Wednesday, September 27, 2017

हमें भी सपने आतें है

भारत देश में एक आम नागरिक चाहे वह गरीबी रेखा के नीचे हो या फिर कोई धनाढ्य वर्ग हो, हर कोई रोज सपने देखता है, उम्मीदों के, अरमानों के और पता नहीं, किसके किसके, वह सपने देखता हैं, रोजी के, रोटी के, घर के l आम आदमी द्वारा सपना देखना इस देश में जुर्म की श्रेणी में तो नहीं आता, पर उसको हकीकत में बदलने की कौशिश करने के लिए उसे कई पापड़ बेलने पडतें है l क्या सपने देखने का हक़ सिर्फ राजनेताओं को ही है, जो आये दिन यह बयान दे डालते है कि मेरा भारत विकसित हो, यह मेरा सपना है l रोजाना करोड़ों लोगों को सपने दिखातें ये राजनेता अपनी दूकान इस तरह से चलाते है , जैसे कोई एफेमजीसी सामानों की दूकान हो, जहाँ उपभोक्ता मूलक सामान जल्द बिक जा जातें है l सपने भी जल्दी से बिक जाते है, इनके खरीददार जैसे तैयार ही खड़े रहतें है l मसलन धर्मगुरुओं और विज्ञापन कंपनियों द्वारा दिखाए हुए सपने सबसे जल्दी बिकते है l वे धर्म और बेहतर जीवन जीने की चाश्नियों में डूबे हुए रहते है l गरीबी हटायेंगे, मंदिर बनायेंगे, जनता का राज आयेगा...सबको रोजगार मिलेगा l इस तरह के नारों का भारत में बहुत मोल है l गंभीर विषयों के बीच टेलीविज़न पर जवानी लौटने वली दवाइयों के प्रचार, किसी सपने दिखाने से कम थोड़े ही है l धड़-धड़ नए-नए एप्प बना कर लोगों के हाथ में पवार देने की बात अब आम हो गयी है l पर सच्चाई तो यह है कि राष्ट्र सत्ता कभी भी मनुष्य की स्वतंत्रता स्वीकार नहीं करती l उसे राष्ट्र और समाज के अधीन ही रहना होता है l मानो मनुष्य का जन्म ही पराधीन रहने के लिए हुवा हो l सत्ता और समाज विद्रोह दीवानगी कहलाई जाती है l फिर भी इतिहास गवाह है कि मनुष्य कड़े निर्णय ले कर दिखाए गए सपनों के विरुद्ध जा कर एक अलग सत्ता बनाने का प्रयास किया है l नए विचारों के बीच जा कर एक नयी सत्ता बनाने के प्रयास जिन लोगों ने भी किया है, वे शासन के विरोधी भी कहलाये गए है l शायद उन्होंने कुछ नए सपने देख लिए होंगे l कुछ नया और अर्थपूर्ण l दो अक्टूबर को गाँधी जयंती है l गाँधी के सपने का भारत कैसा हो, इस बात पर सैकड़ो-हजारों पोथियाँ भर दी गयी है, पर यह पता नहीं चला कि आज के भारत में गाँधी कहाँ फिट बैठते है l एक विकसित और प्राणवान देश के लिए क्या जरुरी है, इसका निर्णय हमारे राजनेता लेतें है, ना कि इस देश की जनता, जो इस देश की नायक है l प्रभुसत्ता जनता के पास है, जिसका मतलब यह होता है कि जनता सर्वोपरी है l पर होता है, यहाँ यहाँ एकदम उल्टा l नल में पानी नहीं आ रहा, सड़क टूटी हुई है, सड़क पर कचरा जमा है, जैसी आम शिकायतों के लिए तो जनता को मारे-मारे फिरना होता है, ऐसे में वे देश के विकास का सपना कैसे देख सकती है l उन्हें कहा से अधिकार मिला, ऐसे सपने देखने का l आपातकाल के दौरान जिन्होंने भी सपना देखा, सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, और वह भी बिना कोई सुचना के और बिना किसी सुनवाई के, क्योंकि उस समय सारे अधिकार निरस्त हो गए थे l तब लोगों को मोह भंग हो गया था कि देश में कोई जनता का शासन है l एक अध्यादेश से सब कुछ उल्टा हो गया l जिन लोगों की राख देश की मिट्टी में मिली हुई है, ऊनके प्रति असंवेदनशीलता दिखलाते हुए, हम एक विचित्र देश बनाने में जुट गए है l  
