आखिर कौन है, यें हिंदी भाषी ?
पिछले अंक में हिंदी
भाषियों पर लिखने के पश्चात,एक तर्क यह निकल कर आया कि आखिर कौन यें हिंदी भाषी l
राजस्थानी मूल के लोग तो मारवाड़ी बोलते है, बिहारी मूल के भोजपुरी या मैथली में
बात करते हैं, फिर असम में हिंदी भाषी कौन हुए ? क्या ज्योंति प्रसाद अगरवाला को
भी हिंदी भाषी की संज्ञा दी जा सकती है ? इस तरह के विचार कुछ बुद्धिजीवियों ने
उठाये हैं l दरअसल में, हिंदी भाषियों के समूह में कौन से भाषा-भाषी के लोग समाहित
है, इसमें हमेशा से ही विवाद रहा हैं l जिस तरह से भारत में जातिवाद की जड़े इतनी
गहरी और हरी है कि कोई कितनी भी कौशिश कर ले, हर बार जाति का प्रश्न उभर कर आ ही
जाता हैं l सन 1985 के बाद जब, असम में एक क्षेत्रीय राजनीति का दौर शुरू हुवा, तब
भी कई मर्तबा सभी जातियों को एक छत के नीचे लाने के प्रयास हुए थे, पर कोई भी
प्रयास फलीभूत नहीं हुए और सभी जातियों को हिंदी भाषी के रूप में संज्ञा दी जाए
लगी l हिंदी भाषी बोलने पर यह समझा जाता है कि उत्तर भारत की यह बोली है, असम में
यह एक आगंतुक है l एनआरसी के समय भी जब सर्व प्रथम नियम बनाये थे, तब ओर्गिनाल्स इन्हेबितेंत
(स्थानीय)और नॉन ओर्गिनल रेजिडेंट(प्रवासी) के रूप में लोगों को चिन्हित करने का
प्रयास किया गया था, पर विवाद होने पर इसे हटा दिया था l लेकिन ऐसे हजारों लोगों
ने अपना नाम दर्ज ही नहीं करवाया, जिनकी उपाधि ही असम के स्थानीय कह कर दर्शाती
हैं l उनका यह तर्क था कि हम यहाँ के निवासी है, हमें प्रमाण देने की जरुरत क्यों
हैं l पर नियम तो नियम थे, सभी को प्रमाण देने पड़े l यह अलग बात थी कि जांच पड़ताल
कम ज्यादा की गयी थी l हिंदी भाषियों को लेकर हमेशा एक संजीदगी रही है कि यह एक
जाति कमाने आई है और कमा कर वापस चली जायेगी l स्थानीय संसधानों पर कोई इनका
अधिकार नहीं हैं l पर ऐसा नहीं हुवा l तर्क करने वाले का मंतव्य यह था कि स्थानीय
भाषा और संस्कृति को अपना कर उसकी सेवा करना, उसमे मिल जाना ही एक मानव का स्वभाव
होता है, पर उसके जींस में उत्पत्ति के स्थान के अनुवांशिक अंश मौजूद रहते है, जो
कभी भी समाप्त नहीं होते, और इसी गुण कि वजह से वें स्थानीय से अलग दिखते हैं l असम
में रहने वाले नेपाली और सिख समुदाय के लोगों ने असमिया रहन सहन और बोली को ना
सिर्फ अपनाया बल्कि उसकी भरपूर सेवा भी कर रहें हैं l इसी तरह से असम के कई
स्थानों पर मारवाड़ी और अन्य समुदायों के लोग असमिया संस्कृति में रच बस गए है l माजुली
और ढाकुवाखाना इसके उदहारण बने हुए है l ज्योति प्रसाद अगरवाला जैसा व्यक्तित्व अब
और पैदा नहीं हो सकता, जिसको कोई भी हिंदीभाषी के रूप में चिन्हित भी नहीं कर
सकता, ना कोई भाषा-भाषी इनको अलग से अपना सकता है l वे भाषा संस्कृति के हिसाब से
पूर्ण रूप से असमिया थे, जिनको लोग पूजते हैं l ऐसे महापुरुष को किसी भी भाषा में
बांधना, उनका अपमान होगा l एक विश्व मानव के रूप में प्रतिष्ठित हुए थे, ज्योति
प्रसाद अगरवाला, जिनको असमिया होने पर गर्व था l
पुरे भारतवर्ष में प्रवजन
का इतिहास बहुत पुराना है l असम में भी कौन सी जाति पहले आई, इस पर बहुत विवाद हैं
l यूँ तो असम में राजस्थान से राजपुताना इलाके से लोगों के आने का दौर शुरू हो
चूका था, पर यांदाबू संधि के पश्चात बड़ी संख्या में भाषा-भाषी के लोग असम आने लगे
थे l इसमें अंग्रेजो द्वारा बसाये हुए लोग भी शामिल है, जिन्होंने अंग्रेजों के
बेन्केर्स के रूप में भी काम किया l चाय बागानों में मुजदुरों को बसाया गया, चाय
बागानों में दुकानों की बसावट की गयी, जिनको राजस्थानी मूल के लोग चलाते थें l इसी
तरह से नौकरी और पोस्टिंग की वजह से भी लोग यहाँ बसते चले गए l कहते है कि भूमि पर
एक खिंचाव है, जो एक बार यहाँ आ जाता है, वह यही बस जाता है l सहज सरल असमिया लोगों
ने आगुन्तकों की आगवानी भी दोनों हाथों से की हैं l जो लोग यहाँ बस गए, वें यही के
हो गए, मूल प्रदेशों में उनके लिए कोई स्थान अब नहीं है l कुछ परिवारों के सभी
रिश्तेदार तक यही रहते हैं l यह तो क्षेत्रीयतावाद की आंधी ने सामाजिक तानेबाने को
ध्वंश कर दिया है, नहीं तो जाति और भाषा कभी भी किसी के आड़े नहीं आई थी l
असम में सदियों से एक
मिश्रित संस्कृति वास करती आई है l समुदायों के बीच समरसता हमेशा ही बनी रही l बस
चुनाव के समय ही थोड़ी बहुत कड़वाहट आ जाती है l पर बड़ी बात यह है कि सभी समुदाय शांति से वास कर रहे
हैं l अच्छी बात यह भी है कि सभी के लिए अलग अलग स्थान और जगह बनी हुई हैं l राजनीति कभी भी समुदायों के बीच बने हुए मधुर और आत्मीय
संबधों को विच्छेद नहीं कर सकती l
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