स्वतंत्रता इरोम शर्मीला की
नजरों से
रवि अजितसरिया
मणिपुर की सामाजिक
कार्यकर्ता इरोम शर्मीला ने जब 9 अगस्त को अपना 16 वर्षीय पूरा अनशन तोड़ा, तब
उन्होंने कहा कि वे इतने दिनों तक अपने विवेक की बंदी थी, और अब वे एक स्वतंत्र
नागरिक की तरह जीना चाहती है l अपने आप से अंतर कलह से निकल कर अब वे शादी करना
चाहती है और चुनाव लड़, मणिपुर की मुख्यमंत्री बन कर, अफस्पा हटवाना चाहती है l 44
वर्षीय, मणिपुर की नागरिक अधिकार की कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मीला पिछले 16 वर्षों
से मणिपुर में सशस्त्र बल(विशेष अधिकार) अधिनियम 1958 के मणिपुर में लगाए जाने के
विरोध में भूख हड़ताल पर बैठी थी l एक दशक से पूर्वोत्तर भारत का मणिपुर राज्य
उग्रवाद से प्रभावित है, जिसकी वजह से हुई हिंसा में लगभग 6 हज़ार लोग अब तक मारे
गएँ है l शर्मीला भी अपने आप विवेक से स्वतंत्र हो कर वे सब करना चाहती है जिसके
लिए उन्होंने भूख हड़ताल शुरू की थी l एक लोकतांत्रिक तरीके से l स्वतंत्रता के बड़े
मायने होतें है l जब अंग्रेजों ने भारत पर शासन शुरू किया था, तब भारतीय शासक आपस
में लड़ रहें थे, जिसका फायदा मुगलों ने भी खूब उठाया, और उसके बाद अंग्रेजों ने, और
उपयोग किया उस समय को, अपनी सत्ता के विस्तार के लिए l मणिपुर के आज के हालात कुछ उस
समय के भारत के जैसे बने हुए है, आपसी कलह, कट्टरवाद, जातिवाद और सत्ता की लड़ाई
इतनी चरम तक पहुच गयी है कि राज्य का विकास लगभग रुक सा गया है l नई सामजिक
समस्याएं खड़ी हो गयी है l बेरोजगारी, ड्रग्स और गुटबाजी में वहां के युवा इस तरह
से फँस गएँ है कि अब लौटना लगभग मुश्किल हो चूका है l लोग आपस में लड़ रहें है l
उग्रवादियों के हौसलें बुलंद है, प्रशासन एक मूक दर्शक की भांति है l और यह सब
किसके लिए- स्वतंत्रता के लिए l अगर हम मणिपुर के इतिहास को खंगाले, तब पाएँगे कि
मणिपुर भूमि एक समृद्ध भारतीय संस्कृति की वाहक थी, जिसका गुणगान इतिहास आज भी कर
रहा है l वैष्णव धर्म के प्रचार और विस्तार में मणिपुर के लोगों की एक अहम् भूमिका
है l इतनी समृद्ध विरासत को आत्मसात किये होने के बावजूद भी आज मणिपुर में हिंसा
ने धर्म पर विजय प्राप्त कर ली है l कुछ 15 से ज्यादा सशस्त्र दल मणिपुर में
सक्रिय है, जिसकी वजह से केन्द्रीय सरकार ने वह पर अफस्पा लगा रखा है l कभी कभी
कड़े कानून एक ही देश के लोगों को अपनों से ही अलग कर देता है l एक स्वतंत्र देश
में एक राज्य इसलिए उग्रवाद से ग्रसित है क्योंकि, उनको लगता है कि उनकों अलग-थलग
किया जा रहा है l भारतीय मुख्यधारा में वे कभी भी शामिल नहीं थे l इस तरह के आरोप पूर्वोत्तर
के लोगों के मुख से कमोवेस, हर राज्य में सुनाई पड़ जायेंगे l स्वतंत्रता के लिए
लगभग हर राज्य में कुछ उग्रवादी संगठन कार्य कर रहें है l नागालैंड और असम के
विद्रोहियों के एक धड़े ने भारतीय मुख्यधारा में शामिल होने के लिए बातचीत का
रास्ता भी अपनाया है l
फिर भी स्वतंत्रता के लिए
मनुष्य क्या, हर जीव लड़ता है l पिंजरे में बंद जानवर भी आजादी पाने के लिए, अपने
नाजुक पंजों को लोहे की कठोर छड़ों पर खुरच-खुरच कर जख्मी कर लेता है l यह तो इंसान
है, जिसने आजादी के लिए बड़े-बड़े आन्दोलन कियें है l भौगोलिक और राजनैतिक आज़ादी तो
हमने पा ली है l अशिक्षा, संकीर्णता, जातिवाद से आज़ादी कौन देगा l सरकार!, इसी भ्रम
में अभी भारत के लोग जी रहें है l जो सांस्कृतिक आजादी हमें प्राप्त हुई थी, उसका
आनंद नहीं ले कर, उसको तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहें है l जो बौद्धिक स्तर हमें प्राप्त
हुवा था, उससे सिखने के बजाये, उसको नष्ट कर के, एक छद्म विचारधारा लोगों पर थोपी
जा रही है l अलग-अलग कुनबे बना कर अध्यात्म, धर्म और शिक्षा का एक आधुनिक संसार गढ़ा
जा रहा है, जिससे लोगों के विचारों और कर्मों में भयंकर मतभेद है l इन सभी सामाजिक
विफलताओं से हमें आजाद होना होगा l एकल परिवार बनाने के बावजूद यह देखा जा रहा था कि
सामाजिक तानाबाना मजबूती से बना रहेगा, पर हुवा उसका उल्टा, वैश्विकरण के प्रभाव
ने इस ताने-बाने को भी नष्ट कर के रख दिया है l देश इस समय एक संक्रमण के दौर से
गुजर रहा है l
शर्मीला ने भी अपने महिला
होने के बावजूद, एक पितृ सत्तात्मक समाज के वर्चस्व के बीच, लड़ाई लड़ने की आज़ादी
पाई l इतिहास गवाह है कि महिलाओं ने बड़े आंदोलनों को दिशा प्रदान करने में भारी
मदद की है l असम आन्दोलन इसका एक जीता-जागता उदहारण है l शर्मीला ने भी उन सभी
मतभेदों के बीच अपना आन्दोलन शुरू भी किया और अब अंत कर के अपने आन्दोलन को राजनैतिक
आज़ादी के दायरे में सीमित करेगी और अपनी सामाजिक विफलता को त्याग कर नए सिरे से अपने
विवेक से आज़ादी पा कर, जीवन को नए सिरे में बांधेगी l
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