Friday, December 2, 2016

मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है
रवि अजितसरिया
हम सब बचपन में एक गीत गुनगुनातें थे, ‘मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है., हाथ लगाओ डर जाएगी, बाहर निकालो मर जाएगी, पानी में डालो तो बह जाएगी’ l गीत एक संकेत मात्र था, हमारे लिए कि जिसका जो संसार है, वह वही रहेगा, उसे छेड़ने की चेष्टा नहीं करों, नहीं तो उसका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा और पृथ्वी का संतुलन बिगड़ जायेगा l जीवन बहने का नाम है l गीत एक छात्र के अनुसाशन भी सिखाता था l कितना प्रिय हुवा करता था गीत  l पता नहीं क्यों, अब इस तरह के गीत अब छात्रों को क्यों नहीं सिखाये जाते, या यूँ कहें कि छात्र सीखना ही नहीं चाहतें, उनके पास समय ही नहीं है l समय बदल गया है , शायद बदलाव अपरिहार्य नियम है l जो ना बदले, वे काल के गाल में समा जातें है, या फिर पीछे छुट जातें है l कुछ शाश्वत नियम है, जिनको कोई बदल नहीं सकता l जैसे मछली को कोई जल से जिन्दा बहुत देर तक बाहर नहीं रख सकता l वह मर जाएगी l दुनिया भर में बदलाव हो रहें है l मुनष्य के सोचने के तरीके, विचार और व्यवहार, सभी बदलाव की और है l नए विचार अब अच्छे लगने लगें है l ठीक इस गीत की तरह l मुन्नी और शीला के गीतों ने बच्चों की जुबान पर आने लगें है l बच्चे पहले से अधिक समझदार हो गएँ है l एक नई पौध ने जन्म ले लिया है l जो रुढिवादिता के समर्थक थे, ऊन्होने भी अब नए आने वालें विचारों को आत्मसात कर लिया l विकास के लिए तड़प अब बढ़ गयी है l हर कोई विकसित होना चाहता है l कोई जल्दी, तो कोई बहुत जल्दी l कोई मेहनत से तो कोई बिना मेहनत के l ठोस जमीन बनाने के लिए सबसे पहले एक खड्डे को खोदना होता है, फिर जा कर उस खड्डे को ठोस बनाया जा सकता है l उस जमीं पर खड़ा रहा जा सकता है l इस तरह के शाश्वत नियम वैज्ञानिक है, तो प्राकृतिक भी है l मछली के बारे में जैसे हमें पता है कि उसे बाहर निकलने से वह मर जाएगी, उसी तरह से हमें पता है कि विकास के लिए एक ठोस जमीं तैयार की जानी चाहिये, जिसको कोई हिला नहीं सके l बदलाव के प्रति आग्रही होना विकास की निशानी है, पर बदलाव को आत्मसात करने के लिए थोडा सीखन और थोडा अनुभव भी प्राप्त करना पड़ता है l तभी वह विकास ठहरता है l इस समय असम,  व्यवसाय करने की आसानी वाले ग्राफ में २४वें स्थान पर लुढ़क गया, त्रिपुरा से भी नीचे l पहले से 2 स्थान नीचे l असम के साथ पूर्वोत्तर के सभी राज्यों ने वर्ष 2016 में ख़राब प्रदर्शन किया l जैसे मछली जल की रानी है, उसी तरह उद्द्योग, वाणिज्य किसी भी राज्य का मेरुदंड है l उसको विकसित करने से राज्य की माली हालत अपने आप सुधर जायेगी l आन्ध्र प्रदेश क्यों इस लिस्ट में सबसे उपर है l क्या विकास के लिए छटपटाहट सिर्फ आन्ध्र में ही है ? दुसरे राज्य के लोगों में क्या इस तरह का हुनर नहीं है कि वे भी विकसित हो कर अपना जीवन बड़े आराम से जी सकें l यह एक कटु सत्य है कि पूर्वोत्तर के राज्यों में स्थानीय लोगों में व्यापार करने के वे जन्मजात गुण नहीं है जो दुसरे राज्यों के लोगों में रहतें है l पर इससे वह छटपटाहट तो ख़त्म नहीं होनी चाहिये, जो अन्य राज्यों के लोगों में देखी जा सकती है l भारत सरकार के उद्द्योग नीति एवं संवर्धन विभाग ने 340 ऐसे विन्दु तय किये है, जिस पर हर राज्य को खरा उतरना है l इसमें राज्यों को अपने प्रदर्शन करना है l अब सवाल उठता है कि असम और पूर्वोत्तर में व्यापार करने में तमाम तरह की परेशानियाँ क्यों है l क्यों यहाँ आयें दिनों दंगे और मारपीट होतें है l क्यों यहाँ व्यापारियों को प्रताड़ित किया जाता है ? क्या विकास के लिए यह जरुरी नहीं कि दुसरे लोगों के साथ एक प्रतिस्पर्धा में उतर कर आगे आ कर दिखाएँ l क्या किसी अनजाने भय की वजह से यहाँ व्यापार में सहूलियत प्रदान नहीं की जाती ? क्या व्यापार करना इतना बुरा कार्य है कि उसको असम दोहम दर्जे का कार्य माना जाता है ? तमाम तरह के प्रश्न लोगों को कचोटते होंगे, जिससे हताशा और आक्रोश पनप रहा है l व्यापार उस मछली के सामान है, जिसको जल से निकला नहीं जा सकता, उसको छुवा जा सकता है, पर पकड़ा नहीं जा सकता l मछली जल में जितना विचरण करेगी, उसकी लम्बाई बढ़ेगी, जिससे वह प्राक्रतिक संतुलन बनाने में एक अहम् रोल निभाती रहेगी l मगर जब जल से मछली को निकल लिया जायेगा, तब उसकी मृत्यु तय है l असम में व्यापार को उन्नत करने के लिए स्थानीय लोगों को भी उसमे कूदना होगा और अपने भविष्य को उज्जवल बनाना होगा l हो सकता कि उस समय वे भी व्यापार करने में आने वाली परेशानियों के बार्रें में भिज्ञ हो जाएँ और व्यापार के रहस्यों के बारें में जान सकें l तब हो सकता है कि तब यहाँ व्यापरियों को किसी तरह से कोई खतरा नहीं हो l स्थानीय लोगों को भी किसी अनजाने भय से आक्रांत नहीं होना पड़ेगा कि कही कोई प्रवजन करके आये लोग स्थानीय लोगों पर भारी नहीं पड़ जाएँ l तब किसी छात्र संगठन को आय दिन आन्दोलन नहीं करना पड़ेगा और चंदा नहीं उठाना पड़ेगा l सभी एक साथ सहयोग करेंगे l क्या स्थानीय और क्या बाहरी l
यह एक बेहद जटिल मुद्दा है, जिस पर चिंतन और विवेचन आवश्यक है l असम के बच्चे पुरे देश में ही नहीं पूरी दुनिया में कमाल कर रहें है, इस राज्य में वह माद्दा है कि वह भी व्यापार करने की आसानी वाले ग्राफ में उपर आ सके, पर इसके लिए एक सामाजिक और राजनैतिक इच्छा शक्ति की जरुरत होगी, जो आयेगी एक सुशासन से l यह समय बेहद अनुकूल है कि राज्य में व्यापार और वाणिज्य में एकदम से उछाल आ सकता है, जिसके लिए यहाँ के सामाजिक और जातीय संगठन, वरिष्ट नागरिक और गैर सरकारी संगठनों को एक साथ मिल कर सोचना होगा कि विकास के लिए व्यापार और उद्द्योग कितना जरुरी है l व्यापार को जीवन से साथ जोड़ना होगा, मछली बनाना होगा, बहना होगा.. l              
एक परिचित देश में अपरिचित सा मानव
रवि अजितसरिया
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डा. भरत झुनझुनवाला कहते है कि सरकार ने 500 और 1000 की मुद्रा का विमुद्रीकरण कर के एक साहसिक कदम तो उठाया है, पर यह पूरी कवायद तभी सफल हो सकेगी, जब इसका फायदा आम लोगों को होगा l यह फायदा आम लोगों तो तभी होगा, जब सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन पूरी इमानदारी से होगा l कितनी सच्चाई है, उनके इस कथन  में l सरकारी धन की बर्बादी को रोकने से देश में इमानदारी और अनुशासन होगा और फिर भारत को विकसित देश बनने से कोई नहीं रोक सकता l प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने सरकारी धन की गुणवत्ता को सुधारने की असली चुनौती है l यह बात हम इसलिए कह रहे है क्योंकि अक्सर यह देखा गया है कि लोगों के लिए देश का धन अपना जैसा नहीं लगता बल्कि लोगों के पास होने वाला धन अपना जैसा लगता है l यह स्थितियां इसलिए आई क्योंकि सरकरी बाबुओं ने जम कर सरकारी धन का अपव्यय किया, जिससे देश में कला धन कुछ लोगों के पास जमा होता गया, जिससे सरकारी धन की साख पूरी तरह से गिर गई l इतिहास गवाह है कि कई राज्यों में मार्च में जबरदस्त खरीदारी की जाती थी, जिसका कोई हिसाब नहीं होता था l आनन फानन बिल बनाये जाते थे, और ठेकेदार को पेमेंट कर दी जाती थी l यह सिलसिला स्वतंत्रता के बाद से ही चल रहा था, जो कई विभागों में आज भी बदस्तूर चल रहा है l सिक्सटी-फोर्टी करने की कला सरकारी बाबुओं में ठीक उसी तरह से है, जैसे एक फिरकी गेंदबाज में अनुवान्सिक रूप से रहती है l इन छेदों को पूरी तरह से बंद करने की जरुरत है l हमारे सरकारी खर्चों में कोई कंट्रोल नहीं है l जो जितना खर्च कर दिया उतना ही पास हो गया, क्योंकि पास करने वालें भी उतना ही खर्च कर रहें है l एक दुसरे के बिलों को क्यों रोंके l अब देखिये, गावों में सड़क, पानी और बिजली के लिए लोग अक्सर आवाज उठाते है, पर फंड की कमी की दुहाई दे कर लोगों का मुहं बंद कर दिया जाता है l अब सरकार के पास चार-पांच लाख करोड़ रुपये कर और अन्य स्त्रोतों से आ जाने की उम्मीद है, जिसका वह सदुपयोग कर सकती है l लोक सभा और राज्य सभा के सांसदों के पास पहले से ही उनका 5 करोड़ प्रति वर्ष का अपना फंड(संसदीय क्षेत्र विकास फंड) रहता है, जिसका उपयोग वे इलाके की भलाई के लिए खर्च कर सकतें है l उनके पांच वर्ष के कार्यकाल में यह फंड कुल 25 करोड़ हो जाता है l पर होता है एकदम उल्टा, कई सांसदों का फंड खर्च नहीं करने की सूरत में वापस लौट जाता है l इसमें कही ना कही विजन की कमी रहती है l उन्हें वह नहीं दिख रहा होता है, जो आम लोगों के सामने रहता है l इसी तरह से राज्यों के विधान सभा के सदस्यों के पास भी 2 से 5 करोड़ का फंड उनके क्षेत्र के लिए रहता है , पर किसी को यह पता नहीं चलता कि कैसे विधान सभा के सदस्य यह राशि खर्च करतें है l ये सब तो उदहारण मात्र ही है, असली खर्च तो बड़ी विकास योजना में होता है,  
जिसमे जम कर भ्रष्टाचार होता है, और काले धन का निर्माण होता है l इन खर्चों पर अगर लगाम लगाने में सरकार सफल हो जाती है, तब जा कर यह कहा जायेगा कि नोटबंदी एक कारगर कदम था l
शोप्पेर्स पॉइंट में कपडें की दूकान चलाने वाले युवा व्यवसाई संदीप अगरवाल इस कदम को सही बतातें है और कहतें है कि देश में इन्कम टेक्स देने वालों की संख्या काफी कम है, जिसकी बढ़ोतरी होनी चाहिये l उनका कहना है कि देश में जनसँख्या का करीब एक प्रतिशत ही लोग असल में कर देतें है l 5430 लोग 1 करोड़ से भी ज्यादा आयकर देतें है l वही करीब 50,000 लोग करीब 1 करोड़ की सलाना आय करतें है और 13.3 लाख करदाता सलाना 10 लाख के करीब आय करतें है l जो लोग 21000 से ज्यादा मासिक आय करतें है उनको आय कर देना होता है, वही देश की करीब 95 प्रतिशत जनता आय कर नहीं देती, जिसका बोझ उन आय करदाताओं पर पड़ता है, जो सही मायने में कर देतें है l इस समय देश में करीब 17 करोड़ पेन कार्ड होल्डर है, जिनमे करीब 3.5 करोड़ लोग ही इनकम टेक्स रिटर्न फाइल करतें है, और करीब 1.25 करोड़ लोग ही कर देतें है l अब सवाल यह उठता है कि इतने बड़े देश में डायरेक्ट टेक्स, जो देश का कुल कर का आधा कर बनता है, देने का भार कुछ ही लोगों पर क्यों है ? क्या नोटेबंदी का बोझ भी उन पर ज्यादा पड़ेगा ? यह बात इसलिए भी जायज है क्योंकि ख़बरें व्हात्सुप पर वायरल हो गयी है कि बड़े पैमाने पर इनकम टेक्स विभाग द्वारा कर दाताओं को नोटिस जारी किये जा चुकें है l कुछ अन्य मेसेज सोसिएल मीडिया पर आ रहें है, जिनमे प्रमुख है प्रसाद नमक व्यवसायी का प्रधानमंत्री के नाम एक पत्र है, जिसमे उसने देश में लोग कर क्यों नहीं देतें है, इस पर एक खुला पत्र लिखा है l पत्र में उसने जो कारण गिनाएं है, वे सभी जायज और तर्क सम्मत है l एक अन्य सन्देश में यह कहा गया है कि देश की 23 प्रतिशत आबादी बीपीएल श्रेणी की है, जो 100 रुपये से नीचे प्रति दिन कमाती है l उसके पास 4000 प्रति सप्ताह खर्च करने के लिए नहीं है l बाकी 77 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से उपर है l इसमें से सिर्फ 2.87 करोड़ लोग ही आयकर देतें है l बाकी बचे 89 करोड़ लोग गरीबी रेखा से उपर है पर आयकर नहीं देतें l यह समझ में नहीं आता कि 89 करोड़ लोग, जिनकी सालाना आय 2.5 लाख से नीचे है(4800 प्रति सप्ताह), अचानक 4000 रुपये क्यों खर्च करना चाहतें है l इस तरह के तमाम मेसेज सोसिएल मीडिया पर इस वक्त छायें हुए है l संदीप अगरवाल ने अनायास ही कुछ बड़े प्रश्न खादें कर दिए है l क्यों हर वक्त करदाताओं पर हमेशा नंगी तलवार लटका दी जाती है, जबकि देश में करोड़ों लोग हर वर्ष कर देने में सक्षम है, पर जानबूझ कर कर नहीं देतें l अभी भी बड़ा सवाल यह जहन में आ रहा है कि जब देश की आधी जनसँख्या गावं में रहती है, फिर गावों के विकास के लिए पूरी ताकत क्यों नहीं लगाई जाती l क्यों लोगों को कमाई के लिए शहर जाना पड़ता है l गावों से पलायन रोकने ले लिए, क्यों रोजगार के साधन गावों में ही मुहय्या नहीं करवाएं जाते ?  

