भ्रम और
भ्रांतियां-सन्दर्भ पूर्वोत्तर भारत
रवि अजितसरिया,
गुवाहाटी
पूर्वोत्तर भारत के
लिए देश के दुसरे भाग में रहने वालें लोगों के पास कई तरह की भ्रांतियां और भ्रम
है, जिनको समाप्त करना
नितांत आवश्यक हैंl इन भ्रमों में कुछ
ऐसे हैंl एक तो हैंकि
पूर्वोत्तर एक दुर्गम इलाका है, वहां पहुचना मुश्किल हैंl दूसरा कि पूर्वोत्तर एक अंतकवाद ग्रसित इलाका
हैंl तीसरा, यहाँ की भाषा किसी को समझ में नहीं आती l चौथा कि यहाँ कभी भी दंगे और हड़ताल हो सकते हैंl यहाँ पर कुछ इलाके में तो अमूमन, महीने के पंद्रह दिन हड़ताल रहती हैंl पांचवां, पूर्वोत्तर में अजीब टाइप के लोग रहते है, उन्हें हिंदी तो समझ में नहीं आती, बल्कि स्थानीय भाषा के आलावा कुछ भी समझ में
नहीं आती हैंl उन्हें देश की
राजधानी दिल्ली में ‘चिंकी’ कह कर पुकारा जाता हैंl यह आरोप हैंकि इस तरह के सवालों के साथ हिंदी
पट्टी के लोग, पूर्वोत्तर आने से
कतराते हैंऔर एक विपरीत राय रखते हैंl आइये उपरोक्त बातों पर विस्तृत चर्चा कर ले l
इस बात को कोई नकार
नहीं सकता कि पूर्वोत्तर भारत हमेशा से ही पिछड़ा हुवा और अलग-थलग सा रहा हैं, कारण कि यहाँ की भौगोलिक स्थिति देश के अन्य
भागों के वनिस्पत बहुत ही विपरीत और दुर्गम हैंl सड़क के रास्ते पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहलाने
वाला शहर गुवाहाटी तक तो आसानी से जाया जा सकता, पर पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में जाने के लिए
पहाड़ी रास्तों और संकरें दुर्गम क्षेत्रों से गुजरना पड़ता हैंl इसके साथ ही किसी भी पर्यटक के लिए भोजन और
खान-पान को लेकर समस्या भी आ सकती हैंl कारण कि पूर्वोत्तर के ज्यादतर राज्यों के लोग मांसाहारी भोजन करतें हैंl फिर भी पूर्वोत्तर में लाखों की तादाद में ऐसे
लोग भी रहते हैंजो शाकाहारी हैंl इसके बावजूद भी समूचे भारतवर्ष में यह एक धारणा हैंकि पूर्वोत्तर भारत में कुछ
ऐसे लोग रहते हैंजो सिर्फ मांस खातें हैंऔर अजीब से कपड़े पहनते हैंl इस मिथ को ले कर हिंदी पट्टी के लोग पूर्वोत्तर
के लिए आश्चर्य प्रकट करते हुवे अक्सर उत्तर भारत के किसी भी शहर में लोग नजर आ
जायेंगे l सत्य यह हैंकि
पूर्वोत्तर के इलाके के लोगों के रहन-सहन ठीक उसी तरह का है, जिस तरह से मौसम और भौगोलिक परिस्थिति यहाँ पर
बनी हुवी हैंl समय के साथ विकास की
बयार जब पूर्वोत्तर की तरफ बहने लगी, तब शिक्षा और स्वास्थ की यहाँ बेहतर सुविधा मिलने लगी l शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन होने से
इलाके के लोग अपने आप को देश के अन्य भाग के लोगों से जुड़ाव महसूस करने लगे, जिससे उनका जीवन का स्तर बेहतर बन गया हैंl मणिपुर जैसे राज्य के लोग खेल-कूद में आज राज्य
का नाम रोशन कर रहे हैंl अरुणाचल प्रदेश में प्रक्रितिक सम्पदा भरपूर होने और सामरिक दृष्टी से
महत्वपूर्ण होने की वजह से भारत सरकार के लिए एक ऐसा राज्य हैंजिसे नजरअंदाज नहीं
किया जा सकता हैंl फिर भी उस राज्य के
लोगों का कहना हैंकि विकास की गति इस राज्य में बहुत ही धीमी हैंl
राज्य का ज्यादातर
हिस्सा पहाड़ी होने की वजह से शेष भारत के लोगों के लिए सुगम नहीं होने की वजह से
इलाके के बारे में उत्तर भारत के लोगों को अधिक जानकारी नहीं हैंl पर सच तो यह हैंकि अरुणाचल बहुत ही सुंदर राज्य
हैंl ऊँची पहाड़ियों पर
बर्फ की मोटी चादर बिछी हुवी सी दिखाई देती हैंl बोद्ध धर्म के अनुयायी यहाँ के लोग सरल और सहज
हैंl इसी तरह पूर्वोत्तर
के अन्य राज्यों में रहने वाले लोग जिनमे नागालैंड, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय और असम के
लोग है, जो अपनी अपनी भाषा
और पोषक पहेनते है, अपनी संस्कृति के
लिए जाने जाते हैंl इन्ही राज्यों में
जनजाति और आदिवासी लोगों के अलग पहनावे और बोलियाँ है, जिससे यह लोग हमेशा भीड़ में जल्द पहचाने जाते
हैंl इनके शारीरिक
डील-डोल और कद-काठी कुछ ऐसी रहती हैंकि देश के अन्य भाग के लोगों के सामने बिलकुल
भिन्न दिखाई देते हैंl जब भी पूवोत्तर के लोग दिल्ली या अन्य बड़े शहरों में शिक्षा और नौकरी के लिए
जाते हैंउन्हें जल्द ही उनकी चिपटी नाक की वजह से पहचान लिया जाता हैंl यही पहचान उनके लिए कभी कभी सरदर्द भी बन जाती
हैंl वैसे भी देश में
जातिवाद की जड़े आज भी उतनी ही गहरी हैंजितनी पहले हुआ करती थी l किसी भी राज्य के लोग उनके राज्य के नाम से
पहचाने और बुलाये जाते हैंl जैसे पश्चिम बंगाल के लोगों को बंगाली, बिहार के बिहारी, तमिल नायडू के
मद्रासी, इत्यादि l इसी तरह से पूर्वोत्तर के लोगों को चिंकी के नाम
से चिढाया जाता हैंl शिक्षा और श्रम और
शक्ति के मामलें में हिंदी पट्टी के लोगों से आगे होने के बावजूद उन्हें जंगली और
गंवार समझा जाता हैंl पिछले कई वर्षों में
दिल्ली में घटी कुछ घटनाएँ इस बात की और इशारा करतीं हैंकि अभी भी पूर्वोत्तर के
प्रति लोगों का नजरिया बदला नहीं हैंl दिल्ली में बने हुवे दिल्ली पुलिस के नार्थ-ईस्ट के स्पेशल सेल बना हुवा है, जहाँ के इंचार्ज आईपिएस अधिकारी रोबिन हिबू
हैंऔर पूवोत्तर के लोगों के लिए कोउसेल्लिंग भी करतें हैंl स्थिति यह हैंकि अभी भी दिल्ली के लोगों को यह
नहीं पता कि दार्जिलिंग कहाँ हैंऔर गुवाहाटी कहाँ हैंl
अब बड़ी बात यह हैंकि
देश के अन्य भाग के लोगों को पूवोत्तर के लोगों को भारत की मुख्यधारा में अगर
