Friday, August 9, 2024

दुनिया भर के छात्र आंदोलन एक विचार पर चलते हैं

 

    

छात्र आंदोलन एक विचार पर चलते हैं



बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुखिया नोबल शांति पुरस्कार विजेता मुहम्मद युनुस ने आंदोलन कर रहे छात्रों की भरपूर तारीफ की हैं और कहा कि छात्र उन्हें जो राह दिखलायेंगे, वे उसी राह पर चलेंगे l इतना ही नहीं सेना द्वारा समर्थित अंतरिम सरकार में छात्र आंदोलन के अगुवा दो छात्रों को जगह ही नहीं दी गयी, बल्कि उनको महत्वपूर्ण विभाग भी आवंटित किये गए हैं l पूरी दुनिया में इतिहास है कि छात्र आंदोलनों की वजह से सत्ता परिवर्तन देखे गए हैं l फ्रांस में 1960 में छात्र आंदोलन की वजह से उसके राष्ट्र नायक की देश छोड़ कर भागना पड़ा था l बांग्लादेश में भी यही हुवा l शेख हसीना को भी इस्तीफा दे करे देश छोड़ कर भागना पड़ा l छात्र आंदोलन एक विचार पर चलता है l असम में छह वर्षों तक छात्र आंदोलन चला l विचार था, असम की भूमि से विदेशी नागरिकों को हटाना और असम के नागरिकों के अधिकारों को सुरक्षित करना और असमिया लोगों के  लिए एक सुरक्षा कवच कायम करना l उल्लेखनीय है कि उन्नीसवीं सदी और खासतौर पर आज़ादी बाद यह क्षेत्र खास तरह के राजनीतिक पुनर्जागरण के दौर से गुज़रा, जिसने असम लोगों में अपनी भाषा, संस्कृति, साहित्य, लोक कला और संगीत के प्रति गर्व की भावना पैदा की। राज्य की सांस्कृतिक, भाषायी और धार्मिक विविधता को देखते हए ऐसा लग रहा था कि किसी एक भाषा और संस्कृति को मान्यता देना एक जटिल प्रक्रिया थी । एकीकृत असमिया संस्कृति की तरफ़दारी करने वाले बहुत से लोगों का यह भी मानना रहा है कि आदिवासी इलाकों को अलग से विशेष अधिकार देकर या मेघालय, मिजोरम, नगालैण्ड और अरुणाचल प्रदेश जैसे अलग राज्यों को निर्माण करके केंद्र सरकार ने एक व्यापक असमिया पहचान के निर्माण में रुकावट डालने का काम किया है। इसीलिए असम के युवाओं में केंद्र के प्रति एक नकारात्मकता और आक्रोश की भावना रही है l बांग्लादेश की तरह असम आंदोलन का नेतृत्व भी यहाँ के छात्र ही कर रहे थे l उसका केंद्र भी ढाका विश्वविद्यालय ही था l आंदोलनके समय आसू के मुख्य कार्यालय भी गौहाटी विश्वविध्यालय ही था l असम के छात्र भी स्थनीय लोगों के लिए नौकरियों में शत-प्रतिशत आरक्षण की मांग कर रहें थें l भूमि, रोजगार जैसे मुद्दे असम आंदोलनका मुख्य हिस्सा थे l असम आंदोलनके समय जब हितेश्वर सैकिया के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने दमनकारी निति से छात्र आंदोलन को दबाने की चेष्टा की, लेकिन  आंदोलन और अधिक प्रखर और जीवंत हो गया l राज्य के बुद्धिजीवियों ने खुल कर आंदोलन के पक्ष में बयान देना शुर कर दिया था l इसी बीच असम सरकार ने विधानसभा चुनाव भी करवाएं, पर उसका भारी विरोध हुवा और इतिहास बनने के पश्चात न्यूनतम मतदान होने के पश्चात हितेश्वर सैकिया असम के मुख्यमंत्री बने l पर आंदोलनरुका नहीं l पुरे देश में असम