Sunday, September 10, 2017

यहाँ हर पात्र महत्वपूर्ण है
रवि अजितसरिया

किसी भी देश या प्रदेश की भाषा सस्कृति पर उसके नागरिक हमेशा गौरव करतें है l यह भाषा ही है जो एक पूरी जाति को जिन्दा रखती है l इसमें कोई दो राय नहीं है कि एक आम असमिया अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति को लेकर बेहद सगज है l इसका उदहारण हमें बिहू के दिनों में मिले जाएगा, जब सात दिनों तक पूरी रात यहाँ के लोग असम के जातिय उत्सव बिहू का आनंद लेतें है l  देश में कही भी यह नजारा शायद देखने को नहीं मिलेगा l यह असम ही है, जहाँ उत्सवों और त्योहारों को बड़ी संवेदनशीलता और निष्ठा पूर्वक मनाया जाता है l असम में भाषा और संस्कृति को सम्मान देने या दिलाने वालों की असम में पूजा होती है, चाहे वह कोई भी जाति का हो l इतिहास गवाह है, जब अनासमिया लोगों ने असमिया भाषा संस्कृति के उतरोत्तर प्रगति के लिए कार्य किया था l यह सिलसिला आज भी रुका नहीं है l इसके बावजूद भी असम में रहने वाली जाति-जन्गोष्ठियों के बीच आपसी सघर्ष हमेशा से रहा है l यह भी देखने में आया है कि असम में रहने वाले विभिन्न समुदायों को भी इस संघर्ष का खामियाजा भुगतना पड़ा है l जब भी आपसी संघर्ष होता है, जाति-भाषा और संस्कृति की बातें ही उभर कर आती है l किसी भी जाति के प्रति असम्मान जताने वाले को कोई कभी माफ़ नहीं करता l असमिया पुनर्जागरण कहलाने वाला आन्दोलन- असम आन्दोलन के समय जब प्रतिवाद जुलुस वगैरह निकलते थे, तब ढोल नगाड़ों के साथ असमिया गीतों को आन्दोलनकारी गाते थें l उस समय ऐसा लगता तथा कि यह आन्दोलन असमिया चेतना तो जगायेगा ही, साथ ही असम असमिया और उसके तमाम पदार्थों को देश के साथ परिचय जरुर करवाएगा l उस आन्दोलन को चलाने वालें नेताओं ने जैसे जेल जाने की कसम खा रखी थी l नमक आन्दोलन और अहिंसक सत्याग्रह से पहले जब, जब महात्मा गाँधी ने अंग्रेजो के खिलाफ आन्दोलन किया, तब उनके साथ कुछ मुट्ठी भर लोग थे, पर जब नतीजे आने लगें, तब पूरा देश उनके साथ हो गया l हजारों-लाखों लोग जेल गए और हजारों ने हसते-हसते कुबनियाँ दी l असम आन्दोलन के समय भी कुछ ऐसा ही नजारा था l बड़ी सुबह आन्दोलनकारी किसी एसडियो या उपायुक्त के कार्यालय के सामने जमा हो जाते थें, और वहां का काम पूरी तरह से बाधित कर देतें थें l पुलिस उन्हें सुबह शांति भंग करने के इल्जाम में पकड़ कर ले जाती थी और शाम को फिर छोड़ देती थी l यह सिलसिला लगातार चलता रहा, जिसका नतीजा यह निकला कि सन 1985 में असम समझोता हुवा और आन्दोलन समाप्ति की घोषणा हुई l यह एक सत्ता की लड़ाई नहीं थी, बल्कि उस सम्मान के लिए थी, जिसकी चाह हर एक स्वतंत्र व्यक्ति या समाज को होती है l सर्व-भारतीय स्तर पर असमिया लोगों को पहचाना जाने लगा और वे भी उच्च पढाई के लिए देश के बड़े संस्थानों में नाम-भर्ती लेने लगें l जब आन्दोलन समाप्त हुवा और आन्दोलन कारियों के नेतृत्व ने एक सरकार बनी, तब वह समय असम के लिए एक सुनहरा सवेरा था, जो एक नई किरण ले कर आने वाला था l बड़ी संख्या में लोगों को यह लगने लगा था कि असम एक नई बुलंदी पर पहुचने वाला है l अथिक रूप से पिछड़े हुए लोगों को, जिन्होंने अपनी प्राणों की आहुति दी थी, असम आन्दोलन में, उन्हें लगने लगा था कि असमिया भाषा संस्कृति अब एक नई उचाईयों  तक जाएगी,  
