हाशिये पर खड़ें लोगों की
सुध कौन लेगा ?
रवि अजितसरिया
एतिहासिक लाल किले की
प्राचीर से प्रधानमंत्री 15 अगस्त को कह रहे थे कि भारत के अंतिम व्यक्ति तक
पहुचना उनकी सरकार के धेय्य रहा है l यानी जितनी भी योजना बनाई जाये, उनका लाभ
बिना किसी भेद-भाव के सभी को मिले, देश के अंतिम व्यक्ति तक l इतने बड़े देश में विविधता इतनी
है कि देश व्यक्ति, समाज और वर्ग में बंट सा गया है l एक गरीब भारत और एक आमिर l
दोनों में कही भी सामंजस्य नहीं है l इसी देश में एक नागरिक एक लाख रुपये महीने
कमाता है तो दूसरा एक सौ रुपये l है, ना विविधता l सिर्फ भाषा, बोली, तीज-त्यौहार
और सस्कृति में विविधता ही नहीं बल्कि सम्पति, आय और खर्च में भी भारी विविधता,
हमें इस भारत देश में दिखाई देती है l अब सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों के
लिए योजनायें बनाई जाती है l देश ऐसे ही चलता है l समाजशास्त्रियों का मानना है कि
हाशिये पर खड़ा व्यक्ति इस कदर टूट चूका होता है कि वह अपनी बौद्धिक क्षमताओं का
बराबर इस्तेमाल करने में असमर्थ हो जाता है, और अपेक्षा भरी नजरों से सरकार की तरफ
देखने लगता है l इस समय संक्रमण काल से गुजर
रहा देश, कुछ नए और पुरानों सपनें के साथ जी रहा है l हालाँकि राजनीति के आगे सभी
नतमस्तक है, फिर भी कुछ ऐसे गूढ़ रहस्य है, जिस पर देश टिका हुवा है l समाज में
वर्षों से बने हुए तानेबाने को बाजारवाद ने तहस-नहस कर दिया है, फिर भी समाज नाम की
इकाई देश में टिकी हुई है l हर समाज में सामाजिक संस्थाओं के बड़ा जाल बिछा रहता
है, जो समाज के अस्तित्व और अस्मिता को अक्षुण्ण रखने का दावा करती है l इन
सामाजिक संस्थाओं के उद्देश्यों की और देंखे, तब पाएंगे कि ज्यादातर सामाजिक
संस्था कुछ निहित उद्देश्यों के तहत कार्य कर रही है l कुछ धार्मिक, कुछ
व्यावसायिक, कुछ अध्यात्मिक तो कुछ सामाजिक l इन सभी में एक चीज आम रहती है, और वह
है, सामाजिकता l समाज की संस्थाओं ने भी समय के साथ अपना रूप और रंग बदला है l
पुरानी संस्थाएं, अपना स्वरुप खोने लगी है l कार्य संस्कृति में भयंकर बदलाव देखने
को मिल रहें है l जिन उद्देश्यों की खातिर उन संस्थाओं का निर्माण किया गया था, वे
गौण हो गए, और सुविधावाद संस्था पर हावी होता चला गया l कुछ संस्थाओं का तो
उद्देश्य महज अख़बारों की सुर्खियाँ ही बटोरने का रह गया है l कुछ महिलाओं की
सस्थाएं ऐसी है, जो महिलाओं के अधिकारों की तो बात करती है पर जब उनके कार्यों की
समीक्षा करतें है तब पातें है कि कुछ विशेष दिनों पर वे सिर्फ किसी स्कूल या अनाथ
आश्रमों में फल और खिचड़ी बांटती दिखाई देती है l समाज के अंतिम व्यक्ति तक ये
सामजिक संस्था कभी पहुचती है कि नहीं, इस बात की समीक्षा होनी जरुरी है l अमीर और
धनाढ्य वर्ग की हितों को साधने के लिए कुछ बड़ी संस्थाएं समाज ने अनायास की कार्य
करने लगी है l
इसका प्रमाण हमें तब मिला,
जब विकसित हो रहे समाज ने, समाज उत्थान में, संस्थाओं के रोल को एक सिरे से नकार
दिया है l समाज में बड़ी होती पूंजीवाद की जड़ों ने समाज के ताने-बाने को लगभग नष्ट
दिया है l इस बड़े बदलाव की वजह है, समाज में शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार l ऐसा
प्रतीत होता है कि आज के नवयुवकों के लिए ये संस्थाएं मनोरंजन और परिचय बढ़ाने
मात्र के लिए बन गयी है l कुछ के लिए यह रुतबे की जगह है l ऐसें लोगों के लिए,
संस्था के उद्देश्य और समाज के प्रति संस्था की जबाबदेही कुछ मायने नहीं रखतें l अगर
ऐसा नहीं होता तब इन वर्षों में धड़ा-धड़ नई सामाजिक संस्थाएं नहीं खुलती, जो पहले
से बनी हुई संस्थाओं से अधिक कार्य करने का दावा करती है l एक विकसित समाज के लिए
क्या जरुरी है, इसका फैसला समाज के लोगों को करने का अधिकार है l जिन महत उद्देश्य
की खातिर उन मुश्किल दिनों में भी हमारें लोगों ने सामाजिक संस्थओं का निर्माण
किया था, वे उद्देश्य मानव सापेक्ष और वसुधैव कुटुम्बकम के फोर्मुले पर आधारित थे
l एक विलक्षण, परोपकारी, उद्यमी और साहसी कौम के लिए संगठन और उसकी विचारधारा उस
समय भी महत्वपूर्ण थी और आज भी है l फर्क यह रह गया है कि नयें आने वालें लोगों ने
अपने काम करने के तरीकों में इस तरह से बदलाव कर लिए है कि उन सिद्धांतों और
तत्वों की और किसी का ध्यान ही नहीं है l बस एक अंधी दौड़ में शामिल हो गएँ है,
जिससे संस्थओं के उद्देश्यों को भारी क्षति पहुची है l यह भी तय है कि समाज जीवन
के निर्वाह करने के तरीकों को जानने के स्त्रोत आज भी तजा किये जा सकतें है, जिसमे
गरीब और अमीर, दोनों के लिए सम्मान हो, गरिमा हो और संवेदनशीलता हो l
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