समाजिक कुरीतियाँ
रातों रात नहीं मिटती
रवि अजितसरिया
सामाजिक कुरितयों पर
अभी एक जबरदस्त चर्चा चल रही है कि मृत्यु भोज का स्वरुप क्या हो ? लेखक और
सामाजिक कुरीतियों, फिजूल खर्ची और आडम्बर के विरुद्ध आवाज उठाने वाले
कार्यकर्त्ता मदन सिंघल ने इस प्रश्न के साथ कई ऐसे विषयों पर चर्चा की है जिस पर
विवेचना आवश्यक ही नहीं बल्कि अत्यंत जरुरी है l हम बात एक कहानी के द्वारा दुसरे
विषय से शुरू करतें है l द्वापर युग में एक पूतना नाम की पिशाचिनी हुई थी। भागवत
पुराण में वर्णन है कि वह बड़ी भयंकर और विकराल थी, पर बाहर से बड़ा सुन्दर मायावी
रूप बनाये फिरती थी। उसका काम था बालकों की हत्या करना, इसी में उसे आनन्द आता था, आखिर पिशाचिनी ही जो ठहरी। अन्त में उसका दमन
कृष्ण भगवान ने किया और लोगों के सामने उसके विकराल भयंकर रूप का भंडाफोड़ किया।
आज सामाजिक कुरीतियों की अनेक पिशाचिनी चौंसठ मसानियों की तरह खूनी खप्पर भर−भर कर
नाच रही हैं। शादी-विवाहों के दिनों बड़ी रौनक और धूम-धाम होती है। बड़े-बड़े पंडाल,
पचासों तरह की आइटम, आकर्षक सजावट और तमाम तरह के नाच-गान l पर इस पुरे आयोजन में
आये हुए अथितियों का स्वागत कैसे करें, इसका अंदाजा, आयोजक को इस उन्माद में नहीं
रहता l इस बात में भी सच्चाई है कि आयोजकों को विवाह कैसे करना है, इसका निर्णय
लेने का उसे पूरा हक़ है l पर इसका दुष्प्रभाव समाज पर कैसे पड़ता है, इसका अंदाजा
विवाह से पूर्व ही आयोजकों को होना चाहिये l आडम्बरपूर्ण विवाह की नक़ल समाज में
होती है, जिसका दुष्परिणाम भविष्य में समाज भोगता है l समाज शास्त्री इसे उन्माद
की संज्ञा देतें है l हम ऐसे उन्माद को अर्थव्यवस्था के लिए इसलिए घातक कहते है
क्योंकि सामर्थ नहीं होने के वावजूद भी व्यक्ति अपनी हसियत से अधिक खर्च करता है
और फिर महाजनों को चुकाने में अपनी पूरी जिंदगी कटा देता है l लोक-लाज का डर,
रिश्ते-नातेदारों में नीचा दिखने का डर, जग हंसाई, कई तरह के डर मनुष्य को कमजोर
और भीरु बना देता है, जिससे कुरीतिया लौकी की बेल की तरह फैलती चली जाती है l धर्म
और लोक-परम्पराओं को मानने वाला समाज हर ख़ुशी और गम के मौके पर यथा शक्ति आयोजन
करता है, जो शास्त्र सम्मत भी होता है l पर जब, ऐसे आयोजन बोझ लगने लगे, तब वह
मानव जाति के लिए अभिशाप बन जाते है l विवाह में होने वाले अपव्यय, मृत्यु पर होने
वाले खर्चे इतने अधिक हो गए है कि अगर ना किये गए, तब उन पर गरीब या कंजूस होने का
लांछन लगने का डर हो जाता है l ये आयोजन इतने खर्चीले बन गएँ है कि आम आदमी के
बल-बूते के बाहर हो चले है l अब यह बात आयोजनकर्ता को खुद को तय करनी होगी कि वह
किस तरह का आयोजन उसे करना है l इसमें लोक-लाज की बात कही भी नहीं आनी चाहिये l समाज