जनता के अधिकारों को नियंत्रित करने के लिए कानून जो पहले से ही बने हुए है l सपने तक देखने का अधिकार इस देश के नागरिकों को नहीं है l जो सपने देखतें है, वे अपने लिए मुसीबत मोल ले रहें है l मानो सिस्टम चरमरा गया है l बुधवार को फैंसी बाज़ार की मुख्य सड़क के बीचो-बीच दो चार गाड़ी कचड़ा इस तरह से जमा किया गया, जैसे कभी उठाया ही नहीं जायेगा l जब दिन के बारह बजे तक कचरा नहीं उठा, तब लोगों ने हंगामा शुरू किया l इलाके के पार्षद, एरिया मेम्बर तो एप्रोच किया गया, इलाके के लोगों द्वारा नेट और फेसबुक फोटोज अपलोड की गयी, तब जा कर वार्ड नंबर नौ के पार्षद राज कुमार तिवाड़ी के प्रयासों से तुरंत कचरा उठाया गया l पर बड़ी बात यह थी कि निगम प्रशासन को इस तरह से सड़क पर कचरा जमा करने की जरुरत क्यों पड़ी थी l क्यों एक व्यस्त सड़क पर गैर-जिम्मेराना तरीके से कचरा फैलाया गया l प्रश्न बहुत सारे है, जिनके जबाब लोग ढूंढते है l इस तरह से मामूली से मामूली कामों के लिए दबाब और आन्दोलन का सहारा लेना पड़ता है l लोकतांत्रिक तरीकों से चुनी जाने वाली सरकरों के नुमायंदे चुप्पी साध कर बस चुप रहना पसंद करतें है l क्या हर चीज की शिकायत होनी जरुरी है l क्या चुने हुए जन प्रतिनिधियों को अपने सामने होने वाली या रहने वाली चीजें दिखाई नहीं देती l क्या असंवेदनशीलता इस तरह से हावी हो गयी है कि जन प्रतिनिधियों को यहाँ हमेशा सब कुछ अच्छा ही दिखाई देता है l फिर फेसबुक, ट्विटर के जरिये यह मेसेज देना कि उन्होंने आज यह कार्य किया है l हजारों लाइक्स l एक ऐसा प्रचार तंत्र, जिससे ऐसा लगने लगे कि सब कुछ ठीक है l सपनों की अजीब दुनिया है l कई बार सपने उम्मीद जैसे लगने लागतें है l लोग सपनों के मकान बना कर पूरी जिंदगी उसमे बिता देतें है l एक रोबोट की माफिक, जिसमे कंप्यूटर के जरिये सपने फीड कर दिए जातें है l उसे अपने सपने देखने का कोई अधिकार नहीं है l महान दार्शनिक और विचारक रूसो ने जब सहज मानवीय गुणों को उनका नैसर्गिक तत्व बता कर मानवीय स्वतंत्रता की वकालत की, तब अट्ठारवी शातब्दी में यह एक नयी बात थी, जब शिक्षा का उतना प्रचार प्रसार नहीं था, सामाजिक बेड़ियाँ इतनी अधिक थी कि वे राज्ये के कानून जैसी थी l आज की स्थिति एकदम से भिन्न है, हर व्यक्ति सगज है, और विचार के सम्मान करता है l भारत की स्वंत्रता दिवस के समय 14 अगस्त 1947 की आधी रात को पंडित नेहरु ने कहा था, जब आधी रात को भारत स्वतंत्रता हासिल कर लेगा, तब भारत जागेगा और स्वतंत्रता से साथ जियेगा l ये शब्द कोई आम भाषण के शब्द नहीं थे, बल्कि भारत के भविष्य के सपने थे, जो भारत का हर नागरिक देख रहा था l इन्ही शब्दों के सहारे, अब तक भारत का आम नागरिक जीता है, जबकि हकीकत यह है कि अभी भी देश की 20 प्रतिशत आबादी रोजाना साठ रुपये कमाती है, और किसी तरह से अपना पेट पलती है l ऐसे में अच्छे सपने देखना, उनका हक़ है l चाहे कितनी भी मनरेगा योजना गरिबोब के उठान के लिए बनी है, देश में लगातार गरीब बने हुए है l आशा और आकांशा पर दुनिया टिकी हुई है, इसलिए हम सपने देखना नहीं छोड़ेंगे l

ये हमारे जीने का आधार है l    और कवि दुष्यंत कुमार द्वारा रचित पंक्तियाँ यहाँ सटीक बैठती है ‘कौन कहता है कि आसमान में सुराख़ नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों’ l 

Sunday, September 10, 2017

यहाँ हर पात्र महत्वपूर्ण है
रवि अजितसरिया

किसी भी देश या प्रदेश की भाषा सस्कृति पर उसके नागरिक हमेशा गौरव करतें है l यह भाषा ही है जो एक पूरी जाति को जिन्दा रखती है l इसमें कोई दो राय नहीं है कि एक आम असमिया अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति को लेकर बेहद सगज है l इसका उदहारण हमें बिहू के दिनों में मिले जाएगा, जब सात दिनों तक पूरी रात यहाँ के लोग असम के जातिय उत्सव बिहू का आनंद लेतें है l  देश में कही भी यह नजारा शायद देखने को नहीं मिलेगा l यह असम ही है, जहाँ उत्सवों और त्योहारों को बड़ी संवेदनशीलता और निष्ठा पूर्वक मनाया जाता है l असम में भाषा और संस्कृति को सम्मान देने या दिलाने वालों की असम में पूजा होती है, चाहे वह कोई भी जाति का हो l इतिहास गवाह है, जब अनासमिया लोगों ने असमिया भाषा संस्कृति के उतरोत्तर प्रगति के लिए कार्य किया था l यह सिलसिला आज भी रुका नहीं है l इसके बावजूद भी असम में रहने वाली जाति-जन्गोष्ठियों के बीच आपसी सघर्ष हमेशा से रहा है l यह भी देखने में आया है कि असम में रहने वाले विभिन्न समुदायों को भी इस संघर्ष का खामियाजा भुगतना पड़ा है l जब भी आपसी संघर्ष होता है, जाति-भाषा और संस्कृति की बातें ही उभर कर आती है l किसी भी जाति के प्रति असम्मान जताने वाले को कोई कभी माफ़ नहीं करता l असमिया पुनर्जागरण कहलाने वाला आन्दोलन- असम आन्दोलन के समय जब प्रतिवाद जुलुस वगैरह निकलते थे, तब ढोल नगाड़ों के साथ असमिया गीतों को आन्दोलनकारी गाते थें l उस समय ऐसा लगता तथा कि यह आन्दोलन असमिया चेतना तो जगायेगा ही, साथ ही असम असमिया और उसके तमाम पदार्थों को देश के साथ परिचय जरुर करवाएगा l उस आन्दोलन को चलाने वालें नेताओं ने जैसे जेल जाने की कसम खा रखी थी l नमक आन्दोलन और अहिंसक सत्याग्रह से पहले जब, जब महात्मा गाँधी ने अंग्रेजो के खिलाफ आन्दोलन किया, तब उनके साथ कुछ मुट्ठी भर लोग थे, पर जब नतीजे आने लगें, तब पूरा देश उनके साथ हो गया l हजारों-लाखों लोग जेल गए और हजारों ने हसते-हसते कुबनियाँ दी l असम आन्दोलन के समय भी कुछ ऐसा ही नजारा था l बड़ी सुबह आन्दोलनकारी किसी एसडियो या उपायुक्त के कार्यालय के सामने जमा हो जाते थें, और वहां का काम पूरी तरह से बाधित कर देतें थें l पुलिस उन्हें सुबह शांति भंग करने के इल्जाम में पकड़ कर ले जाती थी और शाम को फिर छोड़ देती थी l यह सिलसिला लगातार चलता रहा, जिसका नतीजा यह निकला कि सन 1985 में असम समझोता हुवा और आन्दोलन समाप्ति की घोषणा हुई l यह एक सत्ता की लड़ाई नहीं थी, बल्कि उस सम्मान के लिए थी, जिसकी चाह हर एक स्वतंत्र व्यक्ति या समाज को होती है l सर्व-भारतीय स्तर पर