हमें भी सपने आतें है
भारत देश में एक आम नागरिक
चाहे वह गरीबी रेखा के नीचे हो या फिर कोई धनाढ्य वर्ग हो, हर कोई रोज सपने देखता
है, उम्मीदों के, अरमानों के और पता नहीं, किसके किसके, वह सपने देखता हैं, रोजी
के, रोटी के, घर के l आम आदमी द्वारा सपना देखना इस देश में जुर्म की श्रेणी में
तो नहीं आता, पर उसको हकीकत में बदलने की कौशिश करने के लिए उसे कई पापड़ बेलने
पडतें है l क्या सपने देखने का हक़ सिर्फ राजनेताओं को ही है, जो आये दिन यह बयान
दे डालते है कि मेरा भारत विकसित हो, यह मेरा सपना है l रोजाना करोड़ों लोगों को
सपने दिखातें ये राजनेता अपनी दूकान इस तरह से चलाते है , जैसे कोई एफेमजीसी
सामानों की दूकान हो, जहाँ उपभोक्ता मूलक सामान जल्द बिक जा जातें है l सपने भी
जल्दी से बिक जाते है, इनके खरीददार जैसे तैयार ही खड़े रहतें है l मसलन धर्मगुरुओं
और विज्ञापन कंपनियों द्वारा दिखाए हुए सपने सबसे जल्दी बिकते है l वे धर्म और
बेहतर जीवन जीने की चाश्नियों में डूबे हुए रहते है l गरीबी हटायेंगे, मंदिर
बनायेंगे, जनता का राज आयेगा...सबको रोजगार मिलेगा l इस तरह के नारों का भारत में
बहुत मोल है l गंभीर विषयों के बीच टेलीविज़न पर जवानी लौटने वली दवाइयों के
प्रचार, किसी सपने दिखाने से कम थोड़े ही है l धड़-धड़ नए-नए एप्प बना कर लोगों के
हाथ में पवार देने की बात अब आम हो गयी है l पर सच्चाई तो यह है कि राष्ट्र सत्ता
कभी भी मनुष्य की स्वतंत्रता स्वीकार नहीं करती l उसे राष्ट्र और समाज के अधीन ही
रहना होता है l मानो मनुष्य का जन्म ही पराधीन रहने के लिए हुवा हो l सत्ता और
समाज विद्रोह दीवानगी कहलाई जाती है l फिर भी इतिहास गवाह है कि मनुष्य कड़े निर्णय
ले कर दिखाए गए सपनों के विरुद्ध जा कर एक अलग सत्ता बनाने का प्रयास किया है l नए
विचारों के बीच जा कर एक नयी सत्ता बनाने के प्रयास जिन लोगों ने भी किया है, वे
शासन के विरोधी भी कहलाये गए है l शायद उन्होंने कुछ नए सपने देख लिए होंगे l कुछ
नया और अर्थपूर्ण l दो अक्टूबर को गाँधी जयंती है l गाँधी के सपने का भारत कैसा
हो, इस बात पर सैकड़ो-हजारों पोथियाँ भर दी गयी है, पर यह पता नहीं चला कि आज के
भारत में गाँधी कहाँ फिट बैठते है l एक विकसित और प्राणवान देश के लिए क्या जरुरी
है, इसका निर्णय हमारे राजनेता लेतें है, ना कि इस देश की जनता, जो इस देश की नायक
है l प्रभुसत्ता जनता के पास है, जिसका मतलब यह होता है कि जनता सर्वोपरी है l पर
होता है, यहाँ यहाँ एकदम उल्टा l नल में पानी नहीं आ रहा, सड़क टूटी हुई है, सड़क पर
कचरा जमा है, जैसी आम शिकायतों के लिए तो जनता को मारे-मारे फिरना होता है, ऐसे
में वे देश के विकास का सपना कैसे देख सकती है l उन्हें कहा से अधिकार मिला, ऐसे
सपने देखने का l आपातकाल के दौरान जिन्होंने भी सपना देखा, सरकार ने उन्हें
गिरफ्तार कर लिया, और वह भी बिना कोई सुचना के और बिना किसी सुनवाई के, क्योंकि उस
समय सारे अधिकार निरस्त हो गए थे l तब लोगों को मोह भंग हो गया था कि देश में कोई
जनता का शासन है l एक अध्यादेश से सब कुछ उल्टा हो गया l जिन लोगों की राख देश की
मिट्टी में मिली हुई है, ऊनके प्रति असंवेदनशीलता दिखलाते हुए, हम एक विचित्र देश
बनाने में जुट गए है l
जनता के अधिकारों को