इस तरह के तमाम प्रश्न इस वक्त सभी के दिमाग में उठ रहें है l नोटबंदी के सभी ने स्वागत किया है, पर जिस तरह से देश अब तक चला है, संदेह के बादलों का घिरना स्वाभाविक है l यह प्रश्न भी जायज है कि क्यों भारत में अचानक लोगों को देश के विकास में भागीदार होने के सबूत देने पड़ रहें है l क्या भ्रष्टाचार उपर से नीचे की और नहीं बहता ?आप उपर नकेल कसों, नीचे सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा l देश का हर नागरिक कर देने के लिए तैयार है, शर्त यह है कि वह धन देश के काम में आये, ना कि भ्रष्टाचारियों के l              

Saturday, September 24, 2016

सौ साल जीने का मूलमंत्र किसके पास है?
रवि अजितसरिया

कहते है कि हर मनुष्य के जीने की उम्र सौ वर्ष तय की हुई है, पर उसके रहन-सहन और खान-पान के तरीकों की वजह से उसके जीवन की लम्बाई अपने आप कम-ज्यादा हो जाती है l इस धारणा की वजह से अब तो यह देखा जा रहा है कि मनुष्य एक रोगमुक्त जीवन कितने दिनों तक जीता है, चाहे वह छोटा हो या बड़ा l क्या किसी के पास सौ साल जीने का मन्त्र है l शायद नहीं l यह बात जरुर है कि मनुष्य को रोगमुक्त रखने के लिए, भारतीय मनीषियों के पास तमाम तरह के उपाय और साधन प्राचीन काल में भी मौजूद थे, और कहते है, अब भी है l पर आज के आधुनिक युग में इन उपायों को करने में इतनी व्यावहारिक परेशानियाँ है कि मनुष्य गंभीर साधना करने में कतराता है l वह हलके-फुलके कई उपायों का सहारा करके, एक अच्छा जीवन जीने की चेष्टा करता है l इसमें सुबह की सैर, प्राणायाम, योगासन और संतुलित आहार, ज्यादातर लोगों की दिनचर्या बन गयी है l विभिन्न तरह के रोगों के उपचार के लिए कई तरह की पद्धतियों का सहारा लेतें है लोग, जिसमे घरेलु उपच्चार भी शामिल है l कई तरह के विरोधाभास भी है l विज्ञान की अनेक शाखाएं है जो व्यवहारिक और उपयोगी है l आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक, एलोपेथ, यूनानी, तिब्बती और बहुत ही ऐसी चिकित्सा पद्धतियाँ है, जो अपने अपने स्तर पर मनुष्य के इलाज के लिए प्रस्तुत है l इन सभी पद्धतियों से हम सभी एक ना एक बार जरुर गुजर चुकें है l सबकी अपनी-अपनी पसंद और चयन है l जिसके जो पद्दति वाली दवा असर कर रही है, वह उसको अपना रहा है l पर सौ साल का मूलमंत्र किसी के पास नहीं है l एक स्वस्थ जीवन जीने के लिए व्यायाम, योगासन और प्राणायाम की एक प्राचीन व्यवस्था आज भी कायम है, कसरत और स्ट्रेच तरीकों को अपना कर करोड़ों लोगों ने अपने जीवन को उर्जावान और क्रियावान बनाये रखा है l उनके पास भी सौ वर्षों तक जीने का मूलमंत्र नहीं है l पर एक स्वस्थ जीवन जीने के उपाय है, चाहे वें सौ वर्ष वर्ष पुरे   ना हो, पर जितने वर्ष भी जीये, स्वस्थ,निरोग और हर्ष के साथ जीये l यह बात सभी जानते है कि मनुष्य अपने परिवार के प्रति कर्तब्य निभाते-निभाते असंतुलित आहार, अर्धनिंद्रा और कुछ व्यसनों को पाल लेता है, जिसकी वजह से उसकी दिनचर्या, स्वस्थ कारणों से बिगड़ने लगती है l पचास तक आते-आते बीमारियाँ घर करने लगती है l अक्सर आम लोगों की जीवनशैली और खानपान के बारे में इस तरह से टिपण्णी की जाती है कि आधुनिक ज़माने में लोगों की जीवनशैली कुछ इस तरह की हो गई है कि बिमारियों का खुला आमंत्रण है l तनाव जीवन के रोजमर्रा का हिस्सा बन गया है l कम उम्र में ही गंभीर बीमारियाँ चली आने लगती है l इस तरह की बातें विशेषज्ञों द्वारा सेमिनारों और सभाओं में कही जाती है l ऐसे में, सोचने वाली बात है कि कौन सी जीवनशैली सबसे उत्तम और स्वास्थकर हो सकती है l जीवन की तमाम जरुरर्तों को पूरा करने के लिए लोग अपने आप को मशगुल रखतें है l  

वे भी उसी तरह से सोतें-उठतें, खातें-पीतें है, जो सामान्यतः एक आम इंसान को अपने जीवन यापन के लिए करना चाहिये l फिर जीवन के एक पड़ाव पर आ कर मनुष्य शारीरिक दुर्बलता क्यों महसूस करने लगता है l अगर गौर से देखे, तब पाएंगे कि जिस प्रचुरता में फल एवं सब्जियां, बाजारवाद के प्रभाव से आराम से मिलने लगी है, पर यह भी देखा जा रहा है कि इस उपलब्धता के लाभ लोगों को नहीं मिल रहा है l प्रद्योगिकी ने सब कुछ बदल कर रख दिया है l भारी मात्रा में रसायनों के उपयोग से फलों एवं सब्जियों की गुणवत्ता में फर्क दिखाई देने लगा है l हर सब्जी और फल हाइब्रिड नस्ल की मिलने लगी है l अब यह कहा नहीं जा सकता है कि कौन सा खाद्य पदार्थ पौष्टिक है और कौन सा हानिकारक है l जो देखते है, उसे मान लेतें है l आयुर्वेद जैसी पद्दति पर लोगों का भरोसा पहले से अधिक हो चला है, पर अब यह पद्दति महंगी और बाजारवाद का एक हिस्सा बन गयी है l हर कोई आयुर्वेदिक उत्पाद बनाने में लग गया है l हर कोई जीवन शैली पर प्रवचन देने लग गया है l कई तरह की पेचीदगियां हमारे सामने आ खड़ी हुई है l बाजारवाद एक चुनौती बनती जा रही है, एक आम भारतीय किसी बड़े मकड़ जाल में फंसता चला जा रहा है l मोटापा, मधुमेह और रक्त-चाप किसी भी आम भारतीय के जीवन का एक हिस्सा बन चुके है l टीवी खोलते ही एक नए पंडित आयुर्वेद और प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा दिए गए फोर्मुले पर आधारित दवाइयों का प्रचार करते हुए दिखाई देतें है l नियम और संयम की बातें, अक्सर मुनियों के प्रवचन का हिस्सा रहती है, पर उनकों व्यावहारिक रूप से अपनाने में आधुनिक युग के मानव को अनेक कठिनाइयाँ होती है l भारतीय जीवनशैली उन मानवीय विचारों पर आधारित है, जिसको अपना कर कोई भी एक सादा और सुंदर जीवन जी सकता है l अधकचरे  विकास और उसकी विपरीत परिणामों से हो सकता है कि भारतीय लोगों में बीमारियाँ जल्द चली आती हो, पर एक आम भारतीय अपने जीवन को स्वस्थ बनाने के लिय आज जुट गया है l उसने खुद ही एक लम्बा जीवन जीने का मन्त्र खोज लिया है l
पकिस्तान के साथ युद्ध नहीं होने के कुछ बड़े कारण
रवि अजितसरिया

कश्मीर में आंतकवादी बुरहान वानी के मरने के बाद, पिछले 70 दिनों से जम्मु कश्मीर में हालात बद से बद्दतर हो गए है l रविवार को उरी ब्रिगेड पर हुवे फिदायीन हमले से स्थिति और अधिक बिगड़ी ही है l देश भर में पाकिस्तान समर्थित लस्कर ए तैबा के इस कायरतापूर्ण हमले का प्रतिवाद जोरो से हो रहा है l लोगों के गुस्सा सातवे आसमान पर है l यह आवाज उठ रही है कि भारत को पाकिस्तान के साथ युद्ध में उतर जाना चाहिये, और पीओके स्थित उनके सभी आंतकवादी ट्रेनिंग कैम्पों को ध्वस्त कर देना चाहिये l मीडिया लगातार देश भर के लोगों की संवेदना और आक्रोश के पिक्चर लगातार दिखा रहा है l हालाँकि, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों ने बयान दिया है कि ईंट का जबाब पत्थर से दिया जाएगा, पर इस बात के आसार बहुत ही कम है कि भारत इस समय पाकिस्तान से कोई सीधा युद्ध करेगा l इसके सीधे कारणों को अगर हम देंखे, तब पाएंगे कि भारत इस समय पश्चिम एशिया में एक बड़ी शक्ति बन कर उभर रहा है l आर्थिक और सामरिक, दोनों दृष्टि से l सीधे युद्ध करने से भारत में जो बड़ी संख्या में निवेश आ रहा है, उस पर प्रतिकूल असर पड़ेगा l निवेशकों के भरोसा टूट सकता है l भारत कभी भी यह नहीं चाहेगा l कश्मीर मुद्दे को अंतराष्ट्रीय रूप से एक बार फिर बड़े स्तर पर बल मिलने की सम्भावना बन जाएगी, जो पाकिस्तान उरी ब्रिगेड पर हमला करने से पहले से चाहता था l होशियारपुर और पठानकोट के हमले के पश्चात पकिस्तान के पास अंतराष्ट्रीय स्तर पर कश्मीर मुद्दे को उठाने के लिए कोई वजह नहीं थी, पर जैसे ही बुरहान वानी की मृत्यु हुई, और कश्मीर में उसका बड़ा प्रतिवाद शुरू हो गया, उसने चारो तरफ से भारत पर निशाना साधना शुरू कर दिया, जिससे भारत जल्दबाजी में सेन्य कार्यवाई शुरू कर दे l सामरिक संयम के पक्षधरों का कहना है कि युद्ध से उसकी छवि को तो नुक्सान पहुचेगा, साथ ही, आर्थिक रूप से उसको भारी नुकसान होने की आकांशा है l अमेरिका और ब्रिटेन ने हमेशा से ही भारत और पाकिस्तान को नसीहत दी है कि दोनों को तनाव कम करने की दिशा में काम करना चाहिये, इसलिए अगर युद्ध हुवा, तब विश्व भर में भारत पर युद्ध ख़त्म करने का दबाब अधिक रहेगा, और पाकिस्तान यह भी चाहेगे कि भारत को एक आक्रामक राज्य घोषित हो, जो हमेशा आंतकवादी हमले के बाद पाकिस्तान को ही दोषी मानता है l चूँकि दोनों ही देश परिमाणु बम संपन्न देश है, इसलिए स्थित अधिक भयावय होने इस आशा है l साथ ही भारत का परिमाणु बम उपयोग पहले नहीं करने का करार भी इस और रुकावट बन सकता है l इसके अलावा, युद्ध के खर्चे को लेकर भी सामरिक मामले के विशषजज्ञों का मानना है कि भारत में अभी स्वास्थ और आधारभूत विकास के लिए बड़े पैमाने पर पूंजी लगनी है l अगर युद्ध हुवा, तब बहुत पैसा युद्ध में चला जाएग, जो इस समय भारत के लिए भरी पड़ेगा l  

