Friday, January 3, 2020

आखिर क्यों होतें हैं आन्दोलन


असम को आन्दोलन की भूमि कहा जाता रहा है l कहते है कि यहाँ किसी भी चीज को प्राप्त करने के लिए आन्दोलन करना पड़ता है l महात्मा गाँधी की तरह l उन्होंने अपने जीवन काल में अनगिनत बार सत्याग्रह, असहयोग और अनशन किये और अपनी मांग को पुरजोर तरीके से राखी l असम में सन 1960 से ही आन्दोलन हो रहें है, कभी किसी चीज को पाने लिए तो कभी किसी चीज के विरोध में l पर आन्दोलन हो रहें हैं l शायद आधुनिक दौर में शांतिपूर्वक तरीके से शासन तंत्र के समक्ष अपनी मांग रखने का यह एक मजबूत तरीका है l दुनिया भर में इस तरह के आन्दोलन लगातार हो रहें है l नस्लभेद और शोषण के विरुद्ध l कहने को तो नस्लभेद की जड़े समाप्त हो चुकी है, पर उपरी आवरण तक ही, इंसान के भीतर अभी भी कुछ रंगों और भेद बिराजमान है, जिनकी बेलों पर चढ़ कर वह समय समय पर वह अपनी श्रेष्ठता जताता रहता है l ऐसे समय पर ही आंदोलनों के सूत्रपात होतें है l शांतिपूर्वक और अहिंसक आन्दोलन, कब हिंसक और उग्र हो जातें है, यह पता ही नहीं चलता l शासन तंत्र के विरुद्ध इस तरह से मुखर हो जातें है कि शासन में शामिल अपने ही लोग दुश्मन से लगने लगतें है l द्वितीय विश्वयुद्ध बाद पश्चिमी देशों में उभरे मध्य वर्ग ने स्वयं को पुराने वर्ग आधारित आंदोलनों के मुकाबले राजनीतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक रूप से विशिष्ट महसूस करते हुए सामूहिक राजनीतिक कार्रवाई के ऐसे रूपों को अपनाना पसंद किया, जिनके दायरे में कहीं व्यापक किस्म के नैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक मुद्दे आते थे। इस ज़माने में चले कई सामाजिक आंदोलन नागरिक अधिकारों, स्त्री-अधिकारों, युद्ध का विरोध करने और पर्यावरण की हिफ़ाज़त करने के आग्रहों के इर्द-गिर्द गोलबंद हुए। असम में अब तक जितने भी सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलन हुए, उनमे के बात कॉमन थी, वह थी, जनसमर्थन l भाषा आन्दोलन के बाद असम आन्दोलन और अब नागरिकता संसोधन कानून के विरोध में आन्दोलन l सभी में विराट जनभागीदारी देखने को मिल रही है l असम आन्दोलन छह वर्षों तक चला, तब जा कर केंद्र ने एक समझोता किया, और असम को विकास के रास्ते पर ले जाने के लिए एक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी बनी, जिसका मूल उद्देश्य था विदेशियों की पहचान करना और उनको निष्काषित करना l सामाजिक आंदोलनों में वांछित परिणाम की आशा तो रहती है, साथ ही एक बड़े बदलाव की उद्घोषणा का ख्याल भी निहित रहता है l असम आन्दोलन के समय भी कुछ ऐसा भी हुवा l छात्रों ने अपनी सीमित संसाधनों का उपयोग करके एक विशाल जनभागीदारी का सूत्रपात किया और अपने मकसद में कामयाब हो गए l मास सोसाइटी का अध्ययन करने वाले मनोवैज्ञानिकों को लगा कि सामाजिक आंदोलन निजी तनाव से जूझ रहे व्यक्तियों की अभिव्यक्तियाँ हैं। दूसरी तरफ़ संरचनागत-प्रकार्यवादी विद्वानों का ख़याल था कि ये आंदोलन सामाजिक प्रणाली में आये तनावों का फलितार्थ हैं। असम आन्दोलन के समय भी कुछ ऐसा हो प्रतिफलित हुवा l बुधिजिवियों और पंडितों ने उस आन्दोलन का भरपुर समर्थन किया था l एक कम विकसित जाति के उत्थान के लिए सत्ताधारी पार्टियों को ‘आउट ऑफ़ बॉक्स’ सोच रखनी होगी, जिससे शासन करने के उद्देश्य की पूर्ति हो सके l इस तथ्य से भी सभी वाकिफ है कि आंदोलनों की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है l सत्ता से लड़ना और अपनी बातों को मनवाना और फिर ‘लॉजिकल कांक्लुजन’ पर आना आन्दोलन करने से भी गुरु कार्य है l नहीं तो अंत समय पर अवसरवादी शक्तियां इस हाईजैक करके अपने हिसाब से गति देने लगती है l किसी एक विषय पर चले आन्दोलन एक वर्ग का नहीं हो कर तब सामूहिक हो जाता है, जब आन्दोलन का विषय इतना व्यापक रहता है कि हर वर्ग का व्यक्ति इससे प्रभावित होता है l नागरिकता संसोधन कानून के विरोध का आन्दोलन भी एक सामूहिक आन्दोलन में परिवर्तित हो चूका है l लाखों लोग सड़क पर उतर आये है l   
और अंत में रुडयार्ड किपलिंग की कविता ‘अगर’ की अंतिम लाइनें  ‘अगर तुम भीड़ से बहस कर सकते हो, और बरकरार रख सकते हो अपने सद्गुण
या राजाओं के साथ टहलते हुए, गँवाते नहीं हो ख़ुद में साधारणता का स्पर्श
अगर ना तो शत्रु ना ही प्यारे मित्र तुम्हें आहत कर सकते हैं
अगर हर सह-जीवी का तुम्हारे लिए महत्व है, और कोई उनमें विशिष्ट नहीं है
अगर तुम एक निर्दयी मिनट के दरमियाँ
भर सकते हो
लंबी दौड़ के लिए मूल्यवान साठ सेकेंड्स
..तो ये जहान तुम्हारा है, और वो सबकुछ जो इसमें है
औरइस सबसे बढ़करतुम इंसान होगे, मेरे बच्चे!’

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