इस अनुभव के साथ कि असम के लोगों ने पहले भी असमिया अस्मिता के लिए कई आन्दोलन लड़ चुके थे l इस बार बारी थी, राजनैतिक भागीदारी के साथ विकास करने की l एक पुनर्निर्माण का मौका आया था, असमिया लोगों के लिए l जब विकास के अवसर आतें है, तब उस अवसर के साथ तमाम तरह की जटिलतायें भी आती है l कुछ प्रश्न उनुतरित रह जातें है l शायद उन्ही प्रश्नों के उत्तर देने के लिए आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर शुक्रवार को गुवाहाटी आये थे l उल्फा के वार्ता समर्थक गुट के सदस्य और संस्थापक महासचिव अनूप चेतिया द्वारा आहूत सम्मलेन में श्री श्री का भाषण उन प्रश्नों का उत्तर दे रहा था, जिनको कभी असम आन्दोलन के समय उठाया गया था तो कभी उल्फा के सशस्त्र आन्दोलन के समय l सवाल एक ही था कि असम के भूमिपुत्रों के अधिकारों की रक्षा कैसे की जाये l आज भी जब अनूप चेतिया जब यह सम्मलेन कर रहे थे, तब भी उस का शीर्षक था, ‘विविधता में शक्ति: उत्तर पूर्व के मूल नागरिकों का सम्मलेन’ l असमिया अस्मिता का प्रश्न बार बार इसलिए भी आता है क्योंकि एक आम असमिया शायद किसी हीन ग्रंथि से बाधित भी है l वह सिलापथार और नोगांव जैसे कांडों से उद्वेलित भी हो जाता है l बार बार होने वले हादसे इस शोर को और तेज करते है कि असमिया भूमि पर किन्ही बाहर के लोगों को हक़ नहीं ज़माने देंगे l काल्पनिक दावों और बडबोलेपन से सामाज में व्याप्त आपसी सोहार्द को कितनी चोट लग रही है, इस बात को वे लोगो नहीं समझते, जो इस तर्क को हवा देतें है l लगभग 50 वर्षों से विदेशी लोगों ने यहाँ की आबो-हवा ले कर अपनी एक सत्ता कायम कर ली है l यहाँ के लोग लगातार उनके शिकार बनते जा रहें है, चाहे वह राजनैतिक दृष्टिकोण से हो या फिर धराशाई होती सांस्कृतिक चेतना हो l दलीय दृष्टिकोण और आपसी मतभेद ने इस राज्य का सबसे बड़ा नुकसान किया है l नहीं तो गावं में रहन वाले भोले-भले गरीब लोगों के लिए रोजगार के उचित संसाधन अब तक बन चुके होते l पर बार बार प्रतिक्रिया देते देते, असमिया अस्मिता के मूल प्रश्न के जबाब ढूंढने में पुरे 37 वर्ष लग गए, और राज्य पर संकट के बादल यूँ ही मंडराते रहे, चाहे वे कसी भी रूप में क्यों ना हो l कभी चीन द्वार ब्रह्मपुत्र पर बाँध बनाने को लेकर तो कभी निचली सुबंसरी विद्युत प्रकल्प को लेकर तो कभी कोकराझार दंगे को लेकर l बार बार हिंसा और प्रतिरोध हमें पीछे की और ढकेल रहे है l सामाजिक मोनोवृतियाँ कुछ ऐसी है कि सब कुछ स्वत: स्फूर्त घटित हो जाता है l सिलापथार और नोगांव काण्ड पर कई लोगों ने राजनीति भी की है l और असम की मुलभुत समस्याएं यूँ ही मुहं बाएं खड़ी रही l

इन सबके बीच, यह कहा जायेगा कि भारतीय समाज की श्रेष्ठम उपलब्धियां अगर गिनी गए, तब उसमे से पाएंगे कि सदियों से यहाँ एक जीवंत सस्कृति है, जिसका आधार एक सामाजिक तानाबाना है l यह तानाबाना हमें एक दुसरे से जोड़े हुए रखता है l असम में रहने वाली जातियां, जन्गोष्ठियाँ और विभिन्न समुदायों के बीच सोहार्द कैसे हो, जिससे सभी को एक सामान विकास के अवसर मिले, यह एक मूल प्रश्न होना चाहिये l       

No comments: