Sunday, September 11, 2016

गानों की दुनिया से निकलती हुई जिंदगी
रवि अजितसरिया
‘हँसते-हँसते कट जाये रास्तें, जिंदगी यूँ ही चलती रहें, ख़ुशी मिले या गम, बदलेंगे ना हम, दुनिया चाहे बदलती रहें’ l यह प्रोत्साहित करने वाला हिंदी गीत, है, जो मानव रिश्तों और उसकी बारीकियों को बखूबी बयां करता है l प्रोत्साहित करने वालें गीतों ने हमेशा से ही भारतीय जनमानस पर एक छाप छोड़ी है l  हिंदी गीतों ने मानों लोगों को जिंदगी एक नए सिरे से शुरू करने की दीक्षा दी हो, एक धर्मगुरु की भांति l पंद्रह अगुस्त के दिनों में देश भक्ति गानें, उन्ही फिल्मों से थे, जिसे देख कर आज भी लोग सिनेमा हाल में तालियाँ बजातें है l 1955 में बनी फिल्म ‘सीमा’ का एक प्रेरक गीत ‘तू प्यार का सागर है..’  आज भी जब भरी सभा में गाया जाता है, तब चारों और स्तब्धता छा जाती है l हर कोई गीत में बस रम जाता है l कुछ ऐसे ही प्रेरक गीतों ने भारतीय जनमानस के बीच अपनी छाप छोड़ने में सफल रहें l ‘ए मालिक तेरे बन्दे हम..’’(दो आँखे बढ़ हाथ-1957) ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता..’(अंकुश-1986) ‘हमको मन की शक्ति देना..’(गुड्डी) जैसे गीतों ने भारतीय दर्शकों के मन में जीवन और कर्म के महत्त्व को समझाया और खूब उत्साहित भी किया, जैसे असमिया भाषा, संस्कृति के जनक रूपकुंवर ज्योति प्रसाद के गीतों को आज भी पढ़ा और गया जाता है l भूपेन हजारिका के कालजयी गीतों को अगर हम सुने, तब पाएंगे कि ‘बिस्तिर्ण पारे..”, ‘ मोई अखोमोर मोई भरोतोर..’ ‘एक पत्ती दो अंगुलिया..’ जैसे गीतों ने असमिया जनमानस को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया l हिंदी गीतों के तीन पहलु धुन, शब्द और सजावट ने हमेशा से ही लोगों को संघर्षशील जीवन के घने अंधेरों से निकलने में मदद की है l हिंदी फिल्मों की सफलता के पीछे, यह भी एक कारण है कि उसने दर्शकों को अपने साथ चलने पर मजबूर किया है l हिंदी फिल्मों के एक सौ साल के सफ़र को अगर हम गौर से देंखे, तब पायेंगे के चरित्र फ़िल्में, साठ के दशक से ही खूब चली है, जिसमे नायक का चरित्र पूरी फिल्म के चारों और घूमता है l पौराणिक एवं देशप्रेम, नवनिर्माण और सामाजिक सरोकारों वाली फिल्मों ने हमेशा ही भारतीय लोगों को प्रेरित किया है l ‘श्री 420’, ‘मदर इंडिया’, ‘मंथन’, ‘गॉइड’ और ‘नया दौर’ जैसी फिल्मों ने लोगों के समक्ष समाज का आयना पेश किया, जिसने लोगों को सोचने का वक्त दिया l दुःख और अनेकों झंझावातों से भरा नायक का जीवन, हौसला नहीं खोना और अंत में विजय प्राप्त करना, हिंदी फिल्मों के यह एक खूबी थी l कला के माध्यम से इस तरह विविध शैलियाँ प्रस्तुत करना, हमारी हिंदी फिल्मों की खूबसूरती थी l साठ से अस्सी के दशक में कई फिल्मों ने सिनेमाघरों में सिल्वर जुबली और कुछ ने तो गोल्डन जुबली बनाई l शोले, जय संतोषी माँ, जैसी फ़िल्में रोमांस, कला और डायलोग से भरी थी, जिनको भारतीय दर्शकों ने खूब देखा और आनंद भी लिया l  


फिल्म शोले के तो सिर्फ डायलोग बजेते थे, और सुनाने के लिए लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी l l लोग कहतें है कि आज से तीस वर्षों पहले तक, फ़िल्में ही मनोरंजन के मात्र एक साधन थी l ‘फर्स्ट डे फर्स्ट शो’ देखने के लिए, लोग सिनेमा हाल में लम्बी-लम्बी कतार लगातें थे l टिकटें ब्लेक होती थी l परदे पर पैसे उछालें जातें थे l और ना जाने, क्या-क्या l दुसरे शब्दों में कह सकते है कि हम भारतीय प्रतिबिम्ब को हिंदी फिल्मों में देखतें थें, जिससे प्रेरित हो कर हम पर्दें पर पैसे उछालतें थे, गला फाड़ कर रोतें भी थे l ‘कुंवारा बाप’ फिल्म देख कर ना जाने कितने ही लोगो सिनेमा होल में ही रो पड़े थे l चरित्र फिल्मों ने तब से ले कर आज तक हमेशा से ही भारतीय लोगों को सिर्फ मनोरंजन ही प्रदान नहीं किया, बल्कि भारतीय लोगों ने उसका अनुसरण भी किया है l कितनी विविधता भरी रहती थी, भारतीय सिनेमा l उन दिनों, बच्चों के अभिभावक उनको फ़िल्में देखने से रोकते थें l मानो फिल्मों से, वे जीवन की उन बारीकियों को समय से पहले समझ जायेंगे, जो उनको बड़े होने पर अपने आप उन्हें समझ आती थी l ‘जुली’ फिल्म के आपतिजनक दृश्यों पर अभिवावक अपनी आँखे बंद कर लेते थे l इतना ही नहीं जुली का प्रसिद्द गाना ’भूल गया सब कुछ, याद नहीं अब कुछ...जुली..इ लव यूँ.. गुदगुदाने की भी मनाई थी, जैसे गाना गाने से कोई संक्रमण हो जायेगा l अब नए लिखे-बनाये जाने वालें गीत-संगीत बाजारवाद की भेंट चढ़ गए है, कल्पना के पंख को व्यावसायिकता ने क़तर दिए है l अब गाने धड़ा-धड़ बिकने चाहिये, कितने दिन बिके, यह जरुरी नहीं l अब हमारे गाने, हमारी संस्कृति, सभ्यता और सामग्रियों के परिचायक नहीं रहे है l गीतकार ऐसे गीत लिख रहें है, जिनमे हिंदी-इंग्लिश और अन्य भाषा एक साथ समाहित रहती है, ना शब्द है, ना ही भाषा और ना ही व्याकरण, बस एक गाना है, जो एक सौ करोड़ क्लब में शामिल होने की चपेट में है l संगीत प्रधान गीतों ने शब्द प्रधान गीतों की जगह ले ली है l कवि और गीतकार शैलेन्द्र के ‘पतिता फिल्म फिल्म में एक गीत दिया –‘जब गम का अँधेरा घिर जाए..समझो कि सवेरा दूर नहीं’ और फिल्म ‘मेरी जंग’ के प्रेरणा से भरे इस प्रेरक गीत ‘जिंदगी हर कदम एक नयी जंग है..’ को जब हम सुनतें है तब, शायद जीवन के सकारात्मकत पहलु तो समझ कर हम जीवन पथ पर आगे बढ़ जातें है l उनको सुन कर हम प्रेरित हो जाते है l          


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