Friday, December 2, 2016

एक परिचित देश में अपरिचित सा मानव
रवि अजितसरिया
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डा. भरत झुनझुनवाला कहते है कि सरकार ने 500 और 1000 की मुद्रा का विमुद्रीकरण कर के एक साहसिक कदम तो उठाया है, पर यह पूरी कवायद तभी सफल हो सकेगी, जब इसका फायदा आम लोगों को होगा l यह फायदा आम लोगों तो तभी होगा, जब सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन पूरी इमानदारी से होगा l कितनी सच्चाई है, उनके इस कथन  में l सरकारी धन की बर्बादी को रोकने से देश में इमानदारी और अनुशासन होगा और फिर भारत को विकसित देश बनने से कोई नहीं रोक सकता l प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने सरकारी धन की गुणवत्ता को सुधारने की असली चुनौती है l यह बात हम इसलिए कह रहे है क्योंकि अक्सर यह देखा गया है कि लोगों के लिए देश का धन अपना जैसा नहीं लगता बल्कि लोगों के पास होने वाला धन अपना जैसा लगता है l यह स्थितियां इसलिए आई क्योंकि सरकरी बाबुओं ने जम कर सरकारी धन का अपव्यय किया, जिससे देश में कला धन कुछ लोगों के पास जमा होता गया, जिससे सरकारी धन की साख पूरी तरह से गिर गई l इतिहास गवाह है कि कई राज्यों में मार्च में जबरदस्त खरीदारी की जाती थी, जिसका कोई हिसाब नहीं होता था l आनन फानन बिल बनाये जाते थे, और ठेकेदार को पेमेंट कर दी जाती थी l यह सिलसिला स्वतंत्रता के बाद से ही चल रहा था, जो कई विभागों में आज भी बदस्तूर चल रहा है l सिक्सटी-फोर्टी करने की कला सरकारी बाबुओं में ठीक उसी तरह से है, जैसे एक फिरकी गेंदबाज में अनुवान्सिक रूप से रहती है l इन छेदों को पूरी तरह से बंद करने की जरुरत है l हमारे सरकारी खर्चों में कोई कंट्रोल नहीं है l जो जितना खर्च कर दिया उतना ही पास हो गया, क्योंकि पास करने वालें भी उतना ही खर्च कर रहें है l एक दुसरे के बिलों को क्यों रोंके l अब देखिये, गावों में सड़क, पानी और बिजली के लिए लोग अक्सर आवाज उठाते है, पर फंड की कमी की दुहाई दे कर लोगों का मुहं बंद कर दिया जाता है l अब सरकार के पास चार-पांच लाख करोड़ रुपये कर और अन्य स्त्रोतों से आ जाने की उम्मीद है, जिसका वह सदुपयोग कर सकती है l लोक सभा और राज्य सभा के सांसदों के पास पहले से ही उनका 5 करोड़ प्रति वर्ष का अपना फंड(संसदीय क्षेत्र विकास फंड) रहता है, जिसका उपयोग वे इलाके की भलाई के लिए खर्च कर सकतें है l उनके पांच वर्ष के कार्यकाल में यह फंड कुल 25 करोड़ हो जाता है l पर होता है एकदम उल्टा, कई सांसदों का फंड खर्च नहीं करने की सूरत में वापस लौट जाता है l इसमें कही ना कही विजन की कमी रहती है l उन्हें वह नहीं दिख रहा होता है, जो आम लोगों के सामने रहता है l इसी तरह से राज्यों के विधान सभा के सदस्यों के पास भी 2 से 5 करोड़ का फंड उनके क्षेत्र के लिए रहता है , पर किसी को यह पता नहीं चलता कि कैसे विधान सभा के सदस्य यह राशि खर्च करतें है l ये सब तो उदहारण मात्र ही है, असली खर्च तो बड़ी विकास योजना में होता है,  
जिसमे जम कर भ्रष्टाचार होता है, और काले धन का निर्माण होता है l इन खर्चों पर अगर लगाम लगाने में सरकार सफल हो जाती है, तब जा कर यह कहा जायेगा कि नोटबंदी एक कारगर कदम था l
