Sunday, March 29, 2009

बनती बिगड़ती सामाजिक मान्यताये

समय के साथ जैसे जैसे शिक्षा का व्यापक प्रचार हुवा है, वैसे-वैसे समाज में व्याप्त धारणाये, आचार-संहिता में स्वतः ही बदलाव के भारी संकेत देखने को मिल रहें है। अब किसी भी नयी वस्तु या विचार के लिए समाज में पर्याप्त जगह मौजूद है। तीज-त्यौहार और उत्सवों में लोग रूचि लेने लगे है, बशर्ते वे हमे उमंग दे, आनंद दे। लोक गीतों को एक बार उचित स्थान दिया जाने लगा है। यह एक खुशी की बात है। दुःख की बात यह है कि हमारे परिवारों पर टीवी का बुरा प्रभाव पड़ने लगा है, जिससे हमारी विशाल भारतीय संस्कृति विकृत हो कर हमारे सामने एक नए रूप में पेश हो रही है।

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