फिर, भारत मुस्लिम आंतकवादियों के लिए एक प्रजनन क्षेत्र बना हुवा है, कश्मीर के साथ पुरे नार्थ-ईस्ट में मौल्वादियों और सिमी जैसे दल सक्रीय होने के चलते, भारत में कभी भी स्थाई शांति कभी भी नहीं रही l युद्ध के होने से देश में कट्टरवाद के समर्थकों को पनपने का एक मौका हाथ लग जायेगा l यह भी मानना है कि अगर भारतीय सेना पीओके में घुस कर आंतकवादियों के ठिकानों को नष्ट करेगी, तब पाकिस्तान के जबाब देने पर बॉर्डर पर रहेने वालें सिविलियन्स का जान माल का भारी नुकसान हो सकता है एक संभावना यह भी है कि भारत पाकिस्तान को कूटनीति के द्वारा परास्त करे l उसको एक आंतकवाद संरक्षित देश घोषित करवाने  के लिए भारत प्रयास करेगा, जिससे पाकिस्तान को सभी अंतराष्ट्रीय मदद मिलनी बंद हो जाएगी l भारत ने पाकिस्तान को ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’ का दर्जा जो दिया है, उसको भी वापस ले सकता है l एक आर्थिक रूप से टूटे पकिस्तान किस तरह से आगे आंतकवादियों को आर्थिक मदद कर सकेगा, यह सभी तो पता है l पर यह बात दीगर है कि सन 2008 में जब मुंबई पर हमला हुवा था, तब भी तीनों सेना के चीफों ने किसी भी मिलिट्री ऑपरेशन के लिए हरी झंडी नहीं दिखाई थी, बल्कि कूटनीति के जरिये पाकिस्तान को अलग-थलग की योजना बनाई थी l आज भारत दुबारा से उसी योजना पर काम कर रहा है l हालाँकि भारतीय फोज ने पकिस्तान को चेतावनी भरे लहजे में जब चाहे सेन्य कार्यवाही करने के लिए नोटिस दे दिया है, पर जानकार मानते है कि भारत एक बार फिर किसी भी सीधी कार्यवाही से बचेगा l राष्ट्रिय रक्षा सलाहकार अजीत डोवाल का मानना है कि पकिस्तान के पास भी वही परिमाणु ताकत है, जो भारत के पास है, इसलिए सीधे हमला करना और उसमे जितना उतना आसान नहीं रहेगा l ऐसे में भारत क्या कर सकता है l भारत सिन्धु नदी के करार को समाप्त कर सकता है, व्यापार में दी जाने वाली रियायतों को समाप्त कर सकता है , नवम्बर में होने वाले सार्क सम्मलेन का बहिष्कार कर सकता है l कूटनीति के द्वारा भारत सभी मित्र देशों से इस हमले की निंदा करने के लिए कहलवा सकता है, जो वह फिलहाल कर रहा है l कश्मीर को लेकर भारत आज अधिक चिंतीत है l अगर सीधा युद्ध हुवा, तब भारत की आतंरिक सुरक्षा की समस्या पहले से अधिक बढ़ जाएगी, खासकरके कश्मीर में l भारत के रक्षा मामले में अजीत डोवाल का कद को देखते हुए तीनों सेना के चीफ आज के दिन एक सहायक के रोले पर आ गएँ है, जहा एक और विदेश सचिव एस जयशंकर है और दूसरी तरफ रक्षा सलहाकार अजीत डोवाल है l इधर अमेरिका ने पाकिस्तान को दुबारा से यही नसीहत दी है कि वह भारत से बातचीत करे और दोनों तरफ का तनाव कम हो l पर पकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार सभा में कश्मीर का मुद्दा दुबारा से उठाया और कहा कि अब तक पिछले दौ महीने में 70 लोगों की जाने जा चुकी है, जो मानव अधिकारों के खुलम-खुल्ला उलंघन है l नवाज शरीफ ने राजनाथ सिंह के उस बयान की तीखी आलोचना की है जिसमे उन्होंने रविवार को पाकिस्तान को एक आंतकवादी राष्ट्र कह दिया था l         

Sunday, September 11, 2016

असम में व्यापार करने की आज़ादी
रवि अजितसरिया


असम में सर्वानन्द सरकार ने सौ दिन पुरे कर लिए है l इस पर ना जाने कितने विश्लेषण हुवे है, ना जाने कितने लेख लिखे जा चुकें है l हिंदी भाषियों के लिए, खासकर, यह सौ दिन काफी मुश्किलें भरे हुए रहें l सौ दिनों की उपलब्धि यह रही कि सरकार ने अपनी वित्तीय हालत को सुधारने के लिए एक प्रतिशत कर में बढ़ोतरी कर दी, जिससे यह संभावना बन गयी हैं कि इस बढ़ोतरी से वस्तुओं के भाव बढ़ जायेंगे l उल्लेखनीय है कि नई सरकार के सत्ता सँभालते ही अवेध वसूली और मूल्य वृद्धि ह्रास करने के उद्देश्य से राज्य से चेक गेट हटाने की घोषणा की थी, जिसकी भारी प्रशंसा लोगों ने की थी l अब एक प्रतिशत एक मद में और आधा प्रतिशत दुसरे मद में वेट बढ़ा कर सरकार लोगों के समक्ष मुहं खोलने की हिम्मत नहीं कर रही, पर यह तर्क दे रही है कि आवश्यक सामग्रियों के दाम इस कर बढ़ोतरी से नहीं बढ़ेंगे l पर व्यापारियों ने अभी सरकार के साथ दो-दो हाथ करने की ठान ली है l मूल्य वृद्धि के नाम पर जिस तरह से उनसे पूछ-ताछ की जा रही है, उनसे वे परेशान ही नहीं बल्कि दुखी भी है l राज्य में पहले से मूल्य वृद्धि हुई है, उपर से राज्य में आने वाली बाढ़ से जूझते लोगों के पास इस समय सर्वानन्द सरकार के समक्ष एक आशा भरी नजरों से देखने के अलावा कोई चारा नजर नहीं आ रहा है l 
असम में फैंसी बाज़ार मतलब है, व्यापारी, चाहे वह कोई भी जात का हो l व्यापार को असम में हमेशा से ही दोयम दर्जें का कार्य माना गया है l मानो व्यापार करना कोई गुनाह है l एक चतुर्थ श्रेणी के सरकारी पद के लिए, असम में लाखों रुपये की रिश्वत दी जाती है, पर पद लेने वाला, उन रुपयों से व्यापार करने से कतराता है, मानो कोई व्यापर कोई बिच्छू हो, जिसको छेड़ने से ही डंक लगता है l जबकि यह सर्विदित है कि किसी भी देश या प्रदेश की मजबूती वहां की आर्थिक मजबूती से आंकी जाती है, वहां की आधारभूत संगरचना, वहां का वातावरण उद्योग और वाणिज्य-व्यापर के लिए अनुकूल हो, तब उस देश को कोई एक समृद्ध देश की संज्ञा दी जाती है l वहां के प्रति नागरिक आय इतनी अधिक हो, तभी उस देश या प्रदेश को एक विकसित इलाका माना जाता है l उस देश या प्रदेश के अर्थ-सामाजिक हालात इतने सुदृढ़ होतें है कि हर नागरिक के पास आय के अच्छे साधन हो, क्रय क्षमता इतनी हो कि राष्ट्र या प्रदेश के विकास में एक अहम् भूमिका निभाएं l असम के क्षेत्र में अगर देखे, तब पाएंगे कि व्यापार और वाणिज्य हिंदी पट्टी से प्रवजन करके आए हुए लोगों के हाथ में मुख्यतः है l यह कार्य वे लोग वर्षों से कर रहें है l १८२८ से भी पहले से, व्यापार और वाणिज्य के कारणों से आए हुए लोगों ने अपना बसेरा यही पर कर लिया है l लाखों लोगों की जन्म भूमि असम ही है l फैंसी बाज़ार इन बसेरों में से एक बड़ा बसेरा है, जिसका नाम यहाँ के राजनेता, छात्र संगठन और अन्य लोगो गाये-बघाये लेतें रहते है l फैंसी बाज़ार का मतलब ही है हिंदी भाषी l  
जबकि फैंसी बाज़ार में हर जाति और सम्प्रदाय के लोग व्यवसाय करतें है, जिसमे, बंगला भाषी, मुसलमान, असमिया गुजराती, बिहारी, पंजाबी, हिंदी भाषियों के साथ मिल कर व्यवसाय करतें है l फैंसी बाज़ार ने हमेशा से ही अपनी एक अलग पहचान बनाई है l उसने दो एक बार सुरक्षा के मुद्दे को छोड़ कर कभी भी किसी जातिगत मांग को लेकर आन्दोलन नहीं किया, जो यह दर्शाता है कि यहाँ रहने वालें लोग शांतिप्रिय लोग है, जिन्हें आम तोर पर राज्य की राजनीति से कोई मतलब नहीं है l यहाँ के लोगो हर वर्ष भारी मात्रा में राजस्व कमा कर सरकारी खजानें में जमा करतें है l इसमें निगम और सम्पति कर, वाणिज्य कर, श्रम कर, इत्यादि शामिल है l  