जोड़ना है, तब उन्हें यहाँ के
लोगों को गले से लगाना होगा l दिल्ली की योजनाओं का लाभ पूर्वोत्तर को भी उतना ही मिलना चाहिये, जितना अन्य राज्यों को मिलता हैंl तभी जाकर ‘पूरब की और देखे’ योजना सफल हो सकेगी l पूर्वोत्तर के लेकर एक बात हम यहाँ स्पष्ट करना
चाहेंगे कि यहाँ के लोग अपनी भाषा, संस्कृति और पौषक को लेकर अति संवेदनशील है, जो उनकी पहचान हैंl
अपनी अस्मिता और
पहचान की लड़ाई लड़ता हुआ पूर्वोत्तर
पूर्वोत्तर की जब भी
बात होती है, यह अक्सर कहा जाता
हैंकि पूर्वोत्तर उग्रवाद से बहुत ज्यादा ग्रासित है, और पूर्वोत्तर का भ्रमण करना खतरें से खाली नहीं
I पर पिछले कई वर्षों
में केंद्र सरकार ने पूवोत्तर के विकास को लेकर संजीदगी दिखाई है, जिसके फलस्वरूप यहाँ की स्थितियां बदल रही हैंl अब उग्रवाद संबंधी ख़बरें पूर्वोत्तर के अख़बारों
के प्रथम पृष्ठ पर नहीं आती,
क्योंकि स्थितियां
बदलने की कगार पर हैंl आधारभूत ढांचागत विकास और जीवन के स्तर को ऊँचा करने हेतु केंद्र की सरकार ने
पूर्वोत्तर को नई योजनायें दी हैंl रोजाना छन छन कर आने वाली ख़बरों से पुरे देश में लोगो को पूरा यकीन हो गया
हैंकि पूर्वोत्तर में कभी भी कुछ भी हो सकता हैंI पूर्वोतर के लोगो के बारे में यह भी धारणा हैंकि
यहाँ के लोगों को समझाना मुश्किल ही नहीं नामुनकिन हैंI ऐसा क्या हैंकि देश भर के लोगो ने यहाँ के लोगो
के लिए एक अलग धारणा बना ली हैंI
पूर्वोत्तर को अगर
गौर से देखें, तो पायेगे कि
पूर्वोत्तर देश का वह हिस्सा है, जहाँ भिन्न भिन्न जातियां, जनजातियां और आदिवासी रहते है, जिनके लिए विकास के मायने अलग है, जिनके लिए वैश्वीकरण का कोई मतलब नहीं l जिनमे, कई पहाड़ी इलाके के
लोग हवा, पानी और वायु को
अपना आराध्य मानते हैI जनजाति और विभिन्न प्रजाति के लोग एक सामान्य जीवन यापन करतें आये हैI एक समृद्ध लोक
संस्कृति के वाहक, यहाँ के लोग
साधारणतः एक साधारण जीवन जीने के आदी हैंI अभी पूर्वोत्तर के कुछ भागों में विकास की बयार बहने लगी हैंI पिछडापन, भिन्नता, असंतोष, गुलाम और उपनिवेश बनाने की भावना का पनपना, कुछ ऐसे कारण है, जिसकी वजह से पूर्वोत्तर में असंतोष पनपा हैंI यह भावना पिछले 50 वर्षों से लोगों के दिल में विद्यमान है, अधिक स्वायत्तता के लिए आन्दोलन शुरू होने लगे I जब असम में छात्र आन्दोलन शुरू हुआ था, एक ऐसा छात्र आन्दोलन जिसने शासन को भी हिला कर
रख दिया था I तब यह मांग उठने लगी
थी कि पूर्वोत्तर के राज्यों को भी अन्य राज्यों जैसे सामान अधिकार मिले, संसाधन के उपयोग के बदले उचित पारितोषिक प्राप्त
हो I मालूम हो कि
पूर्वोत्तर के असम में देश भर के 95% चाय उत्पादित होती है, जिनके स्वत्वाधिकारी देश विदेश के बड़े व्यापारिक
घराने से हैंI तेल और प्राकृतिक
सम्पदा से भरपूर पूर्वोत्तर अपने समग्र विकास की मांग करने लगा, जिनमे तेल और गैस के खनन पर उचित पारिश्रमिक
मुख्य मांगों में शामिल थीl इतना ही नहीं, पडोसी देश बंग्लादेश
से आये हुए लाखों अवैध नागरिकों की खोज एवं निष्कासन, छात्र आन्दोलन की एक मुख्य मांग थी I पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों से भी अधिक स्वायत्त
की मांगे उठने लगी I भारत द्वारा पूवोत्तर,खास करके असम को एक उपनिवेश की तरह उपयोग करने
का आरोप लगते हुए, बुद्धिजीवियों ने इस
६ वर्षों तक चलने वालें आन्दोलन को भरपूर सहयोग दिया, जिसके चलते स् न 1985 में असम में क्षेत्रीय राजनेतिक पार्टी असम गण परिषद भारी मतों से जीत
कर सत्ता में आईl क्षेत्रीयता का
शुरुआती दौर यही से शुरू हुवा, जो अब तक चल रहा हैंl
भारत सरकार की ‘लुक ईस्ट ‘ योजना सन 1995 में शुरू हुई, जिसमे यह तय किया
गया कि भारत की विदेश नीति के तहत पडोसी देशों के साथ मैत्री बढ़ाई जाएँ, जिससे व्यापार और अन्य तरह के आदान प्रदान हो
सके I इसके लिए यह जरुरी
हो जाता हैंकि भारत पूर्वोत्तर क्षेत्र को एक महत्पूर्ण स्थान प्रदान कर, उसका समग्र विकास
करे और इसके लिए यह
भी जरूरी हो जाता हैंकि पूर्वोत्तर को उन पडोसी देशों से जोड़ा जाएँ, जिनकी सरहदें यहाँ के राज्यों से जुड़ती हैंI पूर्वोत्तर राज्यों की सरहदें बंग्लादेश, म्यांमार, भूटान और चीन से जुडी हुई है, जिससे पूर्वोत्तर के इलाका सामरिक और अर्थनेतिक दृष्टी से महत्पूर्ण बन जाता
हैंI बंगलादेश से जब भी
द्विपक्षीय वार्ता होती है, भारत ने पूवोत्तर प्रान्त में रहने वालें लाखों अवैध नागरिकों को वापस लेने की
बात की है, पर बंगलादेश टालमटोल
का रवय्या अपना कर, हमेशा की तरह अपनी
बात पर अटल हैंकि एक भी अवैध बंगलादेश का नागरिक भारत भूमि पर नहीं हैंI पर सत्य यही है, अकेले असम में ही 30 लाख से ज्यादा घुसपेठियों ने यहाँ के
आर्थ-सामाजिक ढांचे को तहस नहस कर दिया हैंI इतना ही नहीं, कई वर्षों पहले में
कोकराझाड़ में हुवे जातिय हिंसा में बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे I जानकार बताते हैंकि यह हिंसा इसलिए उपजी, क्योंकि अवैध बांग्लादेशियों ने बोडो जाति( असम
की एक प्रजाति) की जमीनों पर कब्ज़ा जमाना शुरू कर दिया था I एक प्रजाति, जिसने बोडोलैंड की मांग पर एक बोडो उग्रवादी गुट
बना कर कई वर्षों तक हिंसक आन्दोलन किया और अब एक स्वायत शासित इलाका में
शांतिपूर्वक रह रहा हैंI इस हिंसा के बाद यह भी आशंका व्यक्त की गयी कि संभव हैंकि बोडोलैंड इलाके में