असमिया लोगों को पहचाना जाने लगा और वे भी उच्च पढाई के लिए देश के बड़े संस्थानों में नाम-भर्ती लेने लगें l जब आन्दोलन समाप्त हुवा और आन्दोलन कारियों के नेतृत्व ने एक सरकार बनी, तब वह समय असम के लिए एक सुनहरा सवेरा था, जो एक नई किरण ले कर आने वाला था l बड़ी संख्या में लोगों को यह लगने लगा था कि असम एक नई बुलंदी पर पहुचने वाला है l अथिक रूप से पिछड़े हुए लोगों को, जिन्होंने अपनी प्राणों की आहुति दी थी, असम आन्दोलन में, उन्हें लगने लगा था कि असमिया भाषा संस्कृति अब एक नई उचाईयों  तक जाएगी,  
इस अनुभव के साथ कि असम के लोगों ने पहले भी असमिया अस्मिता के लिए कई आन्दोलन लड़ चुके थे l इस बार बारी थी, राजनैतिक भागीदारी के साथ विकास करने की l एक पुनर्निर्माण का मौका आया था, असमिया लोगों के लिए l जब विकास के अवसर आतें है, तब उस अवसर के साथ तमाम तरह की जटिलतायें भी आती है l कुछ प्रश्न उनुतरित रह जातें है l शायद उन्ही प्रश्नों के उत्तर देने के लिए आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर शुक्रवार को गुवाहाटी आये थे l उल्फा के वार्ता समर्थक गुट के सदस्य और संस्थापक महासचिव अनूप चेतिया द्वारा आहूत सम्मलेन में श्री श्री का भाषण उन प्रश्नों का उत्तर दे रहा था, जिनको कभी असम आन्दोलन के समय उठाया गया था तो कभी उल्फा के सशस्त्र आन्दोलन के समय l सवाल एक ही था कि असम के भूमिपुत्रों के अधिकारों की रक्षा कैसे की जाये l आज भी जब अनूप चेतिया जब यह सम्मलेन कर रहे थे, तब भी उस का शीर्षक था, ‘विविधता में शक्ति: उत्तर पूर्व के मूल नागरिकों का सम्मलेन’ l असमिया अस्मिता का प्रश्न बार बार इसलिए भी आता है क्योंकि एक आम असमिया शायद किसी हीन ग्रंथि से बाधित भी है l वह सिलापथार और नोगांव जैसे कांडों से उद्वेलित भी हो जाता है l बार बार होने वले हादसे इस शोर को और तेज करते है कि असमिया भूमि पर किन्ही बाहर के लोगों को हक़ नहीं ज़माने देंगे l काल्पनिक दावों और बडबोलेपन से सामाज में व्याप्त आपसी सोहार्द को कितनी चोट लग रही है, इस बात को वे लोगो नहीं समझते, जो इस तर्क को हवा देतें है l लगभग 50 वर्षों से विदेशी लोगों ने यहाँ की आबो-हवा ले कर अपनी एक सत्ता कायम कर ली है l यहाँ के लोग लगातार उनके शिकार बनते जा रहें है, चाहे वह राजनैतिक दृष्टिकोण से हो या फिर धराशाई होती सांस्कृतिक चेतना हो l दलीय दृष्टिकोण और आपसी मतभेद ने इस राज्य का सबसे बड़ा नुकसान किया है l नहीं तो गावं में रहन वाले भोले-भले गरीब लोगों के लिए रोजगार के उचित संसाधन अब तक बन चुके होते l पर बार बार प्रतिक्रिया देते देते, असमिया अस्मिता के मूल प्रश्न के जबाब ढूंढने में पुरे 37 वर्ष लग गए, और राज्य पर संकट के बादल यूँ ही मंडराते रहे, चाहे वे कसी भी रूप में क्यों ना हो l कभी चीन द्वार ब्रह्मपुत्र पर बाँध बनाने को लेकर तो कभी निचली सुबंसरी विद्युत प्रकल्प को लेकर तो कभी कोकराझार दंगे को लेकर l बार बार हिंसा और प्रतिरोध हमें पीछे की और ढकेल रहे है l सामाजिक मोनोवृतियाँ कुछ ऐसी है कि सब कुछ स्वत: स्फूर्त घटित हो जाता है l सिलापथार और नोगांव काण्ड पर कई लोगों ने राजनीति भी की है l और असम की मुलभुत समस्याएं यूँ ही मुहं बाएं खड़ी रही l

इन सबके बीच, यह कहा जायेगा कि भारतीय समाज की श्रेष्ठम उपलब्धियां अगर गिनी गए, तब उसमे से पाएंगे कि सदियों से यहाँ एक जीवंत सस्कृति है, जिसका आधार एक सामाजिक तानाबाना है l यह तानाबाना हमें एक दुसरे से जोड़े हुए रखता है l असम में रहने वाली जातियां, जन्गोष्ठियाँ और विभिन्न समुदायों के बीच सोहार्द कैसे हो, जिससे सभी को एक सामान विकास के अवसर मिले, यह एक मूल प्रश्न होना चाहिये l       

Sunday, September 3, 2017

जब शासन हमें निराश करता है
रवि अजितसरिया

भारत एक लोकतांत्रिक देश है l यहाँ जनता हर पांच वर्षों में एक नई सरकार को चुनती है l चुनी हुई सरकार संविधान में वर्णित और जनता को प्रदत अधिकारों के क्रियान्वयन के लिए, जिसमे जानमाल की सुरक्षा, रोजगार और आम लोगों के हितों की रक्षा करने का वचन मुख्य रूप से रहता है, सत्ता सँभालने के समय शपथ लेती है l यह क्रिया पिछले सत्तर वर्षों से आजाद भारत में चल रही है l भारत की जीवनधारा को सँभालने के लिए, नौकरशाहों की एक बड़ी फौज देश के कौने-कौने में कार्यरत है l देश में कानून और न्याय का राज हो, इसके लिए देश में एक पूरी व्यवस्था बनी हुई है, जो देश के हर नागरिक को शासन के प्रति आस्था का अनुभव करवाता है l पिछले कुछ वर्षों में देश में विद्वेष, विरोध और टांग खिंचाई की राजनीति और सत्ताधारियों में आपस में संघर्ष ने आम आदमी का ना सिर्फ विश्वास तोडा है, बल्कि उसका उन तमाम चीजों से विश्वास उठाने लगा है, जिन्हें वह लोकतंत्र का स्तम्भ मानता था l जब देश आजाद हुवा था, तब अंग्रेजों ने कठाक्ष किया था कि देश लुटेरों के हाथों में चला जायेगा और चारो और अरज़कता फ़ैल जाएगी l देश आज आज़ादी के सत्तर वर्षों बाद भी एक अराजक स्थिति में है l चारों और अविश्वास, अशांति, आरोप, प्रत्यारोप l कौन किस पर विश्वास करे l शासन में रहने वाले लोगों को हम सरकार कहतें है l उनके प्रति कृत्यों को हम सूक्षमता से आंकलन करतें है l शासन के लोगों का आम लोगों के प्रति नजरिया, उनका तरीका और उनकी मांग, आम आदमी को प्रभावित करती है l मसलन एक सड़क टूटी हुई है, आम आदमी उसको ठीक करवाने के लिए मांग करता रहता है, फिर भी वर्षों तक सड़क ठीक नहीं होती है l एक दिन सड़क पर ठेकदार काम करने के लिए आतें है और घटिया सड़क बना कर चले जातें है, जो कुछ ही दिनों में दुबारा टूट जाती है l असम में जब तटबंध बने थे, तब यह आशा की जा रही थी कि इस बार कार्य अच्छा हुवा है, पर हाल ही में आई बाढ़ ने सभी तटबंधों को अपने में समा लिया है l जब शासन में बैठे लोग ही अपनी ड्यूटी ठीक से नहीं निभाते, तब आम आदमी तो बहकेगा ही l एक चुनी हुई सरकार के लिए क्या जिम्मेवारियां है, यह उसे बताने की आवश्यकता नहीं है, .. उसे पहले से ही पता है कि उसे क्या करना चाहिये l अभी दो दिनों पहले ही व्हात्सप पर एक विडियो वायरल हुवा था, जिसमे एक राज्य के मुख्यमंत्री ऐसे कई शिकायतकर्ताओं को फ़ोन कर रहें थे, जिन्होंने मुख्यमंत्री हेल्पलाइन पर शिकायत की थी l यह एक बड़ा