नियंत्रित करने के लिए कानून जो पहले से ही बने हुए है l सपने तक देखने का अधिकार
इस देश के नागरिकों को नहीं है l जो सपने देखतें है, वे अपने लिए मुसीबत मोल ले
रहें है l मानो सिस्टम चरमरा गया है l बुधवार को फैंसी बाज़ार की मुख्य सड़क के
बीचो-बीच दो चार गाड़ी कचड़ा इस तरह से जमा किया गया, जैसे कभी उठाया ही नहीं जायेगा
l जब दिन के बारह बजे तक कचरा नहीं उठा, तब लोगों ने हंगामा शुरू किया l इलाके के
पार्षद, एरिया मेम्बर तो एप्रोच किया गया, इलाके के लोगों द्वारा नेट और फेसबुक फोटोज
अपलोड की गयी, तब जा कर वार्ड नंबर नौ के पार्षद राज कुमार तिवाड़ी के प्रयासों से तुरंत
कचरा उठाया गया l पर बड़ी बात यह थी कि निगम प्रशासन को इस तरह से सड़क पर कचरा जमा
करने की जरुरत क्यों पड़ी थी l क्यों एक व्यस्त सड़क पर गैर-जिम्मेराना तरीके से
कचरा फैलाया गया l प्रश्न बहुत सारे है, जिनके जबाब लोग ढूंढते है l इस तरह से मामूली
से मामूली कामों के लिए दबाब और आन्दोलन का सहारा लेना पड़ता है l लोकतांत्रिक
तरीकों से चुनी जाने वाली सरकरों के नुमायंदे चुप्पी साध कर बस चुप रहना पसंद
करतें है l क्या हर चीज की शिकायत होनी जरुरी है l क्या चुने हुए जन प्रतिनिधियों
को अपने सामने होने वाली या रहने वाली चीजें दिखाई नहीं देती l क्या असंवेदनशीलता
इस तरह से हावी हो गयी है कि जन प्रतिनिधियों को यहाँ हमेशा सब कुछ अच्छा ही दिखाई
देता है l फिर फेसबुक, ट्विटर के जरिये यह मेसेज देना कि उन्होंने आज यह कार्य
किया है l हजारों लाइक्स l एक ऐसा प्रचार तंत्र, जिससे ऐसा लगने लगे कि सब कुछ ठीक
है l सपनों की अजीब दुनिया है l कई बार सपने उम्मीद जैसे लगने लागतें है l लोग
सपनों के मकान बना कर पूरी जिंदगी उसमे बिता देतें है l एक रोबोट की माफिक, जिसमे
कंप्यूटर के जरिये सपने फीड कर दिए जातें है l उसे अपने सपने देखने का कोई अधिकार
नहीं है l महान दार्शनिक और विचारक रूसो ने जब सहज मानवीय गुणों को उनका नैसर्गिक
तत्व बता कर मानवीय स्वतंत्रता की वकालत की, तब अट्ठारवी शातब्दी में यह एक नयी
बात थी, जब शिक्षा का उतना प्रचार प्रसार नहीं था, सामाजिक बेड़ियाँ इतनी अधिक थी
कि वे राज्ये के कानून जैसी थी l आज की स्थिति एकदम से भिन्न है, हर व्यक्ति सगज
है, और विचार के सम्मान करता है l भारत की स्वंत्रता दिवस के समय 14 अगस्त 1947 की
आधी रात को पंडित नेहरु ने कहा था, जब आधी रात को भारत स्वतंत्रता हासिल कर लेगा,
तब भारत जागेगा और स्वतंत्रता से साथ जियेगा l ये शब्द कोई आम भाषण के शब्द नहीं
थे, बल्कि भारत के भविष्य के सपने थे, जो भारत का हर नागरिक देख रहा था l इन्ही
शब्दों के सहारे, अब तक भारत का आम नागरिक जीता है, जबकि हकीकत यह है कि अभी भी
देश की 20 प्रतिशत आबादी रोजाना साठ रुपये कमाती है, और किसी तरह से अपना पेट पलती
है l ऐसे में अच्छे सपने देखना, उनका हक़ है l चाहे कितनी भी मनरेगा योजना गरिबोब
के उठान के लिए बनी है, देश में लगातार गरीब बने हुए है l आशा और आकांशा पर दुनिया टिकी हुई है, इसलिए हम सपने देखना नहीं छोड़ेंगे l
ये हमारे जीने का
आधार है l और कवि दुष्यंत कुमार द्वारा रचित पंक्तियाँ यहाँ सटीक बैठती है ‘कौन कहता है
कि आसमान में सुराख़ नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों’ l
No comments:
Post a Comment