दुबारा से हिन्सा हो, क्योंकि समस्या का
उस समय एक फोरी हल तो निकाल लिया गया, पर जो टीस बोडो प्रजाति के लोगो को लग गयी है, उससे लंबे समय तक बोडोलैंड में हिन्सा तो नहीं
उपजेगी, पर उस टीस का दर्द
रह रह कर होंगा, यह तय हैंI
मणिपुर के लोगो की
यह मांग हैंकि सेना ने इस कानून का दुरूपयोग किया है, जिससे बड़ी संख्या में लोगो की जाने गयी हैंl मणिपुर के मैती जनजाति के लोगो ने अलग सशस्त्र
दल बना कर, अपने अधिकारों की
रक्षा करने का निश्चय बहुत पहले ही कर लिया था l जबकि यह एक सत्य हैंकि, मणिपुर में समस्याओं का एक बड़ा अम्बार लगा हुआ
है, जिससे सामाजिक ढांचा
लगभग चरमरा गया हैंl मणिपुर, जहाँ 71% साक्षरता है, म्यांमार की सीमा से सटा होने कि वजह से स्वर्ण त्रिकोण का एक द्वार माना जाता
हैंl मोरेह, जो मणिपुर का एक अंतिम क़स्बा है, जहां की जनसंख्या 15000 के करीब है, एक व्यावसायिक सेंटर के रूप में विकसित हुआ है, जो पूरब का द्वार के रूप में जाना जाता हैंl यहाँ से म्यांमार, थाईलैंड तक सड़क के रस्ते, जाया जा सकता हैंl यह क़स्बा मादक पदार्थो की तस्करी के लिए भी जाना
जाता हैंl ‘लुक ईस्ट ‘ को अगर वास्तव में
रूपायित करना है, तब, मोरेह जैसे रूट को एक अन्तराष्ट्रीय द्वार बनाया
जा सकता हैंl और यह तभी संभव है, जब भारत सरकार की राजनैतिक इच्छा शक्ति होगीl खुशी की बात यह भी है, ट्रांस एशिया रेल योजना ,जो 346 किलोमीटर की एक महत्वाकांक्षी योजना है, जो,
सिंगापूर, चीन, विएतनाम, कम्बोडिया, भारत, बंगलादेश, म्यांमार, थाईलैंड,और कोरिया को रेल मार्ग के द्वारा जोड़ेगीl यह योजना संयुक्त
राष्ट्र की एशिया पेसिफिक आर्थिक आयोग की एक महत्वाकंशी योजना हैंl
पूर्वोत्तर के बारे
में चाहे धरना कोई भी हो, यह तय हैंकि आने वालें दिनों में पूर्वोत्तर के लोग अपनी अस्मिता और अपने
अधिकारों के लिए लामबंध होते नजर आएंगे l पूर्वोत्तर के सभी प्रदेशों के छात्र संघठनों(नोर्थ ईस्ट स्टूडेंट
ओर्गेनिजेसन) ने पहले से ही कमर कास कर अवैध बंगलादेशी नागरिकों के निष्कासन के
लिए तत्पर हैंl
वनस्पतिओं और
प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर पूर्वोत्तर अब विकास के मार्ग पर चल पड़ा है, जिसके लिए अब नयी दिल्ली को पूर्वोत्तर की और चाहत
भारी नज़रों से देखना होगा l चाहे बात उग्रवादियों से शांति बातचीत की हो, या फिर विषेश आर्थिक योजना हो, यहाँ के लोगो को यह लगना होगा कि उनके साथ कोई
सौतेला व्यव्हार नहीं हो रहा हैंl खुशी की बात यह भी हैंकी पूर्वोत्तर के मुख्य उग्रवादी गुटों जिनमे उल्फा और एनेएससीन के उग्रवादियों ने भारत सरकार से
शांति वार्ता के लिए जंगलों से बाहर निकल आयें है, जिसका यहाँ के लोगों ने स्वागत किया हैंl असम के पहाड़ी इलाके जैसे डिमा-हसोऊ के
उग्रवादिओं ने पहले से ही समर्पण कर राष्ट्र कि मुख्य धारा में शामिल होने का
निश्चय कर लिया हैंl सडक, पानी और बिजली विकास के पैमाने है, जिसको मुहय्या करवा कर, पूर्वोत्तर को एक समृद्ध इलाका बनाया जा सकता है, इसमें कोई दो राय नहीं हैंl जरुरत इस बात की हैंकि पूर्वोत्तर के सभी
प्रदेशों के साथ एक मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध केन्द्र स्थापित करें, जिससे, यहाँ के लोगों को यह लगने लगे कि वे भी भारत की मुख्य धारा में है, अन्यथा स्थाई शांति पूर्वोत्तर में संभव नहीं
हैंl
असम की भाषा एवं
बोलियाँ
असम प्रदेश की
जनसँख्या के ढांचे को अगर गौर से देखे, तब पाएंगे कि यहाँ थोड़ी थोड़ी दूर पर अलग-अलग बोलियाँ और भाषा सुनाई पड़ती हैंl असम की जनसँख्या करीब तीन करोड़ बीस लाख के करीब हैंl प्रदेश की अधिकारिक भाषा असमिया होने के बावजूद, यहाँ रहने वाली जाति और जनजातियों के लोग अपनी
भाषा में ही वार्तालाप करते हैंl मसलन बोडो भाषा जो असम के चार जिलों, कोकड़ाझार, चिरांग, बक्सा और उदालगुड़ी में मुख्यतः बोली जाती है,पर समूचे ब्रह्मपुत्र घाटी में बोडो जनजाति के
लोग फैले हुए हैंऔर अपनी भाषा का ही उपयोग करते है, प्रदेश की एक प्रमुख भाषा कहलाती है, जिसके बोलने वालें कम से कम 15 लाख के करीब हैंl विभिन्न भाषा-भाषी के लोग दशकों से असम में वास
कर, एक मिनी भारत का
स्वरुप पेश करते हैंl
यहाँ असमिया, बंगाली, उड़िया, मैथली और हिंदी भाषा
व्यावहारिक भाषा की गिनती में आती हैंl इसके आलावा, कार्बी, नेपाली और देओरी दिमासा, तिवा और राभा भाषा का भी उपयोग विभिन्न अंचलों
में होता हैंl प्रदेश में रहने
वाली विभिन्न जाति और जनजातियों की अलग-अलग भाषा हैंl असम के उपरी असम इलाके में जिस तरह की असमिया
भाषा का उपयोग होता है, वह निचले असम में सुनाई नहीं देती l जनसांख्यिकी के बदलने से पिछले 50 वर्षों से निचले असम में भाषा का स्वरुप बदलने लगा हैंl यहाँ असमिया लोगों से साथ बांग्लाभाषियों के एक
साथ वास करने और कही कही बांग्लाभाषियों की बहुलता होने की वजह से बंगला भाषा का
प्रभाव असमिया भाषा पर भी पड़ा हैंl राज्य में 2001 के जनगणना के अनुसार राज्य में बंगला बोलने वालों की कुल जनसँख्या रही है, करीब 70 लाख से ज्यादा l बराक घाटी में तो मुख्यतः बंगला ही बोली जाती
हैंl बंगला भाषी के आलावा
यहाँ मारवाड़ी, मणिपुरी, ओडिया और अन्य जनजाति के लोग अपनी अपनी भाषा
बोलते हैंl कुल मिला कर अगर