नई सरकार आने के पश्चात, मूल्य वृद्धि के नाम पर इस तरह से व्यापारियों का नाम बार-बार आना इस बात के संकेत है कि उन विषयों पर राजनीति करनी आसन है, जिस पर आम नागरिकों का ध्यान हमेशा रहता है l जब भी बड़े नेता फैंसी बाज़ार का रुख करतें है l वे यहाँ के लोगों को तरह तरह के आश्वासन देते है, पर स्थितियों में कोई खास बदलाव नहीं होता है l उस सोच में कोई बदलाव नहीं होता, जो ह्रदय में विद्यमान है l जबकि यह बात सबकों पता है कि फैंसी बाज़ार जैसे बड़े व्यावसायिक इलाकें में नागरिक सुविधाओं का भारी आकाल है l जिस तरह से व्यवसाय करने के लिए सुविधाओं को मुहय्या करवाया जाना चाहिये, वह यहाँ मौजूद नहीं है l फिर विषम परिस्थितियों के होते हुए भी, यहाँ के व्यापारी मजे से व्यापार करतें है, और किसी भी किस्म का प्रतिवाद नहीं करतें l वर्षों से लगी हुई नों एंट्री यह बताती है कि किस तरह से व्यावसायिक वाहनों को यहाँ आने से रोका जाता है, जो व्यापार करने के लिए प्रथम अनिवार्य जरुरत है l इस से सरकार की संकीर्ण मानसिकता और दोहरा रवय्या का पता चल जाता है l पर एक व्यावसयिक इलाके को जो सुख-सुविधाएँ दी जनि चाहिये, वह नहीं दी जाती, बल्कि ऐसी-ऐसी योजनाओं को लागु करने की कवायद की जाती है, जिससे यहाँ का व्यापार को धवंस होना निश्चित है, साथ ही रहवासियों के भारी मुश्किलें आ सकती है l उल्लेखनीय है कि हाल ही में गुवाहाटी नगर निगम ने फैंसी बाज़ार के सौदर्य के लिए एक ऐसी योजना बना कर दी है, जिसका भारी विरोध हो रहा है l प्राचीन फैंसी बाज़ार के अस्तित्व को कोई मिटा नहीं सकता, यह तो तय है l बस यहाँ के व्यापारियों को चाहिये कि स्वयं अपने स्तर को ऊँचा करें और एक उदहारण पेश करें l इतने वर्षों तक हर त्यौहार, पर्व, बाढ़, भूकंप और अन्य मौकों पर फैंसी बाज़ार चंदा देता आया है, क्यों न इस बार स्वयं एक पहल अपनी और से की जाएँ, जिससे एक मिसाल कायम हो l उसे अब स्वयं आगे आ कर फैंसी बाज़ार के विकास के लिए योजना बना कर सरकार को देनी चाहिये, जिससे यहाँ के व्यापारियों को सरकार की तरफ सुख-सुविधाओं के लिए सरकार की तरफ मुहँ नहीं ताकना पड़े l इस पूरी योजना में कामरूप चेंबर, लोगों की सहभागिता भी ले सकती है l (raviajitsariya@gmail.com)
गानों की दुनिया से निकलती हुई जिंदगी
रवि अजितसरिया
‘हँसते-हँसते कट जाये रास्तें, जिंदगी यूँ ही चलती रहें, ख़ुशी मिले या गम, बदलेंगे ना हम, दुनिया चाहे बदलती रहें’ l यह प्रोत्साहित करने वाला हिंदी गीत, है, जो मानव रिश्तों और उसकी बारीकियों को बखूबी बयां करता है l प्रोत्साहित करने वालें गीतों ने हमेशा से ही भारतीय जनमानस पर एक छाप छोड़ी है l  हिंदी गीतों ने मानों लोगों को जिंदगी एक नए सिरे से शुरू करने की दीक्षा दी हो, एक धर्मगुरु की भांति l पंद्रह अगुस्त के दिनों में देश भक्ति गानें, उन्ही फिल्मों से थे, जिसे देख कर आज भी लोग सिनेमा हाल में तालियाँ बजातें है l 1955 में बनी फिल्म ‘सीमा’ का एक प्रेरक गीत ‘तू प्यार का सागर है..’  आज भी जब भरी सभा में गाया जाता है, तब चारों और स्तब्धता छा जाती है l हर कोई गीत में बस रम जाता है l कुछ ऐसे ही प्रेरक गीतों ने भारतीय जनमानस के बीच अपनी छाप छोड़ने में सफल रहें l ‘ए मालिक तेरे बन्दे हम..’’(दो आँखे बढ़ हाथ-1957) ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता..’(अंकुश-1986) ‘हमको मन की शक्ति देना..’(गुड्डी) जैसे गीतों ने भारतीय दर्शकों के मन में जीवन और कर्म के महत्त्व को समझाया और खूब उत्साहित भी किया, जैसे असमिया भाषा, संस्कृति के जनक रूपकुंवर ज्योति प्रसाद के गीतों को आज भी पढ़ा और गया जाता है l भूपेन हजारिका के कालजयी गीतों को अगर हम सुने, तब पाएंगे कि ‘बिस्तिर्ण पारे..”, ‘ मोई अखोमोर मोई भरोतोर..’ ‘एक पत्ती दो अंगुलिया..’ जैसे गीतों ने असमिया जनमानस को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया l हिंदी गीतों के तीन पहलु धुन, शब्द और सजावट ने हमेशा से ही लोगों को संघर्षशील जीवन के घने अंधेरों से निकलने में मदद की है l हिंदी फिल्मों की सफलता के पीछे, यह भी एक कारण है कि उसने दर्शकों को अपने साथ चलने पर मजबूर किया है l हिंदी फिल्मों के एक सौ साल के सफ़र को अगर हम गौर से देंखे, तब पायेंगे के चरित्र फ़िल्में, साठ के दशक से ही खूब चली है, जिसमे नायक का चरित्र पूरी फिल्म के चारों और घूमता है l पौराणिक एवं देशप्रेम, नवनिर्माण और सामाजिक सरोकारों वाली फिल्मों ने हमेशा ही भारतीय लोगों को प्रेरित किया है l ‘श्री 420’, ‘मदर इंडिया’, ‘मंथन’, ‘गॉइड’ और ‘नया दौर’ जैसी फिल्मों ने लोगों के समक्ष समाज का आयना पेश किया, जिसने लोगों को सोचने का वक्त दिया l दुःख और अनेकों झंझावातों से भरा नायक का जीवन, हौसला नहीं खोना और अंत में विजय प्राप्त करना, हिंदी फिल्मों के यह एक खूबी थी l कला के माध्यम से इस तरह विविध शैलियाँ प्रस्तुत करना, हमारी हिंदी फिल्मों की खूबसूरती थी l साठ से अस्सी के दशक में कई फिल्मों ने सिनेमाघरों में सिल्वर जुबली और कुछ ने तो गोल्डन जुबली बनाई l शोले, जय संतोषी माँ, जैसी फ़िल्में रोमांस, कला और डायलोग से भरी थी, जिनको भारतीय दर्शकों ने खूब देखा और आनंद भी लिया l  


फिल्म शोले के तो सिर्फ डायलोग बजेते थे, और सुनाने के लिए लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी l l लोग कहतें है कि आज से तीस वर्षों पहले तक, फ़िल्में ही मनोरंजन के मात्र एक साधन थी l ‘फर्स्ट डे फर्स्ट शो’ देखने के लिए, लोग सिनेमा हाल में लम्बी-लम्बी कतार लगातें थे l टिकटें ब्लेक होती थी l परदे पर पैसे उछालें जातें थे l और ना जाने, क्या-क्या l दुसरे शब्दों में कह सकते है कि हम भारतीय प्रतिबिम्ब को हिंदी फिल्मों में देखतें थें, जिससे प्रेरित हो कर हम पर्दें पर पैसे उछालतें थे, गला फाड़ कर रोतें भी थे l ‘कुंवारा बाप’ फिल्म देख कर ना जाने कितने ही लोगो सिनेमा होल में ही रो पड़े थे l चरित्र फिल्मों ने तब से ले कर आज तक हमेशा से ही भारतीय लोगों को सिर्फ मनोरंजन ही प्रदान नहीं किया, बल्कि भारतीय लोगों ने उसका अनुसरण भी किया है l कितनी विविधता भरी रहती थी, भारतीय सिनेमा l उन दिनों, बच्चों के अभिभावक उनको फ़िल्में देखने से रोकते थें l मानो फिल्मों से, वे जीवन की उन बारीकियों को समय से पहले समझ जायेंगे, जो उनको बड़े होने पर अपने आप उन्हें समझ आती थी l ‘जुली’ फिल्म के आपतिजनक दृश्यों पर अभिवावक अपनी आँखे बंद कर लेते थे l इतना ही नहीं जुली का प्रसिद्द गाना ’भूल गया सब कुछ, याद नहीं अब कुछ...जुली..इ लव यूँ.. गुदगुदाने की भी मनाई थी, जैसे गाना गाने से कोई संक्रमण हो जायेगा l अब नए लिखे-बनाये जाने वालें गीत-संगीत बाजारवाद की भेंट चढ़ गए है, कल्पना के पंख को व्यावसायिकता ने क़तर दिए है l अब गाने धड़ा-धड़ बिकने चाहिये, कितने दिन बिके, यह जरुरी नहीं l अब हमारे गाने, हमारी संस्कृति, सभ्यता और सामग्रियों के परिचायक नहीं रहे है l गीतकार ऐसे गीत लिख रहें है, जिनमे हिंदी-इंग्लिश और अन्य भाषा एक साथ समाहित रहती है, ना शब्द है, ना ही भाषा और ना ही व्याकरण, बस एक गाना है, जो एक सौ करोड़ क्लब में शामिल होने की चपेट में है l संगीत प्रधान गीतों ने शब्द प्रधान गीतों की जगह ले ली है l कवि और गीतकार शैलेन्द्र के ‘पतिता फिल्म फिल्म में एक गीत दिया –‘जब गम का अँधेरा घिर जाए..समझो कि सवेरा दूर नहीं’ और फिल्म ‘मेरी जंग’ के प्रेरणा से भरे इस प्रेरक गीत ‘जिंदगी हर कदम एक नयी जंग है..’ को जब हम सुनतें है तब, शायद जीवन के सकारात्मकत पहलु तो समझ कर हम जीवन पथ पर आगे बढ़ जातें है l उनको सुन कर हम प्रेरित हो जाते है l          


Saturday, September 3, 2016

इस तरह के विकास के क्या मायने है ?  
रवि अजितसरिया


यह एक विचारणीय प्रश्न है कि विकास के लिए लोग है या लोगों के लिए विकास है l यानी जो विकास होगा उसका फायदा लोगों को मिलेगा या नहीं l जिस विकास से लोगों को कोई फायदा नहीं, उस विकास के क्या मायने l इसी उपापोह में कभी-कभी कुछ ऐसी योजनायें बना दी जाती है कि देखने में तो काफी रंग बिरंगी लगती है, पर जैसे एक उनुपयोगी योजना के क्रियान्वयन में वे मुश्किलें तो आनी ही है, सो आती है, जिससे आम लोगों की जिंदगी बाधित होने लगती है l हमारे यहाँ विकास के मायने है, चौड़ी सड़कें, रेल या सड़क पुल, ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएं, इत्यादि l इससे उपर अगर हम देखें, तब पाएंगे कि राजनीति ने सब कुछ गड़बड़ कर दिया है l धडा-धड़ घोषणाएं, आनन फानन उन घोषणाओं पर कार्य शुरू करना, चाहे उस योजना पर उचित तैयारिया हुई हो या नहीं l बस करना है l सारे विकास के मापदंड राजनीति के आगे बोने हो जातें है l किस तरह का विकास हमें चाहिये, ब्रिटिश, अमेरिकन या भारतीय l क्या भारतीय राजनेता इतने असंवेदनशील हो गएँ है कि उन्हें घर के आसपास घोर गरीबी और लाचारी दिखाई नहीं पड़ती, और वे चल पडतें है एक कल्पना की दुनिया में जहाँ से वे विकास के नए सपने देखने लागतें है l एक ऐसा मॉडल, जिसमे कम से कम आम भारतीय तो समा नहीं सकता l अगर ऐसा नहीं होता, तब वर्षों से निचली सुवान्सिरी विद्युत प्रकल्प पर कार्य बंद नहीं रहता l एम्स के स्थान को लेकर विवाद नहीं होता l अगर घोषणा के पूर्व आम राय बना ली जाती तब, यह सब नहीं होता l पर हम एक अमेरिकन मॉडल को भारतीय लोगों में समाहित कर देना चाहतें है, जो लोगों का सर्वस्व छीन लेने को आतुर है l अगर लोग ही नहीं रहेंगे, तब विकास किसके लिए l क्या गरीबों के जीने का स्तर भारत में इन वर्षों में अप्रत्याशित रूप से ऊँचा हुवा है ? फिर विकास के क्या मायने l जमीनी स्तर से चीजों को ठीक करने में जुटी सरकार, शायद भारत के सामाजिक ढांचे को समझने में भूल गयी है, जो अभी भी पुरातनपंथी और रुढ़िग्रस्त है l इसकी जड़े हजारों वर्षों पुरानी है l हमर सामाजिक तानाबाना ही कुछ ऐसा है l राजनीति इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती l पर रोजाना अपनी पीठ थपथपाते मंत्रियों और अधिकारीयों की भीड़ हमें टेलीविज़न के परदे पर अक्सर दिखाई दे जाती है, एक उन्नत मानवीय राजनीति के स्थान पर असंवेदनशीलता और आलोचनाओं से घिरी हुई, जहाँ कोई श्रेष्ठता का बोध नहीं है l असंवेदनशीलता की बानगी तो देखिये, जबरदस्त अफ़सोस होगा l पूर्वोत्तर की सबसे बड़ी व्यापारिक मंडी फैंसी बाज़ार का एक व्यस्तम रास्ता, हेम बरुआ रोड, हमेशा भीड़-भाड़ से भरा हुवा l इस रास्तें और इससे सटी हुई गलियों में करीब 10 हज़ार थोक एवं फुटकर दुकाने है l सभी इसी रास्ते पर निर्भर l करीब 200 से ज्यादा खोमचे वालें यहाँ पर दूकान लगा कर अपना परिवार चलातें है l  

इस समय लोहिया मार्किट के सामने मुड़ी, आलू चाट का खोमचा लगाने वाले राम लक्ष्मण साह के लिए सबसे मुश्किल भरे दिन है, क्योंकि रास्ते को पिछले तीन महीनों से, एक सोंदर्य योजना के तहत खोद कर रख दिया गया है, जिससे इलाके में ग्राहकों का आने पहले से काफी कम हो गया है l एक धुल भरी सड़क पर खोमचों वालों से अक्सर लोग दूर ही रहतें है l ऐसा समझा जा रहा है कि गंगटोक के एम जी मार्ग से प्रेरित हो कर, अति उत्साह में, राज्य के किसी वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी द्वारा बनाई गयी है, यह योजना, जिसका विरोध यहाँ के व्यापारी कर रहें है l कमाल की बात यह है कि इतने बड़े विरोध के बावजूद भी गुवाहाटी नगर निगम इस प्रकल्प तो आगे ले जाने के लिए आतुर है l व्यापारियों का मानना है कि इस रास्ते को अगर यातायात के लिए बंद कर दिया गया, तब इलाके में वर्षों से दुकानदारी कर रहें, दुकानदारों के लिए रोजी रोटी का संकट आ जायेगा l उपर से इलाकें में रहेनें वालें स्थाई वासिंदों के लिए, उनके रहवास में, गंभीर समस्याएं पैदा हो जाएगी l कुछ लोगों का मानना है कि यह एक व्यवसायिक इलाका है, और इसमें इस तरह से सौन्दर्यकरण नहीं किया जा सकता, जिसमे यातायात को पूरी तरह से बंद कर दिया जाये l उपर से यह भी माना जा रहा है कि करीब दस हज़ार वाहन यहाँ से रोजाना गुजरतें है, उन वाहनों को दूसरी और मोड़ा जाएगा, जिसके लिए निगम और यातायात विभाग के पास कोई अलग से योजना नहीं है l महात्मा गाँधी रोड और ए टी रोड जो पहले से अधिक यातायात होने से बाधित है, उस पर अगर रोजाना दस हज़ार वाहन अधिक चलने लगें, तब कोई भी कल्पना कर सकता है कि गुवाहाटी में वाहन ले कर चलना कितना दुस्कर हो जायेगा l जबरदस्त विरोध के मद्देनजर, गुवाहाटी नगर निगम ने हालाँकि, व्यापारियों को अस्वासन तो दे दिया है, कि जब तक उन्हें गुवाहाटी मेट्रोपोलिटन विकास प्राधिकरण और यातायात विभाग से ‘नो ऑब्जेक्ट’ सर्टिफिकेट नहीं मिल जाता है, वे इस प्रकल्प को आगे नहीं बढ़ाएंगे, मगर प्रकल्प को पूरी तरह से बंद करने के लिए सहमती प्रदान नहीं की है l अब बड़ा प्रश्न यह है कि क्या इलाकें के दस हज़ार लोगों का विरोध का कोई मायने नहीं है ? एक चालू रास्ते को बंद करना, ना सिर्फ वह रह रहें हजारों लोगों की रोजी रोटी का प्रश्न को पैदा करेगा ही, साथ ही नगर का विकास पूरी तरह से अवरुद्ध हो जायेगा l l मजे की बात यह है कि इसी फैंसी बाज़ार में दसों सामाजिक संस्था और कई व्यावसायिक संगठन कार्यरत है, मगर उनकी तरफ से विरोध के स्वर यहाँ के लोगों को सुनाई नहीं देते l व्यापारियों में एकता नहीं होने का खामियाजा यहाँ के वासिंदे और व्यापारी आज भुगत रहें है l वे किसके समक्ष गुहार लगाये, कौन उनकी सुनेगा l क्या विकास के यही मापदंड है ? क्या इसी को हम विकास कहेंगे ?         
वैचारिक अभिव्यक्ति या बरबोलापन
रवि अजितसरिया


वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारा संविधान हमें देता है l भारत में, किसी भी नागरिक को यह अधिकार है कि वह कुछ भी व्यक्त कर सकता है, जब तक की वह किसी के मान, धर्म और सम्प्रदाय को कोई हानि नहीं पहुचता l हमारे संविधान की 19वीं धारा में भारत के नागरिकों को अभिव्यक्ति की आज़ादी प्रदान की गयी है l किसी भी देश के नागरिकों की स्वतंत्रता की यह एक पहली निशानी है l अभिव्यक्ति की आज़ादी के बिना कोई भी अपने आप को स्वतंत्र नहीं कह सकता l हर नागरिक स्वतंत्र है, कुछ कहने के लिए, उसी तरह से हर नागरिक बंदी भी है उस आज़ादी के अनुशासन से, जहाँ वह, व्यक्ति, समाज और धर्म के मान मर्यादा के विरुद्ध टिपण्णी नहीं कर सकता l ऐसा करने पर उसके इस आचरण के लिए उसे कटघरे में भी खड़ा किया जा सकता है l ठीक ऐसा ही हुवा बम्बइया संगीतकार और आप समर्थक विशाल ददलानी के साथ l उन्होंने अभिव्यक्ति की आज़ादी की हदें पार कर के जैन धर्म गुरु तरुण सागरजी महाराज के विरुद्ध एक भद्दा मजाक किया, जिससे जैन धर्म के अनुयायियों की धार्मिक भावनाएं आहत हुई l कुछ लोग इस पुरे मामलें को राजनीति से जोड़ कर भी देख रहें है l उनका कहना है कि भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, जहा सभी लोगों को अपने धर्म को मानाने का पूरा अधिकार है l राज्य भी अपनी निति निर्धारण में धर्म का कही हस्तक्षेप नहीं करता है l उनका यह भी कहना है कि अगर इस तरह धर्म गुरुओं को विधान सभा के पटल पर लाया जायेगा, तब अन्य धर्मों और आस्थाओं को मानाने वालें अनुयायियों की भी मांग उठेगी कि उनके गुरु को भी विधान सभा में प्रवचन के लिए बुलाया जाये l तब फिर भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर चोट पहुचेगी l उल्लेखनीय है कि तरुण सागरजी महाराज इससे पहले भी मध्य प्रदेश की विधान सभा में प्रवचन दे चुके है l पर हकीकत यही है कि विशाल ददलानी ने सोसिएल साईट ट्विटर का बेजा इस्तेमाल किया और अभिव्यक्ति की आज़ादी का अतिक्रमण कर, भारत में वास करने वालें 45 लाख जैन धर्मालंबियों के भावनाओं को आहत किया है l हालाँकि जैन गुरु पर विशाल की टिपण्णी से कोई फर्क नहीं पड़ा है, उन्होंने इसे दर किनारे कर दिया है, पर देश भर में विशाल ददलानी के विरुद्ध मामलें दर्ज हो रहें है l एक धर्म गुरु पर इस तरह से कोई टिपण्णी करे, इस बात को भारतीय धर्म परंपरा इजाजत नहीं देती, क्योंकि हर धर्म को मानाने और परिपालन के लिए भारत में पूरी आज़ादी है l इतिहास गवाह है कि भारत में नागा साधुओं और संतों के वास करने की परंपरा है l जैन मुनियों में खास बात यह रहती है कि वें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का आजीवन व्रत रखतें है, वे आजीवन इस पथ पर चल कर जैन दर्शन और शास्त्र के उपर प्रवचन देतें है l ‘कड़वे वचन’ नाम से प्रकाशित उनकी पुस्तक और उनके प्रवचन पूरी दुनिया में इसलिए प्रख्यात है,  
क्योंकि उनके प्रवचन जैन पद्धति और व्यवहार दोने के उपर एक विहंगम दृश्य पेश करतें है l विभिन्न सामाजिक विषयों पर साफ़-साफ बात रखने वालें जैन मुनि जैन दर्शन के उन आयोमों को लोगों के सामने रखते है, जिनसे आम लोगों का संपर्क है l साफगोई के लिए जाने जाने वालें क्रांतिकारी जैन मुनि तरुण सागरजी महाराज ने हरयाणा विधान सभा में धर्म, राजनीति, समाज विज्ञान और दर्शन शास्त्र पर अपनी बात रखी l बेटी बचाओं आन्दोलन ले पक्षधर रहें, तरुण सागरजी महाराज ने अपने एक फोर्मुले के जरिये, समाज से आह्वान किया कि जिन घरों में बेटियां नहीं है, उस घर में लोगो शादियाँ ना करें, संत भिक्षा न ले, और चुनाव नहीं लड़ने दिया जाये l धर्म को राजनीति का अंग बनाने का भी उन्होंने आह्वान किया l उन्होंने विधान सभा में सभी विधायकों के समक्ष कहा कि धर्म का स्थान राजनीति से बहुत ऊँचा है और धर्म राजनीति का पति है, उसके दिखाएँ हुए पथ पर चलता है, इसलिए राजनीति को एक पत्नी की भांति अनुशासन में रहना चाहिये l और एक मुनि एक लिए यह कोई बड़ी बात नहीं हो सकती है कि देश के एक समृद्ध राज्य के सत्ता के केंद्र में प्रवचन के लिए उनको बुलाया जाये, क्योंकि अपरिग्रह के व्रत रखने वालें, मुनि के लिए चाहत और नाम की अभिलाषा लेश मात्र भी नहीं हो सकती l फिर भी देश के राजनेताओं ने इस कार्य के लिए हंगामा मचा दिया और जैन साधू के विरुद्ध अपमानजनक टिपण्णी कर डाली l टिपण्णी करने वाले अपने आप को आस्तिक, नास्तिक या पंथ के समर्थक नहीं कहते, और बैगेर शारीरिक या मानसिक उलझनों से प्रेरित होते हुए एक धर्मनिरपेक्ष भारत की वकालत करतें है l इस समय देश के जैन धर्मालंबियों ने भारत के विभिन्न शहरों में रेलियाँ निकाल कर विशाल ददलानी और तहशीन पूनावाला के विरुद्ध विरोध प्रकट कर रहें है l देश के कई शहरों में उनके विरुद्ध मामलें भी दर्ज किये जा रहें है l

भारतीय संस्कृति में धर्म और उसके मर्म को समझने और समझाने के लिए समय समय पर अनेकों ऋषि मुनियों ने एक अहम् रोल निभाया है l यह सिलसिला आज भी पहले की भांति चल रहा है, जिसके बल पर भारत में धर्म निरपेक्षता का अस्तित्व सम्भव आज के परिपेक्ष्य में संभव हो सका है l एक दुसरे के धर्म के बारे में अपमानजनक टिपण्णी करना, भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है l इस बात पर अलग से बहस अवश्य हो सकती है कि भारत जैसे एक धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म गुरुओं को विधान सभाओं में निमंत्रित करना चाहिये या नहीं l              