आंदोलनकी गूंज थी l अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं ने खुल कर आंदोलन कर समर्थन किया था l बांग्लादेश के छात्र आंदोलन और असम आंदोलनमें जमीन आसमान का फर्क है l बांग्लादेश के छात्र आंदोलन आरक्षण वरोधी आंदोलनकब हसीना हटाओं आंदोलनबन गया, इसका किसी को पता नहीं चला l एक बड़ा फर्क यह भी था कि असम आंदोलन गाँधी के सिद्धांतों पर कायम था l शांतिपूर्ण औरे विवेकपूर्ण l थोड़ी बहुत हिंसा को छोड़ कर ज्यादातर छह वर्ष तक चले आंदोलन के दिन शांतिपूर्ण रहे l यहाँ पर इमारतों को नहीं जलाया गया, गैर असमिया को नहीं मारा गया l बड़ी संख्या में रह रहे भारतीय मूल कर लोगों को किस किस्म का नुकसान आन्दोलनकारियों ने नहीं पहुचाया l उलटे, यह भी देखने में आया कि असम में रह रहे गैर असमिया लोगों ने आंदोलनका भारी समर्थन किया और 1983 में हुए चुनावों का बहिष्कार भी किया l आसू आज तक भी गैर असमिया लोगों के उस सहयोग को मान्यता प्रदान करता हैं l पुरे आंदोलन में 855 स्थानीय छात्रों की मृत्यु हुई, जो पुलिसिया बर्बत्ता के शिकार हुए l हजारों छात्रों को जेल भेजा गया और आंदोलन को दबाने की चेष्टा की गयी l राजनैतिक तौर पर और डंडे के जोर पर भी l जब केंद्र सरकार ने 1983 में असम में विधानसभा चुनाव कराने का फ़ैसला किया। इसका बड़े पैमाने पर बहिष्कार किया गया । इन चुनावों में बहुत कम वोट डाले गये। जिन क्षेत्रों में असमिया भाषी लोगों का बहुमत था, वहाँ तीन प्रतिशत से भी कम वोट पड़े। मतदान केंद्र सुने पड़े थे l कांग्रेस सरकार ने अलग अलग भाषाई लोगों में फुट डालने का कार्य करके आंदोलनको ध्वंश करने की असफल चेष्टा भी की l चुनावों के बाद कांग्रेस पार्टी की सरकार ज़रूर बनी, लेकिन इसे कोई लोकतांत्रिक वैधता हासिल नहीं थी। 1983 की नेल्ली कांड असम आंदोलन के बीच का एक हिंसक वाकया था, जो इतिहास के पन्ने पर दर्ज हो गया, जिसमे 3000 से ज्यादा लोगों को मौत के घाट उतर दिया गया था l 15 अगस्त 1985 को केंद्र की राजीव गाँधी सरकार और आंदोलन के नेताओं के बीच समझौता हुआ जिसे असम समझौते के नाम से जाना गया। इसके तहत 1951 से 1961 के बीच आये सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार देने का फ़ैसला किया गया। असमिया लोगों की सांस्‍कृतिक, सामाजिक, भाषायी पहचान व विरासत को सुरक्षित एवं संरक्षित करने के लिए असम समझोते में छह नंबर धारा महत्वपूर्ण है l फैसला यह भी हुवा कि जो लोग 1971 के बाद असम में आये थे, उन्हें वापस भेज दिया जाएगा। असम के आर्थिक विकास के लिए पैकेज की भी घोषणा की गयी और यहाँ ऑयल रिफ़ाइनरी, पेपर मिल और तकनीक संस्थान स्थापित करने का फ़ैसला किया गया। विधानसभा को भंग करके 1985 में ही चुनाव कराए गये, जिसमें नवगठित असम गण परिषद को बहुमत मिला। पार्टी के नेता प्रफुल्ल कुमार महंत, जो कि आसू के अध्यक्ष भी थे, मुख्यमंत्री बने। उस समय उनकी उम्र केवल 32 वर्ष की थी। छह वर्षों तक चले आंदोलनका एक सुखद अंत हुवाl