में अघोषित सामाजिक तंत्र के ध्वंश होने से, वे आयोजन, जो माध्यम वर्ग पर प्रभाव
डालते है, उन पर किसी किस्म की कोई निगरानी प्राय समाप्त हो गयी है l ज्यू-ज्यू
दावा दी, मर्ज बढ़ता ही गया वाली तर्ज पर, अब फिजूलखर्ची और आडम्बर ने सभी घेराबंदी को तोड़
दिया है और उन्मुक्त हो कर विकराल रूप धारण कर चुकी है l आडम्बर और दिखावे में किसी के भी कुछ भी हाथ
नहीं आता, बस क्षणिक आनंद, जो चंद घंटे बाद समाप्त हो जाता है l जो व्यक्ति ऐसे आयोजन करके अपने-आप को राजा से कम नहीं
समझता, अन्य के सामने बड़ा बनाने की कौशिश करता है, वही व्यक्ति एक या दो
दिनों बाद सामान्य व्यक्ति की तरह ही समाज में वास करता है l हिन्दू समाज में कुरितयों अब सर दर्द बन गयी है
l इसमें व्यापक सुधार की आवश्यकता है l समय समय पर प्रगतिशील लगों ने इस बात को
सार्वजनिक स्तर पर उठाया भी है, पर कोई ठोस नतीजा निकल कर नहीं आता l दुःख की बात
है कि फिजूल खर्ची और आडम्बर में धार्मिक आडम्बर भी शामिल हो गया है l धार्मिक
आयोजनों में राजनैतिक व्यक्तियों को बुलाया जाना, इस बात का सूचक है कि किसी निहित
स्वार्थ से ऐसे आयोजन किये जा रहे है l
एक सुझाव
समूचा असम इस वक्त
बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहा है l राज्य के लाखों लोग इससे प्रभावित हुए है l सरकार
द्वारा, आने वाले दिनों में बाढ़ राहत के लिए अपील होनी स्वाभाविक है l ऐसे में समाज
के सभी घटक के लोग यह निर्णय ले कि वे आने वाले दिनों में किसी भी तरह के आयोजन में
फिजूलखर्ची नहीं करेंगे और बाढ़ राहत के लिए एक सम्मिलित राशि का समायोजन करेंगे l क्योंकि बाढ़ राहत भी एक पुण्य
और समाजिक जिम्मेवारी है, अगर संभव हो तब उन
आयोजनों के खर्च भी बाढ़ राहत में दे, जो धार्मिक उद्देश्य से किया जाने वाला हो l कोई
भी अगर बड़ा आयोजन करता है तब वह उतनी ही राशि बाढ़ सहायतार्थ सम्मलित फंड में जमा
करेगा l इस सम्मिलित समायोजन से यह फायदा होगा कि एक विशाल फंड जमा हो जाएगा,
जिससे यह सुनिश्चित होगा कि असम का व्यापारी समाज ने विपत्ति के समय एक विशाल राशि
अपने फंड से निकाल कर दी है l अन्यथा, हर वर्ष आने वाली बाढ़ के दौरान अलग अलग
संस्थाएं, अपने हिसाब से बाढ़ रहत करती है, जिसकी ना तो सुचना लगती है और ना ही कोई
नजर पड़ती है l फिर सरकार का कोई मंत्री या नेता, टिपण्णी कर देता है कि व्यापारी
समाज ने कोई भी राहत कार्य नहीं किया है l सामाजिक और प्रतिनिधि संस्थाएं मारवाड़ी
युवा मंच और मारवाड़ी सम्मेलन, जिनकी शाखा समूचे पूर्वोत्तर में है, केद्रीय रूप से
यह कार्य कर सकती है l असम की व्यापारिक संस्थाएं अपने सदस्यों सी अपील कर सकती है
कि वे केन्द्रीय रूप से इस कार्य को सम्पादित करे l
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