Sunday, August 28, 2016

एक गतिशील और क्रियाशील व्यक्ति-कपूर चंद जैन
रवि अजितसरिया

कुछ लोगों में असाधारण प्रतिभा होती है, जिसके बल पर वे खुद तो भीड़ से अलग दिखाई देते ही है, साथ ही समूचा समाज उन प्रतिभाशाली व्यक्तियों के गहन ज्ञान से लाभान्वित हो जाता है l गुवाहाटी के मारवाड़ी समाज में एक ऐसे ही व्यक्ति है, कपूर चंद जैन, जिनका व्यक्तित्व इतना बड़ा और विशाल है कि उन्होंने जातिवादी संकीर्णता से उपर उठ कर, विभिन्न समाजों में अपनी पहचान बनाई है l असम में वास करने वालें, विभिन्न भाषा-भाषी लोगों में वे अच्छे-खासे लोकप्रिय है l अध्यात्म, साहित्य और समाज सेवा, मानो उनके लिए ही बनी हो l कपूर चंद जैन एक तपस्वी नहीं है, पर उनका अचार-व्यवहार, लोभ और मोह से दूर है, जिससे वे एक तपस्वी की भांति समाज में विराज कर रहें है l मायिक शक्तियों से दूर l श्री कपूर चंद जैन उन लोगों में है, जिन्होंने अपने सादे जीवन और उच्च विचार के सूत्र को अध्यात्म और व्यवहार, दोनों क्षेत्रों में भली-भांति उपयोग करकें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे चारों पुरषार्थ को हर संभव अपने जीवन में उतारने की चेष्टा की है l उनका जन्म असम के कामरूप जिले के पलासबाड़ी नगर में हुवा था, जो असमिया धर्म-संस्कृति का एक केंद्र माना जाता है l यही से, उन्होंने असमिया भाषा में अपनी प्राम्भिक शिक्षा ग्रहण की थी l एक साहित्यकार, बहुभाषाविद, समाजसेवी, ग्रन्थज्ञाता, और धर्म विद्वान, कपूर चंद पाटनी ने असमिया भाषा को अपनी मातृ भाषा के बाद, सबसे अधिक प्यार किया, जिसमें उन्होंने, एक हिंदी भाषी होते हुए भी अपने छात्र काल में, कॉटन कॉलेज का अध्यन के दौरान, सर्वोच्च्य अंक प्राप्त किया l उनकी मृदु वाणी से हर समय लोग उनसे प्रभावित रहतें है l उनकी विषय पर सटीक और बेबाक टिपण्णी, इस बात की और भी इंगित करती है कि उनको विषय पर कितनी पकड़ है l धर्म और कर्म के उपर, एक विद्वान् की भाँती, उन्होंने कई दफा लीक से हट कर, भरी सभा में उन आम धारणाओं के विरुद्ध जा कर, ऐसें व्याख्यान भी दिए है, जिस पर समाज में विरोधाभास हो, जिस पर टिपण्णी करने से कोई भी बचता है l धर्म के प्रति उनकी गहरी आस्था होने के कारण, उन्होंने प्रपंचों और पाखंडों से अपने आप को हमेशा दूर रखा है l कई दफा उनको इस कारण अपने ही समाज के लोगों से आलोचना भी सुनानी करनी पड़ी थी l धर्म की वास्तविकता और मर्म को पहचानते हुए उन्होंने धर्म और मनुष्य के आचरण पर कई लेख और पुस्तकें भी लिखी है l  
अनेकों धर्म संस्थाओं से जुड़े रहने के कारण, उन्होंने हमेशा से ही सामाजिकता में विश्वास किया है l एक शिक्षाविध होने की वजह से उन्होंने जैन स्कूल के कार्यों को भली-भांति अंजाम दे कर स्कूल को एक उन्नत दर्जे की स्कूल के रूप में विकसित किया है l जैन पंचायत की कार्यकारिणी के सक्रीय सदस्य होने के साथ, उन्होंने जैन विद्यालय के महामंत्री के पद भी जिम्मेवारी बखूभी संभाल रखी है l घनिष्ठ रूप से असम साहित्य सभा से सम्बद्ध हो कर इन्होने ना सिर्फ अपनी एक अलग पहचान बनाई है, बल्कि असमिया समाज में मारवाड़ियों के मान भी बढाया है l असम साहित्य सभा के केन्द्रीय कमिटी में भी वे सदस्य रहें है l उन्होंने कई सभाओं और अधिवेशनों में सभा सञ्चालन का कार्य भी किया है l वर्ष 2017 में होने वाले असम साहित्य सभा के शताब्दी समारोह के लिए बनी हुई स्वागत समिती के वे उपाध्यक्ष है l शाकाहार पर उन्होंने दो पुस्तकों का असमिया में अनुवाद करके प्रकाशित की है l उन्होंने असमिया में चार पुस्तकें, अंग्रेजी में दो और बंगला में एक पुस्तक लिखी है l उन्होंने अब तक करीब एक सौ से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे है, जिनसे सामाजिक चेतना का उदय हुवा l समाज में व्याप्त कुरीति, और अंधविश्वास पर उन्होंने ऐसे कई लेख लिखे, जिसकी वजह से समाज लाभान्वित हुवा है l एक साहसी लेखक का रोल अदा करके उन्होंने, ना सिर्फ अपना एक अलग परिचय दिया है, बल्कि हमेशा से नवीन विचारों का समाज में संचार होने दिया है l जैन शोध और विवेचना के क्षेत्र में श्री कपूर चंद जैन का नाम काफी लोकप्रिय है l उनकी दो पुस्तकें ‘अयिर्काओं की चर्या’ और ‘प्रश्नोतरी दीपिका’ जैन समाधानों और शंकाओं को दूर करने में एक मील का पत्थर साबित हुई है l अपनी वाणी और लेखनी के द्वारा उन्होंने जैन समाज की जो सेवा की है, वह सराहनीय ही नहीं बल्कि अनुकरणीय भी है l वे श्री मारवाड़ी हिंदी पुस्तकालय के ट्रस्टी भी है, जिसकी वजह से पुस्तकालय जैसे ज्ञान के मंदिर में उन्होंने कई ऐसी सभा का सञ्चालन किया, जिसमे हिंदी और असमिया समाज के विद्वान् मौजूद थे l बड़े से बड़े विषय पर उनकी टिप्पणियां, तुनुक और आह्लाद भरी रहने के कारण, जीवन के वैषम्य की दार्शनिक खोज पर उनका हमेशा से रुझान रहा है l संक्रमण काल से गुजर रहे समाज के समक्ष मूल्य आधारिक समाधान रख कर, हमेशा से ही जैन समाज में धर्म और कर्म के बीच के अंतर को समझने में उन्होंने एक बड़ी भुमिक निभाई है l वैचारिक अंतर, धर्म में आडम्बर और दिखावे को लेकर उनके एक सटीक विचार होने की वजह से वे हमेशा से स्वयं से युद्ध करतें है l 
जैन पुराणों पर सटीक जानकारी होने की वजह से ग्रथों के मार्मिक और यथार्थ चित्रण के पहलु को समाज के सामने हमेशा रखा है l  
भक्ति-मूलक ग्रंथों और पुस्तकों के अध्यन और उन पर विवेचन, कपूर चंद जैन की एक जीवन शैली बन गयी है l विषय को परम-तत्व तक पहुचाने में, उस पर विमर्श और तर्क, इनकी खासियत रही है l विस्मित कर देने वालें उनके शब्द, अक्सर लोगों में कोतुहल का कारण बन जाता है l रामायण और महाभारत पर इन्होने कई दफा अपना व्यक्तव्य रखा है l कपूर चंद जैन, जैन परंपरा और व्यवस्था के एक सशक्त प्रहरी के रूप में विद्यमान है, जिन्होंने अपनी रचनाओं में ढकोसलों और आडम्बरों को विरोध करने का एक बड़ा सशक्त और मार्मिक चित्रण वर्णित किया है l इन सभी से ना सिर्फ जैन समाज लाभान्वित हुआ है, बल्कि उन सामाजिक आयामों पर उनकी सटीक टिप्पणियों से समाज में जर्जर होती कुछ व्यवस्थाओं को हटाने पर भी उचित राय कायम हुई है l उन्होंने असमिया भाषा में स्थानीय अख़बारों में कई दफा लेख भी लिखे है l अंग्रेजी पत्र असम ट्रिब्यून, गुवाहाटी से निकलने वाले हिंदी समाचार पत्रों में आये दिनों, उनके बौद्धिक लेख, अक्सर लोगों के लिए मानसिक खुराक का काम करतें है l जीवन के इस पड़ाव पर पहुचने के पश्चात भी उन्होंने लेखन और सामाजिक कार्यों को जारी रखा है, और एक विशिष्ट उदहारण दिया है l आयु के सामने घुटने नहीं टेकने की उनकी दृढ़ता, कुछ ऐसे भाव है, जिससे शिथिलता और जड़ता उनमे कही भी नजर नहीं आती l स्नेह और सरलता की प्रतिमूर्ति श्री जैन, एक समग्र इंसान है, जिन्होंने भक्ति और शक्ति दोनों क्षेत्रों में अपना परिचय दिया है l  


Sunday, August 21, 2016

हाशिये पर खड़ें लोगों की सुध कौन लेगा ?
रवि अजितसरिया
एतिहासिक लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री 15 अगस्त को कह रहे थे कि भारत के अंतिम व्यक्ति तक पहुचना उनकी सरकार के धेय्य रहा है l यानी जितनी भी योजना बनाई जाये, उनका लाभ बिना किसी भेद-भाव के सभी को मिले, देश के अंतिम व्यक्ति तक l इतने बड़े देश में विविधता इतनी है कि देश व्यक्ति, समाज और वर्ग में बंट सा गया है l एक गरीब भारत और एक आमिर l दोनों में कही भी सामंजस्य नहीं है l इसी देश में एक नागरिक एक लाख रुपये महीने कमाता है तो दूसरा एक सौ रुपये l है, ना विविधता l सिर्फ भाषा, बोली, तीज-त्यौहार और सस्कृति में विविधता ही नहीं बल्कि सम्पति, आय और खर्च में भी भारी विविधता, हमें इस भारत देश में दिखाई देती है l अब सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों के लिए योजनायें बनाई जाती है l देश ऐसे ही चलता है l समाजशास्त्रियों का मानना है कि हाशिये पर खड़ा व्यक्ति इस कदर टूट चूका होता है कि वह अपनी बौद्धिक क्षमताओं का बराबर इस्तेमाल करने में असमर्थ हो जाता है, और अपेक्षा भरी नजरों से सरकार की तरफ देखने  लगता है l इस समय संक्रमण काल से गुजर रहा देश, कुछ नए और पुरानों सपनें के साथ जी रहा है l हालाँकि राजनीति के आगे सभी नतमस्तक है, फिर भी कुछ ऐसे गूढ़ रहस्य है, जिस पर देश टिका हुवा है l समाज में वर्षों से बने हुए तानेबाने को बाजारवाद ने तहस-नहस कर दिया है, फिर भी समाज नाम की इकाई देश में टिकी हुई है l हर समाज में सामाजिक संस्थाओं के बड़ा जाल बिछा रहता है, जो समाज के अस्तित्व और अस्मिता को अक्षुण्ण रखने का दावा करती है l इन सामाजिक संस्थाओं के उद्देश्यों की और देंखे, तब पाएंगे कि ज्यादातर सामाजिक संस्था कुछ निहित उद्देश्यों के तहत कार्य कर रही है l कुछ धार्मिक, कुछ व्यावसायिक, कुछ अध्यात्मिक तो कुछ सामाजिक l इन सभी में एक चीज आम रहती है, और वह है, सामाजिकता l समाज की संस्थाओं ने भी समय के साथ अपना रूप और रंग बदला है l पुरानी संस्थाएं, अपना स्वरुप खोने लगी है l कार्य संस्कृति में भयंकर बदलाव देखने को मिल रहें है l जिन उद्देश्यों की खातिर उन संस्थाओं का निर्माण किया गया था, वे गौण हो गए, और सुविधावाद संस्था पर हावी होता चला गया l कुछ संस्थाओं का तो उद्देश्य महज अख़बारों की सुर्खियाँ ही बटोरने का रह गया है l कुछ महिलाओं की सस्थाएं ऐसी है, जो महिलाओं के अधिकारों की तो बात करती है पर जब उनके कार्यों की समीक्षा करतें है तब पातें है कि कुछ विशेष दिनों पर वे सिर्फ किसी स्कूल या अनाथ आश्रमों में फल और खिचड़ी बांटती दिखाई देती है l समाज के अंतिम व्यक्ति तक ये सामजिक संस्था कभी पहुचती है कि नहीं, इस बात की समीक्षा होनी जरुरी है l अमीर और धनाढ्य वर्ग की हितों को साधने के लिए कुछ बड़ी संस्थाएं समाज ने अनायास की कार्य करने लगी है l 



इसका प्रमाण हमें तब मिला, जब विकसित हो रहे समाज ने, समाज उत्थान में, संस्थाओं के रोल को एक सिरे से नकार दिया है l समाज में बड़ी होती पूंजीवाद की जड़ों ने समाज के ताने-बाने को लगभग नष्ट दिया है l इस बड़े बदलाव की वजह है, समाज में शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार l ऐसा प्रतीत होता है कि आज के नवयुवकों के लिए ये संस्थाएं मनोरंजन और परिचय बढ़ाने मात्र के लिए बन गयी है l कुछ के लिए यह रुतबे की जगह है l ऐसें लोगों के लिए, संस्था के उद्देश्य और समाज के प्रति संस्था की जबाबदेही कुछ मायने नहीं रखतें l अगर ऐसा नहीं होता तब इन वर्षों में धड़ा-धड़ नई सामाजिक संस्थाएं नहीं खुलती, जो पहले से बनी हुई संस्थाओं से अधिक कार्य करने का दावा करती है l एक विकसित समाज के लिए क्या जरुरी है, इसका फैसला समाज के लोगों को करने का अधिकार है l जिन महत उद्देश्य की खातिर उन मुश्किल दिनों में भी हमारें लोगों ने सामाजिक संस्थओं का निर्माण किया था, वे उद्देश्य मानव सापेक्ष और वसुधैव कुटुम्बकम के फोर्मुले पर आधारित थे l एक विलक्षण, परोपकारी, उद्यमी और साहसी कौम के लिए संगठन और उसकी विचारधारा उस समय भी महत्वपूर्ण थी और आज भी है l फर्क यह रह गया है कि नयें आने वालें लोगों ने अपने काम करने के तरीकों में इस तरह से बदलाव कर लिए है कि उन सिद्धांतों और तत्वों की और किसी का ध्यान ही नहीं है l बस एक अंधी दौड़ में शामिल हो गएँ है, जिससे संस्थओं के उद्देश्यों को भारी क्षति पहुची है l यह भी तय है कि समाज जीवन के निर्वाह करने के तरीकों को जानने के स्त्रोत आज भी तजा किये जा सकतें है, जिसमे गरीब और अमीर, दोनों के लिए सम्मान हो, गरिमा हो और संवेदनशीलता हो l 