बांग्लादेश में कई बाहरी और अंदरूनी ताकतों ने छात्र आंदोलन के रुख को मोड़ा हैं l बांग्लादेश की मुक्ति के समय जमात ए इस्लामी पार्टी ने बांग्लादेश नेशनल पार्टी के साथ मिल आर बांग्लादेश की स्वतंत्रता का विरोध किया था l अभी उसके कैडरों ने आंदोलनके नाम अपर जम कर हिंसा की है और छात्र आंदोलनको हिंसक आंदोलन में बदल दिया l बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी हिन्दू नागरिकों के घरों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों को क्षति पहुचाई l इतना ही नहीं, छात्रों ने सेना तक को यह सन्देश देना कि उनके समर्थन से ही बांग्लादेश में अंतरिम सरकार बनेगी, इस बात को रेखांकित करती है कि छात्रों के साथ बहुत से लोग अँधेरे में खड़े है, जो पीछे से उकसा रहे हैं l बांग्लादेश का छात्र आंदोलन अब पीछे रह चूका है l             

Friday, February 23, 2024

असम में हिंदी भाषियों को बार बार संघर्ष क्यों करना पड़ता हैं

 

असम में हिंदी भाषियों को बार बार संघर्ष क्यों करना पड़ता हैं

यह प्रश्न हर बार की तरह इस बार भी पूछा जा रहा है कि असम में सामुदायिक हिंसा इतनी आसानी से क्यों भड़क जाती है l क्यों वर्षों से रह रहे विभिन्न भाषा-भाषी लोगों के बीच रिश्तों के तार इतने कमजोर है कि जरा सी चिंगारी उनके बीच आग पैदा कर देती है और लोग एक दुसरे के जान के दुश्मन बन जाते हैं l इस बार मामला कार्बी आंगलोंग का है, जहाँ स्थानीय कार्बी जनजाति और हिंदी भाषियों के बीच इस समय तनाव चल रहा हैं l हिंदी भाषी संगठन अपनी सुरक्षा की मांग तो कर ही रहे है, साथ ही वें चाहते है कि सभी भाषा-भाषी के लोग आपस में मिल कर रहे और असम में शांति बनी रहे l कार्बी आंगलोंग में बड़ी संख्या में बिहारी समुदाय के लोगों के अलावा, बंगला भाषी और नेपाली समुदाय, बोडो जाति और असमिया भाषी लोग पिछले 100 वर्षों से रहते है, और कार्बी आंगलोंग को अपना घर बना लिया हैं l कुछ असामाजिक तत्वों ने दोनों समुदायों के बीच तनाव बढाने के उद्देश्य से एक स्थानीय युवक की उस समय पिटाई कर दी, जब कुछ स्थानीय लोग शांतिपूर्वक प्रदर्शन करके लौट रहे थे l मामला इतना गंभीर था कि हिंदी भाषी समुदाय के लोग और स्थानीय लोगों के बीच जबरदस्त तनाव बन गया है l उल्लेखनीय है कि कार्बी आंगलोंग में रहने वाले जनजाति के लोगों की सुरक्षा के लिए पहले से ही स्वायत परिषद् का गठन बहुत पहले कर चुकी हैं l असम के मध्य में स्थित इस जिले को मिनी इंडिया भी कहे तो गलत नहीं होगा, क्योंकि यहाँ पर हर जाति और समुदाय के लोग वर्षों से बड़े प्रेम भाव से रहते आये हैं l एक ऐसा सामाजिक तानाबाना बना हुवा है, जिसमे हर जाति और समुदाय का एक रोल है l फिर प्रश्न यह उठता है कि बार बार हिंदी भाषियों को क्यों टारगेट बनाया जाता हैं l कार्बी आंगलोंग प्राक्रतिक सुंदरता से भरपूर है l अगर उस क्षेत्र को पर्यटन क्षेत्र के रूप में विकसित किया जाय, तब इलाके के लोगों की आय में निश्चित रूप से वृद्धि हो सकती हैं l    

