Sunday, August 20, 2017

एक अजब शक्ति है यहाँ के लोगों में
रवि अजितसरिया

बदलाव एक अवश्यंभावी भाव है, जो मनुष्य के अंदर हर पल उमड़-उमड़ कर आतें है l करोडो वर्षों से बदलाव के चलते विश्व की बड़ी बड़ी सभ्यताओं का अंत हुवा है और एक सभ्यता के अंत के पश्चात नई सभ्यता ने जन्म लिया है, और इसी तरह से दुनिया चल रही है l विकसित देश के लोग अब उपभोक्तावादी संस्कृति से उब कर कुछ नया करना चाहतें है l विकास अपने चरमबिन्दु पर जब पहुच जाता है, तब मनुष्य के मानव मूल्यों का र्हास होने लगता है, जो एक मात्र कारण बनती है, सभ्यताओं के समाप्त होने का l इतिहास गवाह है कि जब-जब सभ्यताएं समाप्त हुई है, नए आचार-विचार और संस्कृति के साथ, उसी स्थान पर एक नयी सभ्यता ने जन्म ले लिया है l सभ्यताओं के समाप्त होने का एक अन्य कारण यह भी है कि वहां के वासिंदे अपने मूल स्वाभाव के विपरीत आचरण करने लागतें है l पाखंड और भौतिक विचारों का जब खुलें रूप से प्रदर्शन होने लगता है, तब यह तय है कि उस संस्कृति का अंत होने वाला है l जब जनता वास्तविक सामाजिक स्थितियों को नजरअंदाज करके, अपने मूल स्वरुप को खोने लगती है, तब खोखले पाखंड और भ्रम मनुष्य के चिंतन में हावी होने लगता है और वह उसी को अपने मूल विचार मानाने लगता है l अभी भारत के लोग उपभोग्तावादी संस्कृति का अनुसरण कर रहे है l देश में बड़े-बड़े शहरों में मॉल खुलने लगें है, जिनमे एक ही स्थान पर सभी वस्तु उपलब्ध रहती है l इसके विपरीत छोटे शहरों में भी एक अपनी दुनिया है l पर जब वें बड़े शहरों की चकाचौंध को देखतें है, तब एकाएक उनका मन भी इसी तरह के शहर की कल्पना करने लगता है l भौतिक युग जो ठहरा l वे भी अपने निकटतम कस्बों और शहरों में जा कर खरीददारी करतें है l जैसे पूर्वोत्तर की फैंसी बाज़ार मंडी l फैंसी बाज़ार, पूर्वोत्तर की सबसे बड़ी मंडी l हमेशा भीड़-भाड़, भरपूर व्यावसायिक गतिविधियाँ, लोगों का हमेशा आवागमन l किसी भी बड़े शहर के चरित्र अनुरूप यहाँ भी पूर्वोत्तर के अलग-अलग जगहों से क्षुद्र व्यवसाइयों का जमावड़ा लग जाता है, जो पुरे दिन चलता है l ऐसे व्यवसाई हाथों में बड़े-बड़े झोले लेकर चलतें है और फिर दिन भर खरीददारी करके वापस अपने गंतब्य स्थान को लौट जातें है l उपभोक्तावादी संस्कृति के पनपने से अब गुवाहाटी के आस पास के गावों के लोगों की भी नई-नई चीजों की मांग बढ़ गई है, जिसकी वजह से गावों की छोटी दुकानों में भी अब कई तरह की चीजें उपलब्ध रहने लगी है l समय के साथ उपभोक्ताओं का खरीदादारी के स्वाद बदलने से अब दुकानदारों को भी मार्किट मे नई आने वाली चीजों को विक्रय के लिए उपलब्ध करवाना पड़ता है l तभी जा कर एक उपभोक्ता खरीदारी करके खुश होतें है l दरअसल में भारतीय उपभोक्ताओं के पास खरीदने के लिए बहुत ज्यादा चीजे नहीं होती, जिन्हें वें रोजाना सेल्फ में ढूंढ़ते है, पर वे अपने आप को परखने की कौशिश ज्यादा करतें है कि वे भी पश्चिम की तरह पेकेट फ़ूड खाए, ठंडा पिए और विंडो शौपिंग करें l देखा-देखी करने की आदत हम भारतियों में कूट कूट कर भरी पड़ी है l एक ऐसी सभ्यता का अनुसरण, जिसे भारतीयों ने कभी देखा नहीं l हां, अंग्रेजी फिल्मों ने लोग जरुर देख लेतें है  