Friday, August 19, 2016

देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुचना है
रवि अजितसरिया
15 अगुस्त को जब प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से बोल रहे थे, तब उन्होंने ‘लास्टमेन डिलीवरी’ की बात कई बार दोहराई l उनका आशय यह था कि सरकार की नीतियाँ, योजनायें और लाभ, देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुचे l देश में अंतिम व्यक्ति के लिए चिंता व्यक्त करना, ‘गुड गवर्नेंस’ की तरफ इशारा करता है, जिसके लिए प्रजातंत्र में एक चुनी हुई सरकार का प्रथम दायित्व होता है l प्रधानमंत्री मोदी भी यही कह रहें है, कि सरकार अपनी योजनाओं के जरिये, देश के उस अंतिम व्यक्ति तक पहुचना है l आइये, देखते है कि आम आदमी तक योजना कैसे पहुचती है l प्रधानमंत्री जन-धन योजना के तहत गरीबी रेखा के नीचे रहने वालें लोगों का लिए ‘जीरो बैलेंस’ अकाउंट की ही बात करतें है l स्वतंत्रता के पश्चात यह एक ऐसी योजना है, जिसमे यह प्रावधान है कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का  सरकारी बैंक में एक बचत खता खुलवाना है और वह भी उन प्रावधानों के पालन करे बिना, जो आमतोर पर एक आम आदमी पर खता खुलवाते समय लागु होतें है l इस योजना के तहत सरकार उन खाताधारियों को उचित समय पर एक मुश्त ऋण दे कर उनको अपने से जोड़ेगी, जिससे आम आदमी सरकार के साथ जुड़ाव महसूस करने लगेगा l 15 अगस्त की लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने घोषणा की थी कि देश में 22 करोड़ गरीब लोगों ने इस योजना का लाभ हुआ है, और विभिन्न योजना के मद में मिलने वाली राशि, लोगों के खतों में सीधे पहुच रही है l इसमें कोई शक नहीं कि देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुचने में यह एक लम्बी छलांग थी, पर अभी आम लोगों तक पहुचने में सरकार को बहुत समय लगेगा l इस पूरी योजना में एक अच्छा मकसद यह था कि गरीब भी देश की मुख्यधारा में शामिल हो जाएँ, और उनको सरकारी लाभ मिलने में कोई परेशानी ना हो l सरकारी बैंकों के काम काज से माध्यम वर्ग पहले से ही परेशान है, उपर से 22 करोड़ नयें खतों ने बैंकों की परेशानियां बढ़ा दी है, जिसका खामियाजा आम खाताधारक भोग रहा है l बेंकों पर अनावश्यक दबाब बढ़ने से, आम खाताधारकों को दी जाने वाली सुविधाओं पर ब्रेक सा लग गया है l निम्न-माध्यम वर्ग और निम्न वर्गों के लिए जनधन योजना अभी तक वरदान साबित नहीं हुई है, क्योंकि विदेश में पड़े काले धन को लेकर जो भ्रांतियां सरकार के गठन को लेकर फैलाई गयी थी, उससे आम आदमी के मन यह आश जग गयी थी कि काला धन आ जाने से जन धन योजना के तहत खुलने वालें खातों में प्रधानमंत्री मोदी सीधे पांच-पांच लाख जमा करवा देंगे, जिससे आम आदमी की जिंदगी खुशहाल हो जाएगी l पर ऐसा कुछ नहीं हुवा, और आम आदमी अपने आप की ठगा-ठगा सा महसूस करने लगा है l जिस गति से यें खातें खोले गयें, उस हिसाब से इन खतों में लेन-देन भी नहीं हो रहा है l संवेदनशीलता के मामले में स्वतंत्र भारत की अब तक की सरकारों की तरह यह सरकार पिछड़ गई है l जारी..2
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लोगों को जितनी पर्रेशानियाँ खातें खुलवाने में हुई, उस हिसाब से अब सरकार को, उन खतों में, जैसा की योजना में पहले तय किया गया था, कम से कम पांच हज़ार का ओवरड्राफ्ट देने की घोषणा कर देनी चाहिये l नहीं तो यह योजना भी अन्य सरकारी योजना की तरह बेकार और फिसड्डी साबित होगी l इस बात को हमें यूँ लेना चाहिये कि गरीबी रेखा के नीचे रहेने वाले लोगों के पास राशन कार्ड तो है, पर रसोई गैस नहीं है, जिससे उनको इस समय कोई सब्सिडी नहीं मिल रही है l एक बार, प्रधानमंत्री उज्वला योजना के तहत गरीबी रेखा के नीचे रह रही गृहणियों को रसोई गैस मिलने लगेगी, उनके सामाजिक स्तर में बहुत बड़ा जम्प आ जायेगा,जिससे देश भर में गरीबी रेखा से ऊपर रहेने वालें लोगों के जीवन में एक नया संचार दिखाई देने लगेगा l रसोई गैस के होने से एक गरीब भी अपने आप को सशक्त और समाज का एक अभिन्न अंग मानाने लगेगा l ऐसा भी मना जा रहा है कि जनधन योजना योजना उन लोगों को तो संबल प्रदान करेगी ही, साथ ही उनकी एक पहचान भी बनेगी l देश में पहचान की समस्या को लेकर कई परिवार उन सरकरी योजनाओं का लाभ नहीं ले सकते, जिनमे अत्यधिक दस्तावेजीकरण रहता है l आधार उस समस्या का एक सटीक जबाब है l उपर से जनधन योजना के अंतर्गत खोले जाने वाले खतों को परफॉरमेंस के आधार पर अधिक ओवरड्राफ्ट मिलने की भी संभावना है l गरीबों के रहन-सहन और उनके रोजगार को लेकर अब तक जितनी भी योजनायें चलाई गई, उससे भारत में नतो गरीब कम नहीं हुए, अपितु, लोगों की आशाएं सरकार से बहुत बढ़ गयी है l यह बात भी तय है कि प्रधानमंत्री मोदी पिछली सरकार की तरह लोक-लुभावन योजनाओं की घोषणा करके अपनी प्रसंशा नहीं लेना चाहते है l इस कारण, उनके काम के प्रति समर्पण के स्वभाव से देश में राज-काज करने के तरीकों में गुणवत्ता की दृष्टि से सुधार देखा जा रहा है l दुसरे राज्य भी उनका अनुसरण कर रहें है l उन्होंने देश में करीब 2 करोड़ शौचालय बनवा कर आम आदमी को रहत देने की कौशिश की है l पर उनके रख रखाव को लेकर अभी तक कोई जबाबदेही तय नहीं की गयी है l  

‘लास्टमेन डिलीवरी’ दो ऐसे अर्थनैतिक शब्द है, जिन पर सभी सरकारी योजनायें टिकी रहती है l सभी योजनाओं का धेय्य भी यही रहता है कि अंतिम व्यक्ति तक योजना का लाभ पहुचे l प्रधानमंत्री के लिए इस समय एक परीक्षा की घड़ी भी है, क्योंकि तमाम तरह के झंझावातों के बीच प्रधानमंत्री वे सभी प्रयोग कर रहे है, जो एक लोकतंत्र में जरुरी है l इस समय देश में मुद्रास्मृति की दरों को कंट्रोल करने में वे लगे हुए है l       

Wednesday, August 17, 2016

देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुचना है

रवि अजितसरिया
15 अगुस्त को जब प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से बोल रहे थे, तब उन्होंने ‘लास्टमेन डिलीवरी’ की बात कई बार दोहराई l उनका आशय यह था कि सरकार की नीतियाँ, योजनायें और लाभ, देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुचे l देश में अंतिम व्यक्ति के लिए चिंता व्यक्त करना, ‘गुड गवर्नेंस’ की तरफ इशारा करता है, जिसके लिए प्रजातंत्र में एक चुनी हुई सरकार का प्रथम दायित्व होता है l प्रधानमंत्री मोदी भी यही कह रहें है, कि सरकार अपनी योजनाओं के जरिये, देश के उस अंतिम व्यक्ति तक पहुचना है l आइये, देखते है कि आम आदमी तक योजना कैसे पहुचती है l प्रधानमंत्री जन-धन योजना के तहत गरीबी रेखा के नीचे रहने वालें लोगों का लिए ‘जीरो बैलेंस’ अकाउंट की ही बात करतें है l स्वतंत्रता के पश्चात यह एक ऐसी योजना है, जिसमे यह प्रावधान है कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का  सरकारी बैंक में एक बचत खता खुलवाना है और वह भी उन प्रावधानों के पालन करे बिना, जो आमतोर पर एक आम आदमी पर खता खुलवाते समय लागु होतें है l इस योजना के तहत सरकार उन खाताधारियों को उचित समय पर एक मुश्त ऋण दे कर उनको अपने से जोड़ेगी, जिससे आम आदमी सरकार के साथ जुड़ाव महसूस करने लगेगा l 15 अगस्त की लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने घोषणा की थी कि देश में 22 करोड़ गरीब लोगों ने इस योजना का लाभ हुआ है, और विभिन्न योजना के मद में मिलने वाली राशि, लोगों के खतों में सीधे पहुच रही है l इसमें कोई शक नहीं कि देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुचने में यह एक लम्बी छलांग थी, पर अभी आम लोगों तक पहुचने में सरकार को बहुत समय लगेगा l इस पूरी योजना में एक अच्छा मकसद यह था कि गरीब भी देश की मुख्यधारा में शामिल हो जाएँ, और उनको सरकारी लाभ मिलने में कोई परेशानी ना हो l सरकारी बैंकों के काम काज से माध्यम वर्ग पहले से ही परेशान है, उपर से 22 करोड़ नयें खतों ने बैंकों की परेशानियां बढ़ा दी है, जिसका खामियाजा आम खाताधारक भोग रहा है l बेंकों पर अनावश्यक दबाब बढ़ने से, आम खाताधारकों को दी जाने वाली सुविधाओं पर ब्रेक सा लग गया है l निम्न-माध्यम वर्ग और निम्न वर्गों के लिए जनधन योजना अभी तक वरदान साबित नहीं हुई है, क्योंकि विदेश में पड़े काले धन को लेकर जो भ्रांतियां सरकार के गठन को लेकर फैलाई गयी थी, उससे आम आदमी के मन यह आश जग गयी थी कि काला धन आ जाने से जन धन योजना के तहत खुलने वालें खातों में प्रधानमंत्री मोदी सीधे पांच-पांच लाख जमा करवा देंगे, जिससे आम आदमी की जिंदगी खुशहाल हो जाएगी l पर ऐसा कुछ नहीं हुवा, और आम आदमी अपने आप की ठगा-ठगा सा महसूस करने लगा है l जिस गति से यें खातें खोले गयें, उस हिसाब से इन खतों में लेन-देन भी नहीं हो रहा है l संवेदनशीलता के मामले में स्वतंत्र भारत की अब तक की सरकारों की तरह यह सरकार पिछड़ गई है l  
लोगों को जितनी पर्रेशानियाँ खातें खुलवाने में हुई, उस हिसाब से अब सरकार को, उन खतों में, जैसा की योजना में पहले तय किया गया था, कम से कम पांच हज़ार का ओवरड्राफ्ट देने की घोषणा कर देनी चाहिये l नहीं तो यह योजना भी अन्य सरकारी योजना की तरह बेकार और फिसड्डी साबित होगी l इस बात को हमें यूँ लेना चाहिये कि गरीबी रेखा के नीचे रहेने वाले लोगों के पास राशन कार्ड तो है, पर रसोई गैस नहीं है, जिससे उनको इस समय कोई सब्सिडी नहीं मिल रही है l एक बार, प्रधानमंत्री उज्वला योजना के तहत गरीबी रेखा के नीचे रह रही गृहणियों को रसोई गैस मिलने लगेगी, उनके सामाजिक स्तर में बहुत बड़ा जम्प आ जायेगा,जिससे देश भर में गरीबी रेखा से ऊपर रहेने वालें लोगों के जीवन में एक नया संचार दिखाई देने लगेगा l रसोई गैस के होने से एक गरीब भी अपने आप को सशक्त और समाज का एक अभिन्न अंग मानाने लगेगा l ऐसा भी मना जा रहा है कि जनधन योजना योजना उन लोगों को तो संबल प्रदान करेगी ही, साथ ही उनकी एक पहचान भी बनेगी l देश में पहचान की समस्या को लेकर कई परिवार उन सरकरी योजनाओं का लाभ नहीं ले सकते, जिनमे अत्यधिक दस्तावेजीकरण रहता है l आधार उस समस्या का एक सटीक जबाब है l उपर से जनधन योजना के अंतर्गत खोले जाने वाले खतों को परफॉरमेंस के आधार पर अधिक ओवरड्राफ्ट मिलने की भी संभावना है l गरीबों के रहन-सहन और उनके रोजगार को लेकर अब तक जितनी भी योजनायें चलाई गई, उससे भारत में नतो गरीब कम नहीं हुए, अपितु, लोगों की आशाएं सरकार से बहुत बढ़ गयी है l यह बात भी तय है कि प्रधानमंत्री मोदी पिछली सरकार की तरह लोक-लुभावन योजनाओं की घोषणा करके अपनी प्रसंशा नहीं लेना चाहते है l इस कारण, उनके काम के प्रति समर्पण के स्वभाव से देश में राज-काज करने के तरीकों में गुणवत्ता की दृष्टि से सुधार देखा जा रहा है l दुसरे राज्य भी उनका अनुसरण कर रहें है l उन्होंने देश में करीब 2 करोड़ शौचालय बनवा कर आम आदमी को रहत देने की कौशिश की है l पर उनके रख रखाव को लेकर अभी तक कोई जबाबदेही तय नहीं की गयी है l  

‘लास्टमेन डिलीवरी’ दो ऐसे अर्थनैतिक शब्द है, जिन पर सभी सरकारी योजनायें टिकी रहती है l सभी योजनाओं का धेय्य भी यही रहता है कि अंतिम व्यक्ति तक योजना का लाभ पहुचे l प्रधानमंत्री के लिए इस समय एक परीक्षा की घड़ी भी है, क्योंकि तमाम तरह के झंझावातों के बीच प्रधानमंत्री वे सभी प्रयोग कर रहे है, जो एक लोकतंत्र में जरुरी है l इस समय देश में मुद्रास्मृति की दरों को कंट्रोल करने में वे लगे हुए है l       