देश की स्वतंत्रता के पश्चातपूर्वोत्तर की कई जनजातियों, जैसे नागामिज़ो बोडो आदि ने अपनी सांस्कृतिक पहचान के आधार पर अलग राज्यों के साथ-साथ पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करना शुरू कर दी थी l यहाँ गौर तलब है कि जब सन 1960 में जब राज्य सरकार ने असमिया भाषा को आधिकारिक भाषा घोषित कर दिया थातब बराक घाटी में आंदोलन शुरू हुवा था, समूचे असम में बड़े पैमाने पर हिंदी भाषियों पर अत्याचार हुए थे l कार्बी आंगलोंग में भी व्यापक हिंसा हुई थी l राज्य की विभिन्न जनजातियां और भाषाओं को बोलने वाले लोग खुद को अलग-थलग महसूस करने लगे थे। इससे आम लोग और स्थानीय विद्रोही समूह आंदोलित हो उठे थे l पूर्वोत्तर में नागा विद्राह की आज आज तक नहीं बुझी है l पूर्वोत्तर में नागालैंड और मेघालय राज्यों का गठन क्रमशः 1963 और 1971 में हुआ था। मेघालय के गठन के बादकार्बी आंगलोंग जिले को इसमें शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया थालेकिन असम से अधिक स्वतंत्रता के वादे के बाद जिले ने मेघालय में शामिल होने से इनकार कर दिया और असम के साथ रहने की ठानी l हालांकि, बाद में असम राज्य सरकार इस जिले को अधिक स्वायत्तता देने के लिए भारतीय संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत कार्बी आंगलोंग जिला परिषद् बना और बाद में इसे एक स्वायत परिषद् बना कर कार्बी लोगों को अधिक स्वायतता देने की कौशिश की थी l पर विभिन्न दल संगठनों के खड़े होने से अगले कुछ दशकों में तक राज्य में उग्रवाद और आंदोलन का एक नया दौर शुरू हो गया। कार्बी आंगलोंग में हिंसा और हड़ताल का दौर शुरू हो गया था l  

सन 2021 में कार्बी आंगलोंग समझौते पर हस्ताक्षर में, इस जिले को अधिक स्वायत्तता का वादा किया गया है। इस समझौते के बाद, फिलहाल ये उम्मीद की जा रही है कि आने वाले वर्षों में इस क्षेत्र में शांति और समृद्धि बनी रहेगी। समझोते के तहत राज्य सर्कार प्रति वर्ष 1000 करोड़ रूपये कार्बी आंगलोंग के विकास के लिए खर्च करेगी, जिससे पांच वर्षों तक जारी रखा जायेगा l संविधान के छठी अनुसूची के तहत सभी भूमि अधिकार स्वायत्त कोउसिल के पास है और कानून व्यवस्था राज्य सरकार के पास है l समस्या उस समय विकत रूप ले लेती है, जब करीब 100 वर्षों से रह रहे 10 हज़ार गैर कार्बी लोगों को सरकारी भूमि से बेदखल किया जा रहा था l उस भूमि पर सैकड़ों कच्चे-पक्के घर, मंदिर, मस्जिद पहले से ही बने हुए हैं l हिंदी भाषी समुदाय के घरों को उजाड़ने के अलावा, वहां पर कई घरों को असामजिक तत्वों ने आग लगा दी और घरों में रह रहे लोगों को वहां से खदेड़ दिया गया l ग्राजिंग भूमि पर बने हुए यह घर जिनकी संख्या करीब 10 हज़ार है, उस भूमि पर स्वायत्त शासित परिषद् का अधिकार जरुर है, पर वर्षों से रह रहे वहां पर लोगों के पास बिजली पानी का कनेक्शन बहुत पहले से हैं l इलाके में 27 मंदिर और एक मस्जिद और कई स्कुल भी हैं l सबसे बड़ी बाटी यह है कि इनमे एक भी अवैध नागरिक नहीं है, जिनको राज्य सरकार चर इलाके से हटाती है l पिछले 90 वर्षों से रह रहे लोग शत प्रतिशत भारतीय नागरिक है और अन्य लोगों की तरह उनके पास भी समान अधिकार मौजूद हैं l  