कि कोई अपने दिनोंदिन जरुरत वाली चीजे किसी मॉल से खरीद रहा होता है l बस एक आम भारतीय भी उस चरित्र जैसा बनाने का प्रयास करने लग जाता है l टोपी पहन कर मॉल में जाना और सेल्फ से खुद से सामान बास्केट में डालना और फिर कतार में खड़े हो कर बिल बनवाना l यह पूरी तरह से पश्चिम की कोपी है l यह अलग बात है कि इसमें कुछ अच्छी चीजें भी है, जिनको हमने बुरी के साथ आत्मसात कर लिया है l अर्थ मानो जीवन का सबसे महतवपूर्ण हिस्सा बन गया है l जीवन मूल्य, संस्कृति और प्रेरणा देने वाला हमारा इतिहास l अब इन सब चीजों से भारतियों को कोई मतलब नहीं l उपभोक्तावादी संस्कृति, जिसकी बेल पर चढ़ कर हम अपने आप को ज्यादा मोर्डेन दिखलाने की चेष्टा कर रहें है, वह भारत के कौने-कौने में उग आई है l अब इससे बचा नहीं जा सकता l अनंत संभावनाओं वाला देश भारत एक उपभोक्ता देश है l विश्व के अति विकसित राष्ट्रों की उपभोक्ता सामान बनाने वाली कंपनियों ने यहाँ भारत में निवेश करके यहाँ भी उन उत्पादों का निर्माण शुरू कर दिया है, जिससे विदेशी लोग उब चुकें है l मसलन कोका-कोला से पश्चिमी देशों के लोग उब चुकें है l अब यह उत्पाद सिर्फ विकासशील देशों में बिकता है l विदेश भ्रमण करने वालें लोगों को भली भांति पता है कि अमेरिका में एक कोक की कितनी कीमत है, करीब दो डॉलर l फिर भी यह उत्पाद भारत में धरल्ले से बिकता है l उस उत्पाद के विज्ञापन देख कर बच्चे बड़े खुश होतें है l भारत देश को विश्व की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था का खिताब बताया गया है l यह ख़िताब देने वाली वे ही एजेंसियां है, जो उन्ही देशों में ऑपरेट करती है, जहाँ से ये तेजी से बिकने वाले उपभोक्ता सामान बिकते है l बड़ा भारी गड़बड़झाला है l मजे की बात यह है कि सिर्फ सामानों तक यह संस्कृति सिमित रहती, तब कोई बात नहीं थी, इसने हमारे विचारों और तहजीब तक को रौंद डाला है l शिक्षा, स्वास्थ मिडिया, समाज, सभी l मानो वाइरस घुस गया है l हमारी शादी विवाह भी अब इस संस्कृति की आंच से अछूते नहीं रहें है l शादियाँ अब महँगी होने लगी है, क्योंकि उसमे आधुनिकता का तड़का जो लग गया है l

कहते है कि अब इसे रोका नहीं जा सकता है l नया जमाना पहले के ज़माने से अच्छा और आराम दायक है l प्रगतिवादी कहतें है कि शिक्षा और स्वास्थ ने भारी प्रगति की है l लोगों को रोजगार और इलाज़ मिला, जिससे एक आम आदमी के लिए रहन-सहन सहज हो गया l मानवसंसाधन के निर्माण  की दिशा में यह एक महवपूर्ण कदम है l रोजगार के सृजन से देश की गरीबी कुछ कम हुई है l प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ी है l ऐसे में इस तरह की अर्थव्यवस्था फिलहाल भारत के लिए लाभदायक है l हमें इसी को पकड़ कर आगे बढ़ना है l महत्वपूर्ण बात यह है कि एक पुरातन सभ्यता के झंडाबरदार होने के नाते, अब यह हमारी जिम्मेवारी है कि हम अपने विचार, संस्कृति और तहजीब को संजोने के लिए उन मूल्यों को जीवित रखे, जिससे हम जिन चीजों से जाने जातें है, वें हमारे यहाँ जीवित रह सके l          

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