Friday, August 12, 2016

आयरन लेडी शर्मीला ने क्यों समाप्त की भूख हड़ताल
रवि अजितसरिया

‘मैंने 16 वर्षों तक भूख हड़ताल की और कुछ नहीं पाई, मैं अपने विवेक की बंदी थी, और अब मैं अपने आन्दोलन को दूसरा रूप देना चाहती हूँ’ l यह बात इरोम चानू शर्मीला ने उस वक्त कही जब वे अपनी 16 साल पुरानी भूख हडताल तोड़ रही थी l 44 वर्षीय, मणिपुर की नागरिक अधिकार की कार्यकर्ता इरोम  चानू शर्मीला पिछले 16 वर्षों से मणिपुर में सशस्त्र बल(विशेष अधिकार) अधिनियम 1958 के मणिपुर में लगाए जाने के विरोध में भूख हड़ताल पर बैठी थी l एक दशक से पूर्वोत्तर भारत का मणिपुर राज्य उग्रवाद से प्रभावित है, जिसकी वजह से हुई हिंसा में लगभग 6 हज़ार लोग अब तक मारे गएँ है l उल्लेखनीय है कि शर्मीला ने उस वक्त भूख हड़ताल की घोषणा की, जब सन 2000 में असम रायफल्स के जवानों की गोलीबारी से बस अड्डे पर खड़ें 10 लोग मारे गएँ थे l शर्मीला ने घोषणा की, कि जब तक भारत सरकार मणिपुर में सशस्त्र बल(विशेष अधिकार)अधिनियम 1958 को निरस्त नहीं करती, वह भूखी रहेगी, बाल नहीं बनाएगी और आइना नहीं देखेगी l आज सोलह वर्षों तक कठिन संघर्ष के बाद भी शर्मीला की मांग पूरी नहीं हो सकी है l अब लोकतांतत्रिक तरीकों से शर्मीला दुबारा से अपने आन्दोलन को जारी रखने की बात कर रही है l वे चुनाव लड़ना चाहती है, राज्य की मुख्यमंत्री बनाना चाहती है, शादी करके घर बसना चाहती है, और अपना संघर्ष को जारी रखना चाहती है l मणिपुर की इस लोह महिला का भूख हड़ताल का ज्यादातर समय जेल में ही बिता l जैसे ही वे जेल से छुटती, वह दुबारा भूख हड़ताल पर बैठ जाती, जिसकी वजह से ‘आत्महत्या एक क़ानूनी अपराध’ के मामले में उनको दुबारा से गिरफ्तार कर लिया जाता था l यह सिलसिला पिछले सोलह वर्षों से चल रहा था, जब 26 जुलाई 2016 को उन्होंने भूख हड़ताल समाप्त करने की यह घोषणा की थी l अब वे एक स्वतंत्र नागरिक की भांति जीवन यापन करना चाहेगी l उनके समर्थकों में ख़ुशी भी है और रोष भी है l मणिपुर में अस्थिरता फ़ैलाने वालें तत्वों ने तो उनको धमकी भी दे डाली है, कि वे अपना अनशन समाप्त कर, किसी बाहर के व्यक्ति से शादी नहीं कर सकती l गौरतलब है कि वे अपने गोवा स्थित ब्रिटिश प्रेमी डेसमंड से विवाह करने का निर्णय ले चुकी है l  
इरोम शर्मीला के इस सोलह वर्षों के संघर्ष की गाथा. पूर्वोत्तर में ही नहीं, समूचे विश्व में इसलिए भी फ़ैल गयी, क्योंकि वो भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के नक्शकदम पर चल रही थी, जिन्होंने विशाल अंग्रेजी शासन की नीवं, अपने अहिंसक तरीकों से हिला दी थी l उन्होंने भी कई भूख हड़तालें की और यह सिद्ध कर दिया कि अहिंसा में वह ताकत है जो हिंसा में नहीं l शर्मीला के आन्दोलन भी उसी तर्ज पर था l अगर हम भूख हड़ताल तोड़ने के उनके निर्णय की समीक्षा करते है, तब पातें है कि सबसे पहले, सोलह वर्षों के भूख हड़ताल से, उनका आम लोगों से उनका संपर्क लगभग टूट गया था,  
और यह मुहीम एक राजनैतिक आन्दोलन बन चुकी थी l दूसरा, एक लम्बे संघर्ष की यातनाओं को भोग कर वे थकी-थकी सी लग रही थी, जिसकी वजह से उन्होंने अपने आन्दोलन को दूसरा रूप देने का निर्णय लिया l तीसरा, सरकार में शामिल हो कर वे अपना संघर्ष ज्यादा असरदार तरीके से कर सकती है l मणिपुर राज्य के लोगों असीम प्रतिभा को देखते हुए, यह लग रहा है कि अगर राज्य में स्थाई शांति आ जाएँ, तब विकास की बयार यहाँ से भी बहने लगेगी l इसी भावना के साथ केंद्रीय सरकार ने मणिपुर को विशेष तब्बजो देनी शुरू कर दी है , जिसको लोग हालाँकि एक राजनैतिक कदम बता रहें है , पर राज्य में जिस तरह से विभिन्न गुट आपस में संघर्ष कर रहें है, राज्य में लोगों का जीना मुहाल हो रखा है l

शर्मीला का भूख हड़ताल से उठाना, उन कट्टरपंती सगठनों के लिए एक बड़ा झटका है, जो मणिपुर में पिछले दस वर्षों से विभिन्न कारणों की आड़ में हिंसक सघर्ष कर रहें है l अफस्पा हटाने को लेकर शर्मीला का भूख हड़ताल पर बैठना उनके लिए एक टॉनिक का काम कर रहा था l शर्मीला के भारतीय मुख्यधरा में शामिल होने से उनकी मुहीम को कही ना कही ब्रेक लगने की सम्भावना है l इसलिए उन संगठनों ने शर्मीला को अपना अनशन समाप्त नहीं करने का आदेश तक दे डाला l उपर से अगर शर्मीला चुनाव जीत कर राज्य की मुख्यमंत्री बन जाती है, तब उनके लिए परेशानी का सबब बन सकती है l शायद यही एक कारण है कि कट्टर्पंती संगठनों ने शर्मीला को विवाह करने से भी रोका है l पर दृढ शर्मीला ने मंगलवार को अनशन समाप्त करके, जमानत के कागजात पर अंगूठा लगा कर भारतीय संविधान और कानून के परिपालन हेतु अपनी सहमती भी प्रदान कर दी है, जो उन कट्टर्पन्तियों के मुहं पर करारा तमाचा है, जिन्होंने शर्मीला को भूख हड़ताल समाप्त करने से रोका रहें थें l हालाँकि भूख हडताल समाप्त करकें, कानून के प्रति निष्ठा व्यक्त करकें वे, मंगलवार को आज़ाद हो गयी थी, पर जिस इलाके में उसके रहने का इन्तेजाम किया गया था, वह के लोगों को अनजाने भय से भयाक्रांत होतें देखा गया, जिससे प्रशासन ने दुबारा शर्मीला को हॉस्पिटल में भरती कर दिया है l पूर्वोत्तर में हिंसा के लिए विभिन्न सगठनों ने भारतीय मुख्यधारा में आ कर अपने अपने राज्यों के विकास में भागिदार बनाने का भी फैसला लिया है l इसमें मिजोरम के पु लालदेंगा का नाम सबसे उपर आता है, जिन्होंने मिज़ो नेशनल फ्रंट बना कर 16 वर्षों तक सशस्त्र आन्दोलन किया और फिर 1987 में राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने l आज मिजोराम एक पूर्ण शाक्षर राज्य है, और विकास की राह पर है, वहा के लोग बेहद उद्यमी एवं साहसी है l इसी तरह से यह भी देखा जा रहा है कि शर्मीला के भारतीय मुख्यधारा में आने से मणिपुर में वर्षों से चल रही अशांति समाप्त हो सकती है l आने वाले दिनों में इसका फैसला हो जायेगा l                 
स्वतंत्रता इरोम शर्मीला की नजरों से
रवि अजितसरिया

मणिपुर की सामाजिक कार्यकर्ता इरोम शर्मीला ने जब 9 अगस्त को अपना 16 वर्षीय पूरा अनशन तोड़ा, तब उन्होंने कहा कि वे इतने दिनों तक अपने विवेक की बंदी थी, और अब वे एक स्वतंत्र नागरिक की तरह जीना चाहती है l अपने आप से अंतर कलह से निकल कर अब वे शादी करना चाहती है और चुनाव लड़, मणिपुर की मुख्यमंत्री बन कर, अफस्पा हटवाना चाहती है l 44 वर्षीय, मणिपुर की नागरिक अधिकार की कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मीला पिछले 16 वर्षों से मणिपुर में सशस्त्र बल(विशेष अधिकार) अधिनियम 1958 के मणिपुर में लगाए जाने के विरोध में भूख हड़ताल पर बैठी थी l एक दशक से पूर्वोत्तर भारत का मणिपुर राज्य उग्रवाद से प्रभावित है, जिसकी वजह से हुई हिंसा में लगभग 6 हज़ार लोग अब तक मारे गएँ है l शर्मीला भी अपने आप विवेक से स्वतंत्र हो कर वे सब करना चाहती है जिसके लिए उन्होंने भूख हड़ताल शुरू की थी l एक लोकतांत्रिक तरीके से l स्वतंत्रता के बड़े मायने होतें है l जब अंग्रेजों ने भारत पर शासन शुरू किया था, तब भारतीय शासक आपस में लड़ रहें थे, जिसका फायदा मुगलों ने भी खूब उठाया, और उसके बाद अंग्रेजों ने, और उपयोग किया उस समय को, अपनी सत्ता के विस्तार के लिए l मणिपुर के आज के हालात कुछ उस समय के भारत के जैसे बने हुए है, आपसी कलह, कट्टरवाद, जातिवाद और सत्ता की लड़ाई इतनी चरम तक पहुच गयी है कि राज्य का विकास लगभग रुक सा गया है l नई सामजिक समस्याएं खड़ी हो गयी है l बेरोजगारी, ड्रग्स और गुटबाजी में वहां के युवा इस तरह से फँस गएँ है कि अब लौटना लगभग मुश्किल हो चूका है l लोग आपस में लड़ रहें है l उग्रवादियों के हौसलें बुलंद है, प्रशासन एक मूक दर्शक की भांति है l और यह सब किसके लिए- स्वतंत्रता के लिए l अगर हम मणिपुर के इतिहास को खंगाले, तब पाएँगे कि मणिपुर भूमि एक समृद्ध भारतीय संस्कृति की वाहक थी, जिसका गुणगान इतिहास आज भी कर रहा है l वैष्णव धर्म के प्रचार और विस्तार में मणिपुर के लोगों की एक अहम् भूमिका है l इतनी समृद्ध विरासत को आत्मसात किये होने के बावजूद भी आज मणिपुर में हिंसा ने धर्म पर विजय प्राप्त कर ली है l कुछ 15 से ज्यादा सशस्त्र दल मणिपुर में सक्रिय है, जिसकी वजह से केन्द्रीय सरकार ने वह पर अफस्पा लगा रखा है l कभी कभी कड़े कानून एक ही देश के लोगों को अपनों से ही अलग कर देता है l एक स्वतंत्र देश में एक राज्य इसलिए उग्रवाद से ग्रसित है क्योंकि, उनको लगता है कि उनकों अलग-थलग किया जा रहा है l भारतीय मुख्यधारा में वे कभी भी शामिल नहीं थे l इस तरह के आरोप पूर्वोत्तर के लोगों के मुख से कमोवेस, हर राज्य में सुनाई पड़ जायेंगे l स्वतंत्रता के लिए लगभग हर राज्य में कुछ उग्रवादी संगठन कार्य कर रहें है l नागालैंड और असम के विद्रोहियों के एक धड़े ने भारतीय मुख्यधारा में शामिल होने के लिए बातचीत का रास्ता भी अपनाया है l  
फिर भी स्वतंत्रता के लिए मनुष्य क्या, हर जीव लड़ता है l पिंजरे में बंद जानवर भी आजादी पाने के लिए, अपने नाजुक पंजों को लोहे की कठोर छड़ों पर खुरच-खुरच कर जख्मी कर लेता है l यह तो इंसान है, जिसने आजादी के लिए बड़े-बड़े आन्दोलन कियें है l भौगोलिक और राजनैतिक आज़ादी तो हमने पा ली है l अशिक्षा, संकीर्णता, जातिवाद से आज़ादी कौन देगा l सरकार!, इसी भ्रम में अभी भारत के लोग जी रहें है l जो सांस्कृतिक आजादी हमें प्राप्त हुई थी, उसका आनंद नहीं ले कर, उसको तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहें है l जो बौद्धिक स्तर हमें प्राप्त हुवा था, उससे सिखने के बजाये, उसको नष्ट कर के, एक छद्म विचारधारा लोगों पर थोपी जा रही है l अलग-अलग कुनबे बना कर अध्यात्म, धर्म और शिक्षा का एक आधुनिक संसार गढ़ा जा रहा है, जिससे लोगों के विचारों और कर्मों में भयंकर मतभेद है l इन सभी सामाजिक विफलताओं से हमें आजाद होना होगा l एकल परिवार बनाने के बावजूद यह देखा जा रहा था कि सामाजिक तानाबाना मजबूती से बना रहेगा, पर हुवा उसका उल्टा, वैश्विकरण के प्रभाव ने इस ताने-बाने को भी नष्ट कर के रख दिया है l देश इस समय एक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है l   

शर्मीला ने भी अपने महिला होने के बावजूद, एक पितृ सत्तात्मक समाज के वर्चस्व के बीच, लड़ाई लड़ने की आज़ादी पाई l इतिहास गवाह है कि महिलाओं ने बड़े आंदोलनों को दिशा प्रदान करने में भारी मदद की है l असम आन्दोलन इसका एक जीता-जागता उदहारण है l शर्मीला ने भी उन सभी मतभेदों के बीच अपना आन्दोलन शुरू भी किया और अब अंत कर के अपने आन्दोलन को राजनैतिक आज़ादी के दायरे में सीमित करेगी और अपनी सामाजिक विफलता को त्याग कर नए सिरे से अपने विवेक से आज़ादी पा कर, जीवन को नए सिरे में बांधेगी l