असम को एक आंदोलन की भूमि अगर कहे, तब कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी l भाषा आन्दोलन के पश्चात, यहाँ पर बंगला भाषियों के प्रति नफरत के भाव भी देखे गए थे l हालाँकि असम आंदोलन की पृष्ठ भूमि यही थी कि असम से विदेशी नागरिकों की पहचान करके उनको यहाँ से हटाया जाय l पर छह वर्षों तक चले आन्दोलन के द्वरा भी लाखों बंग भाषी अवैध विदेशी लोगों को यहाँ से भगाया नहीं जा सका l उपर से बड़ी संख्या में रह रहे हिंदी भाषियों पर समय समय पर प्रताड़ना होती रहती हैं l पुरे राज्य में बड़ी संख्या में रह रहे हिंदी भाषियों ने सभी समुदाय के साथ मैत्रीपूर्ण रिश्ते कायम किये और शांतिपूर्वक अपना जीवन यापन किया हैं l सच्चाई यह भी है कि व्यापार और अपनी लम्बी कद काठी की वजह से वें आसानी से पहचाने जाते है और अक्सर बाजारों में व्यापार करते हुए दिखाई दे जाते हैं l समय के साथ शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ स्थानीय लोगों ने भी शिक्षा के महत्त्व को समझा है और वें भी अपने बच्चों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु देश की नामी-गिरामी संस्थानों में भेजने लगे और देश की मुख्यधारा में शामिल होने का प्रयास करने लगे हैं l शिक्षा ने सभी को अच्छे बुरे के फर्क को धीरे धीरे समझा दिया है l पर सत्य अभी भी यही है कि यहाँ आन्दोलन के बिना पत्ता भी नहीं हिलता l फिर भी असमिया मुख्यधारा में शामिल रह कर असमिया अस्मिता की रक्षा करने के वचन जिन लोगों ने भी लिया है, वे असम के सच्चे हितेषी है l जो लोग राष्ट्र विरोधी लोगों के साथ बैठ कर मंच पर बड़ी शान से मुछों को ताव देतें है, उनको किस तरह की संज्ञा दी जाए, प्रश्न यह भी है lथोड़े थोड़े दिनों में जातिगत हिंसा होने से राज्य के विकासकार्य में बाधा आनी स्वाभाविक है l

इसमें कोई दो राय नहीं है कि वर्षों से रह रहे हिंदी भाषियों ने राज्य के विकास में उतना ही योगदान दिया है, जितना की अन्य लोग दे रहे हैं l उनके योगदान की समीक्षा कभी भी नहीं की गयी l इस समय राज्य सरकार के पास चुनौती यह भी है कि वह कैसे इस मामले का यह न्यायपूर्ण तरीके से समाधान करे, जिससे हिंदी भाषियों को यह विश्वास हो जाय कि जिस राज्य में वें वर्षों से रह रहे है, वह उनके अधिकारों की सुरक्षा तो करेगी ही, साथ ही उनको एक सम्मानजनक जीवन जीने के लिए मार्ग प्रशस्त्र करेगी l इस समय हिंदी भाषी संगठनों ने राज्य सरकार से गुहार लगे है और पीड़ितों की सुरक्षा और मुवावजे की मांग की हैं l     

 

 

Friday, December 29, 2023

असम के लिए नए वर्ष के संकल्प और चुनौतियाँ

 