देखे तो पाएंगे कि असम में दस बोलियाँ ऐसी है, जिसे बड़े रूप में मान्यता प्राप्त हैंl प्रदेश में रहने वाली जनजातियों के लोग अपनी
बोली में बोलते हैंl उपरी असम के इलाके में चाय जनजाति के लोग अपनी
भाषा बोलते है, जो असमिया से बिलकुल
भिन्न हैंl ऐसा माना जाता हैंकि प्रदेश में करीब 1.5 करोड़ लोग खास असमिया बोलते है, जो असम के बराक घाटी और बोडो इलाकों के जिलों को
छोड़ कर प्राय सभी जिलों में असमिया भाषा बोली जाती हैंl पर कामरूप, नागांव, शिवसागर, नलबाड़ी, बारपेटा जैसे इलाके में असमिया भाषा का उपयोग बहलुता से होता हैंl असमिया लिपि में 41 व्यंजन और 11 स्वर हैl
ये व्यंजन और स्वर,हिन्दी, हमारी राष्ट्रीय भाषा, द्वारा प्रयोग किया जाता हैंजो देवनागरी लिपि के समान हैंl संस्कृत भाषा की एक उद्धत भाषा के रूप में ली
गयी असमिया भाषा, बंगला लिपि के सामान
है, जिसमे कुछ अक्षरों
का मामूली फेरबदल हैंl बंगला और असमिया लिपि में र और ब का मामूली फर्क हैंऔर ध्वनि-भेद भी हैंl
हिंदी और असमिया
भाषा के बहुत से शब्द एक होने के बावजूद उनको एकाएक असमिया भाषा में जब इन शब्दों
का उच्चारण किया जाता है, तब उनको पकड़ना आसान नहीं होता है, क्योंकि असमिया भाषा में ध्वनि, उच्चारण और संयुक्त शब्दों का बहुतर उपयोग होने से शब्दों को समझना मुश्किल
होता हैंl असमिया भाषा में च, छ और स के उपयोग में थोड़ी भिन्नता है, जो हिंदी से असमिया को ज्यादा अलग करती हैंl स को ख के रूप में उच्चारण किया जाना, समझने में एक बड़ा फर्क आता हैंl मसलन हिंदी में ‘समर्पण’ होता हैंऔर उच्चारण भी स से ही शुरू होता है, पर असमिया भाषा में समर्पण के मायने एक होने के
बावजूद भी उसका उच्चारण ‘खमर्पण’ होता हैंऔर उपर से ख
को ‘खो’ जैसे उच्चारित किया जाता हैंl ठीक ऐसे ही वाक्य संगरचना में भी हिंदी और
असमिया भाषा में फर्क यह हैंकि संयुक्त शब्दों का उपयोग अधिक होता हैंl जैसे ‘गुवाहाटी के’ को शुरू कर के एक
वाक्य लिखने की शुरुवात हम हिंदी में लिखेंगे, तब असमिया में इसे ‘गुवाहटित’ लिख कर दो शब्दों को एक साथ लिख कर वाक्य शुरू करेंगे l
असमिया वर्णमाला में
हिंदी की ही तरह वर्णों का उपयोग किया गया
है, पर उसकी लिपि असमिया
होने के कारण उसे समझने में थोड़ी मुश्किलें आती हैंl थोडा अध्यन करने से असमिया भाषा यहाँ रहने वालें
हिदी भाषी समझ और लिख भी लेते हैंl असम में वर्षों से वास कर रहे हिंदी भाषी लोग अब यहाँ की भाषा को ह्रदय से लगा
कर ना सिर्फ इसे जाना हैंबल्कि इसमें शौध और लेखन भी कर रहे हैंl प्रदेश में अन्य जनजाति भाषाओँ में बोडो भाषा एक
ऐसी भाषा हैंजिसकी लिपि देवनागरी है, एक तिब्बत-बर्मन परिवार की एक शाखा भाषा हैंl प्रदेश में करीब १५ लाख बोडो भाषी लोगों ने
देवनागरी लिपि अपना कर कुछ अंग्रेजी के शब्दों को भी उसमे अंतर्भुक्त किया हैंlप्रदेश में हाल के वर्षों में गठित जनजाति लोगों
के विकास के लिए गठित स्वायत शासित परिषदों से जनजाति लोगो की भाषाओँ के विकास की
संभावना बढ़ी हैंl इसके आलावा असम के
सीमावर्ती प्रदेशों से सटे हुवे इलाकों में जैसे नगमिस, खासी भाषा का उपयोग भी दोनो तरफ के लोग के लोग
करतें हैंl पूर्वोत्तर के
प्रवेश द्वार होने के नाते, असमिया भाषा, पूर्वोत्तर के लोग
कम-ज्यादा बोल लेते है, और कभी-कभी संपर्क भाषा भी बनती हैंl पूवोत्तर की भोगौलिक स्थिति कुछ ऐसी हैंकि यहाँ आने वालें आगंतुक विषम
परिस्थिति में रहने वाले पूर्वोत्तर के लोगों के रहन-सहन और भाषा के बारे में अधिक
जान ही नहीं पाते l इसलिए यह भी देखा
गया हैंकि पूर्वोत्तर के बारे में देश के अन्य भागों में रहने वाले लोगों ने कुछ
भ्रांतियां भी पाल रखी हैंl
महापुरुष श्रीमंत
शंकरदेव(1449-1568)
महापुरुष शंकरदेव असमिया संस्कृति, धर्म और समाज के सबसे महत्वपूर्ण वास्तुकार माने
गए हैंl एक साहित्यकार, नाटककार, कवि, नर्तक, नृत्य निर्देशक, मूर्तिकार, अभिनेता, एक महान मानवतावादी, दार्शनिक, पर्यावरणविद्, एक धार्मिक नेता, सामाजिक-धार्मिक सुधारक और विद्वान थे l --- सभी गुण एक व्यक्ति में समायें हुए थे l इनका जन्म असम के नागांव जिले के बरदुआगावं में
सन 1449 को हुआ था l ऐसी बहुमुखी प्रतिभा वाले व्यक्ति विरले ही पैदा
होते हैंl उन्होंने असमिया
संगीत की नींव रखी थी l बोरगीत की रचना की, जिसे असमिया समाज ने प्रभु के गीत मान कर आज भी इसे स्मरण करतें हैंl अंकीय नाटक एक ऐसी विधा थी, जिसकों श्रीमंत शंकरदेव ने रचित किया और
पुरे पूर्वी भारत के लगभग अभी भाषाई
समूहों के समझने वाली भाषा –ब्रजभाषा प्रदान की और लोगों के प्रभु के नाम लेने के लिए नाम घर बनवाएं और
सांस्कृतिक और धार्मिक लक्षणों की शिक्षा के लिए समुच असम में नामघरों की स्थापना
कर के धर्म के प्रदर्शन के लिए सत्र के रूप में एक संस्थागत आधार बनाया l
शंकरदेव के दर्शन:
श्रीमंत शंकरदेव के
धर्मशास्त्र, दर्शन और नैतिकता और असम के वैष्णव धर्मवाद के धार्मिक
सिद्धांतों को समझने के लिए, हमें उनके द्वारा संस्कृत भाषा में रचित काव्य ‘भक्ति रत्नाकर’ को समझना होगा, जिसमे भागवत पुराण की व्याख्या थी l इसके आलवा वेदांत के गूढ़ रहस्य के रूप में
असमिया भाषा में लिखे गए अन्य काव्य ,श्रीमंत के असमिया वैष्णववाद पर दी गयी टिप्पणियों पर आधारित हैंl यह समझा जाता हैंकि भागवत-पुराण, भगवद- गीता और पद्म-पुराण के सहस्त्र नाम एक