जनसंपर्क अभियान था l अपने आप संपन्न होने वाली तमाम प्रशासनिक गतिविधियाँ, जिसमे शिकायतों का निबटारा, विकासमूलक कार्य, इत्यादि, मानों रुक सी गयी है, नहीं तो एक शिकायतकर्ता को मुख्यमंत्री तक शिकायत पहुचाने की जरुरत क्यों पड़ी l उनके नीचे बने हुए तंत्र, जब शिकायतकर्ताओं की शिकायतों का निबटारा करने में असक्षम रहतें है, तब आम आदमी के पाद मुख्यमंत्री के समक्ष गुहार लगाने के अलावा कोई और रास्ता नजर नहीं आता l कल्पना कीजिये कि त्रिपुरा में एक सड़क बनाने के लिए देश के प्रधानमंत्री को आधी रात को एक इंजीनियर को फ़ोन करना पड़ा था l  
रोजाना हजारों शिकायतें पीएमओ तक पहुचती है, क्योंकि लोगों को न्याय नहीं मिलता l राम रहीम के मामले में भी प्रशासन से भारी चुक हुई थी  जिसका खामियाजा आम आदमी को अपनी जान दे कर चुकाना पड़ा l हम भारतवासी एक ऐसे समाज का हिस्सा है, जहाँ अभी भी सामंतवादी ताकतें, हमें प्रभावित करती है l गली के एक छोटे से नेता भी अपने आप को आम आदमी से उपर समझतें है l समस्या तब और बढ़ जाती है, जब उन नेताओं के सरकारी काम आम आदमी से जल्दी निबट जातें है और वे अपने आप को सिस्टम का हिस्सा बताने लागतें है l यहाँ आ कर आम आदमी का सिस्टम से विश्वास उठने लगता है l सफल्र और धनवान, ताकतवर और प्रभावशाली, पार्टी इन पावर, मानों सिस्टम का हिस्सा बनकर आम आदमी को बोना बना देता है l ये सभी चीजें आम आदमी को प्रभावित करती है l परिवर्तन के नाम पर आने वाली सरकारें, जब अपनी समस्त उर्जा अपने आंतरिक मसलों को सुलझाने में लगा देगी, तब वह विकास के कार्यों में कहाँ ध्यान दे पाएगी l देश एक संक्रमण काल से गुजर रहा है l इस बीच के काल में बहुत कुछ उल्टा-पुल्टा होने की संभावनाएं है l जातिवाद और साम्प्रदायिकता की दुकानें चलाने वालों की दुकाने बंद करवाने की जरुरत है l अंधविश्वास की जड़े भारत में इतनी गहरी है कि उखाड़े नहीं उखड़ती है l हम भले ही आधुनिक पौशाक पहन कर नए ज़माने के बन जाये, पर हमारी सोच को कौन बदलेगा l हमारे शासकों में आम लोगों के प्रति जो सामंती नजरिया है, उसे कौन बदलेगा l वोट बैंक की राजनीति का संपोषण करने वाले नेता हमें बार-बार अठारवी सदी की और ले जाती है l आखिर आम जनता बार बार बलिदान क्यों दे l क्यों वह सिस्टम को बदलने के लिए आन्दोलन करता है l क्या आम आदमी का एक मात्र रोल हर पांच वर्षों में वोट देना ही है ?
देश में एक निर्णायक व्यवस्था अभी भी कायम है l न्यायलय, जिसके पास जाने के अलावा अब आम आदमी के पास कोई चारा नहीं है l राम रहीम के मामले में भी जब शासन व्यवस्था चरमरा गई थी, तब उच्च न्यायालय ने कानून व्यवस्था को लेकर हरियाणा सरकार को फटकार लगाईं थी l जब समस्त शक्तियां जनता में निहित है, तब फिर यह कैसा असंतोष , फिर यह कैसा रोना-पीटना l वर्तमान लोकतंत्र में सरकारी सिस्टम किस तरह कार्य करता है, देश के आम नागरिक पूरी तरह से समझ चुके है, पर दमघोंटू परिस्थितियों और बदले की तुच्छ राजनीति होने के कारण, आम जनता चुप रहने पर विवश है l अब यह देखना है कि  देश के अंतिम व्यक्ति को इज्जत से दो जून की रोटी कब नसीब होगी l