असम के लिए नए वर्ष के संकल्प और चुनौतियाँ

हमारे जीवन में जो भी घटनाएँ होती है, उनका प्रभाव आने वाले दिनों पर जरुर पड़ता हैं l चाहे बात निजी जीवन की हो, परिवार को हो या फिर समाज, राज्य या राष्ट्र की हो l नया साल 2024 दस्तक दे रहा है, केलेंडर बदलने वाला है l सन 2024, भारत और उसके नागरिकों के लिए बहुत ख़ास होने वाला हैं l आम नागरिकों पर देश में होने वाली घटनाओं का प्रभाव जरुर पड़ता हैं l प्रतिबंधित संगठन उल्फा(वार्ता गुट) के साथ शांति समझोता, निश्चित रूप से असमवासियों के लिए एक बड़ी खबर हैं l 29 दिसम्बर की शाम को हुवा यह समझोता, वर्षों से चल रही वार्ता को एक सुखद अंत की और ले गया है l इस समझते से असम का राजनीतिक और सामाजिक माहोल बदलने वाला है, क्योंकि कुछ वादें असम सरकार ने किये है, कुछ वचन वार्ता गुट ने दिए हैं, जिनका सीधा साधा प्रभाव असम की जनता पर पड़ेगा, उनके सामाजिक जीवन के उन पहलुवों पर पड़ेगा, जिनके लिए और जिनकी वजह से असम में करीब पचास वर्षों से किस ना किसी तरह का आन्दोलन चल रहा हैं l वार्ता पक्ष के उल्फा के सदस्य अब एक आम नागरिक की तरह अपना जीवन कटा सकेंगे और असम के आर्थसामाजिक जीवन में अपना योगदान दे सकेंगे l असम सरकार की यह एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी l असम में पिछले 65 वर्षों से रुक रुक आकर हिंसा का एक दौर चलता रहा है l ना जाने कितनी ही बार सेना का ऑपरेशन यहाँ चला है l सन 1990 में एक चुनी हुई सरकार असम गण तक को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा था l निश्चित तौर पर इस समझोते का असर नए वर्ष में लोगों पर पड़ने वाला हैं l समझोते का एक पहलु यह भी है कि विभाजित उल्फा(आई) के प्रमुख परेश बरुआ अभी भी म्यांमार-चीन सीमा से अपना अभियान सशस्त्र अभियान चलाये हुए है और किसी भी समझोते के हक़ में नहीं है l पर 45 वर्षों के सशस्त्र आन्दोलन को चलाने वाले ज्यादातर उल्फा सदस्यों के साथ हुए इस इस समझोते से परेश बरुआ पर बातचीत के लिए आगे आने का दबाब जरुर पड़ेगा l यह भी देखना दिलचस्प रहेगा कि वार्ता गुट के सदस्य आने वाले दिनों में असम की राजनीति को कितना प्रभावित करते हैं l इधर असम सरकार के उपर समझोते को लागु करने के लिए जिम्मेवारी रहेगी, जिसे सामाजिक और आर्थिक पैकेज तो शामिल है ही, साथ ही उन सदस्यों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करना होगा, जिन्होंने कई वर्षों तक निर्वासित जीवन बिताया हैं l साथ ही, अभी भी जंगले में रह रहे सैकड़ों अंडरग्राउंड केड़ेरों को बातचीत के लिए दबाब बनाना और उन्हें सुरक्षित रास्ता देना l असम में हिमंत विश्व शर्मा की सरकार आने के पश्चात उन्होंने, शांति के लिए कई दफा उल्फा प्रमुख परेश बरुआ को बातचीत के लिए निमंत्रण दिया है, जिसके सुखद परिणाम भी निकले, जैसे युद्ध विराम की घोषणा, इत्यादि, पर वार्ता गुट के साथ समझोते की मेज पर ले कर आना, एक बड़ा कदम है, जिसके लिए उन्होंने केंद्र सरकार और सुरक्षा एजेंसियों को विश्वास में लेने में सक्षम हुए हैं l जब असम समझोता हुवा था, तब समूचे असम में हर तबके के लोगों में इसलिए ख़ुशी थी कि विकास का एक नया सवेरा होने वाला था l असम के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास का एक वादा था, असम समझोता l असम समझोते को लागु करने के लिए कई दफा समितियां भी बनी हैं l पर इस वक्त 12 वर्षों के गहन विमर्श का बाद यह समझोता संभव हुवा है, जिसमे स्थानीय लोगों के लिए भूमि और राजनीतिक अधिकार दिया जाना शामिल हैं l उपर से केंद्र सरकार ने एक बड़ा वितीय पैकेज की भी घोषणा समझोते के मार्फ़त की है l असम आंदोलन, जिस पृष्ठभूमि में शुरू हुवा था, उसके पीछे एक वजह थी, असम की जनसांख्यिकी में बदलाव, जो इसलिए हुई क्योंकि बड़ी संख्या में बंग भाषी मुसलमानों ने असम की भूमि पर कब्ज़ा कर लिया था l इस समझते में भी असम की संस्कृति की रक्षा का वादा भी शामिल है, जिसके लिए आन्दोलन होते रहें हैं l ‘का’ आन्दोलन भी उसी का एक रूप था l भूमि, भूमिपुत्रों के लिए, चुनाव स्थानीय लोगों के लिए और गावं, शहरों में सरकारी संस्थानों का खुलना, यह कुछ मुख्य बिंदु है, जिन पर दोनों पक्ष एकमत हुए हैं l अब शांति के रास्ते, प्रजातांत्रिक तरीके से मुख्यधारा में शामिल हो कर, उल्फा के सदस्य, असम ले लोगों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल सकेंगे l निश्चित रूप से असम सरकार के लिए 2024  का यह नया वर्ष चुनौती भरा होने वाला है l  

