई वस्तुओं के भाव बढ़ गए, तीसरा, रूपया के साथ विश्व की कई देशों के मुद्रा का अवमूल्यन हुवा है,जिससे कारोबारियों में खलबली मच गयी है l इधर सामाजिक फ्रंट पर अगर देखें तब पाएंगे कि लोगों के जीवन से चैन ख़त्म रहा है l एक अनंत यात्रा के सहभागी बन गए है, लोग, जिसका कोई थोर नहीं दिखाई दे रहा है l रोजाना, मानो एक परीक्षा में बैठना पड़ता हो, l देश में हो रही लगातार बलात्कार और योन शोषण की घटनाएँ इस बात की और इशारा कर रही है कि हम एक अनियंत्रित यात्रा की और अग्रसर है, जिसमे हमारा व्यवहार पसान युग के मानव सा लग रहा है l ऐसा भी नहीं है कि कुछ सकारात्मक नहीं घट रहा है l 2014 में देश में नई भाजपा सरकार आने के पश्चात लोगों में इस बात का संतोष था कि देश में जीने के कुछ अच्छे हालात पैदा होंगे, और हुए भी l पर इस समय देश का कारोबार मंदी की और अग्रसर हो गया है l कुछ जानकार बतातें है कि देश में निजी निवेशकों की एक बड़ी फ़ौज बनी हुई थी, जो देश में के पेरेलेल इकोनोमी चलाती थी l नोटबंदी के पश्चात, यह तंत्र लगभग ध्वंश हो गया है, जिससे छोटे और मंझले व्यापारियों को उधारी मिलनी बिलकुल बंद सी हो गयी है l उपर से निजी निवेशकों के हाथ खींचने से हालत बाद से बदतर हो गएँ है l मंदी के एक बड़ा कारण यह भी बताया जा रहा है l वित्त मंत्री ने कल ही कहा है कि अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध तथा मुद्रा अवमूल्यन के चलते वैश्विक व्यापार में काफी उतार-चढ़ाव वाली स्थिति पैदा हुई है l भारत की आर्थिक वृद्धि दर कई देशों की तुलना में ऊंची है l भारत में हो रहे आर्थिक व्यवस्था में सुधारों के सकरात्मक परिणाम तो इस समय दिखाई नहीं पड़ रहे, बल्कि आम आदमी त्राहि-त्राहि करने को मजबूर है l शायद सरकार कोई संजीवनी बूटी लेकर आने वाले दिनों में सामने निकल कर आये, जिससे देश की मंद पड़ी इकॉनमी दुबारा से पटरी पर आये l    

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