अधिकारिक विधा मानी गयी, जो शंकरदेव के उन मुख्य लेखों के निकल कर आई थी, जिसमे प्रमुख रूप से निम्नलिखित विधा प्रसारित
हुई थी - सत्संग(भक्तों की सभा), एक्शरण(एक इश्वर का आश्रय) और नाम(इश्वर का कीर्तन) l
भागवत-पुराण, गीता, और अन्य वैष्णव पुराणों और ग्रंथों को
असमिया में रूपांतरित कर धार्मिक लेखकों
द्वारा अधिकारिक रूप से उद्धृत किया गया है,
जो मुख्तःत शंकरदेव और
माधवदेव द्वारा रचित कृतियों के रूप में थी, जिसकों असमिया समुदाय में ईश्वरीय गीत और धर्मगीत मान गया है, जिसकों आज भी धार्मिक सम्मेलनों में उपयोग किया
जाता हैंl
शंकरदेव द्वारा
प्रचारित ‘एक्शरण नाम्धर्मा’, एक ऐसी धार्मिक विधा थी, जिसके आधार पर उन्होंने भगवान् विष्णु को सर्व
व्यापी बताया, जो कृष्ण के रूप में
अवतरित हुए थे इस युग में l सत्र और नामघर जसे स्थानों के गठन से उन्होंने समाज में वैष्णव धर्म को
प्रचारित किया l
नृत्य, नाटक और भगवद गीता के उच्चारण के लिए ये स्थान
उपयुक्त माने गए l नाम्घरों के स्थानों
को इस तरह से बनाया गया कि वैष्णव धर्म के विभिन्न आयामों की इसमें समाहित किया जा
सके, जिससे आने वाले
आगुन्तकों को वैष्णव धर्म के होने का अहसास हो सके l
संघर्ष के नए स्वरुप
और अर्थ-सामाजिक स्थितियां
उत्तरपूर्वीय राज्य
कई जातीय समूहों की गृहभूमि हैं, जहाँ विभिन्न जातियां अपने स्व-रक्षण में लगी हुई रहती हैं। सभी
जाति-जनजातियां अपने अस्तित्व की रक्षा कर रही हैंl जातियों के वर्स्चस्व की ना जाने कितनी लड़ाइयां
अब तक हो चुकी है, सशस्त्र भी
शांतिप्रिय भी l अभी भी पूर्वोत्तर
में स्थाई शांति नहीं हैंl समय समय पर उग्रवादी अपनी बन्दुक कर मुहं बेकसूर लोगों की तरफ कर देतें हैं, जबकि यह अब तक प्रमाण हो चूका हैंकि बेकसूर
व्यक्तियों की हत्या करने से किसी को कुछ हासिल नहीं होगा l दहशत और संदेह का वातावरण फैलने के अलावा शायद
कुछ भी नहीं l अगर हम मिजोराम की
तरफ देंखे तब पाएंगे कि आज मिजोराम एक शांतिप्रिय प्रदेश हैंऔर हर क्षेत्र में
तेजी से प्रगति कर रहा हैंl वहां उग्रवादियों को यह समझ में आ चूका था, कि हिंसा से किसी
समस्या का समाधान नहीं हैंl जब उद्ध्यमशील मिज़ो औरतें गुवाहाटी में अकेले बाज़ार करतें हुए दिखाई पड़ती है, तब एक सुखद अहसास होता हैंकि कैसे वहां के लोगों
ने ही वहां का कायापलट कर दिया हैंl उल्लेखनीय हैंकि इस राज्य की साक्षरता दर 92 प्रतिशत हैंl पूर्वोत्तर में जनजातियों और अन्य सामुदायिक
संघर्षों के अनेकों वाक्यें है,जिन्हें इतिहासकारों ने संजो कर रखा हैंl जब सन 1979 में आसू का आन्दोलन शुरू हुवा था, तब यह आन्दोलन असम के अवेध रूप से रह रहें विदेशियों के खिलाफ था l उसके साथ ही असम के उत्पादित खनिज और चाय के
दोहन के खिलाफ भी यह एक सशक्त मुहीम थी l इस मुहीम में किसी भी हिंदी भाषी को ऐसा नहीं लगा कि आसू उनके खिलाफ है, उन्होंने तन-मन-धन से आसू को भरपूर सहयोग किया
था l इतना ही नहीं कुछ
उत्साहित हिंदी भाषी युवा जिसमे, राजस्थानी, बिहारी, और अन्य इत्तर भाषी जिसमे पंजाबी लोग मुख्यतः थे, आसू में शामिल हो कर आन्दोलन को समर्थन किया था l छह वर्षों तक चलने वाला यह आन्दोलन असम में रहने
वाले स्थाई लोगों, चाहे वे किसी भी
भाषा भाषा और धर्म के हो, उनके खिलाफ नहीं था, बल्की बड़ी संख्या में आये लाखों विदेशी लोगों के खिलाफ था, जो बिना कुछ दिए, असम का संसाधन बड़ी आसानी से गटक रहें थे l अगर गौर से देखा जाये, तब पाएंगे कि हमें शिक्षा के साथ, अच्छे-बुरे में निर्णय करने की क्षमता को हासिल
करली है, पर कठिन
परिस्थितियों में भी संयम बरतने की क्षमता विकसित नहीं कर पाए हैंl अभी भी कुछ बुद्धिजीवियों का मानना हैंकि नई
दिल्ली में असम को लेकर आचरण नहीं बदला हैं, उनको लगता हैंकि यहाँ आन्दोलन के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, राज्य में ज्यादातर बहुसंख्यक असमियाभाषी लोग
होने के बावजूद भी यहाँ, असमिया हितों की रक्षार्थ निर्णय नहीं लिए जातें, इसका सीधा-साधा जबाब यह हैंकि शासन में अभी भी
पूर्वाग्रह हावी हैंl फिर भी असमिया
मुख्यधारा में शामिल रह कर असमिया अस्मिता की रक्षा करने के वचन जिन लोगों ने भी
लिया है, वे असम के सच्चे
हितेषी हैंl सदियों से बड़ी
संख्या हिंदी भाषियों के लिए यह सबसे बड़ी समस्या थी कि जो लोगो वर्षों से यही
रच-बस गए है, उनके लिए देश के
दुसरे कौनों में भी कोई स्थान नहीं था l आज भी कामो-वेस यही स्थिति बनी हुई हैंl हिंदी भाषियों ने यहाँ रहते हुए व्यापार-वाणिज्य का विस्तार किया, राज्य के विकास में भरपूर सहयोग किया, पर कभी भी अपने लिए
कोई आरक्षण की मांग नहीं की l अपने लिए कोई राजनैतिक आवरण भी इन्होने कभी भी नहीं बनाया, बस सतारुख पार्टियों के साथ मित्रता करके हमेशा
से ही राज्य के उत्तरोतर विकास में सहयोगी रहें हैंl इन सबके बीच, यह कहा जायेगा कि भारतीय समाज की श्रेष्ठम
उपलब्धियां अगर गिनी गए, तब उसमे से पाएंगे कि सदियों से यहाँ एक जीवंत सस्कृति वास कर रही है, जिसका आधार एक सामाजिक तानाबाना यहाँ स्थित हैंl यह तानाबाना हमें एक दुसरे से जोड़े हुए रखता हैंl असम में रहने वाली जातियां, जन्गोष्ठियाँ और विभिन्न समुदायों के बीच
सोहार्द कैसे हो, जिससे सभी को एक
सामान विकास के अवसर मिले, यह एक मूल प्रश्न होना चाहिये l जारी..