नए वर्ष के लिए संकल्प लेने के पहले यह जान लेते है कि वर्ष 2024 कितना महत्वपूर्ण है l आगामी जनवरी माह में पाकिस्तान और बांग्लादेश में आम चुनाव होने वाले हैं l जनवरी में ही राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा है l भारत में संभवतः मई माह में, ब्रिटेन और अमेरिका में साल के अंत में आम चुनाव होने वाले हैं l अमरीका में अब शांतिपूर्वक चुनाव नहीं होते l आरोप और प्रत्यारोप से भरे रहते हैं l  इस बार दुबारा से डोनाल्ड ट्रम्प चुनाव लड़ने क लिए जद्दोजहेद कर रहे है l राम मंदिर के उद्घाटन को पूरी दुनिया के लोग करीब से देखेंगे, क्योंकि धर्म के साथ यह एक राजनीतिक मुद्दा भी बन चूका है l राम मंदिर और 370 हटाने की घोषणा, भारतीय जनता पार्टी बहुत पहले कर चुकी है l अनुछेद 370 अब हट चूका है, राम मंदिर बनने का रास्ता साफ़ हो चूका है, अब सामान नागरिकता संहिता के अपने वादे को पूरा करने ले लिए अब उसकी बारी है l वैसे 370 के हटाने के बाद अब उसके लिए चुनौती है, 2024 में जम्मू कश्मीर में चुनाव करवाना और उसे राज्य का दर्जा देना है l

पूर्वोत्तर और खासकरके असम और नई दिल्ली के बीच सेतु का कार्य करने वाले असम के मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा ने यहाँ के सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण रखने के लिए कई कदम उठायें हैं l इस समझोते से एक नई आशा भी जगी हैं l एक सच्चाई यह भी है कि असम में विभिन्न भाषा-भाषी वर्षों से रह रहे है, उन पर इस समझोते का प्रभाव किस तरह से पड़ेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा l 2024 के लोक सभा के चुनाव में किस तरह के प्रार्थी आते है, किस समुदाय का प्रतिनिधित्व करते है, यह देखने लायक बात होगी l इस वक्त 2023 के अंतिम दिन, असम की और लोग आशा भरी नजरों से देख रहे हैं l हिंसा छोड़, शांति के रास्ते चल कर यहाँ एक सकारात्मक माहोल बनाना अब यहाँ के लोगों के लिए एक बड़ी चुनौती हैं l असम के आम लोगों के लिए यह एक सुनहरा अवसर आया है, उन्हें अब असम के विकास में सहयोगी बनना होगा, जिससे असम सरकार का यह कदम सभी के लिए खुशियाँ ले कर आयें l सभी को मेरी और से नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं l