Friday, December 15, 2017

शादी पर उपभोक्तावादी संस्कृति का बढ़ता प्रभाव

किसी के लिए भी मेहनत से कमाई हुई अपनी गाढ़ी कमाई को खर्च करने में भारी दिक्कत होती है, पर जब उपभोक्तावाद संस्कृति उस मनुष्य पर हावी हो जाती है, तब वह खर्च करने ने पिछड़ता नहीं, बल्कि उस होड़ में शामिल हो जाता है, जिसको कहते है-आधुनिकता l अपने आप को आधुनिक दिखाने के लिए वह शिक्षा, संस्कार और संस्कृति के नए मायने बनाने लगता है, जिससे वह अधिक संस्कारित और सफल दिखाई दे l इक्कीसवीं सदी का अगर कोई सबसे नकरात्मक और नायाब तोहफा अगर है तो वह है-उपभोक्तावादी संस्कृति, जिसके विस्तार के लिए पश्चिम के देश ने एक ऐसा जाल बिछाया है कि विकासशील देश के लोग उसमे फंसते चलें गए l नतीजा है, आपसी प्रतिस्पर्धा, जिसको पूरा करने के लिए आचार-विचार सभी को ताक पर रख कर बस अंधाधुंध और बेहिसाब खर्च कर के एक महंगा आयोजन करे, जिसकी चर्चा सर्वत्र हो l एक सुनियोजित ढंग से आधुनिकता के नाम पर लोगों को उत्सव और आयोजनों के मौकों पर आधुनिकता के नाम पर बेहिसाब खर्च करने के लिए उकसाना, कुछ लोगों की एक सोची-समझी चाल है, जिसमे माध्यम श्रेणी के लोग फंसते चलें जातें है l सामर्थ नहीं होते हुए भी खर्च करने की इच्छा करना और बाहरी सुन्दरता और दिखावा मानो जीवन का एक ध्येय बन गया है l फ़िज़ूलखर्ची, आडम्बर और दिखावा, तीन ऐसी चीजे है, जिनसे अगर कोई समाज सबसे ज्यादा प्रभावित है तो वह है हिंदी भाषी समाज l इस समाज ने शादी-विवाह, तीज-त्यौहार, धर्म और उन सभी मौकों पर जरुरत से ज्यादा दिखावा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है l सम्पदा का इस तरह से दुरूपयोग माध्यम वर्ग के लिए, इतना भारी पड़ रहा है कि वह ना चाहते हुए भी इस आधुनिकता की दौड़ में शामिल हो गया है l आजकल शादियों में हो रही फिजूलखर्ची और बेवजह के दिखावे से, आम आदमी को शादी जैसे पवित्र रस्म को निभाने में भारी दिक्कतें आ रही है l दरअसल में बाजारवाद ने यह गड़बड़झाला किया है l नहीं तो शादी जैसी रस्म को प्यार और उत्साह से निष्पादित कौन नहीं करना चाहेगा l ऐसा प्रतीत हो रहा है, शादी जैसी पवित्र रस्म अब एक इवेंट मैनेजमेंट का हिस्सा हो गयी है, जिसमे वे सभी रस्म तो है, पर इवेंट की तर्ज पर l आयोजकों के मर्जी पर अब कुछ नहीं चलेगा l उत्सव, प्यार, दुलार सभी रहेंगे, पर प्रत्येक क्षण इवेंट के नाम पर होंगे, जिसमे सामने घट रहे वाकये महत्वपूर्ण नहीं रहेंगे, बल्कि दिखाए हुए मीठे सपनों और गुलाबी दृश्यों की चाशनी में डूबी हुई बाजारवाद की तीखी और अवांछित महत्वाकांक्षाएं जो ना तो सुरुचिसम्पन्न है और ना ही बड़े रूप में स्वीकार्य है, उस पर टिकी हुई रहेगी l इतने सारे नए उत्पादों को शादी में डाला जा रहा है कि शादी एक महँगी रस्म अदायगी बन गयी है l परंपरागत तौर तरीकों को सुनियोजित ढंग से संपत किया जा रहा है l मसलन वरमाला की रस्म को रोमांचित बनाने के लिए आधुनिकता का तड़का डाला जा रहा है, जिसमे अलग से खर्चा आ रहा है l इस तरह से हर रस्म को आधुनिक बनाया जा रहा है l इवेंट मनेजमेंट ने लोगों के खर्च को सातवें आसमान पर पंहुचा दिया है l आयोजन करने वाले का यह कथन है कि हर तरह की शादियाँ आयोजित होती है l  