पूर्वोत्तर की आयुष
रेखा ब्रह्मपुत्र
तिब्बत से अवतरित
होने वाली नदी ब्रह्मपुत्र नदीब्रह्मपुत्र, अपने उद्गम से लगभग 2900 किलोमीटर का सफ़र करके बंगाल की खाड़ी में जा मिलती हैंl ब्रह्मपुत्र एक नदी(नद) है,जो तिब्बत, भारत तथा बांग्लादेश से होकर बहती है। ब्रह्मपुत्र का उद्गम तिब्बत के दक्षिण
में मानसरोवर के निकट चेमायुंग दुंग नामक हिमवाह से हुआ है। इसकी लंबाई लगभग 2900 किलोमीटर है। इसका नाम तिब्बत में सांग्पो, अरुणाचल में दिहिंग तथा असम में ब्रह्मपुत्र है।
यह नदी बांग्लादेश की सीमा में जमुना के नाम से दक्षिण में बहती हुई गंगा की मूल
शाखा पद्मा के साथ मिलकर बंगाल की खाड़ी में जाकर मिलती है। सुवनश्री, तिस्ता, तोर्सा, लोहित, बराक आदि ब्रह्मपुत्र की उपनदियां हैं।
ब्रह्मपुत्र के किनारे स्थित शहरों में प्रमुख हैं डिब्रूगढ़, तेजपुर एंव गुवाहाटी, धुबड़ी और ग्वालपाड़ा । प्रायः भारतीय नदियों के नाम
स्त्रीलिंग में होते हैं पर ब्रह्मपुत्र एक अपवाद है। संस्कृत में ब्रह्मपुत्र का
शाब्दिक अर्थ ब्रह्मा का पुत्र होता है। इस नदी की लम्बाई को लेकर या कहा जाता
हैंकि तिब्बत में इसकी लम्बाई 1625 किलोमीटर है, भारत में 918 किलोमीटर और बांग्लादेश में 357 किलोमीटर का सफ़र करती हैंl इस नदी के उद्गम से अंत तक ना जाने कितने गावं
शहर बस गए, कितनी सभ्यताएं और
संस्कृतियाँ उभर कर आई है, जिनका वर्णन करना आमतोर पर मुश्किल हैंl पर उत्तर से दक्षिण की तरफ जब यह नदी बहती हैंतब, नदी पर बने हुए घाटों से वे तमाम तरह की
गतिविधियाँ संपन्न होती है, जो आम तोर पर एक नदी के तट पर होती हैंl इतिहास गवाह हैंकि इस नदी का तट पर मुगलों और आहोम सरदार लचित बरफुकन ने
एतिहासिक युद्ध लड़ा था, जिसमे लचित बरफुकन ने मुगलों को वापस खदेड़ दिया था l लचित बरफुकन ने मुगलों को नदी युद्ध कौशल के
जरिये ही हराया था l यही वह नदी थी, जिसकी लहरों ने वीर लचित को सहारा दिया था l असम के लोगों के लिए मात्र यह एक नदी नहीं है, बल्कि यहाँ के लोगों की जीवन रेखा है, बावजूद इस सच्चाई के साथ कि हर वर्ष जब अरुणाचल
की पहाड़ियों से जब अधिक वर्षा के कारण उसकी तलहटी पर बनी हुई झीलें जल से सराबोर
हो जाती है, तब वे अपनी सीमओं का
अतिक्रमण कर के ब्रह्मपुत्र को जलमग्न कर देती है, जिससे हर वर्ष असम में भारी बाढ़ आती है, जान-माल और पशु धन की भारी क्षति होती हैंl फिर भी ब्रह्मपुत्र को लेकर यहाँ के लोग बेहद
संवेदनशील हैंl यहाँ की संस्कृति
में ब्रह्मपुत्र का एक शीर्ष स्थान हैंl ब्रह्मपुत्र पर ना जाने कितने ही गीत लिखे जा चुके l असम के प्रसिद्ध संगीतकार, गीतकार और सांस्कृतिक पुरुष भूपेन हजारिका ने
अपनी रचनाओं में ब्रह्मपुत्र को एक विशेष स्थान दिया हैंl यह नदी असम की पहचान हैंl असमिया संस्कृति और लेखन में ब्रह्मपुत्र को
लेकर कहानिया और गीत तो लिखे ही गए हिया, साथ ही समय समय पर नदी का उल्लेख इतिहास और लोकगीतों में भी देखा जा सकता हैंl ब्रह्मपुत्र हमारे हिन्दू भगवान ब्रह्मा का
पुत्र है। आज के समय मे ब्रह्मपुत्र के बारे मे अत्याधिक कहानियाँ प्रचलित है, पर सबसे अधिक प्रचलित कहानी "कलिका
पुराण" मे मिलती है।
यह समझा जाता हैंकि
परशुराम, भगवान विष्णु के एक
अवतार, जिन्होने अपनी माता
को फरसे के सहारे मारने के पाप का पश्चाताप एक पवित्र नदी मे नहा कर किया। अपने
पिता के एक कथन के आदेश पर (उनके पिता ने उनकी माता पर शक किया) उन्होने एक फरसे
के सहारे अपनी माता का शीश धङ से अलग कर दिया था । इस कारण वह फरसा उनके हाथ से ही
चिपक गया। अनेक मुनियों की सलाह से वह अनेक आश्रम गये और उनमे से एक था
"परशुरम कुंड"। उपरी असम के अनेक पहाडियों से घीरा है, यह स्थान। परशुराम ने उनमे से एक पहाड़ी को तोड
कर लोगो के लिये जल धरा प्रवाहित की, जिसकी वजह से परशुराम का फरसा उनके हाथ से निकल गया और वे पाप से मुक्त हुए थे
। परशुराम भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। उनके पिता का नाम जमदग्नि तथा माता का
नाम रेणुका था। परशुराम के चार बड़े भाई थे लेकिन गुणों में यह सबसे बढ़े-चढ़े थे।
एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा तट पर
जल लेने गई रेणुका आसक्त हो गयी और कुछ देर तक वहीं रुक गयीं। हवन काल व्यतीत हो
जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्नि ने अपनी पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं
मानसिक व्यभिचार करने के दण्डस्वरूप सभी पुत्रों को माता रेणुका का वध करने की
आज्ञा दी। लेकिन मोहवश किसी ने ऐसा नहीं किया। तब मुनि ने उन्हें श्राप दे दिया और
उनकी विचार शक्ति नष्ट हो गई। अन्य भाइयों द्वारा ऐसा दुस्साहस न कर पाने पर पिता
के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेद कर दिया। यह
देखकर महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और परशुराम को वर मांगने के लिए कहा। तो
उन्होंने तीन वरदान माँगे- माँ पुनर्जीवित हो जायँ,उन्हें मरने की स्मृति न रहे, और भाई चेतना-युक्त हो जायँ l जमदग्नि ने उन्हें तीनो वरदान दे दिये। माता तो
पुनः जीवित हो गई पर परशुराम पर मातृहत्या का पाप चढ़ गया। मान्यता हैंकी जिस फरसे
से परशुराम जी ने अपनी माता की हत्या की थी वो फरसा उनके हाथ से चिपक गया था। तब
उनके पिता ने कहा की तुम इसी अवस्था में अलग-अलग नदियों में जाकर स्नान करो , जहाँ तुम्हें अपनी माता की हत्या के पाप से
मुक्ति मिलेगी वही यह फरसा हाथ से अलग हो जाएगा। पिता की आज्ञा अनुसार उस फरसे को
लिए-लिए परशुराम जी ने सम्पूर्ण भारत के देवस्थानों का भ्रमण किया पर कही भी उस
फरसे से मुक्ति नहीं मिली। पर जब परशुराम जी ने आकर लोहित स्तिथ इस कुण्ड में
स्नान किया तो वो फरसा हाथ से अलग होकर इसी कुण्ड में गिर गया। इस प्रकार भगवन
परशुराम अपनी माता की हत्या के पाप से मुक्त हुए और इस कुण्ड का नाम परशुराम कुण्ड
पड़ा। परशुराम कुण्ड को प्रभु कुठार के नाम से भी जाना जाता है। यह अरुणाचल प्रदेश
के लोहित जिला की उत्तर-पूर्व दिशा में २४ किमी की दूरी पर स्थित है। लोगों का ऐसा विश्वास हैंकि मकर
संक्रांति के अवसर परशुराम कुंड में एक डूबकी लगाने से सारे पाप कट जाते हैंl ब्रह्मपुत्र जल मार्ग को यातायात के लिए दुबारा
खोलने का एक प्रयास दुबारा से शुरू होने से यह आशा हुई हैं कि असम और पश्चिम
बंगाल के बीच जल यातायात पर्यटन और माल धुलाई की दृष्टि से दोनों राज्यों के लिए
राजस्व उत्पति का मार्ग सुगम करेगा l
माजुली द्वीप
उंचाई को तेजी से
छोड़ जब नदी मैदानों में दाखिल होती है, जहां इसे दिहांग नाम से जाना जाता है। असम में नदी काफी चौड़ी हो जाती हैंऔर
कहीं-कहीं तो इसकी चौड़ाई 10 किलोमीटर तक है। डिब्रूगढ तथा लखिमपुर जिले के बीच नदी दो शाखाओं में विभक्त
हो जाती है। असम में ही नदी की दोनो शाखाएं मिल कर मजुली द्वीप बनाती हैंजो दुनिया
का सबसे बड़ा नदी-द्वीप है। माजुली माजुली टापू का प्राकृतिक नजारा देखने, इस समय देश विदेश से सैलानी भरपूर मात्र में आ
रहें हैंl यह टापू जोरहट से 11 किलोमीटर दूर स्थित निमाटीघाट से लगभग 19 किलोमीटर दूर है, जिसकों निमातिघाट से नाव से पंहुचा जा सकता हैंl
लगभग एक घंटे के सफ़र
के पश्चात यात्रियों को माजुली स्थित अस्थाई घाट पर उतरना पड़ता हैंl उल्लेखनीय हैंकि माजुली असम में वैष्णव धर्म के
प्रचार और प्रसार के एक महत्वपूर्ण केंद्र है, जिसकी स्थापना 15वीं सदी में असमिया संत, धर्म प्रचारक श्रीमंत शंकरदेव ने की थी l यहाँ श्रीमंत शंकरदेव ने करीब 500 से ज्यादा सत्रों(पूजा घर), उस समय की थी l समय और काल के बाद अब माजुली में करीब 64 सत्र आज भी बनें हुए है, जहाँ वैष्णव धर्म का प्रचार प्रसार किया जाता
हैंl यहाँ के लोग मिसिंग
और असमिया भाषा बोलतें हैंl इस नदी द्वीप की खासियत यह हैंकि यहाँ पर लोग चावल की खेती में यूरिया या
कृत्रिम खाद का उपयोग नहीं करतें हैंl एक प्रदुषण मुक्त वातावरण माजुली में हमेशा विराज करता हैंl इस द्वीप की कुल जनसँख्या करीब 1l 5 लाख हैंl नदी के किनारों पर बनें हुए घरों को हर वर्ष आने वाली बाढ़ से बचाने के लिए, जमीन के दस फीट ऊँचे मचान पर बनाएं गएँ हैंl कृषि पर आधारित यहाँ का जनजीवन, नदी के बदलते बहाव से बड़े पैमानें पर हो रहें
कटाव से बाधित हो रही हैंl असम सरकार ने माजुली को एक जिला घोषित करने के पश्चात, अब यहाँ पर ढांचागत विकास तेजी से किया जा रहा
हैंl निमातिघाट से माजुली
के बीच एक सड़क सेतु का भी प्रावधान किया गया है, जिस पर कार्य शुरू होना अभी बाकी हैंl
सुआलकुची, असम की रेशम नगरी
ब्रह्मपुत्र के
पश्चिमी किनारे पर स्थित यह नगरी, असम का लघु उद्योग केंद्र हैंl गुवाहाटी से करीब 35 किलोमीटर दूर बसा हुवा, यह नगर असम की अलग रेशम प्रजाति मुगा, पात और एड़ी रेशम के लिए प्रसिद्ध है, जिसकी मांग समूचे देश में हैंl
असम के तीन प्रकार
के रेशम के कीड़े, यहाँ पर उगने वाली
वनस्पतियों की बहुतायत होने की वजह से, बड़ी मात्र में पाए जाते हैंl यहाँ के रेशम की खास बात यह हैंकि यह वस्त्र पूरी तरह से प्राकृतिक होतें है, जिन पर किस तरह का रंग नहीं चढ्या जाता l यहाँ के रेशम के वस्त्र प्राकृतिक रूप से
हेंडलूम के द्वारा ही तैयार किया जाता है, जिसे यहाँ की गृहणियां सुवालकुची के घरों में बुनती हैंl असमिया महिलाओं का मुख्य परिधान मेखला चादर भी
मुगा-एड़ी और पात सिल्क से ही बनी हुई रहती हैंl दरअसल में ’द गोल्डन फाइबर’ के रूप में प्रसिद्ध असम के रेशम उद्योग, यहाँ के अर्थ-सामजिक तानेबाने का एक हिस्सा हैंl विशुद्ध रूप से हाथों से बनाये जाने की वजह से
उन वस्तों में असम के जन-जीवन से जुडी हुई संवेदनाये भी जुडी हुई रहती है, जिससे यह वस्त्र उच्च मान के बताये जातें हैंl कपड़ा बुनने की परंपरा आज भी असम में लाखों लोगों
को रोजगार मुहय्या करवा रही हैंl इन वस्त्रों को लेकर कई प्रकार की किम्वदंतियां भी प्रचलित हैंl सुआलकुची में परंपरागत तरीकों से आज भी महिला
बुनकरों द्वारा ही अर्ध-स्वचालित फ्लाई सटल हथकरघा प्रणाली के द्वारा ही वस्त्र
तैयार किये जातें हैंl आज भी सुआलकुची की 73 प्रतिशत आबादी वर्षों पुरानी हस्त-करघा उद्योग में कार्यरत हैंl नारी शशक्तिकरण का इससे ज्यादा मर्यादापूर्ण