शोप्पेर्स पॉइंट में कपडें की दूकान चलाने वाले युवा व्यवसाई संदीप अगरवाल इस कदम को सही बतातें है और कहतें है कि देश में इन्कम टेक्स देने वालों की संख्या काफी कम है, जिसकी बढ़ोतरी होनी चाहिये l उनका कहना है कि देश में जनसँख्या का करीब एक प्रतिशत ही लोग असल में कर देतें है l 5430 लोग 1 करोड़ से भी ज्यादा आयकर देतें है l वही करीब 50,000 लोग करीब 1 करोड़ की सलाना आय करतें है और 13.3 लाख करदाता सलाना 10 लाख के करीब आय करतें है l जो लोग 21000 से ज्यादा मासिक आय करतें है उनको आय कर देना होता है, वही देश की करीब 95 प्रतिशत जनता आय कर नहीं देती, जिसका बोझ उन आय करदाताओं पर पड़ता है, जो सही मायने में कर देतें है l इस समय देश में करीब 17 करोड़ पेन कार्ड होल्डर है, जिनमे करीब 3.5 करोड़ लोग ही इनकम टेक्स रिटर्न फाइल करतें है, और करीब 1.25 करोड़ लोग ही कर देतें है l अब सवाल यह उठता है कि इतने बड़े देश में डायरेक्ट टेक्स, जो देश का कुल कर का आधा कर बनता है, देने का भार कुछ ही लोगों पर क्यों है ? क्या नोटेबंदी का बोझ भी उन पर ज्यादा पड़ेगा ? यह बात इसलिए भी जायज है क्योंकि ख़बरें व्हात्सुप पर वायरल हो गयी है कि बड़े पैमाने पर इनकम टेक्स विभाग द्वारा कर दाताओं को नोटिस जारी किये जा चुकें है l कुछ अन्य मेसेज सोसिएल मीडिया पर आ रहें है, जिनमे प्रमुख है प्रसाद नमक व्यवसायी का प्रधानमंत्री के नाम एक पत्र है, जिसमे उसने देश में लोग कर क्यों नहीं देतें है, इस पर एक खुला पत्र लिखा है l पत्र में उसने जो कारण गिनाएं है, वे सभी जायज और तर्क सम्मत है l एक अन्य सन्देश में यह कहा गया है कि देश की 23 प्रतिशत आबादी बीपीएल श्रेणी की है, जो 100 रुपये से नीचे प्रति दिन कमाती है l उसके पास 4000 प्रति सप्ताह खर्च करने के लिए नहीं है l बाकी 77 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से उपर है l इसमें से सिर्फ 2.87 करोड़ लोग ही आयकर देतें है l बाकी बचे 89 करोड़ लोग गरीबी रेखा से उपर है पर आयकर नहीं देतें l यह समझ में नहीं आता कि 89 करोड़ लोग, जिनकी सालाना आय 2.5 लाख से नीचे है(4800 प्रति सप्ताह), अचानक 4000 रुपये क्यों खर्च करना चाहतें है l इस तरह के तमाम मेसेज सोसिएल मीडिया पर इस वक्त छायें हुए है l संदीप अगरवाल ने अनायास ही कुछ बड़े प्रश्न खादें कर दिए है l क्यों हर वक्त करदाताओं पर हमेशा नंगी तलवार लटका दी जाती है, जबकि देश में करोड़ों लोग हर वर्ष कर देने में सक्षम है, पर जानबूझ कर कर नहीं देतें l अभी भी बड़ा सवाल यह जहन में आ रहा है कि जब देश की आधी जनसँख्या गावं में रहती है, फिर गावों के विकास के लिए पूरी ताकत क्यों नहीं लगाई जाती l क्यों लोगों को कमाई के लिए शहर जाना पड़ता है l गावों से पलायन रोकने ले लिए, क्यों रोजगार के साधन गावों में ही मुहय्या नहीं करवाएं जाते ?  

इस तरह के तमाम प्रश्न इस वक्त सभी के दिमाग में उठ रहें है l नोटबंदी के सभी ने स्वागत किया है, पर जिस तरह से देश अब तक चला है, संदेह के बादलों का घिरना स्वाभाविक है l यह प्रश्न भी जायज है कि क्यों भारत में अचानक लोगों को देश के विकास में भागीदार होने के सबूत देने पड़ रहें है l क्या भ्रष्टाचार उपर से नीचे की और नहीं बहता ?आप उपर नकेल कसों, नीचे सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा l देश का हर नागरिक कर देने के लिए तैयार है, शर्त यह है कि वह धन देश के काम में आये, ना कि भ्रष्टाचारियों के l              

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