चीनी जितनी डाली जाएगी, चाय उतनी ही मीठी होगी l यानी, जो जितना खर्च करेगा, शादियाँ उसी प्रकार से आयोजित की जायेगी l इस तरह के तर्कों से एक महँगी और आडम्बर युक्त शादी को आधुनिक और मजेदार आयोजन का रंग दे दिया जाता है l असम और पूर्वोत्तर में कलान्त्तर में कई ऐसे मौके आये, जब शादी-विवाह को कैसे संपन्न किया जाए, इस पर विचार गोष्ठियां और विवेचनाएँ भी हुई है, पर ज्यो ज्यों दावा दी, मर्ज बढ़ता गया वाली तर्ज पर हर बार ऐसी बैठकों का कोई नतीजा नहीं निकला l कई दफा यह भी निर्णय हुवा कि एक शादी पर कितने आइटम खाने में रखे जाय l इसको भी पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका l अब तो आलम है कि आइटमों पर कोई रोक ही नहीं है, बल्कि उसमे कई गुना बढ़ोतरी भी हो गयी है l इतना ही नहीं महंगे रिसोर्ट और होटलों में भी महँगी शादियाँ आयोजित होने लगी है, जिससे प्रतिस्पर्धा बढ़ी ही है, कम नहीं हो रही है l संयुक्त परिवारों के टूटने और वर्जनाएं समाप्त होने से अब आयोजनों को कैसे आयोजित किया जाए, इसका निर्णय एकल परिवार के सदस्य बड़े आराम से लेने लगे है l इसमें पुराने संयुक्त परिवार के सदस्य और समाज कही भी आड़े नहीं आता l चलती है तो बस इवेंट वालों   की, जो आयोजकों को गुलाबी ख्वाब दिखा कर बड़े मजे आयोजकों को अपने जाल में फंसा लेतें है l मजे की बात यह है कि ऐसे आयोजन का प्रचार भी जोरो से किया जाता है, जिससे औरों का भी ऐसे महंगे आयोजन करने का मन ललचा जाए l युवा मंच ने एक बार अपने समाज सुधार के कार्यक्रम के तहत विवाह के दौरान बांटें जाने वाले लड्डुओं को बांटने पर रोक लगा दी थी l यह एक समाजिक निर्णय था, जिसका एक पक्ष ने भारी विरोध किया था l बाद में मंच को इस निर्णय को भारी विरोध के चलते स्थगित करना पड़ा था l उस समय की स्थितियां कुछ ऐसी थी कि असम में भारी राजनैतिक उथल पुथल हो रही थी, जिसमे हिंदी भाषी लगातार निशाना बन रहें थे l शादी के अवसर पर सडकों पर नाच-गाना, संगीत समारोह और मिठाइयों का बांटना शादी के आयोजन का बड़ा हिस्सा थी l आडम्बर और फिजूल खर्च के लिए युवा मंच ने आवाज उठाई थी, जिसे सभी ने सराहा भी था और अमल भी किया l तब से अब तक, बारात निकलने के समय सड़कों पर नांच गाना नहीं होता l लेकिन आज असम में कानून व्यवस्था की स्थिति समान्य है, जिसके चलते लोगों में अति उत्साह देखने को मिल रहा है l  
अब सवाल उठता है कि क्या किया जाए ? क्या महँगी और शानदार शादी आयोजित करने का निर्णय की व्यक्ति का निजी निर्णय है, और इसमें औरों की दखलंदाजी उसके अधिकारों का अतिक्रमण होगा ? इस प्रश्न पर अगर विवेचनाएँ की जाए, तब यह समस्या अपने आप सुधर सकती है l फिर भी, क्या यह सच नहीं है कि समय समय पर पूर्वोत्तर और असम समेत राज्यों में जहाँ जातिगत भावनाएं प्रबल रूप से मुखर हो कर सामने आती है, वहां अक्सर हिंदी भाषी निशाना बनतें है ?  

ऐसे में कितना दिखावा, कितना पर्दा जरुरी है, यह तो उस व्यक्ति को ही तय करना होगा जिसके यहाँ आयोजन है l एक ऐसा आयोजन, जिसका प्रभाव माध्यम श्रेणी के लोगों पर ना पड़े l प्रश्न बहुत सारे है, जिसके जबाब हमें ढूंढने होंगे l   

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