उदहारण पुरे भारतवर्ष में दिखाई नहीं देगा l असम की ग्रामीण अर्थव्यवस्था कुटीर उद्योग पर निर्भर हैंl करघा उद्योग, बांस उद्योग, पीतल उद्योग और मट्टी के बर्तन बनाने जैसे छोटे
उद्योग कुटीर उद्योग के रूप में प्रचलित हैंl असम में बने हुए वस्त्रों की मांग पुरे विश्व में हैंl खास करके यहाँ के रेशम के वस्त्रों का l
शक्तिपीठ कामख्या
गुवाहाटी में
ब्रह्मपुत्र के किनारे नीलाचल पहाड़ी पर स्थित है, देश के इक्यावन शक्तिपीठों में से एक योनी
शक्तिपीठ कामख्या शक्तिपीठ l मान्यता हैंकि जब भगवान विष्णु के चक्त्र से खंड-खंड हुई सती की योनी असम के
कामरूप जिले स्थित गुवाहटी की नीलाचल पहाड़ी पर जा गिरी थी l तब से इस स्थान पर माँ कामख्या मदिर में योनी
पूजन होता हैंl इस मंदिर में देवी
की प्रतिमा नहीं हों इसे एक शिलखंड के नीच से बहते हुए जल की पूजा होती है, जिसको देखने की भी मनाही हैंl हर वर्ष अषाढ़ माह में माता कामख्या के पवित्र
मंदिर के परिसर में अम्बुवासी मेला का आयोजन होता है, जिसमे देश-विदेश से लाखों लोगों का समागम होता
हैंl कहते हैंउन दिनों माँ कामख्या का रजस्वला होता है, जिस दरुरण शातिपिथ जागृत हो उठता हैंl इस स्थिति का लाभ उठाने साधू और तांत्रिकों का
जमावड़ा हर वर्ष यहाँ लगता हैंl साधना के लिए प्रसिद्ध कामख्या धाम, पुरे भारत में एक आस्था का प्रमुख केंद्र हैंl आहोम राजा नरनारायण ने १५वी शताब्दी में इस
मंदिर का जीर्णोद्धार करवया था l
असम और बाढ़

जल संसाधनों के
लिहाज से ब्रह्मपुत्र नदी दुनिया की छठे नंबर की नदी है, जो 629l 05 घन किमी/वर्ष पानी अपने साथ ले जाती है। नदी की कुल लंबाई 2,906 किमी है, जिसमें से 918 किमी भारत में पड़ती है। इसमें से 640 किमी असम में बहती है।ब्रह्मपुत्र की 41 सहायक नदियां हैं, जिसमें से 26 उत्तरी किनारे की ओर बहती हैं जबकि 15 दक्षिणी किनारे की ओर मानसून के पानी प्रवाह के
लिए यू-आकार की संकरी घाटी बंगाल की खाड़ी की ओर खुलते हुए चौड़ी हो जाती है। घाटी
की औसत चौड़ाई 80-90 किमी है। जबकि नदी की औसत चौड़ाई 6-10 किमी है। नदी की प्राकृतिक धारा भारत में प्रवेश करते ही
बहुत ऊंचाई से गिरती है, जिससे उसका प्रवाह बहुत तेज होता है।।पूर्वोत्तर के असम राज्य के 14 जिले तीन महीने पूरी तरह बाढ़ की चपेट में
रहतें हैंऔर कमोबेश यही स्थिति वहां हर साल प्रकट होती रहती है। हर साल नदियों में
आने वाली बाढ़ की विभीषिका की वजह से राज्य का लगभग 40 फीसदी हिस्सा पस्त सा रहता है।एक अनुमान के
अनुसार इससे हर साल जानमाल की लगभग 200 करोड़ रुपये का क्षति होती है। राज्य में एक साल के नुकसान
के बाद सिर्फ मूलभूत सुविधाएं खड़ी करने में ही दस साल से ज्यादा का समय लग जाता
हैंजबकि नुकसान का सिलसिला हर साल जारी रहता है। इसका मतलब यह हुआ कि असम हर साल
विकास की राह में 19 साल पीछे चला जाता
है।केंद्र और राज्य की सरकारें बाढ़ के बाद मुआवजा बांटने में तत्परता दीखाती है।
यह दुखद ही हैंकि आजादी के लगभग 67 साल बाद भी हम राज्य के लिए बाढ़ नियंत्रण की कोई मुकम्मल योजना नहीं दे पाए
हैं। यदि इस अवधि में राज्य में बाढ़ से हुए नुकसान व बांटी गई राहत राशि को जोड़े
तो पाएंगे कि इतनी धनराशि में एक नया और सुरक्षित असम खड़ा किया जा सकता था। असम
में हर साल तबाही मचाने वाली ब्रह्मपुत्र और बराक नदियां और उनकी लगभग 48 सहायक नदियां और उनसे जुड़ी असंख्य सरिताओं पर
सिंचाई व बिजली उत्पादन परियोजनाओं के अलावा इनके जल प्रवाह को आबादी में घुसने से
रोकने की योजनाएं बनाने की मांग लंबे समय से उठती रही है। असम की अर्थव्यवस्था का
मूलाधार खेती-किसानी ही है, और बाढ़ का पानी हर साल लाखों हेक्टेयर में खड़ी फसल को नष्ट कर देता है।ऐसे
में यहां का किसान कभी भी कर्ज से उबर ही नहीं पाता है। एक बात और यह कि
ब्रह्मपुत्र नदी के प्रवाह का अनुमान लगाना भी बेहद कठिन है। इसकी धारा लगातार और
तेजी से बदलती रहती है। परिणामस्वरूप भूमि का कटाव, उपजाऊ जमीन के क्षरण से नुकसान बड़े पैमाने पर
होता रहता है। पिछले साल पहली बारिश के दवाब में 50 से अधिक स्थानों पर ये बांध टूटे थे। इस साल
पहले ही महीने में 27 जगहों पर मेढ़
टूटने से जलनिधि के गांव में फैलने की खबर है। वैसे मेढ़ टूटने की कई घटनाओं में
खुद गांव वाले ही शामिल होते हैं। मिट्टी के कारण उथले हो गए बांध में जब पानी
लबालब भर कर चटकने की कगार पर पहुंचता हैंतो गांव वाले अपना घर-बार बचाने के लिए
मेढ़ को तोड़ देते हैं। उनका गांव तो बच जाता हैंलेकिन दूसरी बस्तियां पूरी तरह जलमग्न
हो जाती हैं।
बराक नदी
गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी प्रणाली की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी नदी है।इसमें
उत्तर-पूर्वी भारत के कई सौ पहाड़ी नाले आकर मिलते हैं जो इसमें पानी की मात्रा व
उसका वेग बढ़ा देते हैं। वैसे इस नदी के मार्ग पर बाढ़ से बचने के लिए कई तटबंध, बांध आदि बनाए गए और ये तरीके कम बाढ़ में कारगर
भी रहे हैं।
(लेखक असम में
स्वतंत्र लेखन करते हैं)
पता
हार्डवेयर हॉउस, 54/ए, हेम बरुआ रोड,
फैंसी बाज़ार, गुवाहाटी-781001
दूरभास- 9435019883